भाषा का अधिगम एवं अर्जन |अधिगम की अवधारणा| जीन पियाजे का परिप्रेक्ष्य Learning and Acquisition of Language

 भाषा का अधिगम एवं अर्जन  अधिगम की अवधारणा

भाषा का अधिगम एवं अर्जन |अधिगम की अवधारणा| जीन पियाजे का परिप्रेक्ष्य  Learning and Acquisition of Language



अधिगम की अवधारणा Concept of Learning

 

  • अधिगम का तात्पर्य होता है सीखना एवं अर्जन का तात्पर्य है अर्जित करना। 
  • किसी भी प्रकार के अधिगम की प्रक्रिया जीवनभर चलती रहती है। भाषा के सन्दर्भ में भी यह बात लागू होती है, किन्तु जहाँ अन्य प्रकार के ज्ञान का अधिगम अनायास भी सम्भव है, वहीं भाषा का अधिगम स्वयं के प्रयासों तथा इसे सीख सकने वाली वातावरणजन्य परिस्थितियों में ही सम्भव होता है, इसलिए भाषा को अर्जित सम्पत्ति कहा गया है। 
  • भाषा का अर्जन अनुकरण द्वारा होता है। बालक अपने वातावरण में जिस प्रकार लोगों को बोलते हुए सुनता है, लिखता हुआ देखता है, उसे ही अनुकरण द्वारा सीखने का प्रयास करता है। 
  • बालक जिस परिवेश में रह रहा है, वहाँ के अधिकतर लोगों की भाषा यदि अशुद्ध है, तो बालक के अशुद्ध भाषा सीखने की सम्भावना अधिक होती है। 
  • अधिगम व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास में सहायक होता है। इसके द्वारा जीवन के लक्ष्यों को प्राप्त करने में सहायता मिलती है। 
  • अधिगम के बाद व्यक्ति स्वयं और दुनिया को समझने के योग्य हो पाता है। 
  • रटकर विषय-वस्तु को याद करने को अधिगम नहीं कहा जा सकता। यदि छात्र किसी विषय-वस्तु के ज्ञान के आधार पर कुछ परिवर्तन करने एवं उत्पादन करने अर्थात् ज्ञान का व्यावहारिक प्रयोग करने में सक्षम हो गया हो, तभी उसके सीखने की प्रक्रिया को अधिगम के अन्तर्गत रखा जा सकता है। 
  • सार्थक अधिगम ठोस चीजों एवं मानसिक द्योतकों को प्रस्तुत करने व उनमें बदलाव लाने की उत्पादक प्रक्रिया है न कि जानकारी इकट्ठा कर उसे रटने की प्रक्रिया ।


अधिगम की परिभाषा 

गेट्स के अनुसार, "अनुभव द्वारा व्यवहार में रूपान्तर लाना ही अधिगम है।" 


ई. ए. पील के अनुसार, "अधिगम व्यक्ति में एक परिवर्तन है, जो उसके वातावरण के परिवर्तनों के अनुसरण में होता है।"),

 

क्रो एवं क्रो के अनुसार, "सीखना आदतों, ज्ञान एवं अभिवृत्तियों का अर्जन है। इसमें कार्यों को करने के नवीन तरीके सम्मिलित हैं और इसकी शुरुआत व्यक्ति द्वारा किसी भी बाधा को दूर करने अथवा नवीन परिस्थितियों में अपने समायोजन को लेकर होती है। इसके माध्यम से व्यवहार में उत्तरोत्तर परिवर्तन होता रहता है। यह व्यक्ति को अपने अभिप्राय अथवा लक्ष्य को पाने में समर्थ बनाती है।"

 

अधिगम अवधारणा 

सभी बच्चे स्वभाव से ही सीखने के लिए प्रेरित रहते हैं और उनमें सीखने की क्षमता होती है। 

बच्चे मानसिक रूप से तैयार हों, उससे पहले ही उन्हें पढ़ा देना, बाद की अवस्थाओं में उनमें सीखने की प्रवृत्ति को प्रभावित करता है। उन्हें बहुत से तथ्य याद' तो रह सकते हैं लेकिन सम्भव है कि वे न तो उन्हें समझ पाएँ, न ही उन्हें अपने आस-पास की दुनिया से जोड़ पाएँ। 

स्कूल के भीतर और बाहर, दोनों जगहों पर सीखने की प्रक्रिया चलती रहती है। इन दोनों जगहों में यदि सम्बन्ध रहे, तो सीखने की प्रक्रिया पुष्ट होती है। 

सीखना किसी की मध्यस्थता या उसके बिना भी हो सकता है। प्रत्यक्ष रूप से सीखने से सामाजिक सन्दर्भ व संवाद विशेषकर अधिक सक्षम लोगों से संवाद विद्यार्थियों को उनके स्वयं के उच्च संज्ञानात्मक स्तर पर कार्य करने का मौका देते हैं। 

सीखने की एक उचित गति होनी चाहिए ताकि विद्यार्थी अवधारणाओं को रटकर और परीक्षा के बाद सीखे हुए को भूल न जाएँ बल्कि उसे समझ सकें और आत्मसात कर सकें। साथ ही सीखने में विविधता व चुनौतियाँ होनी चाहिए ताकि वह बच्चों को रोचक लगें और उन्हें व्यस्त रख सके। ऊब महसूस होना इस बात का संकेत है कि वह कार्य बच्चा अब यान्त्रिक रूप से दोहरा रहा है और उसका संज्ञानात्मक मूल्य खत्म हो गया है। 

भाषा का तात्पर्य भाषायी योग्यता

भाषा का विकास एक प्रकार का संज्ञानात्मक विकास ही है। मानसिक योग्यता की इसमें भूमिका होती है। 

भाषा का तात्पर्य होता है वह सांकेतिक साधन, जिसके माध्यम से बालक अपने विचारों एवं भावों का सम्प्रेषण करता है तथा दूसरों के विचारों एवं भावों को समझता है। भाषायी योग्यता के अन्तर्गत मौखिक अभिव्यक्ति, सांकेतिक अभिव्यक्ति, लिखित अभिव्यक्ति शामिल हैं। 

 भाषायी योग्यता एक कौशल है, जिसे अर्जित किया जाता है। इस कौशल को अर्जित करने की प्रक्रिया बालक के जन्म के साथ ही प्रारम्भ हो जाती है। 

अनुकरण, वातावरण के साथ अनुक्रिया तथा शारीरिक, सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं की पूर्ति की माँग भाषायी योग्यता के विकास में विशेष भूमिका निभाती है। 

भाषायी योग्यता का विकास बालक में धीरे-धीरे एक निश्चित क्रम में होता है।-

  • जन्म से लेकर आठ माह तक बालक को किसी शब्द की जानकारी नहीं होती। 
  • 9 माह से 12 माह के बीच बालक तीन या चार शब्दों को समझने लगता है। डेढ़ वर्ष के भीतर बालक को 10 से 12 शब्दों की जानकारी हो जाती है।
  • 2 वर्ष की आयु तक बालक दो सौ से अधिक शब्दों को सीख जाता है। 
  • तीन वर्ष के भीतर बालक लगभग एक हजार शब्दों को समझने लगता है।
  • बालक में भाषायी विकास निरन्तर होते रहते हैं और 16 वर्ष की आयु तक बालक लगभग एक लाख शब्दों को समझने की योग्यता विकसित कर लेता है।

 भाषायी विकास की प्रक्रिया

  • भाषायी विकास की प्रक्रिया में लिखने एवं पढ़ने का भी ज्ञान उसमें धीरे-धीरे ही होता है। बाल्यवस्था में वह धीरे-धीरे एक-एक शब्द को पढ़ता एवं लिखता है, उसके बाद उसके इन कौशलों में गति आती जाती है। 
  • शिक्षकों को भाषा के विकास की प्रक्रिया का सही ज्ञान होना इसलिए अनिवार्य हैक्योंकि इसी के आधार पर बालक की भाषा से सम्बन्धित समस्याएँ जैसे- अस्पष्ट मा उच्चारण, गलत उच्चारण, तुतलाना, हकलाना, तीव्र अस्पष्ट वाणी इत्यादि का समाधान कर सकता है। 
  • बालक की शिक्षा में लिखने, पढ़ने एवं बोलने की योग्यता सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होती है। इन सभी योग्यताओं के विकास में भाषा के विकास की प्रक्रिया का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। इसलिए इसकी जानकारी शिक्षकों को अवश्य होनी चाहिए।

 

भाषा का अधिगम एवं अर्जन Learning and Acquisition of Language

 

  • यह बात रहस्य ही बनी हुई है कि आखिर अत्यन्त कम उम्र के बावजूद बच्चा जटिल भाषिक व्यवस्था को कैसे समझ लेता है। कई बच्चे तीन या चार वर्ष के होते-होते न केवल एक, बल्कि दो या तीन भाषाओं का धीरे-धीरे प्रवाह में प्रयोग करना सीख जाते हैं। यही नहीं, वे दिए गए सन्दर्भ में भी उपयुक्त भाषा का प्रयोग करते हैं। इसका अर्थ है वे अपने भाषिक तन्त्रों को अलग रखने की क्षमता तो ग्रहण कर लेते हैं लेकिन साथ ही वे इन्हें मिलाना भी जानते हैं जब वे मिलाने की इच्छा करते हैं।

 

  • बालकों के भाषा सीखने के सन्दर्भ में व्यवहारवादी मनोवैज्ञानिकों जैसे- पावलॉव और स्किनर ने कहा कि अभ्यास, नकल व रटने से भाषा की क्षमता प्राप्त होती है, किन्तु चॉम्स्की (1959) ने अपने 'रिव्यू ऑफ स्किनर्स वर्बल बिहेवियर' द्वारा व्यवहारवाद की बुनियाद को ही हिला कर रख दिया। उन्होंने तर्क देते हुए कहा कि भाषिक क्षमता जन्मजात ही होती है, वरना भाषिक व्यवस्था को सीखने की प्रवृत्ति सम्भव नहीं हो सकती।

 

  • पियाजे और वाइगोत्स्की जैसे मनोवैज्ञानिकों ने उपरोक्त दोनों ही अतिवादी दृष्टिकोणों के बीच का रास्ता चुना। जहाँ व्यवहारवादियों के लिए मस्तिष्क एक 'कोरी स्लेट' जैसा था, वहाँ संज्ञानात्मक रुख रखने वालों (चॉम्स्की आदि) के लिए भाषा मानव मस्तिष्क में पहले से ही विद्यमान थी, सार्वभौम व्याकरण के रूप में बुनी हुई।

 

  • पियाजे के अनुसार भाषा अन्य संज्ञानात्मक तन्त्रों की भाँति परिवेश के साथ अन्तः क्रिया के माध्यम से ही विकसित होती है। दूसरी ओर वाइगोत्स्की के अनुसार, बच्चे की भाषा समाज के साथ सम्पर्क का ही परिणाम है, साथ ही बच्चा अपनी भाषा के विकास के दौरान दो तरह की बोली बोलता है: पहली आत्मकेन्द्रित और दूसरी सामाजिक।

 

  • आत्मोन्मुख भाषा के माध्यम से बालक खुद से संवाद करता है, जबकि सामाजिक भाषा के माध्यम से वह शेष सारी दुनिया से संवाद स्थापित करता है। यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि पियाजे और वाइगोत्स्की दोनों ने वास्तव में बच्चों के साथ काम किया था और उनके संज्ञानात्मक विकास की प्रक्रिया को बड़ी ही सूक्ष्मता से विश्लेषित करते हुए अपने सिद्धान्त विकसित किए थे। उदाहरण के लिए, वाइगोत्स्की ने यह देखा कि छोटे बच्चे न केवल स्वयं का सामाजिक रूप से रचित भाषा तन्त्र विकसित कर लेते हैं बल्कि काफी जटिल पूर्व लेखन तन्त्र भी। समय के साथ उन्हें जरूरत होती है जटिल वाचिक तन्त्र विकसित करने की ताकि वे विश्व के साथ अन्तःक्रिया करने हेतु अपना खजाना जोड़ सकें।

 

  • चूँकि बच्चे अच्छी खासी विकसित भाषिक व्यवस्था के साथ ही स्कूल आते हैं, इसलिए इसे ध्यान में रखते हुए ही स्कूली पाठ्यचर्या में भाषा शिक्षण के उद्देश्य तय किए जाने चाहिए। सबसे महत्त्वपूर्ण लक्ष्य बच्चे को इस प्रकार से साक्षर बनाना है कि बच्चा समझने के साथ पढ़ने व लिखने की क्षमता हासिल कर सके। साथ ही द्विभाषिकता और पराभाषिक चेतना को बढ़ावा देना हमारा प्रयास होना चाहिए। साथ ही विद्यार्थियों में विनम्रता व नम्यता की क्षमता विकसित करना जरूरी है ताकि वे सभी प्रकार की स्थितियों में सहिष्णुता व आत्मसम्मान के साथ संवाद स्थापित करने की क्षमता प्राप्त कर सकें।

 

भाषा के अधिगम एवं अर्जन के सन्दर्भ में जीन पियाजे का परिप्रेक्ष्य 

Concept of Jean Piaget in Relation of Learning and Acquisition of Language

 

  • जब भी भाषा सीखने की प्रवृत्ति पर बात हो तो वहाँ चॉम्स्की की मानसिक धारणा का बहुत प्रभाव दिखलाई पड़ता है, लेकिन शिक्षा के क्षेत्र में पियाजे सर्वाधिक प्रभावकारी साबित हुए। सभी बच्चे संज्ञानात्मक विकास के पूर्व-ऑपरेशनल, कन्वर्ट ऑपरेशनल और फॉर्मल ऑपरेशनल चरणों से गुजरते हैं। इस धारणा ने सम्पूर्ण शिक्षाशास्त्रीय विमर्श पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव डाला।

 

  • चॉम्स्की के अनुसार, भाषा सीखे जाने के क्रम में वैज्ञानिक पड़ताल भी साथ-साथ चलती रहती है। इस अवधारणा से आँकड़ों का अवलोकन, वर्गीकरण, संकल्पना निर्माण व उनका सत्यापन अथवा असत्यता और इस धारणा का शिक्षा शास्त्र के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान लिया जा सकता था, किन्तु पियाजे जन्मजात भाषिक क्षमता वाली संकल्पना से सहमत नहीं हुए। उनके निर्माणवादी दृष्टिकोण के  अनुसार सभी ज्ञान-तन्त्र सेंसरी मोटर मेकैनिज्म के माध्यम से निर्मित होते हैं जिसमें बच्चा आत्मसातीकरण और समायोजन के माध्यम से कई रूपरेखाएँ बनाता जाता है।

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