ग्वालियर क्षेत्र की भौगोलिक संरचना, Gwalior Geography and History
ग्वालियर
क्षेत्र की भौगोलिक संरचना
किसी भी क्षेत्र
का इतिहास और उस क्षेत्र में घटने वाली घटनाओं का सीधा सम्बन्ध वहाँ की भौगोलिक
पृष्ठभूमि से होता है क्योंकि उस क्षेत्र की भौगोलिक परिस्थितियाँ, क्षेत्रीय
जन-जीवन, रहन-सहन, खान-पान, विचार और यहाँ तक
की उस क्षेत्र में घटने वाली घटनाओं को भी प्रभावित करती हैं, अस्तु ग्वालियर
क्षेत्र के इतिहास के समझने से पहले हमें यहाँ के भौगोलिक परिवेश को जानना अति
आवश्यक है।
भारत के हृदय
स्थल पर बसे मध्यप्रदेश राज्य के नाम से चिन्हित राज्य के शिरोभाग में ग्वालियर क्षेत्र मुकुट
मणि की तरह शोभित है।
प्राकृतिक संरचना के आधार पर ग्वालियर क्षेत्र को मुख्य रूप
से दो भागों में बाँटा गया है-
उत्तरी भाग
मालवा क्षेत्र
1. ग्वालियर क्षेत्र उत्तरी भाग
उत्तरी भाग को ग्वालियर प्रान्त भी
कहा जाता है। इसका क्षेत्रफल लगभग 17020 वर्गमील है। यह
उत्तरी भाग 23°-30° और 26°-49° उत्तरी अंक्षाश रेखाओं एवं 76°-6° और 76°-79°
पूर्वी देशान्तर रेखाओं
के बीच स्थित है।
2. मालवा क्षेत्र
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मालवा क्षेत्र, 21° अक्षांश से 26° उत्तरी अक्षांश और 74°
पूर्वी देशान्तर से 79° पूर्वी देशान्तर तक स्थित है। इस क्षेत्र की सीमा पूर्वी
दिशा में बेतवा नदी तथा उत्तर-पश्चिमी सीमा का निर्धारण चम्बल नदी करती हैं।
मालवा
क्षेत्र के पश्चिम में स्थित दलदल प्रदेश और बागड़ के प्रदेश इस क्षेत्र को
राजपूताना तथा गुजरात से अलग करते हैं वहीं दूसरी ओर उत्तर-पश्चिम में इस क्षेत्र
की सीमाएँ हाड़ौती प्रदेश तक पहुँचती हैं। मालवा के दक्षिण-पूर्व में बुन्देलखण्ड
और गोंडवाना प्रदेश है तथा दक्षिण के पठार की ओर विन्ध्याचल पर्वत की श्रृंखलाएँ
फैली हुई हैं।
भौगोलिक आधार पर
ग्वालियर क्षेत्र को तीन भागों में बाँटा जा सकता है-
मैदानी भाग
समतल भाग,
पहाड़ी भाग।
इस क्षेत्र में मैदानी, ऊँची-नीची, समतल एवं पहाड़ी
भाग सभी शामिल है। मैदानी भाग का क्षेत्रफल लगभग 5884 वर्गमील हैं जिसमें ग्वालियर, भिण्ड, तँवरघार तथा
श्योपुर के जिले आते हैं।
ग्वालियर क्षेत्र के पहाड़ी प्रदेशों में विदिशा, शाजापुर, उज्जैन और
सरदारपुर जिले शामिल हैं। इन जिलों के दक्षिण में विन्ध्याचल पर्वत की पहाड़ियों
के कुछ भाग भी शामिल है जिनका क्षेत्रफल लगभग 1301 वर्गमील है। विवेच्य क्षेत्र
में कहीं ऊँचे पहाड़ और कहीं घने जंगल भी हैं।
मंदसौर जिले में सिंगोली, रतनगढ़, नीमच, जावद और शाजापुर
के पड़ौद तथा शिवपुरी जिला ऊँचे पहाड़ों वाले क्षेत्रों से चिन्हित हैं।
पौराणिक
व्याख्या में इसे पारियात्र राज्य के रूप में पहचाना गया है। बौधायन ने (1.125)
में इस क्षेत्र को वैदिक और अवैदिक धारा से जुड़े भू-भागों के बीच स्थित बताया है।
अर्थात् ग्वालियर क्षेत्र को आटविक राज्य तथा वैदिक धारा से अलग मानते हुए स्पष्ट
किया है कि इस वन्य राज्य के उत्तर में चेदिदेश, पश्चिम में मत्स्य, उत्तर में शूरसेन
और दक्षिण में रिक्ष पर्वत स्थित है जिसके आगे अवन्ति राज्य आता है।
वर्तमान संदर्भ
में मोटे तौर पर यदि हम विवेच्य क्षेत्र की भौगोलिक सीमा का निर्धारण करें तो
ग्वालियर - चम्बल संभाग में आने वाले जिले तथा किन्हीं विशेष संदर्भ में विदिशा और
उज्जैन भी इसमें शामिल है। चम्बल संभाग में आने वाले श्योपुर, मुरैना, भिण्ड जिले तथा
ग्वालियर संभाग में आने वाले ग्वालियर, शिवपुरी, गुना, अशोक नगर, दतिया जिले की
तहसील और विकासखण्ड ग्वालियर क्षेत्र के इतिहास लेखन के भौगोलिक आधार बने हैं।
ग्वालियर क्षेत्र
पहाड़ों, नदियों और उपजाऊ कछारों से परिपूर्ण क्षेत्र है। यहाँ
प्रमुख रूप से चम्बल, बेतवा, सिंध, क्षिप्रा, पार्वती वर्ष भर
प्रवाहित होने वाली नदियों तथा कूनों, सीप अहेली, चम्बल की तथा
कुआँरी, आसन, साँक, बैसली (वैशाली), महुअर, सिंध की सहायक
नदियों के प्रवाह ने इस क्षेत्र को प्राकृतिक उपादानों और संसाधनों से समृद्ध किया
है।
ग्वालियर नगर को सिंचित करने वाली नदियों की रइधु के हवाले से तथा अन्य
धार्मिक, साहित्यिक स्रोतों के आधार पर बात करें तो ग्वालियर नगर,लोंडरा, छछूंदर तथा
वृश्चिकला (स्वर्ण रेखा) नदियों के प्रवाह से सिंचित एवं लाभान्वित होता था।
वर्तमान में भले ही नगर की नदियों का अस्तित्व एक गंदे नाले के रूप में हैं। रइधु
के साहित्य में स्वर्ण रेखा नदी का विवरण मिलता है।
इस क्षेत्र को
सिंचित करने वाली नदियों का उल्लेख पुराणों में भी वर्णित है। मार्कण्डेय और
वायुपुराण में चम्बल नदी को क्रमश: चर्मवती, मत्स्य और
ब्रह्मवैवर्त पुराण में इन्द्र धनुष के समान अर्थात् धनवति के नाम से पहचाना गया
है।
पाणिनी की अष्टध्यायी में चर्मण्यवती उल्लिखित हैं। इन्हीं पुराणों में बेतवा
को वेत्रवती, वेगुमती नाम से पहचाना गया है। मार्कण्डेय पुराण में सिंध
नदी को रसमा, ब्रह्मवैवर्त पुराण में निषध तथा कूर्म पुराण में महानदी
कहा गया है।
विवेच्य क्षेत्र में इन नदियों के अनवरत प्रवाह के कारण प्रकृति की
सदैव कृपा दृष्टि बनी रही। साथ ही इस क्षेत्र के निवासियों ने नदियों के अस्तित्व
से न केवल अपने जीवन को अपितु समूचे क्षेत्र के जन-जीवन को विकास की ओर आगे बढ़ाया
जिससे क्षेत्रीय सभ्यता और संस्कृति ने विकास की राह पकड़ी और यह क्षेत्र भारत के
विकास की मूल धारा से जुड़ता चला गया।
ग्वालियर क्षेत्र
की मिट्टी काली, धामनी, भूरी राँतड़ी, पलोरा, ककरेटी, करदिया, सालगड़ा प्रकार
की है। भूमि की विशिष्टता की देखें तो इस क्षेत्र की भूमि करमरिया, पाथल और बलुआ
प्रकार की है जबकि मालवा प्रान्त की मिट्टी भार, कावर, पड़वा, दोमट, राकड़ तीर, कछार प्रकार की
है। सन् 1929-30 ई. के सर्वे के अनुसार कुल क्षेत्रफल में से 33.4 प्रतिशत भूमि
कृषि योग्य थी तथा 13.2 प्रतिशत जंगल जनित क्षेत्र था और शेष 24.9 प्रतिशत भूमि
कृषि योग्य नहीं थी।
ग्वालियर क्षेत्र
के भारत के निचले मैदान में स्थित होने के कारण यहाँ पर लोहे के अयस्क शैल पाये
जाते है और यदि ग्वालियर किले पर स्थित मातृचेट के सूर्य मंदिर में अंकित शिलालेख
को स्वीकार करें तो यह क्षेत्र विभिन्न धातुओं का प्राप्य स्थल था। पत्थर की
चट्टानें,चूने के पत्थर की चट्टानें, बलुआ पत्थर की
चट्टानें यहाँ बहुतायत में पाई जाती हैं। नदियों से रेत मिलने का प्राकृतिक साधन
भी इस क्षेत्र में उपलब्ध है।
मैंगनीज, एल्यूमीनियम
मिट्टी के बरतन बनाने वाली अच्छी मिट्टी, स्लेट, शीशा, ताँबा, नमक, शोरा जैसे खनिज
पदार्थ भी प्राकृतिक रूप से संसाधन के रूप में उपलब्ध रहें हैं। जंगल जनित क्षेत्र
में ग्वालियर गिर्द, श्योपुर, नरवर विदिशा का
नाम लिया जा सकता है। इन क्षेत्रों से जंगल जनित उत्पादित साभर, अंजन, आँवला, बबूल, बहेड़ा, बाँस, बड़, बेल, बेर, भिलावा, बीजा, चिली, चिरौंजी,ढाक और धामन, धावा, धवई जैसे साधनों
से क्रमशः फल, पत्ता, बीज, लकड़ी प्राप्त
होती है जो दवा, फल, मेवा, लकड़ी के औजार, कोयला बनाने के
स्रोत हैं।
ग्वालियर नगर की महत्वपूर्ण भौगोलिक स्थिति
ग्वालियर नगर की
महत्वपूर्ण भौगोलिक स्थिति की बात करें तो यह 25°-34° से 26°-21° उत्तरी अक्षांश
एवं 77°-40° से 78°-50° पूर्वी देशान्तर रेखा पर स्थित है।
यह भारत के उस मार्ग
पर स्थित है जहाँ से गुजरने वाली सड़कें ग्वालियर को भारत के अन्य प्रदेशों से जोड़ती
हैं। उत्तर भारत से मालवा, दक्षिण भारत और समुद्र मार्ग तक पहुँचने का
सड़क मार्ग ग्वालियर होकर ही जाता था।
फाह्यान, ह्वेनसांग
इब्नेबत्तूता, मंडेलसलों, टेरी, ट्रेवेनियर जैसे
यात्रियों ने समय-समय पर लिखे अपने यात्रा वृत्तान्तों में ग्वालियर से जुड़े
प्रमुख सड़क मार्गों का उल्लेख किया है।
ग्वालियर से जुड़े महत्वपूर्ण मार्गों में
से एक मार्ग दिल्ली- बयाना अलीगढ़- जौरा अलापुर ग्वालियर - नरवर से मालवा को जाता
था। शेरशाह के शासन काल में एक मार्ग आगरा ग्वालियर से महोबा - बुन्देलखण्ड-सिरोंज
होते हुए दक्षिण में बुरहानपुरं तक जाता था।
ग्वालियर - कालपी मार्ग भी प्रचलन में
था । इन मार्गों का प्रयोग एवं महत्व आवागमन के साथ-साथ व्यापारिक, धार्मिक, राजनीतिक एवं
साम्राज्यिक दृष्टि में विशेष रूप से था। इसी विशिष्ट स्थिति के कारण ग्वालियर को
दक्षिणी द्वार काखिताब एवं सौभाग्य
भी मिला परन्तु इस गौरवपूर्ण सौभाग्य के साथ-साथ उत्तर या दक्षिण की ओर से आने
वाले हर साम्राज्यवादी आक्रमणकारियों के बार-बार होने वाले आक्रमण रूपी झंझावात
इसके दुर्भाग्य में जुड़ गया और इसका खमियाजा क्षेत्र की जनता को भुगतना पड़ा।
जब भी कोई देशी
या विदेशी ताकतें अपने स्थायी अस्तित्व के उद्देश्य से मध्यभारत अथवा मालवा या
दक्षिण भारत में साम्राज्य विस्तार की कामना करती तो उनकी कामना पूर्ति की पहली
सीढ़ी ग्वालियर पर आक्रमण करना तथा उसे अपने साम्राज्य का अंग बनाना होता
तत्पश्चात् इसे मजबूत स्तम्भ के रूप में प्रयोग कर समीपस्थ राज्यों अथवा दक्षिण के
राज्यों पर विजय प्राप्त करना बाद की प्रक्रिया थी। इस तरह के प्रयास प्राचीन मध्य
और आधुनिक युग में बार-बार देखने को मिलते हैं।
ऐतिहासिक स्रोतों के हवाले से हर
बार ग्वालियर नगर और क्षेत्र की जनता ने अपने राजा के नेतृत्व के साथ हर
आक्रमणकारी का सामना पूरी निष्ठा, त्याग, ईमानदारी, राष्ट्र भक्ति के
साथ किया। ग्वालियर के सैनिकों के अदम्य साहस और जुझारू वृत्ति के चलते तथा
भौगोलिक स्थिति के कारण ग्वालियर पर विजय पाना कभी भी सरल नहीं रहा एवं ग्वालियर
दुर्ग दुर्भेद्य दुर्गों की श्रेणी में गिना जाता रहा।
निश्चित रूप से
कहा जा सकता है कि ग्वालियर क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति एवं प्राकृतिक संसाधनों ने
इसे आर्थिक दृष्टि से समृद्ध बनाया हैं। साथ ही राजनैतिक, सैनिक और
साम्राज्यिक दृष्टि से भी यह महत्वपूर्ण होकर सदैव आकर्षण का केन्द्र रहा है।
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