वायुमंडलीय दाब एवं कार्य |वायुदाब एवं वायुमंडलीय परिसंचरण | Vayumandaliy Dab evam Karya

 वायुमंडलीय दाब एवं कार्य, वायुदाब एवं वायुमंडलीय परिसंचरण

वायुमंडलीय दाब एवं कार्य |वायुदाब एवं वायुमंडलीय परिसंचरण | Vayumandaliy Dab evam Karya



वायुदाब एवं वायुमंडलीय परिसंचरण: 

  • तापमान के साथ ही वायुदाब का भी मौसम और जलवायु के अन्य कारकों के साथ घनिष्ठ संबंध है। तापमान में अंतर वायु के घनत्व में परिवर्तन लाता है, जिसके कारण वायुदाब में परिवर्तन होते हैं। वायुदाब में यही परिवर्तन वायु में क्षैतिज गति उत्पन्न करते हैं, जिसे हम पवन कहते हैं। पवनें, ऊष्मा और आर्द्रता के पुनर्वितरण को संभव बनाकर वायुमंडलीय परिसंचरण को नियंत्रित करती हैं। विभिन्न प्रकार की जलवायु और जलवायु प्रदेशों में भी वायुदाब और पवन की दिशाएँ विशिष्ट प्रकार की होती हैं। इसलिए, वायुमंडलीय दाब को मौसम के पूर्वानुमान के लिए एक महत्वपूर्ण सूचक माना जाता है।

 

वायुमण्डलीय दाब क्या होता है 

 

  • पृथ्वी की सतह पर वायु स्तम्भ द्वारा दबाव डाला जाता है। माध्य समुद्रतल से वायुमंडल की अंतिम सीमा तक एक इकाई क्षेत्रफल के वायु स्तम्भ के भार को वायुमंडलीय दाब कहते हैं। 
  • वायुदाब को मापने की इकाई मिलीबार तथा पास्कल हैं। सामान्य दशा में समुद्र तल पर वायु दाब पारे के 76 सेन्टीमीटर अथवा 760 मिलीमीटर ऊँचे स्तम्भ द्वारा पड़ने वाले दाब के बराबर होता है। 
  • वायुदाब को मापने के लिए पारद वायुदाबमापी (Mercury barmeter) एवं निर्द्रव बैरोमीटर (Anerid barmeter) का प्रयोग किया जाता । 
  • ऋतु मानचित्रों में वायुदाब का क्षैतिज वितरण समदाब रेखाओं के द्वारा प्रदर्शित किया जाता है। समदाब रेखाएँ सागर तल पर समान वायुदाब वाले स्थानों को मिलाने वाली कल्पित रेखाएँ होती वायुदाब में परिवर्तन के द्वारा ही पवनों की उत्पत्ति, वेग एवं दिशा निर्धारित होती है। 
  • पवन सदैव उच्च वायुदाब क्षेत्र से निम्न वायुदाब क्षेत्र की ओर प्रवाहित होती है। पवनों का वेग दाब प्रवणता की तीव्रता पर निर्भर करता है। 
  • दाब प्रवणता जितनी अधिक होती है, पवन की गति भी उतनी ही अधिक होती है। निम्न वायुदाब प्रणाली एक या अधिक समदाब रेखाओं से घिरी होती है जिनके केंद्र में निम्नतम वायुदाब होता है।
  •  उच्च दाब प्रणाली में भी एक या अधिक समदाब रेखाएँ होती हैं जिनके केंद्र में उच्चतम वायुदाब होता है। उच्च दाबऔर निम्न दाबशब्द आमतौर पर किसी विशिष्ट मान को नहीं दर्शाते हैं, बल्कि इनका प्रयोग सापेक्षिक रूप से किया जाता है।

 

पृथ्वी के धरातल पर वायुमंडलीय दाब का वितरण

 

पृथ्वी के धरातल पर वायुमंडलीय दाब का वितरण एक समान नहीं है। इसमें उर्ध्वाधर तथा क्षैतिज दोनों प्रकार की भिन्नताएँ द्रष्टिगोचर होती हैं।

 

वायुदाब का उर्ध्वाधर वितरण

 

  • ऊँचाई के साथ वायुदाब में सदैव कमी आती है, लेकिन इसके घटने की दर एकसमान नहीं होती है। यह दर वायु के घनत्व, पवन संचार, पृथ्वी के घूर्णन, तापमान, जलवाष्प की मात्रा तथा गुरुत्वाकर्षण शक्ति जैसे परिवर्तनशील कारकों पर निर्भर करती है। धरातल के निकट, वायु के घनत्व में कमी आने के कारण वायुमंडलीय दाब ऊँचाई के साथ तेजी से घटता है, लेकिन अधिक ऊँचाई पर इसकी ह्रास दर में कमी आ जाती है।

 

  • निम्न वायुमंडल में वायुदाब की ह्रास दर प्रत्येक 10 मीटर की ऊँचाई पर 1 मिलीबार होती है। समुद्र तल से लगभग 5 Km की ऊँचाई पर वायुदाब की मात्रा, समुद्रतल पर वायुदाब की तुलना में लगभग आधी हो जाती है।

 

  • ऊर्ध्वाधर दाब प्रवणता क्षैतिज दाब प्रवणता की अपेक्षा अधिक होती है। ऊर्ध्वाधर दाब प्रवणता अधिक होने के बावजूद, हम शक्तिशाली ऊर्ध्वाधर पवनों का अनुभव नहीं करते हैं क्योंकि यह विपरीत दिशा में कार्यरत गुरुत्वाकर्षण बल से प्रतिसंतुलित हो जाती है।

 

वायुदाब का क्षैतिज वितरण

 

  • पवनों की दिशा और वेग के संदर्भ में वायुदाब में अल्प अंतर भी महत्वपूर्ण है। इस संदर्भ में ऊर्ध्वाधर उच्च दाब प्रवणता के विपरीत, निम्न क्षैतिज दाब प्रवणता बहुत अधिक महत्वपूर्ण है।

 

  • वायुमंडलीय दाब के अक्षांशीय बितरण को वायुदाब का क्षैतिज वितरण कहते हैं। इसकी मुख्य विशेषता इसका क्षेत्रीय चरित्र है जिसके कारण वायुदाब कटिबंधों का निर्माण होता है। क्षैतिज वितरण को समदाब रेखाओं की सहायता से प्रदर्शित किया जाता है। पृथ्वी के धरातल पर चार मुख्य वायुदाब कटिबंध है। ये हैं: विषुवतीय या भूमध्यरेखीय निम्नवायुदाब कटिबंध, उपोष्ण उच्च-वायुदाब कटिबंध, उपध्रुवीय निम्न-वायुदाब कटिबंध तथा ध्रुवीय उच्च-वायुदाब कटिबंध।

 

  • उत्तरी गोलार्ध में वायुदाब के वितरण में मौसमी विरोधाभास अधिक स्पष्टतया दृष्टिगोचर होते हैं तथा दक्षिणी गोलार्ध में सभी स्थानों पर वायुदाब के औसत वितरण में कम भिन्नता दिखाई देती है। यह अन्तर दोनों गोलार्धा में स्थल तथा जल के असमान वितरण के कारण उत्पन्न होता है। दक्षिणी गोलार्ध में महासागरीय भागों की अधिकता के कारण तापमान और वायुदाब दोनों में अधिक समता होती है।

 

पवन की दिशा व वेग को प्रभावित करने वाले कारक

 

  • क्षैतिज रूप से गतिशील वायु को पवन (Wind) कहते हैं जबकि ऊर्ध्वाधर रूप से गतिशील वायु वायुधारा (Air current) कहलाती हैं। पवन एवं वायु धाराएँ वायुमंडलीय संचरण के लिए उत्तरदायी हैं। पृथ्वी की घूर्णन गति के कारण धरातल पर वायुदाब में कालिक एवं स्थानिक परिवर्तन होते रहते हैं। इन परिवर्तनों को संतुलित करने के लिए पवनें उच्चदाब से निम्नदाब की ओर प्रवाहित होती हैं। भूतल पर धरातलीय विषमताओं के कारण प्रवाहित पवनों तथा धरातल के मध्य घर्षण भी पैदा होता है, जो पवनों की गति को प्रभावित करता है। 


पृथ्वी के धरातल पर क्षैतिज पवनें निम्नलिखित तीन प्रमुख कारकों का संयुक्त परिणाम हैं :

 

  • दाब प्रवणता 
  • घर्षण बल 
  • कोरिऑलिस बल 
  • इसके अतिरिक्त, गुरुत्वाकर्षण बल भी पवनों के प्रवाह को प्रभावित करता है।

 

दाब प्रवणता (Pressure Gradient)

 

  • वायुमंडलीय दाब प्रवणता पवन प्रवाह के लिए प्राथमिक कारक होता है। दो स्थानों के मध्य वायुदाब में परिवर्तन की दर दाब प्रवणता कहलाती है। दाब प्रवणता बल हमेशा बैरोमेट्रिक ढाल अर्थात् कम होते हुए वायुदाब की ओर होती है, जिससे पवन का प्रवाह मुख्य रूप से उच्च वायुदाब से निम्न वायुदाब वाले क्षेत्रों की ओर होता है। पवन वेग दाब प्रवणता के समानुपाती होता है। यदि केवल दाब प्रवणता बल ही वायु प्रवाह के लिये उत्तरदायी हो तो पवनों की दिशा समदाब रेखाओं की समकोण दिशा पर होगी। हालाँकि, कुछ अन्य कारकों के प्रभाव से, पवनें समदाब रेखाओं को समकोण पर न मिलकर न्यून कोण पर मिलती हैं। (समदाब रेखाओं के मध्य अधिक अंतराल)

 

कोरिऑलिस बल (Crilis Frce)

 

  • पृथ्वी के अपने अक्ष पर घूर्णन के कारण वायु की दिशा में विक्षेप या विचलन हो जाता है। वायु की दिशा को विक्षेपित करने वाले इस बल को कोरिऑलिस बल कहते हैं। 
  • कोरिऑलिस बल के प्रभाव से पवनें उत्तरी गोलार्ध में अपनी मूल दिशा से दाहिनी ओर एवं दक्षिणी गोलार्ध में बाईं ओर विक्षेपित हो जाती हैं। 
  • कोरिऑलिस बल की तीव्रता पवनों के वेग तथा अक्षांशों के अनुसार बदलती रहती है। जब पवनों का वेग अधिक होता है, तब विक्षेपण भी अधिक होता है। इसी प्रकार, भूमध्यरेखा से बढ़ती दूरी के साथ विक्षेपण की दर भी बढ़ती जाती है। विषुवत् वृत्त पर कोरिऑलिस बल शून्य और ध्रुवों पर सर्वाधिक होता है। कोरिऑलिस बल दाब प्रवणता के समकोण पर कार्य करता है। दाब प्रवणता जितनी अधिक होगी, पवनों का वेग उतना ही अधिक होगा। इसके कारण कोरिऑलिस बल के प्रभाव से पवनों की दिशा उतनी ही अधिक विक्षेपित होगी। 
  • विषुवत् वृत्त पर कोरिऑलिस बल शून्य होने के कारण पवनों में विक्षेपण अनुपस्थित होता है। यही कारण है कि विषुवत् वृत्त के निकट उष्णकटिबंधीय चक्रवात नहीं आते हैं।

 

घर्षण बल

 

  • धरातल द्वारा प्रवाहित पवनों पर घर्षण बल आरोपित होता है, जिससे पवनों का वेग और दिशा प्रभावित होते हैं। यह बल पवन प्रवाह की दिशा के विपरीत कार्य करता है, जिससे पवन के वेग में कमी आ जाती है। असमान धरातल पर घर्षण का प्रभाव अधिक होता है। समुद्र की सतह पर घर्षण न्यूनतम होता है। ऊँचाई के साथ घर्षण का प्रभाव कम होता जाता है। धरातल से लगभग 1000 मीटर तक की ऊँचाई वाले भाग को घर्षण स्तर (Frictin Layer) कहा जाता है। इसके ऊपर वायुमंडल में घर्षण बल का प्रभाव नगण्य हो जाता है।

 

अपकेंद्रीय बल

 

  • पवन के वेग को प्रभावित करने वाला एक अन्य महत्वपूर्ण कारक, पवन का अपकेंद्रीय बल होता है। जब पवन का मार्ग वक्राकार अथवा वृत्ताकार होता है, तब इस प्रकार के बल की उत्पत्ति होती है। 

 

  • अपकेंद्रीय बल पवनों के वृत्ताकार पथ के केंद्र से बाहर की ओर आरोपित होता है और उनके पथ में विक्षेपण उत्पन्न करता है। पवन का वेग तथा उसके पथ की वक्रता जितनी अधिक होगी अपकेंद्रीय बल उतना ही अधिक होगा।

 

भूविक्षेपी पवन

 

  • जब वायुदाब प्रवणता बल तथा कोरिऑलिस बल में संतुलन स्थापित हो जाता है, तब पवनों का प्रवाह समदाब रेखाओं के समानांतर हो जाता है। इस प्रकार समदाब रेखाओं के समानांतर चलने वाली पवनों को भूविक्षेपी (Gestrphic) पवनें कहते हैं। यह स्थिति घर्षण बल के प्रभाव के नगण्य होने एवं होता है तथा गति की दिशा की विपरीत दिशा में कार्य करता है।

 

  • सामान्यतः भूविक्षेपी पवनें वायुमंडल के ऊपरी भागों में ही पाई जाती हैं क्योंकि ऊपरी वायुमंडल में पवनें धरातलीय घर्षण के प्रभाव से मुक्त होती हैं और मुख्यतः दाब प्रवणता तथा कोरिऑलिस बल से ही नियंत्रित होती हैं। धरातल के निकट घर्षण बल के कारण भूविक्षेपी पवनों का विकास नहीं हो पाता।

 

  • प्रायः पवनें पूर्णतः भूविक्षेपी नहीं होती हैं क्योंकि वायुदाब में परिवर्तन होने के साथ ही वायुदाब प्रवणता बल तथा कोरिऑलिस बल के मध्य स्थापित संतुलन बिगड़ जाता है।

 

वायुदाब पेटियों का वितरण

 

भू-तल पर पाई जाने वाली वायुदाब व्यवस्था को उत्पन्न करने वाले कारकों को स्थूल रूप से दो वर्गों में विभाजित किया जाता है: तापीय कारक एवं गत्यात्मक कारक। धरातल पर इन कारकों द्वारा विभिन्न उच्च एवं निम्न वायुदाब पेटियों का निर्माण होता है। ये वायुदाब पेटियाँ निम्न हैं: |

 

भूमध्यरेखीय निम्न वायुदाब पेटी

 

  • यह निम्न वायुदाब पेटी भूमध्यरेखा के दोनों ओर 10° उत्तर और 10° दक्षिण अक्षांशों के मध्य स्थित है। इसकी स्थिति स्थायी नहीं होती हैं तथा सूर्य के उत्तरायण एवं दक्षिणायन होने के साथ ही इस पेटी में स्थानांतरण होता रहता है। इस पेटी में सूर्यातप की अधिक मात्रा उपलब्ध होने के कारण धरातल अत्यधिक गर्म रहता है जिससे वायु गर्म होकर संवहनीय धाराओं के रूप में आरोहित होती है। इस कारण यहाँ सदैव निम्न दाब बना रहता है। चूंकि इसकी उत्पत्ति तापीय कारकों से होती है, इसलिए इसे तापजन्य निम्न वायुदाब पेटी भी कहते हैं। इस क्षेत्र में धरातल पर पवनें अत्यंत मंद गति से एवं निश्चित दिशा में प्रवाहित नहीं होती हैं। इस कारण से इस पेटी को डोलड्रम (शान्त क्षेत्र) क्षेत्र कहा जाता है। इस पेटी को अंतर-उष्णकटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र या इंटर-ट्रॉपिकल कनवर्जेन्स जोन (ITCZ) के रूप में भी जाना जाता है, क्योंकि उपोष्ण उच्च वायुदाब पेटी से प्रवाहित होने वाली व्यापारिक पवनें यहाँ आकर अभिसरित होती हैं।

 

उपोष्ण उच्च वायुदाब पेटी

 

  • दोनों गोलार्धा में 23.5° से 35° अक्षांशों के मध्य उच्च वायुदाब पेटियाँ पाई जाती हैं। भूमध्यरेखीय निम्न वायुदाब तथा उपध्रुवीय निम्न वायुदाब क्षेत्रों से आरोहित वायु, पृथ्वी की घूर्णन गति के प्रभाव से, इन अक्षांशों में अवतलित होती है। इस कारण यहाँ उच्च वायुदाब का निर्माण होता है। अतः इस पेटी की उत्पत्ति गतिकीय कारकों से संबंधित है। इन वायुदाब कटिबंधों को अश्व अक्षांश’ (Hrse Latitude) भी कहा जाता है।

 

  • उत्तरी गोलार्ध में, धरातलीय भाग की उपस्थिति के कारण यह पेटी अधिक अनियमित है। यहाँ उच्च दाब केवल सागरीय क्षेत्रों पर ही, अलग कोशिकाओं या कोष्ठ के रूप में होता है; इन्हें अटलांटिक और प्रशांत क्षेत्र में क्रमशः अजोर्स और हवाईयन कोष्ठ कहा जाता है।

 

उपध्रुवीय निम्न वायुदाब पेटी

 

  • इस पेटी का विस्तार दोनों गोलार्धा में 45° से 66.5° अक्षांशों के बीच पाया जाता है। वर्षभर तापमान कम होने पर भी यहाँ निम्न वायुदाब होता है।

 

  • उपोष्ण और ध्रुवीय उच्च वायुदाब क्षेत्रों से आने वाली पवनें इस पेटी में अभिसरित होकर ऊपर की ओर आरोहित होती हैं। इस कारण यहाँ निम्न वायुदाब क्षेत्र का निर्माण होता है। उपोष्ण और ध्रुवीय क्षेत्रों से आने वाली पवनों के तापमान में अधिक अंतर होता है। इस कारण इस पेटी में चक्रवातीय दशा उत्पन्न होती है। दक्षिणी गोलार्ध में, यह न्यून दाब पेटी महासागरीय उपस्थिति के कारण अधिक स्पष्ट होती है और इसे उप-अंटार्कटिक गर्त भी कहा जाता है। लेकिन उत्तरी गोलार्ध में, 60° उत्तरी अक्षांश के समानांतर अत्यंत शीतल वृहत स्थलीय भू-भाग है। इसलिए, इन स्थलों के ऊपर दाब बढ़ जाता है। इस प्रकार वायुदाब पेटियों की निरंतरता भंग हो जाती है।

 

ध्रुवीय उच्च वायुदाब पेटी

 

  • ध्रुवीय क्षेत्रों में निम्न ताप के कारण, वायु में संकुचन होता है एवं उसका घनत्व बढ़ जाता है। अतः यहाँ वर्ष भर उच्च वायुदाब पाया जाता है। यह उच्च वायुदाब उत्तरी ध्रुव महासागर की तुलना में अंटार्कटिका महाद्वीप के स्थलीय क्षेत्र पर अधिक स्पष्ट होता है। उत्तरी गोलार्ध में, उच्च वायुदाब पेटी ध्रुव तक केंद्रित नहीं है, बल्कि यह ग्रीनलैंड से कनाडा के उत्तरी भाग में स्थित द्वीपों तक फैली हुई है।

 

वायुदाब पेटियों का मौसमी स्थानांतरण

 

  • वायुदाब की पेटियों में स्थायित्व नहीं होता है। पृथ्वी की वार्षिक गति के कारण इसकी सूर्य से संबंधित स्थिति में परिवर्तन होता रहता है, जिस कारण वायुदाब पेटियों में भी स्थानांतरण होता रहता है। 21 जून को सूर्य कर्क रेखा पर लंबवत् होता है, जिस कारण सभी वायुदाब पेटियाँ (ध्रुवीय उच्च वायुदाब को छोड़कर) उत्तर दिशा में से 10° स्थानांतरित हो जाती हैं।

 

  • 23 सितंबर को सूर्य भूमध्य रेखा पर लंबवत् होता है, जिस कारण वायुदाब पेटियाँ अपनी यथावत् स्थिति में आ जाती हैं। 22 दिसंबर को सूर्य दक्षिणायन हो जाता है तथा मकर रेखा पर लंबवत् होता है, जिस कारण वायुदाब पेटियाँ से 10° दक्षिण की ओर स्थानांतरित हो जाती हैं।

 

  • पुनः 21 मार्च को सूर्य के भूमध्य रेखा पर लंबवत् होने के कारण ये पेटियाँ अपनी यथावत् स्थिति में आ जाती हैं।

 

  • इस तरह ऋतु परिवर्तन के साथ वायु पेटियों में स्थानांतरण होता रहता है। वायुदाब पेटियों के स्थानांतरण का सबसे अधिक प्रभाव समशीतोष्ण क्षेत्रों में देखा जाता है।

 

वायुमंडल का सामान्य परिसंचरण

 

धरातलीय सतह तथा ऊपरी वायुमंडल में वायुदाब प्रवणता के कारण स्थानीय स्तर से वैश्विक स्तर पर दैनिक, मौसमी एवं वार्षिक रूप में पवनों का गतिशील होना वायुमंडलीय परिसंचरण कहलाता है। वायुमंडल में पवनों के संचार की दिशा और तीव्रता में परिवर्तन होता रहता है। वायुमंडल में पवन संचार को तीन व्यापक श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है:

 

प्राथमिक या दीर्घकालिक परिसंचरण: 

  • इसके अन्तर्गत ग्रहीय पवन प्रणालियों को सम्मिलित किया गया है, जो पृथ्वी की सतह पर वायुदाब पेटियों की सामान्य व्यवस्था से संबंधित हैं। ग्रहीय पवनों के प्रवाह के प्रारूप को वायुमंडल का सामान्य परिसंचरण भी कहा जाता है। प्राथमिक परिसंचरण अन्य परिसंचरणों के लिए व्यापक आधार तैयार करता है। इसमें परिवर्तनशील परिसंचरण जैसे जेट स्ट्रीम, वॉकर संचरण तथा ENS को भी सम्मिलित किया जाता है।

 

द्वितीयक परिसंचरण: इसमें चक्रवात, प्रतिचक्रवात, मानसून आदि शामिल हैं।

 

तृतीयक परिसंचरणः 

  • इसमें सभी स्थानीय पवनें शामिल हैं, जो स्थानीय कारणों जैसे भू-आकृतियों, समुद्री प्रभाव आदि द्वारा उत्पन्न होती हैं। इनका प्रभाव किसी विशेष क्षेत्र में ही दिखाई देता है।

 

वायुमंडल का कटिबंधीय (क्षैतिज) परिसंचरण

 

ग्रहीय पवनें (Planetary Winds)

 

  • प्राथमिक या ग्रहीय पवनें उच्च वायुदाब से निम्न वायुदाब की ओर वर्षभर प्रवाहित होती हैं। वर्ष भर इनकी दिशा प्रायः एक समान रहती है, परन्तु इनके क्षेत्रों में मौसमी स्थानांतरण होता रहता है। इनका वितरण सम्पूर्ण ग्लोब (महाद्वीप और महासागर) पर होता है, जिस कारण इनको ग्रहीय पवनें कहा जाता है। व्यापारिक पवनें (Trade winds), पछुआ पवनें (Westerlies) तथा ध्रुवीय पवनें (Plar winds), ग्रहीय पवनों के अंतर्गत सम्मिलित की जाती हैं। विषुवत् वृत्त पर सूर्यातप की अधिक मात्रा के कारण वायु संवहन धाराओं के रूप में आरोहित होती हैं। ये वायु धाराएँ क्षोभसीमा तक आरोहित होकर ध्रुवों की तरफ प्रवाहित होती हैं। पृथ्वी की घूर्णन गति के कारण लगभग 30° उत्तर एवं दक्षिण अक्षांशों पर वायु एकत्रित होकर अवतलित हो जाती हैं और इस प्रकार उपोष्ण उच्चदाब का निर्माण होता है।

 

  • उपोष्ण उच्चदाब क्षेत्र पर धरातल के निकट वायु का अपसरण होता है और यह विषुवत वृत्त की ओर व्यापारिक पवनों के रूप में प्रवाहित होती है। कोरिऑलिस बल के कारण, इनकी दिशा उत्तरी व दक्षिणी गोलार्धा में क्रमशः उत्तर-पूर्व तथा दक्षिण-पूर्व हो जाती है। विषुवत् वृत्त के दोनों तरफ से प्रवाहित होने वाली व्यापारिक पवनें अंतर उष्णकटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र (Inter Trpical Cnvergence Zne; ITCZ) में अभिसरित होती हैं। इस प्रकार, धरातल से ऊपरी वायुमंडल तक एक पूर्ण कोष्ठ (Cell) का निर्माण होता है। उष्णकटिबंधीय क्षेत्र मे स्थित इस कोष्ठ को हेडली कोष्ठ (Hadley Cell) कहा जाता है।

 

  • उपध्रुवीय निम्न वायुदाब क्षेत्र में उपोष्ण कटिबंधीय उच्च वायुदाब क्षेत्र से आने वाली उष्ण पवनों एवं ध्रुवों से आने वाली शीतल पवनों का अभिसरण होता है। इसके फलस्वरूप उष्ण पछुआ पवनें शीतल एवं भारी ध्रुवीय पवनों के ऊपर आरोहित होती हैं। आरोहित वायु का कुछ भाग ध्रुवों की ओर तथा शेष भाग विषुवत् रेखा की ओर मुड़ जाता है। इन पवनों का अवतलन उपोष्ण उच्चदाब पेटी और ध्रुवीय उच्च दाब पेटी पर होने से क्रमशः फेरल कोष्ठ और ध्रुवीय कोष्ठ का निर्माण होता है।

 

  • फेरल कोष्ठ के अन्तर्गत उपोष्ण उच्चदाब से उपध्रुवीय निम्न दाब की ओर धरातलीय पवनें चलती हैं। दोनों गोलार्धा में इनकी दिशा पश्चिम से पूर्व की ओर होती हैं। इन्हें पछुआ पवन कहा जाता है। व्यापारिक पवनों की अपेक्षा पछुआ पवनों की दिशा और तीव्रता अधिक परिवर्तनशील होती है। चक्रवातों और प्रतिचक्रवातों के साथ-साथ ध्रुवीय वायु राशियों का इस पवन के क्षेत्र में तेजी से आगमन होता है। पछुआ पवन शीतकाल में अधिक सक्रिय हो जाती है। दक्षिणी गोलार्ध में स्थल की कमी के कारण इनकी गति तीव्र होती है। इनकी प्रचंडता के कारण ही दक्षिण गोलार्ध में इन्हें 40° अक्षांशों के पास गरजती चालीसा (raring frties), 50° दक्षिण अक्षांश के पास प्रचंड पचासा (furius fifties) तथा 60° के पास चीखता साठा (screaming sixties) आदि नामों से जाना जाता है।

 

  • ध्रुवीय कोष्ठ के अन्तर्गत ध्रुवीय उच्चदाब से उपध्रुवीय निम्न दाब की ओर धरातलीय पवनें चलती हैं। उत्तरी गोलार्ध में इनकी दिशा उत्तर-पूर्व से दक्षिण-पश्चिमी की ओर तथा दक्षिण गोलार्ध में दक्षिणपूर्व से उत्तर-पश्चिम की ओर होती हैं। इसे ध्रुवीय पूर्वा पवनें (Plar Easterlies) कहा जाता है।

 

स्थानीय पवनें (Lcal Winds)

 

  • भूतल के गर्म व ठंडे होने में भिन्नता तथा दैनिक व वार्षिक चक्रों के विकास से बहुत सी स्थानीय व क्षेत्रीय पवनें प्रवाहित होती हैं। इनकी उत्पत्ति पूर्णतः स्थानीय कारकों द्वारा होती है, इसलिए इन्हें स्थानीय पवनें कहा जाता है। इनको दो प्रमुख श्रेणियों सामयिक स्थानीय पवनों तथा क्षेत्रीय या प्रादेशिक स्थानीय पवनों में वर्गीकृत किया जा सकता है। ये स्थानीय पवनें स्थान विशेष के मौसम तथा जलवायु में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। विश्व के अलग-अलग भागों में पाई जाने वाली कुछ प्रमुख स्थानीय पवनों का संक्षिप्त विवरण निम्नानुसार है।

 

  • सामयिक स्थानीय पवनें दैनिक स्तर पर वायुदाब एवं तापमान में परिवर्तन के करण उत्पन्न पवनों को इसके अंतर्गत सम्मिलित किया जाता हैं। स्थल और सागर समीर, पर्वत एवं घाटी समीर इसके प्रमुख उदाहरण है। मानसून पवनें वृहत् पैमाने पर भूमण्डलीय पवनतंत्र का ही लघु रूपांतरण हैं। |

 

स्थल और सागर समीर (Land & Sea Breeze)

 

  • इन मंद वेग वाली स्थानीय पवनों की उत्पत्ति का मुख्य कारण जल तथा स्थल का असमान रूप से गर्म और ठंडा होना है। इन तटीय पवनों की दिशा में दैनिक परिवर्तन होता है। उच्च अक्षांशों की तुलना में उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में जहाँ सम्पूर्ण वर्ष तापमान अधिक बना रहता है, तीव्र और नियमित समीर का अनुभव होता है। स्थल और सागर समीर का विस्तृत विवरण नीचे तालिका में दिया गया है।

 

पर्वत एवं घाटी समीर

 

  • स्थानीय पवनों का एक अन्य प्रकार पर्वत एवं घाटी समीर है, इनमें दैनिक परिवर्तन होता है। दिन के समय पर्वतीय ढाल अधिक तापमान के कारण घाटियों से अधिक गर्म हो जाते हैं। इसलिए, ढाल पर घाटियों के निचले भाग की अपेक्षाकृत निम्न वायुदाब हो जाता है। वायु ढाल के सहारे ऊपर उठती है और इस स्थान को भरने के लिए घाटी से पवनें ढाल की और प्रवाहित होती है। इन पवनों को घाटी समीर (Valley Breeze) या एनाबेटिक पवन (Anabatic Winds) के रूप में जाना जाता है। घाटी समीर कभी-कभी पर्वतीय चोटियों के पास कपासी (Cumulus) मेघ का निर्माण करती है तथा वहाँ पर पर्वतीय वर्षा करती है।

 

  • रात्रि के समय पर्वतीय ढाल ठंडे हो जाते हैं और सघन पवनें घाटी में नीचे की ओर उतरती हैं, जिन्हें पर्वतीय समीर (Muntain Breeze) कहते हैं। उच्च ढालों से घाटी में बहने वाली इन ठंडी पवनों को अवरोही या केटाबेटिक पवनें (Katabatic Winds) भी कहते हैं। दिन के समय, पर्वतों के टालो के ऊपर की वायु गर्म हो जाती है तथा घाटी समीर के रूप में ऊपर की ओर प्रवाहित होती है।

 

  • रात्रि के समय पर्वत के ढालों के ऊपर की वायु तेज़ी से ठंडी होती है तथा नीचे स्थित गर्म घाटी की तरफ पर्वत समीर के रूप में प्रवाहित होती है।

 

मानसूनी पवन

 

  • मानसूनी पवनतंत्र की प्रमुख विशेषता मौसम के अनुसार पवन की दिशा में परिवर्तन से है। परंपरागत ढंग से मानसूनी पवनों की व्याख्या एक बड़े पैमाने पर स्थल-समीर और समुद्र-समीर के रूप में ही होती रही है। इस प्रकार इन्हें एक वहत पैमाने पर संवहनी-संचरण ही समझा जाता रहा है। दुर्भाग्यवश, यह व्याख्या इस तंत्र की कार्यप्रणाली को ठीक से समझने के लिए कोई विश्वसनीय आधार नहीं प्रदान कर पाती।

 

  • मानसून की उत्पत्ति के विषय में प्रस्तुत वर्तमान सिद्धान्तों में फ्लोन के सिद्धान्त के रूप में मान्यता प्राप्त हुई है। इनके अनुसार मानसूनी तंत्र, नीचे धरातल पर तथा ऊपर क्षोभमंडल के उत्तरी संस्तर में भी, भूमंडलीय और क्षेत्रीय कारकों की पारस्परिक क्रिया का ही परिणाम है। सूर्य द्वारा पृथ्वी को गर्म करने वाली प्रक्रिया के बदलते मौसमी प्रारूप के कारण उत्तरी गोलार्ध में ग्रीष्म में उपोष्ण उच्च-वायुदाब कटिबंध और तापीय विषुवत रेखा कुछ उत्तर की ओर खिसक जाते हैं। एशिया में स्थलखण्ड के प्रभाव से यह खिसकाव बड़े पैमाने पर होता है तथा दक्षिण-पश्चिमी ग्रीष्मकालीन मानसूनी पवनों का निर्माण होता है। शीत ऋतु में, उपोष्ण उच्च-वायुदाब कटिबंध और तापीय विषुवत रेखा दक्षिण की ओर वापस लौट आते हैं। सामान्य व्यापारिक पवन चक्र फिर से स्थापित हो जाता है। यही शीतकालीन उत्तर-पूर्वी मानसूनी पवन है।

 

क्षेत्रीय या प्रादेशिक स्थानीय पवन

 

  • इनकी उत्पत्ति तापीय या गतिक कारकों से होती है, विशेष दशाओं में पर्वतीय अवरोध के कारण भी ये निर्मित हो सकती है। तापीय आधार पर इनको गर्म तथा ठंडी पवनों में वर्गीकृत किया जा सकता है। चिनूक, फॉन, मिस्ट्रल, बोरा, लू, सांता अना आदि इनके प्रमुख उदाहरण हैं।

 

गर्म स्थानीय पवनें ये उष्ण पवनों के अभिवहन (advectin) से निर्मित गर्म स्थानीय पवनें होती हैं। इनकी उत्पत्ति ऊँचाई वाले भागों से नीचे की तरफ अवतलित होती पवनों के गर्म होने से भी हो सकती है। कुछ प्रमुख गर्म पवनें निम्न हैं:

 

लूएक गर्म और शुष्क पवन है, जो मई और जून के महीनों में भारत के उत्तरी मैदानों के ऊपर अधिक शक्तिशाली होती है। इसके प्रवाह की दिशा उत्तर-पश्चिम तथा पश्चिम से पूर्व की ओर होती है। इसका अनुभव सामान्यतः दोपहर के बाद होता है। इसका तापमान 45° से 50°C के मध्य परिवर्तित होता रहता है।

 

फॉन: आल्प्स पर्वत के पवन विमुखी ढालों के सहारे चलने वाली गर्म तथा शुष्क स्थानीय पवनों को फॉन कहा जाता है। क्षेत्रीय दाब प्रवणता पवनों के पर्वतों के ऊपर आरोहण हेतु बल प्रदान करती है। ढाल के सहारे अवरोहित होती पवनें कभी-कभी पवनोन्मुखी ढाल पर वर्षा भी करती हैं। पर्वतीय चोटी को पार करने के बाद, फॉन पवनविमुख ढाल या उत्तरी ढाल के सहारे अवतलित होती है, जिस कारण यह गर्म तथा शुष्क हो जाती है। इसके आगमन से तापमान में 15°C से 20°C की वृद्धि हो जाती है। इसके कारण बर्फ पिघलने में मदद होती है, जिससे पशु चराई के लिए चारागाह भूमि उपलब्ध हो जाती है तथा अंगूर की फसल शीघ्र पक जाती है।

 

चिनूक: रॉकी पर्वत के पूर्वी ढालों के सहारे चलने वाली गर्म तथा शुष्क स्थानीय पवनों को संयुक्त राज्य अमेरिका और कनाडा में चिनूक कहते हैं। चिनूक का शाब्दिक अर्थ हिम भक्षकहोता है, क्योंकि इसके आगमन से हिमचादर समय से पूर्व पिघलने के कारण शीतकाल में भी हरी भरी घासें उग आती हैं तथा चारागाह वर्ष भर उपलब्ध रहते हैं। इस प्रकार ये पवनें पशुपालकों के लिए काफी मददगार होती हैं।

 

सिरोको: यह गर्म, शुष्क तथा रेत से भरी पवन होती है, जो सहारा रेगिस्तान में उत्पन्न होती है एवं सहारा से इटली की तरफ प्रवाहित होती है। यह पवन प्रायः प्रत्येक मौसम में चलती है परंतु बसंत काल में सर्वाधिक सक्रिय होती है और कुछ ही दिनों में समाप्त हो जाती है। भूमध्य सागर को पार करने के बाद, सिरोको सागरीय नमी द्वारा ठंडी हो जाती है। शुष्क, तीव्र गति तथा धूलकण युक्त होने के कारण इन पवनों का वनस्पति, कृषि तथा फलों के बाग़ पर विनाशकारी प्रभाव होता है। इस पवन को स्पेन में लेवेच, मिस्र में खमसिन, एजियन सागर क्षेत्र में घर्बी, लीबिया में गिबली,ट्यूनीशिया में चिली आदि विभिन्न नामों से जाना जाता है।

 

हरमट्टन: यह सहारा रेगिस्तान से प्रवाहित होने वाली एक अतिप्रचण्ड गर्म तथा शुष्क पवन है जो उत्तर-पूर्वी अफ्रीका से उत्तर-पश्चिम अफ्रीका के ऊपर प्रवाहित होती है। हरमट्टन के आगमन पर मौसम शुष्क हो जाने के कारण सुहावना एवं स्वास्थ्यप्रद हो जाता है, क्योंकि इससे वायुमंडल की आर्द्रता कम हो जाती है। इस कारण गिनी तट पर इस हवा को डॉक्टर पवन भी कहा जाता है।

 

ब्लैक रोलर: उत्तरी अमेरिका के विशाल मैदान में चलने वाली गर्म एवं धूल भरी वायु को ब्लैक रोलर कहा जाता है।

 

बिक्र फिल्डर: यह ऑस्ट्रेलिया के मरुस्थलीय क्षेत्रों में प्रवाहित गर्म एवं तीव्र वेग वाली शुष्क पवन

 

सान्ता अना: कैलीफोर्निया में सान्ता अना घाटी में प्रवाहित गर्म, शुष्क एवं रेतीली पवन है। इसके कारण कैलीफोर्निया में फलों के बगीचों को काफी नुकसान होता है।

 

योमा: सान्ता अना के समान पवन को ही जापान में योमा कहा जाता है।

 

जोन्डा: अर्जेंटीना में प्रवाहित उष्ण एवं शुष्क पवन।

 

बाग्यो: फिलिपींस में प्रवाहित उष्ण कटिबंधीय चक्रवातीय पवन।

 

ठंडी स्थानीय पवनें 

ठंडी स्थानीय पवनें शीतकाल में हिम आच्छादित पर्वतों पर उत्पन्न होती हैं और ढालों के सहारे घाटियों की ओर प्रवाहित होती हैं। इनमें से कुछ महत्वपूर्ण पवनें निम्न हैं:

 

मिस्ट्रल: यह आल्प्स पर्वत पर उत्पन्न होती है तथा रोन नदी की संकरी घाटी से होकर भूमध्य सागर के उत्तरी-पश्चिमी भाग तथा फ़्रांस को प्रभावित करती है। यह बहुत ही ठंडी, शुष्क और उच्च वेग वाली पवन है। इसके आगमन पर तापमान हिमांक के नीचे गिर जाता है।

 

बोरा: यह भी एक शुष्क तथा अत्यधिक ठंडी प्रचण्ड पवन है, जो कि एड्रियाटिक सागर के उत्तरपूर्वी किनारे पर प्रवाहित होती है। यह महाद्वीपीय यूरोप और भूमध्य सागर के बीच दाब प्रवणता में अंतर के कारण भी उत्पन्न होती है। इसकी उत्पत्ति आम तौर पर सर्दियों में होती है। कभी-कभी इसकी गति 150 किलोमीटर प्रति घंटे तक पहुँच जाती है।

 

ब्लिजर्ड: ये हिम के कणों से युक्त ध्रुवीय पवनें हैं। इससे साइबेरियाई क्षेत्र, कनाडा, संयुक्त राज्य अमेरिका प्रभावित होता है। इन पवनों की गति कभी-कभी 160 किमी प्रति घंटे तक पहुँच जाती है और तापमान हिमांक के नीचे (-70° सेल्सियस) तक पहुँच जाता है। रूस के टुन्ड्रा प्रदेश एवं साइबेरिया क्षेत्र में ब्लिजर्ड का स्थानीय नाम क्रमशः पुरगा व बुरान है।

 

बुरान (Buran): रूस एवं मध्यवर्ती एशिया में प्रवाहित होने वाली उत्तरपूर्वी स्थानीय पवन को बुरान कहा जाता है।

 

नार्थर (Nrther): यह वास्तव में एक ध्रुवीय पवन है जो अवरोध के अभाव के कारण दक्षिण में अमेरिका के टेक्सास एवं खाड़ी तटीय क्षेत्रों तक पहुँच जाती है। यह अत्यंत ही ठंडी, शुष्क एवं प्रचंड वेग से प्रवाहित होने वाली पवन है।

 

पैम्पेरो (Pamper): अर्जेंटीना एवं उरुग्वे के पम्पास क्षेत्र में दक्षिण एवं दक्षिणपूर्व से चलने वाली अत्यंत शीतल ध्रुवीय पवन है। कभी-कभी ये पवनें चक्रवातीय वर्षा भी लाती हैं।

 

ट्रामोण्टानाः पश्चिम भूमध्य सागरीय क्षेत्र (कोर्सिका) में शीत काल में प्रवाहित होने वाली शुष्क एवं शीतल पवन।

 

उच्चस्तरीय पवन संचार

 

  • धरातल पर मौसम वायुमंडल की ऊपरी सतह पर घटित होने वाली घटनाओं से जटिल रूप से संबंधित है। ऊँचाई के साथ पवन का वेग बढ़ जाता है। इसका प्रमुख कारण वायु का कम घनत्व तथा घर्षण बल में कमी है। उच्च वायुमंडलीय पवनों की दिशा भी धरातलीय पवनों के समान नहीं होती है। उदाहरण के लिए, जुलाई के महीने में, भारत में धरातलीय पवन (मानसून पवन) दक्षिण-पश्चिम दिशा से प्रवाहित होती है, जबकि 10 किमी की ऊँचाई पर पवन पूर्व से पश्चिम की ओर प्रवाहित है। वैश्विक स्तर पर, ऊँचाई पर वायुदाब वितरण धरातलीय सतह की अपेक्षा बहुत सरल होते हैं। इसका प्रमुख कारण उच्च वायुमंडल में तापमान तथा स्थल खंड के यांत्रिक प्रभाव की कमी होना है। उच्चस्तरीय पवन संचार के अंतर्गत जेट स्ट्रीम का विस्तार से वर्णन किया गया है।

 

जेट स्ट्रीम

 

  • क्षोभमंडल की ऊपरी परतों में धरातल से 6 से 12 Km की ऊचाँइयों के मध्य पश्चिम से पूर्व की ओर तीव्र वेग से चलने वाली परिध्रुवीय पवन धाराओं को ही जेट स्ट्रीम कहा जाता है। ये पवन धाराएँ दोनों गोलार्धा में 20° उत्तरी एवं दक्षिणी अक्षांशों से ध्रुवीय क्षेत्रों तक वर्षभर निरंतर प्रवाहित होती हैं। जेट स्ट्रीम अर्धक्षैतिज अक्ष सहारे प्रवाहित होती है तथा इसमें लंबवत् एवं क्षैतिज पवन अपरूपण (wind shear) होता है।

 

जेट स्ट्रीम की कुछ प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:

 

  • जेट स्ट्रीम का संचरण ऊपरी क्षोभ मंडल में अधिक ऊँचाई पर संकरी पट्टी में पश्चिम से पूर्व दिशा में होता है।
  • जेट स्ट्रीम में पवन वेग में मौसमी परिवर्तन होता रहता है। ग्रीष्मकाल की तुलना में शीतकाल में ये अधिक प्रबल हो जाती हैं तथा इनका वेग दो गुना अधिक हो जाता है। 
  • इनका आकार सर्पिलाकार होता है। जेट स्ट्रीम में वायु का वेग बाहर की तरफ तेजी से कम होने लगता है। जेट स्ट्रीम का प्रवाह सीधी रेखा में नहीं होता है। इनका प्रवाह मार्ग विसर्पित एवं लहरदार होता है। कभी-कभी जेट स्ट्रीम क्षोभसीमा (ट्रोपोपॉज) को पार कर समतापमंडल के निचले भाग में प्रवेश करती है। इसके साथ जलवाष्प की कुछ मात्रा निचले समतापमंडल में पहुँच जाती है। इस कारण समतापमंडल में कभी-कभी पक्षाभ मेघ भी दिखाई देते हैं। 
  • जेट स्ट्रीम की तीव्रता में स्पष्ट रूप से देशांतरीय भिन्नता पाई जाती है। शीतकाल में, जेट स्ट्रीम का प्रबलतम वायु वेग एशिया के पूर्वी तट के पास पाया जाता है तथा पूर्वी अटलांटिक और प्रशांत महासागरों के ऊपर इसका वेग न्यूनतम होता है। ग्रीष्मकाल में, सबसे प्रबल जेट कनाडा की सीमा और भूमध्यसागरीय क्षेत्र में प्रवाहित होती हैं। 
  • प्रत्येक गोलार्ध में स्थाई रूप से जेट स्ट्रीम दो क्षेत्रों में पाई जाती हैं। प्रथम, उपोष्ण कटिबंधीय जेट स्ट्रीम और दूसरा ध्रुवीय वाताग्र जेट स्ट्रीम। इसके अतिरिक्त एक अन्य जेट स्ट्रीम, उष्ण कटिबंधी पूर्वी जेट स्ट्रीम जो अस्थाई प्रकृति की होती है, भी पाई जाती है। इनको संक्षेप में वर्णित किया गया है

 

उपोष्ण कटिबंधीय जेट स्ट्रीम

 

  • यह दोनों गोलार्धा में मध्य अक्षांश के ऊपर पश्चिम से पूर्व दिशा में प्रवाहित होती है। 
  • ह ध्रुवीय वाताग्र जेट स्ट्रीम की अपेक्षा अधिक नियमित रूप से संचरित होती है। 
  • इसकी गति ध्रुवीय वाताग्र जेट स्ट्रीम की तुलना में कम होती है। 
  • विषुवत् रेखीय क्षेत्र के पास से संवहन क्रिया के कारण ऊपर उठी हुई वायु 30° उत्तर और दक्षिण अक्षांश पर अवतलित होती हैं। इसी वायु धाराओं का एक हिस्सा उपोष्ण कटिबंधीय जेट धाराओं का रूप लेता है। 
  • उत्तर भारत में ग्रीष्मकाल में इसकी स्थिति हिमालय पर्वत के उत्तर में हो जाती है।

 

ध्रुवीय वाताग्र जेट स्ट्रीम

 

  • इसका निर्माण धरातलीय ध्रुवीय शीत वायुराशियों एवं उष्ण कटिबंधीय गर्म वायु राशियों के अभिसरण क्षेत्र के ऊपर होता है। दो विपरीत वायुराशियों के कारण ताप प्रवणता अधिक होती है, जिसके फलस्वरूप ध्रुवीय वाताग्र जेट स्ट्रीम की उत्पत्ति होती है। 
  • यह दोनों गोलार्धा में 40° और 60° अक्षांश के मध्य विस्तृत है। 

  • ये पूर्व से पश्चिम दिशा में संचरित होती है। इसका प्रवाह मार्ग उपोष्ण कटिबंधीय जेट स्ट्रीम की तुलना में अधिक विसर्पित होता है। 
  • यह ग्रीष्मकाल में ध्रुवों के तरफ और शीतकाल में भूमध्यरेखा की तरफ झुक जाती (swings) है। जब यह दक्षिण की ओर झुकती है, तो यह अपने साथ ठंडी पवन को उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्र की ओर ले जाती है।

 

उष्ण कटिबंधी पूर्वी जेट स्ट्रीम

 

  • यह एक मौसमी जेट स्ट्रीम है। इसका सम्बन्ध तिब्बत के पठार के ऊष्मन (Heating) से होता है। 
  • इसका आविर्भाव ग्रीष्मकाल में दक्षिण-पश्चिमी मानसून के दौरान भूमध्य रेखा और 20° उत्तर अक्षांश के बीच दक्षिण-पूर्व एशिया, भारत और अफ्रीका के ऊपर होता है। 
  • इसकी दिशा अन्य दो जेट स्ट्रीम्स के विपरीत होती है। यह पूर्व दिशा से चलती है। यह 14 किमी और 16 किमी की ऊँचाई पर संचरित होती है। यह जेट स्ट्रीम भारतीय मानसून की उत्पत्ति के लिए उत्तरदायी कारकों में से एक है। गर्म होने के कारण यह सतही गर्म व आर्द्र वायु को आरोहित कर भारत में संवहनीय वर्षा कराती है।

 

जेट स्ट्रीम का महत्व:

 

  • जेट स्ट्रीम का स्थानीय तथा प्रादेशिक मौसम पर पर्याप्त प्रभाव पड़ता है। ये चक्रवातों, प्रतिचक्रवातों, तूफान और अवदाब को निर्मित करने और उनके व्यवहार को प्रभावित करने में काफी योगदान करती हैं। भारतीय मानसून की उत्पत्ति के लिए उष्णकटिबंधीय जेट स्ट्रीम ही उत्तरदायी है। 

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