स्वयं सहायता समूहों की ग्रामीण भारत की विकास प्रक्रिया में भूमिका |SHGs in the Development Process of Rural Area

 स्वयं सहायता समूहों की ग्रामीण भारत की विकास प्रक्रिया में भूमिका 
Role of SHGs in the Development Process of Rural India
स्वयं सहायता समूहों की ग्रामीण भारत की विकास प्रक्रिया में भूमिका |SHGs in the Development Process of Rural  Area


 

स्वयं सहायता समूहों की ग्रामीण भारत की विकास प्रक्रिया में भूमिका का वर्णन निम्नांकित बिंदुओं के माध्यम से किया जा सकता है- 


स्वयं सहायता समूहों की ग्रामीण  विकास  में भूमिका 


1. वित्तीय बहिष्करण के समाधान की दृष्टि से: 

  • भारत के 6 लाख गाँवों में से लगभग 40 हज़ार गाँवों में ही बैंक शाखाएँ हैं। देश के सिर्फ 53 फीसदी लोगों के पास ही बैंक खाते हैं और करीब तीन-चौथाई किसान परिवारों को संगठित वित्तीय सेवाओं की ज़रूरत है। ऐसी स्थिति में देशभर में फैले 30 लाख से अधिक स्वयं सहायता समूहों से जुड़े लोगों को रोज़गार के अवसर प्राप्त हो रहे हैं। विश्व बैंक के अनुसार वर्ष 2011 से 2014 के बीच बैंक प्रतिशत 35 से 53 प्रतिशत तक हो गया।

 

2. सामाजिक-आर्थिक विकास व लैंगिक न्याय की दृष्टि से: 

  • केन्द्र सरकार ने उग्रवाद प्रभावित जिलों में एक अतिरिक्त स्वयं सहायता समूह-सह-बैंक सहबद्धता कार्यक्रम की शुरुआत की है। उग्रवाद प्रभावित जिलों में गरीबी उन्मूलन के लिये शुरू किये गए इस विशेष डब्ल्यूएसएचजी (WSHG) कार्यक्रम के तहत अब तक 6 हज़ार से ज्यादा स्वयं सहायता समूहों का गठन किया जा चुका हैजबकि स्वर्ण जयंती स्वरोजगार योजना के तहत पहले ही 29 हज़ार से अधिक समूहों का गठन किया जा चुका था। समूह के माध्यम से महिलाओं का आर्थिक एवं सामाजिक विकास हो रहा है। 
  • महिला सहायता समूह-सह-बैंक संबद्धता कार्यक्रम के तहत तीन लाख रुपए तक के ऋणों पर ब्याज सहायता देकर इन समूहों को 7 प्रतिशत की वार्षिक दर पर ऋण उपलब्ध कराया जा रहा है। साथ ही साथ समय पर ऋण चुकाने वाले महिला समूहों को तीन प्रतिशत की अतिरिक्त ब्याज सहायता भी दी जाती है। इस प्रकार इन समूहों को वास्तव में 4 प्रतिशत की दर पर ही ऋण उपलब्ध होता है। एक समूह में 10-15 महिलाएँ ही रह सकती हैं। विशेष योजना के तहत जिले की प्रत्येक पंचायत में 25-25 समूहों का गठन किया जा रहा है।

 

  • स्वयं सहायता समूह विभिन्न महत्त्वपूर्ण राष्ट्रीय योजनाओं व कार्यक्रमों के क्रियान्वयन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ग्रामीण विकास मंत्रालय ने जून 2011 में राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन (NRLM) शुरू किया है। इसके तहत देश के 6 लाख गाँवों, 2.5 लाख पंचायतों, 6000 प्रखण्डों एवं 600 जिलों में स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से निर्धनता रेखा से नीचे रहने वाले 7 करोड़ परिवारों को इसके दायरे में लाया गया है।

 

3. ग्रामीण वित्तीय स्थिति सधारने में: 

  • ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं जिनसे स्पष्ट होता है कि ग्रामीणों की वित्तीय स्थिति सुधारने में स्वयं सहायता समूहों की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही है। मध्य प्रदेश के झाबुआ जिले में स्वयं सहायता समूहों द्वारा पंजीकृत बैंक चेतना महिला बचत सरकारी संस्था’ की महिलाओं की वित्तीय स्थिति को सुधारने में प्रभावी भूमिका है। इसी तरह राजस्थान के भरतपुर जिले की डींग तहसील में बहताना गाँव की महिलाएँ लुपिन वेलफेयर एंड रिसर्च फाउंडेशन के माध्यम से तुलसी माला’ निर्माण से प्रतिमाह 4 से 5 हजार रुपए कमा रही हैं। स्वयं सहायता समूहों का जाल आदिवासी क्षेत्रों में भी फैल रहा है। झारखंड में हज़ारीबाग के गाँव हहरु में महिलाएँ जनसेवा परिषद’ नामक स्वयंसेवी संस्था के माध्यम से सामाजिक व आर्थिक सशक्तीकरण की राह पर अग्रसर हो रही हैं।

 

स्वयं सहायता समूहों की महिला सशक्तीकरण में भूमिका

 

  • यद्यपि स्वयं सहायता समूहों का लक्ष्य मोटे तौर पर वित्त तक पहुँच निश्चित कर गरीबी निवारण है परंतु इसके महत्त्वपूर्ण पूरक के रूप में इससे महिला सशक्तीकरण को नई दिशा मिल रही है। ये समूह न केवल महिलाओं को वित्त उपलब्ध कराकर आत्मनिर्भर बना रहे हैं बल्कि उनमें समग्र जागरूकता के विकास में भी भूमिका निभा रहे हैं। जिससे उनका सामाजिकआर्थिक व राजनीतिक सशक्तीकरण हो रहा है।

 

  • सूक्ष्म वित्त संस्थाओं द्वारा महिलाओं को प्राप्त होने वाले ऋण से महिला उद्यमों का सृजनविकास एवं संवर्द्धन जारी है। जिससे महिलाओं की स्वायत्ततास्वतंत्रताआत्मनिर्भरतास्वरोजगारआत्मविश्वास व सामाजिक ओहदे में वृद्धि हुई है। महिलाओं के स्वयं सहायता समूह के सदस्य के रूप में कार्य करने से उनमें स्वनिर्णय की क्षमता का विकास हुआ है तथा बैंकों के साथ लेन-देन एवं कागजी कार्रवाई जैसी गतिविधियाँ उनमें आत्मविश्वास जगाती हैं। 


  • इन समूहों के माध्यम से पंचायत संस्थाओंबैकोंगैर-सरकारी संगठनों से संपर्क करने से महिलाओं की सूचनाओं व संसाधनों तक पहुँच में वृद्धि हुई है जिससे उनमें सशक्तता को बढ़ावा मिला है। समूहों के माध्यम से महिलाएँ आत्मनिर्भर हो रही हैं जिससे परिवार व समाज में उनकी स्थिति में परिवर्तन हो रहा है। यदि महिलाएँ सशक्त होंगी तो उनके विरुद्ध घरेलू हिंसा के मामलोंमें भी कमी आएगी। स्वयं सहायता समूहों में कार्य करने से महिलाओं की सामुदायिक कार्यों में सहभागिता व पंचायतों की बैठकों में सक्रिय भागीदारी में वृद्धि हुई है। 


  • ऐसे कई उदाहरण सामने आए हैं जब स्वयं सहायता समूह की महिलाओं ने ग्राम सभा में शामिल होकर अपनी समस्याओं पर पंचायत और प्रशासन का ध्यान आकर्षित किया और उन्हें हल करने की शुरुआत की। इसके अलावा कई ऐसी घटनाएँ भी सामने आयीं जब महिला समूहों ने जल संकट जैसी कई समस्याओं के निवारण हेतु ग्राम सभा में अपनी बात रखी एवं समस्या के समाधान के भी प्रयास किये। इसके अतिरिक्त गाँवों में स्कूलआंगनबाड़ीराशन दुकान की मॉनीटरिंग भी इन समूहों की महिलाओं द्वारा करने के उत्तम प्रयास किये गए। इन समूहों के माध्यम से महिलाओं की वित्तीय क्षेत्र में अभूतपूर्व भागीदारी बढ़ी है। भारत में 80 फीसदी से अधिक स्वयंसहायता समूह महिलाओं से संबद्ध हैं जिनमें भुगतान दर 95 फीसदी के लगभग है तथा गैर-निष्पादक संपत्तियों का प्रतिशत भी कम है। इन समूहों ने महिलाओं में कौशल विकास को भी बढ़ावा दिया है।

 

  • इन समूहों द्वारा महिला सशक्तीकरण की दिशा में आशाजनक परिणाम मिलने के बावजूद महिलाओं के स्वयं सहायता समूहों की प्रगति में अनेक बाधक तत्त्व दिखाई देते हैं भारतीय समाज में अनेक सामाजिक प्रतिबंधों के कारण समूहों में कार्य करने की महिलाओं की भागीदारी प्रभावित होती है एवं उनकी गतिशीलता में कमी आती है। जीवन में पुरुषों का दबदबा होने के कारण आत्मनिर्भर होने के बावजूद उनका मनोवैज्ञानिक विकास नहीं हो पाता। 


  • महिलाओं के स्वयं सहायता समूहों को कई बार बैंकर्स के नकारात्मक रवैये का भी सामना करना पड़ता है। महिला समूहों को प्रशासनिक रूढ़िताओंजटिलताओंभ्रष्टाचारपुरुषवादी मानसिकता के कारण अनेक प्रशासनिक बाधाओं का सामना करना पड़ता है।

 

  • इस प्रकार मूलतः महिलाओं के आर्थिक विकास हेतु गठित किये गए स्वयं सहायता समूह महिलाओं के राजनीतिकसामाजिक सशक्तीकरण का माध्यम भी बनते जा रहे हैं।

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