मध्य प्रदेश विमुक्त जातियाँ : समाज, भाषा और संस्कृति |MP Denotified, Nomadic and Semi-nomadic tribes language Culture

 मध्य प्रदेश विमुक्त जातियाँ : समाज, भाषा और संस्कृति

मध्य प्रदेश विमुक्त जातियाँ : समाज, भाषा और संस्कृति |MP Denotified, Nomadic and Semi-nomadic tribes language Culture



 

 विमुक्त जातियाँ मध्य प्रदेश के संदर्भ में 

  • भारत में घुमंतू विमुक्त जनजातियों के 840 समुदाय है, जिनकी जनसंख्या लगभग 20 करोड़ है। जिन्हें अलग-अलग नामों से जाना जाता है। ये लोग कश्मीर से कन्याकुमारी और गुजरात से मिजोरम तक फैले हुए हैं, जिनकी रंग-बिरंगी जीवनशैली है, भले ही इनके पास कोई शिक्षा की डिग्री न हो, लेकिन परंपरागत ज्ञान की अथाह पूंजी है।
  • मध्य भारत तो घुमंतू विमुक्त जातियों का केंद्र हैं, इस क्षेत्र में अनेक जातियाँ घुमक्कड़ी करके भरण-पोषण करती हैं। 
  • यह क्षेत्र नर्मदा, तापी नदियों के तटीय इलाकों से होकर ओडिशा की महानदी तक फैला है, जिसकी दक्षिणी सीमा तेलंगाना में गोदावरी की घाटी तक फैली हुई है। इस क्षेत्र के लोग ज्यादातर खेती-मजदूरी करते हैं । 
  • अतीत में यह क्षेत्र मुगल, मराठा, निज़ाम और अंग्रेज शासकों के अधीन था, तब ग्रामीण जीवन का एक पारंपरिक ढांचा था, जिसमें अलुतेदार- बलुतेदार ऐसी वर्गवारी थी। उसके जरिये लोगों का जीवन व्यवहार तथा आर्थिक लेन-देन होता था। गाँव पूरी तरह आत्मनिर्भर थे, उनका शहरों से बहुत कम संपर्क था। 
  • गाँवों में अधिकतर लोग खेती पर निर्भर थे। कुछ लोगों के खेती से जुड़े परंपरागत व्यवसाय थे, जिसके जरिए जनपदों में विभिन्न सुविधाएँ और सेवाएँ प्रदान की जाती थी। इनमें घुमंतू जातियों का बड़ा योगदान था। इन लोगों का न तो कोई गाँव था, न कोई जमीन । 
  • एक गाँव से दूसरे गाँव घूमकर घुमंतुओं का जीवन बीत जाता था, उनको गाँवों के बाहर झुग्गियों में रहना पड़ता, उनके कबीलों में कुत्ते, मुर्गियाँ, घोड़े, गधे और पालतू जानवर होते थे। वहाँ से आसपास के क्षेत्रों में घूमते । 
  • बेलदार मुख्य रूप से गाँव के बाहर गोदरी में रूकते, जबकि नंदी वाले, जोशी, भाट मंदिरों के आसपास रहते। 
  • बंजारे अरब देशों से कपड़ा, गुजरात के तटीय इलाकों से नमक गधों पर लादकर भारत के अलग-अलग प्रांतों में पहुँचाते थे । 
  • वडार, बेलदार गाँवों में घर तथा कोठियों की निर्मित करते। 
  • बावरिया जाति हाथ की चक्की के पाटों को खुरदरा बनाते। कुछ बंधियाँ, कैकाड़ी, गाड़िया लोहार खेती से जुड़े लोहे के उपकरण, वस्तु बनाते, उनको गाँवों में बेचते कोल्हाटी (बेड़िया), डोंबारी (नट) कंजर, भाट लोगों का मनोरंजन करते।  
  • शाम गाँव की चौपाल में नटनी, ढपली, ढोल की थापपर कभी रस्सी पर चलते, तो कभी आग के गोले से कूदते, अलग-अलग करतब दिखाकर लोगों से भिक्षा प्राप्त करते ।
  • कालबेलिया (सपेरे) साँप पकड़ते, बेंत से बनी टोकरी में साँप को बंदकर घूमते, गाँव के चौराहों पर साँपों को दिखाकर जादुई खेल दिखाते और उनकी महिलाएँ नृत्य कर भीख माँगती थीं। उनको स्थानीय वनस्पति और जीव-जंतुओं की जानकारी होती । इसी आधार पर वे कई तरह की व्याधियों का उपचार करते, गाँवों में दवाइयाँ बेचते, सर्पदंश का इलाज जड़ी-बूटियों से करते / दक्षिण भारत से आए वैदू भी यह काम करते हैं, वह पीतल से बनी तुमड़ी से शरीर के जख्म साफ करते, खराब खून निकालते, जख्मों पर जड़ी-बूटियों का इलाज करते थे । 
  • भाट, बहुरूपिया सामाजिक कुरीतियाँ और ऐतिहासिक घटनाओं पर स्वांग लेते, नाटक दिखाते। तो गोंधली, पोतराज, वाघ्या मुरली, श्मशान जोगी, बैरागी धार्मिक अनुष्ठान करते। जोगी, गुसाई, नाथपंथी जातियाँ लोगों को ज्योतिष बताते।
  • कंजर जाति का कोई व्यवसाय विशेष नहीं था, नाच गाकर मनोरंजन करना, गाँव में भीख मांगना तथा शराब बनाकर बेचना ऐसे कार्य यह लोग करते थे। कभी-कभी वे छिपकली, सांडा, सर्प और गिद्ध का तेल निकाल कर दवाइयाँ बेचते, उनकी महिलाएँ ग्रामीण महिलाओं के बांझपन तथा स्त्री रोगों का इलाज करती थी । 
  • कोल्हाटी ( बेड़िया) समुदाय की महिलाएँ गाँव-गाँव जाकर तमाशा मंडलों में नृत्य करती। इस जनजाति में लड़की के जन्म को त्योहार की तरह मनाया जाता है। उनके पुरुष स्त्रियों पर ही निर्भर होते थे। 
  • बुंदेलखंड की बेड़िया महिलाओं का राई नृत्य, तो कोल्हाटी महिलाओं का लावणी नृत्य प्रसिद्ध था । डोंबारी (नट) पुरुष बाड़ीगरी, कलाबाजी और गाने-बजाने का कार्य करते। उनकी स्त्रियाँ नाचने और गाने का कार्य करती। वे शरीर के अंग-प्रत्यंग को लचीला बनाकर भिन्न मुद्राओं में अपनी कला प्रदर्शित करते, पुरुष वाद्य यंत्र बजाते कुछ लोग सांस्कृतिक मंच बनाकर दूसरे प्रदेशों में जाकर खेल, तमाशा दिखाकर अपना भरण-पोषण करते थे। बरसों से यह चल रहा था, लेकिन भारत में अंग्रेजी सत्ता स्थापित हुई, तब से गाँवों का जीवन बदलने लगा। 


परंपरागत ग्राम संस्कृति का औद्योगिक संस्कृति की और सफर 

  • परंपरागत ग्राम संस्कृति के बजाय, नई औद्योगिक संस्कृति पनपने लगी। जंगल, राजस्व और सड़कों पर अंग्रेजों ने अपनी सत्ता स्थापित की । कई जातियों के परंपरागत उद्योग बंद हुए। शिकलीगरों का हथियार उत्पादन बंद हो गया, बंजारा लोगों का व्यापार बंद हो गया ।
  • अंग्रेजों ने जंगल में घूमने तथा शिकार करने पर पाबंदी लगाई। जिसके कारण परंपरागत शिकारी जनजातियाँ जंगलों से बाहर हो गईं। गाँवों के लघु-उद्योग बंद होने लगे, जिसके कारण घुमंतू लोगों के रोजगार साधनों में कमी आने लगी, उनके हाथों को काम नहीं बचा। उनका पारंपरिक ज्ञान आधुनिकता के सामने टिक न सका। तब पेट पालने के लिए घुमंतू जातियों के सामने अनेक चुनौतियाँ पैदा होने लगी। 
  • उनका अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ आक्रोश बढ़ता गया। इस बीच सन 1857 के विद्रोह के कारण अंग्रेजों को घुमंतू जातियों का डर लगने लगा, क्योंकि इन जातियों को गृहयुद्ध में हराना मुश्किल ही नहीं नामुमकीन था । 
  • तब इन जातियों को अवरुद्ध करने के लिए अंग्रेजों ने आपराधिक जाति अधिनियम 1871 लागू किया ये वही हिंदुस्तान का बड़ा तबका है, जिसने अंग्रेजों के खिलाफ अपने-अपने स्तर पर क्षमता के अनुसार सशस्त्र विद्रोह किये थे। 
  • यह विद्रोह संयुक्त प्रांत, मध्य प्रांत, बराड़, मुंबई प्रेसिडेंसी, बंगाल प्रेसिडेंसी एवं मद्रास प्रेसिडेंसी के इलाकों में हुआ था । विद्रोहियों का नेतृत्व इनके मुखिया, कबीलों के सरदार तथा उनके राजाओं ने किया था।
  • रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे, पेशवा के सिपाहियों में रामोशी, टकारी चरवाहे थे, जो आसानी से किले चढ़ जाते थे । वडार, गाड़िया लोहार जैसे लोग राजाओं को शस्त्र बनाकर देते थे। 
  • अंग्रेजी हुकूमत ने घुमंतुओं के मुक्त संचार पर प्रतिबंध लगा दिया। उन्हें अपराधों के नाम पर जेल में डाला जाता। जिस गाँव में वे जाते उनको पुलिस पाटिल, कोतवाल के पास हाजिरी देनी पड़ती थी। वे लंबे समय तक एक ही गाँव में नहीं रह सकते थे। जहाँ भी चोरी या डकैती होती, वहाँ इनको पकड़ लिया जाता था। उन्हें हमेशा संदेह की नजर से देखा जाता था। इससे महिलाओं और बच्चों पर बुरा प्रभाव पड़ता। 


घुमंतू जातियों का 'विमुक्त'  जाति नाम 

  • स्वतंत्रता के बाद 31 अगस्त 1952 को तत्कालीन प्रधानमंत्री ने आपराधिक कानून को निरस्त कर दिया । तब घुमंतू जातियों को स्वतंत्रता मिली, उनको 'विमुक्त' नाम प्राप्त हुआ। उनके विकास के लिए योजनाएँ बनाई गईं। 
  • दो आयोग, कई समितियाँ नियुक्त की गई बजट में राशि का प्रावधान किया गया, लेकिन इन जातियों की समस्याओं का समाधान नहीं हो सका उनका दैनंदिन संघर्ष जारी रहा, समय के साथ नए संकट उनके सामने उभरने लगे। 
  • स्वतंत्रता के बाद जंगलों, वन्यजीव संरक्षण जैसे कानूनों के कारण इन जातियों का पारंपरिक व्यवसाय पूरी तरह से बरबाद हो गया उनको मुख्यधारा में लाने के कई प्रयास किए गए, लेकिन वह ज्यादा सफल नहीं हुए। 
  • विकास की योजनाएँ इन लोगों तक नहीं पहुँच सकी। कथित सभ्य समाज में उनके प्रति कोई सहानुभूति नहीं थी। परिणाम स्वरूप विमुक्त जातियाँ समाज की मुख्यधारा से बहुत पीछे रह गईं। गरीबी और भुखमरी जैसी कई समस्याएँ उनके सामने जस की तस थी।

 घुमंतू विमुक्त कौन हैं 

  • घुमंतू विमुक्त ज्यादातर हिंदू हैं। हालाँकि समय के साथ शिकलीगर और सपेरा जैसी जातियाँ मुस्लिम धर्म में परिवर्तित हो गई हैं, फिर भी उनमें हिंदू रीति-रिवाज़ प्रचलित हैं। 
  • वे लोग अभी भी शादी में हल्दी लगाते हैं। नाक, कानों को छेदते हैं, उनमें जाति पंचायतों का आयोजन भी होता है। 
  • विमुक्तों में पितृसत्तात्मक पारिवारिक पद्धति प्रचलित है जिनमें संयुक्त और विभक्त परिवार दिखाई देते हैं । जब बड़े बच्चे की शादी हो जाती है, तो वह अलग घर बसा लेता है ।
  • विमुक्त जातियों के लोग अपनी आजीविका चलाने के लिए निरंतर गाँवों में घूमते हैं। गधे, घोड़ों और बैलों पर सामान ढोकर चलते हैं। इनमें से कुछ जातियाँ पूरी तरह से घुमक्कड़ी करके ही जिंदगी बिताती है। 
  • किसी भी गाँव में उनका घर नहीं होता, वे बारहमासा घुमक्कड़ी ही करते हैं।
  • कुछ अर्द्ध घुमंतू जातियों के लोगों के पास कृषि योग्य भूमि होती है, गाँवों-कस्बों में घर होता है। ये लोग बारिश के मौसम में वहाँ रहते हैं । कृषि का सीजन समाप्त होते ही इनके परिवारों से नौजवान पलायन करते है । जहाँ भी जगह मिले, वहाँ झुग्गी-झोपड़ियाँ बनाकर रहते हैं। 


विमुक्त जाति की वेशभूषा

  • हर विमुक्त जाति की वेशभूषा अद्वितीय है। महिलाएँ माथे पर कुमकुम लगाकर गले में मंगलसूत्र और नाक में बेसर पहनती हैं। साड़ी, लहंगा, चोली और कपड़े उनका पोशाक होता है। 
  • महिलाओं को गहनों में विशेष रूचि होती है। वह कानों में झुमके, हाथों में चूड़ियाँ पहनती हैं। महिलाओं के लिए घूँघट प्रथा प्रचलित है। 
  • पुरुष धोती, चड्डी, पैंट-शर्ट पहनते हैं । विमुक्त जातियों में नाक, कान छिदवाना प्रचलित है। 
  • बंजारा, गाड़िया लोहार, कालबेलिया महिलाएँ रंगीन कपड़े पहनती हैं। 
  • पारधी जनजाति के लोग पोशाक के बारे में बहुत जागरूक नहीं होते, शरीर की स्वच्छता पर भी वह ध्यान नहीं देते हैं । 
  • विमुक्त जातियों का आहार शाकाहारी और मांसाहारी होता है । मांस के साथ-साथ शराब उन्हें प्रिय होती है। 
  • अतीत में तो कंजार भाट समुदाय का पारंपरिक व्यवसाय शराब परोसना था। 
  • पारधी जनजाति के लोग शिकार करते थे । 
  • वैदू कुत्ते की मदद से शिकार करते थे। अब शिकार पर प्रतिबंध के कारण विमुक्त जातियों की शिकार पद्धति बंद हुई है।


विमुक्त जातियों के संस्कार 

  • विमुक्तों के जीवन में जन्म, विवाह और मृत्यु प्रमुख संस्कार हैं। अतीत में इनके परिवारों में बच्चों का जन्म झुग्गी-झोपड़ियों में होता था, आजकल अस्पतालों में होता है । 
  • तीसरे दिन छठी-पूजा होती है, जिसमें बकरे या मुर्गे की बलि देकर कुलदेव को अर्पित किया जाता है। ऐसा करने से देवता की कृपा बनी रहती है, ऐसा लोक विश्वास है। 
  • बच्चे अपने परिवार के साथ घूमते हैं, कम उम्र से ही अपने माता-पिता की मदद करते हैं । कुछ बच्चे स्कूलों में जाकर प्राथमिक स्तर तक पढ़ाई करते हैं, कुछ बच्चे बीच में ही शिक्षा छोड़ देते हैं। गरीबी और पिछड़ापन जैसी समस्याओं के कारण वह शिक्षा नहीं ले पाते । 
  • अतीत में इन जातियों में बाल विवाह प्रचलित रहे हैं। यह लोग शादियाँ जातपंचायत में सबके सामने तय करते हैं। लड़का-लड़की को दहेज देता है। और शादी का आधा खर्च उठाता है। पहले के जमाने में उपयोगी वस्तुएँ दहेज में देने का प्रचलन था । 
  • पारधी- बहेलिया शिकार के लिए हथियार, जालियाँ देते थे। बंजारा जाति में बैल देने का रिवाज था। भाट अपने पुश्तैनी गाँव की कुल संहिताएँ दहेज में लड़कियों को देते थे। आमतौर पर इन जातियों की शादियाँ बरसात के दिनों में होती थी। 
  • अभी भी यह चल रहा है। विवाह के सभी विधि विधान दो से तीन दिनों में संपन्न होते हैं। देवी का कुलाचार संपन्न होता है। मण्डप का निर्माण पाँच या सात बाँसों को गाड़कर किया जाता है। 
  • कन्या दान, सुमंगली एवं सप्तपदी होती है। महिलाएँ मनोरंजनात्मक लोकगीत गाती है, जिसमें समधी-समधन, बारातियों में हँसी-मजाक होती है। 
  • बारातियों को भोजन कराया जाता है । शिकलीगर, सपेरे काजी द्वारा निकाह कराते हैं। पहले विवाह विच्छेदन जाति पंचायतों में किया जाता था, अब कोर्ट में होता है। 
  • विधवा पुनर्विवाह को भी मंजूरी दी जाती है। 
  • इन जातियों में अंतरजातीय विवाह किसी भी कीमत पर स्वीकार्य नहीं होता। अगर कोई लड़का या लड़की अन्य जाति में शादी करता है, तो उस परिवार को जाति पंचायत दंड देकर समाज से बहिष्कृत कर देती है।
  • इन जातियों में जब किसी की मृत्यु होती है, तो सबसे पहले गाँव के लोगों को बताकर रिश्तेदारों को संदेशा देते हैं। जब रिश्तेदार आते हैं, तो शव को गर्म पानी से स्नान कराते हैं, नए कपड़े पहनाकर उसे अरथी पर सुलाते हैं । 
  • शव पर गुलाल फेंका जाता है। 
  • यदि सुहागन महिला की मृत्यु होती है, तो उसे हरे रंग की साड़ी पहनाई जाती है। उसके माथे पर एक कुमकुम लगाया जाता है। फिर शव को जमीन में दफनाया जाता है। 
  • कुछ जातियाँ दाह संस्कार भी कराती हैं। तीसरे दिन दशा कर्म कर किया जाता है । पारधी तो सिर्फ पत्थर डालकर शव को दफनाते हैं। 
  • कुछ जातियाँ दस दिनों तक सूतक रखती हैं, द्वादशाह एवं तेरवा की विधि करते हैं। 
  • कंजारभाट जाति में यदि अविवाहित पुत्र की मृत्यु हो जाती है तो उसका विवाह पहले एक रूई पौधे सें लगाया जाता है। 
  • अधिकांश विमुक्त जातियाँ दशहरा, दिवाली, होली, रंगपंचमी, नागपंचमी, पोला, जिरोती जैसे त्योहार मनाती हैं। 
  • त्योहार के दिन, उनकी महिलाएँ मीठे - स्वादिष्ट पदार्थ नहीं बनाती, क्योंकि उन्हें वह पदार्थ बनाने की कला नहीं आती। महिलाएँ, बच्चे त्योहार के दिन गाँवों में घूमकर खाने की चीजें मांगते हैं, वही खाते हैं। कुछ लोग त्योहारों पर मांसाहारी भोजन बनाते हैं।
  • महादेव, पार्वती, राम लक्ष्मण, हनुमान, आसरा, भैरवनाथ, रामदेव बाबा, भवानी, यल्लम्मा, देईमाता, बाबाजी स्थानीय सिद्ध पुरुष उनके प्रमुख देवता हैं । 
  • घुमक्कड़ी करते समय प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ता हैं। प्रकृति के कई तत्वों की वह पूजा करते हैं। 
  • विमुक्त जातियों की कुल देवी होती है, जो कबीले के साथ हमेशा होती है। कोई भी आपदा आयी तो ये देवी बचाव करती हैं, ऐसा विमुक्तों का लोक विश्वास है इस देवी को प्रसन्न करने हेतु मुर्गा तथा बकरे की बलि दी जाती है। 
  • इनके देवी-देवता पत्थरों से बने होते हैं । 
  • इन जातियों को मंत्रों, जादू-टोना टोटका, शकुन-अपशकुन, भूत और पिशाच पर भी बहुत विश्वास होता है। 


विमुक्त जातियों में महिलाओं की स्थिति 

  • विमुक्त जातियों की महिलाओं का जीवन बड़ा ही संघर्षमय होता है। पुरुष प्रधान व्यवस्था के कारण, महिलाओं को हमेशा पुरुषों के वर्चस्व में रहना पड़ता है। उन्हें कोई स्वतंत्रता नहीं होती। 
  • कुछ जातियाँ महिलाओं को अच्छा रहन-सहन और अच्छे कपड़े पहनना वर्जित करती है। उनको पराये आदमियों के सामने सदा घूँघट में रहना पड़ता है। 
  • कुछ महिलाएँ गाँवों में घूमकर औषधि जड़ी-बूटियाँ तथा कुछ चीजें बेचकर गुजारा करती हैं। अतीत में अधिकांश विमुक्त जातियों में लड़कियों के विवाह बचपन में होते थे। परिणाम स्वरूप महिलाओं को कम उम्र मे जिम्मेदारियों को निभाना पड़ता था, न शिक्षा मिलती, न सुरक्षा। 
  • बचपन से उन्हें कड़ी मेहनत करनी पड़ती, लड़कियों को बचपन के दौरान अपने भाई-बहनों का ख्याल रखना पड़ता पशुओं को चराना पड़ता । समाज की बुरी नजर से लगातार बचना पड़ता। अब भी उनकी स्थिति में कोई ज्यादा बदलाव नहीं आया, उनके कष्ट कम नहीं हुए हैं। 

विमुक्त जातियों की जाति पंचायतें 

  • अतीत में जाति पंचायतें विमुक्त जातियों के सामाजिक ढांचे का हिस्सा थी । 
  • पारिवारिक विवाद, संपत्ति आवंटन, विवाह विच्छेद, झगड़े, दुष्कर्म, आदि विवाद जाति पंचायतों में ही निपटाये जाते हर जाति की अलग पंचायत होती थी। 
  • जब आवश्यक हो तब जाति पंचायत का आयोजन किया जाता। 
  • बुजुर्ग, समझदार व्यक्ति जाति पंचायत में पंच के रूप में कार्य करते थे। समाज की परंपराओं, रीति रिवाजों को देखते हुए फैसले लिये जाते। 
  • कभी-कभी जाति पंचायत के पंच सांकेतिक भाषा का इस्तेमाल करते, ताकि हर किसी को समझ न आ सके। जमीन पर बैठकर समस्या का हल निकाला जाता।
  • जाति पंचायत का फैसला सभी के लिए बाध्यकारी होता, अन्यथा जाति पंचायत परिवार को दंडित करती, बहिष्कार किया जाता।
  • मध्य भारत में नांदेड़ जिले की 'मालेगाँव' तथा नगर जिले की 'मड़ी' विमुक्तों की सर्वोच्च जाति पंचायतें थी । वहाँ साल में एक बार अलग-अलग विमुक्त लोग आकर समस्याएँ सुलझ थे । 
  • जाति पंचायत में बैठक के दौरान पाँवों में चप्पल तथा सिर पर टोपी पहनना पूरी तरह निषिद्ध था। हर जाति के लोग अलग अलग पेड़ों के नीचे अपनी पंचायत आयोजित करते थे । विमुक्तों के रीति रिवाज, परंपराएँ ध्यान में रखते हुए फैसले किए जाते । 
  • विमुक्तों का पूरा जातिगत संगठन जाति पंचायतों पर आधारित था, लेकिन स्वतंत्रता के बाद जाति पंचायत पर प्रतिबंध लग गया, इसके कारण जाति पंचायतें लुप्त हो गई ।

 

विमुक्त जातियों की भाषाएँ

  • मध्य भारत में विमुक्त जातियों की अलग-अलग भाषाएँ हैं। इनमें से कुछ जनजातियाँ उत्तर से आयी, तो कुछ दक्षिण से कुछ पश्चिम से आकर बस गई हैं या फिर भटक रही हैं। 
  • विमुक्त लोगों की भाषाओं को मुख्य रूप से दो भाषिक परिवारों में वर्गीकृत किया जाता है। पहला इंडो-आर्यन और दूसरा द्राविड़ियन ।
  • इंडो-आर्यन भाषाकुल में पारधी, कंजारभाट, रामोशी, वाघरी, शिकलीगर, तुंबड़ीवाले, डोंबारी, बंजारा, गाड़िया- लोहार। 
  • द्राविड़ीयन भाषाकुल में कुंचीकोरवा (नंदीवाले), कुचबंधिया (कैकाड़ी), वडार, वैदू, जोगियों की भाषाएँ शामिल हैं। 
  • चूंकि ये जातियाँ लगातार घुमक्कड़ी करती हैं, इसलिए बहुभाषिक होते हैं । अपनी मातृभाषा के अलावा यह किसी भी भाषा में बात कर सकते हैं। 
  • इनकी मातृभाषाओं में बाहरी भाषाओं के शब्द घुल मिल गए हैं। इन भाषाओं को 'पारुषी' के नाम से जाना जाता है । प्रत्येक भाषा की अलग संरचना है। इन भाषाओं में मराठी, हिंदी, गुजराती मेवाड़ी, निमाड़ी, उड़िया, तेलुगू, कन्नड़ जैसी भाषाओं के शब्द दिखाई देते हैं।
  • यह पूरी तरह से मौखिक है, इनकी भाषाओं की लिपि नहीं हैं। कभी-कभी विशिष्ट शब्दों के उच्चारण से विशिष्ट संदेश दिया जाता है, जो पुलिस एवं ग्रामीणों को पता नहीं चलता। 
  • कुछ शब्द विशेष रूप से पुलिस कोतवालों के लिए होते हैं। पहले शिकार करते समय इस्तेमाल होने वाली भाषा अलग थी, शिकार के नाम, अवयव, पद्धति, हावभाव तथा संकेतों के आधार पर उसका इस्तेमाल होता था। 
  • समय के साथ इन भाषाओं में काफी परिवर्तन आ रहा है, कुछ भाषायें तो लुप्त हो चुकी हैं । 

विमुक्त लोगों का बहुभाषिक होना 

  • विमुक्त लोग भ्रमंती के कारण बहुभाषिक होते हैं, वे अपनी मातृभाषा के साथ-साथ अन्य भाषाओं में आसानी से संवाद कर सकते हैं । 
  • पारधी, गाड़िया लोहार, कंजार, नट, भाट लोग काश्मीर से कन्याकुमारी तक घुमक्कड़ी करते हैं, इसलिए वे कई प्रांतों की भाषा बोल सकते हैं। समय के साथ विमुक्तों की भाषाओं पर दूसरी भाषाओं का आक्रमण बढ़ा है। 
  • परंपरागत रूप से पारुषी बोलने वाले लोगों की अंतिम पीढ़ी शेष है। 
  • सूचना प्रौद्योगिकी के युग में नई पीढ़ी अपनी मातृभाषा के बारे में चिंतित नहीं दिखाई में देती, क्योंकि उनकी भाषाओं में कोई शिक्षा, रोजगार की सुविधा नहीं है, इसलिए उनका रुझान रोजगार देने वाली भाषा सीखने की ओर अधिक है। 
  • अगर हम विमुक्तों की भाषाओं को बचाना चाहते हैं, तो इन भाषाओं में शिक्षा, रोजगार और नई प्रौद्योगिकी के अवसर प्रदान करने होंगे, तभी ये भाषा जीवित रहेंगी ।

 

विमुक्त जातियों के जीवन में परिवर्तन की प्रक्रिया 

  • इक्कीसवीं सदी में घुमंतू विमुक्त जातियों के जीवन में परिवर्तन की प्रक्रिया शुरू हुई है। विमुक्त जनजातियों में जो लोग मनोरंजन, खेल, करतब दिखाकर लोगों का मनोरंजन करते थे, वह सिमटता जा रहा है। 
  • गाँव में बिजली, सड़क, परिवहन संपर्क बढ़ने से शहरी संस्कृति का प्रभाव बड़ा है। टीवी, मोबाइल जैसे मनोरंजन के साधन उपलब्ध होने से विमुक्तों की लोककलाएँ लुप्त हो रही हैं। 
  • विमुक्तों की वाचिक परंपरा के लोकगीत, लोककथा, आख्यानों का भंडार खंडित हो रहा है। 
  • 1972 के वन्यजीव संरक्षण अधिनियम के बाद विमुक्तों की कलाओं पर प्रतिबंध लगा है, लेकिन अभी भी कुछ लोग रोजी-रोटी हेतु परंपरागत कलाओं का प्रदर्शन चोरी-छुपे कर रहे हैं । 
  • अब कई जातियों के लोग गाँवों में स्थायी तौर पर रहने लगे हैं और कुछ लोगों ने पक्के मकान बनाये हैं।
  • विमुक्तों के पारंपरिक व्यवसायों में भारी बदलाव हो रहा है। 
  • पारधी लोगों ने कटलरी और प्लास्टिक का सामान बेचने का व्यवसाय शुरू किया, तो वैदू लोगों ने अपनी पुरातन चिकित्सा पद्धति छोड़ी और स्टोव की मरम्मत या घरेलू उपकरण बनाने का व्यवसाय शुरू कर दिया है । 
  • बेलदार जनजाति के लोगों ने पुराने मिट्टी के घर बनाने के व्यवसाय को छोड़कर प्लास्टिक की चीजें बेचना शुरू किया है। कई लोगों ने घुमक्कड़ी छोड़कर कृषि व्यवसाय अपनाया है। 
  • विमुक्तों का कृषि तथा ग्रामीण जीवन से अटूट नाता है, इन सभी समुदायों के जीवन का आधार खेती किसानी ही था । 
  • गाँव के किसान घुमंतुओं के लिए अलग से अनाज रखते थे, लेकिन जैसे-जैसे हमारे ग्रामीण जीवन की हालत बदतर हुई, वैसा घुमंतू समाज पिछड़ता गया।


विमुक्त जाति दिवस 31 अगस्त

  • मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की पहल पर 31 अगस्त, 2021 को विमुक्त जाति दिवस (Vimukt Jati Diwas) पर मध्य प्रदेश में विमुक्त, घुमक्कड़ एवं अर्द्धघुमक्कड़ जनजाति (Denotified, Nomadic and Semi-nomadic tribes) की विशेष पंचायत आयोजित की गई।
  • मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने प्रदेश के विभिन्न वर्गों के साथ संवाद स्थापित कर उनके विचारों और सुझावों के आधार पर कल्याणकारी कार्यक्रम और योजनाओं का निर्माण एवं क्रियान्वयन की प्रक्रिया प्रारंभ की है।
  • इसका मुख्य उद्देश्य संबंधित वर्ग को अधिकाधिक लाभ मुहैया कराते हुए विकास की मुख्य धारा से जोड़ना है। इसी क्रम में विभिन्न वर्गों की पंचायत का आयोजन पुन: शुरू कर विमुक्त, घुमक्कड़ और अर्द्धघुमक्कड़ वर्ग की पंचायत आयोजित की गई। 
  • उल्लेखनीय है कि भारत के हृदय प्रदेश में विमुक्त, घुमक्कड़ एवं अर्द्धघुमक्कड़ जनजातियों के विकास तथा कल्याण हेतु मध्य प्रदेश शासन की अधिसूचना 22 जून, 2011 द्वारा पृथक् विमुक्त, घुमक्कड़ एवं अर्द्धघुमक्कड़ जनजाति कल्याण विभाग’ (Denotified, Nomadic and Semi-nomadic Tribes Welfare Department) का गठन किया गया था।
  • मध्य प्रदेश की 51 जातियों को विमुक्त, घुमक्कड़ एवं अर्द्धघुमक्कड़ जनजातियों में सम्मिलित किया गया है। इन जनजातियों की प्रमुख समस्या शैक्षणिक पिछड़ापन, आर्थिक रूप से विपन्नता एवं घुमक्कड़ प्रवृत्ति होने के कारण स्थायी आवास न होना है।
  • इन जनजातियों की उपरोक्त समस्याओं को दूर करने के लिये इन्हें एक स्थान पर आवासीय सुविधा देने हेतु प्रधानमंत्री आवास योजना कें अंतर्गत प्रति हितग्राही 1.50 लाख रुपए तक का अनुदान दिया जाता है।

साभार :Sources of Content विमुक्त जातियाँ : समाज, भाषा और संस्कृति  लेखक डॉ. श्रीकृष्ण काकड़े

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