बंजारा संस्कृति और परम्परा |बंजारा संस्कृति एवं उसका इतिहास | Banjara Sanskrit Evam Parampara

 बंजारा संस्कृति एवं उसका इतिहास
बंजारा संस्कृति और परम्परा 
बंजारा संस्कृति और परम्परा |बंजारा संस्कृति एवं उसका इतिहास | Banjara Sanskrit Evam Parampara


बंजारा संस्कृति और परम्परा

  • बंजारों की वीरता की गाथा और सांस्कृतिक विरासत भारतीय इतिहास में उल्लेखनीय है। सामाजिक परम्पराएँ व मान्यताएँ उनके प्रथा परम्पराओं से लेकर गीतों तक अक्षुण्य है। वे तीज-त्योहार और धार्मिक अनुष्ठान, वस्त्र विन्यास तथा गहनों-जेवरों से जाने पहचाने जा सकते हैं। 
  • मध्यप्रदेश में विमुक्त जनजाति के अंतर्गत दर्जनों जातियों को मान्यता प्रदान की गई है। इन खानाबदोश जातियों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर आजीविका की तलाश करने वाले समुदायों के रूप में समझा जा सकता है। प्रत्येक घुम्मकड़ समुदाय के सामाजिक रीति-रिवाज एवं आजीविका के साधन अलग-अलग हैं।

 

छिन्दवाड़ा जिला और बंजारा समुदाय

  • बंजारे का अर्थ है वन-वन घूमकर व्यापार करना वनजारा से बंजारा शब्द रूढ़ हो गया। बंजारा समुदाय में 51 प्रकार की जातियाँ पाई जाती हैं।
  • छिन्दवाड़ा जिले में अमरवाड़ा तहसील के ग्राम सकरवाड़ा, हिर्री मुकासा, खामी, पिंडरई, कोल्हिया, दीघावानी, कहुआ, चिखली, लहगडुआ, मरकाडोल, चोपना, लोहिया, हरई तहसील के ग्राम थारवा, धरमी, बाबूटोला, बाराहिरा ढाना, बिनेकी, मरकावाड़ा, चौरई तहसील के ग्राम पिपरिया फतेहपुर, बिल्हेरा, खामीहीरा, रमपुरी टोला, डुटमर, बाँसखेड़ा टाप, हलाल, परासिया तहसील के ग्राम तेलीबड़, बगानपुरी एवं झारकुंड में बंजारा समुदाय बसा है।
  • घुमक्कड़ और अर्द्ध घुमक्कड़ जातियाँ इस समुदाय के अंतर्गत आती है। बंजारा समुदाय के अंतर्गत छह गोत्र चौहान, सात गोत्र राठौर, बारह गोत्र पवार, एक गोत्र जाधव, एक गोत्र तुंवर (तूरी) पाए जाते हैं, जिसमें सपावट, कुर्रा, पालथिया, लादड़िया, कैडुत, मूड़ इत्यादि गोत्र सम्मिलित हैं। 
  • छिन्दवाड़ा जिले में लगभग 15-16 हजार की आबादी बंजारा समुदाय की है। ये पूर्व में घुमक्कड़ थे, किन्तु वर्तमान में स्थाई रूप से गाँवों में बस गए हैं।

 

बंजारा संस्कृति एवं उसका इतिहास

  • बंजारा संस्कृति एवं उसका इतिहास प्राचीन है। राजस्थान से निकलकर संपूर्ण देश में भ्रमण करते हुए बंजारा समुदाय विभिन्न राज्यों में बस गया है। हिंदू शासकों के शासन में भी बंजारों का इतिहास उल्लेखनीय रहा है। देश की रक्षा, पशु एवं नमक के व्यापार में संलग्न रहते हुए बंजारों की अपनी पहचान रही है। 


  • मुगल आक्रमण के समय राजपूत राजाओं को सहायता हो या अंग्रेजी शासन काल में अंग्रेजों के दाँत खट्टे करना हो, बंजारों ने अपने साहस का परिचय दिया है।

 

  • भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में जंगी और भंगी बंजारा की वीरता का बखान है । अंग्रेजों ने बंजारों के कारनामों से घबराकर उन्हें आपराधिक जनजाति घोषित कर दिया। जंगल में रहने वाले बंजारों ने अंग्रेजों की गुलामी स्वीकार नहीं की। उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध हथियार उठाए, अंग्रेजी खजाने की लूट पाट की, तब अंग्रेजों ने चालाकी से उन्हें अपराधी घोषित कर दिया। 
  • इनसे संबंधित जनश्रुति यह भी है कि जब जंगी और भंगी के साथ और भी बंजारों को अंग्रेजों ने जेल में डाल दिया। होली का त्योहार आने पर बंजारों ने जेल में ही नाचना गाना प्रारंभ कर दिया। अंग्रेजों ने पूछा कि तुम क्या कर रहे हो, तब उन्हें जवाब दिया गया कि जेल के ताले खोल दीजिए जिससे हम होली के अवसर पर नृत्य करेंगे । जैसे ही ताले खोले गए, बंजारों ने लाठियों से मार मारकर जेलर व सिपाहियों को मार गिराया, तभी से 1839 में अंग्रेजों ने उन्हें आदतन लूट करने वाले अपराधी घोषित कर दिया। उन्हें 'ठग्स ऑफ इंडिया' कहा गया।

 

  • छिन्दवाड़ा जिले में निवासरत बंजारा समुदाय लोक संस्कृति का वाहक रहा है। समुदाय में लोक गीत, लोकगाथा, लोकोक्ति, में बोली बानी, वेश-भूषा, खान-पान, रीति रिवाज सभी कुछ विशिष्ट हैं ।

 

बंजारा बोली 

  • बंजारा बोली को गौरमाटी बोली कहा जाता है जो राजस्थानी बोलियों के सदृशं है। पश्चिमी हिंदी के अंतर्गत आने वाली मेवाती, जयपुरी, मारवाड़ी बोली की तरह ही गौरमाटी बोली में भी कठोर वर्णों का प्रयोग अधिक है, किन्तु इस बोली की वाचिक परंपरा है। लिखित साहित्य नहीं होने से इस बोली को बोलने वाले भाषाभाषी की संख्या घट रही है।


बंजारा समुदाय का पहनावा

  • बंजारा समुदाय का पहनावा भी अलग पहचान दिलाता है। महिलाएँ फेटुआ (लगभग 5-7 मीटर घेरदार लहंगा) काँछड़ी (ब्लाऊज) चुनरी-पछेड़ी (ओढ़नी) पहनती हैं । पुरुष धोती अंगरखा (कुर्ता) के साथ सिर पर पगड़ी (साफा) बाँधते हैं जो लंबाई में अधिक होती है। इसका कारण यह भी है। कि राजस्थान के रेगिस्तान में सिर को तेज धूप से बचाने हेतु इतनी बड़ी पगड़ी बाँधी जाती थी। 
  • महिलाओं के लहंगे में कशीदाकारी होती है। जैसे ही घर में बेटी का जन्म होता है, माँ उसके लिए फेंटुआ काढ़ना प्रारंभ कर देती है। यह कशीदाकारी बहुत ही बारीक होती है । इसे हाथ से काढ़ा जाता है जो बहुत ही समय और श्रम साध्य होता है। काँछड़ी में छोटे गोल आईना और कौड़ी लगी रहती है, जिसे भी हाथ से ही बनाया जाता है। बहुत ही बारीक । कशीदाकारी में कलात्मकता दिखाई देती है ।

 

  • गहनों के बिना बंजारन अधूरी है। कहीं से दूर घुँघरू की आवाज से समझा जा सकता है, पैर में पैड़ी या पागड़ी (पीतल के घुँघरू) नाक में नथ, कान में घुघरी टोपरी, सिर पर चूड़ों, हाथ में ककना बांकड़ा, पेंहुची, बिनोरिया, हाथ की दसों उँगलियों में ईटी (पीतल की अंगूठी जिसमें घुँघरू लगे रहते हैं) गले में हंसुली आदि आभूषण बंजारन स्त्रियाँ धारण करती हैं।


  • नाक में नथ पहनने का रिवाज इतना महत्वपूर्ण है कि यदि नाक में नथ न हो तो स्त्री का विवाह नहीं हो सकता। जिसके नाक में जितनी बड़ी नथ होगी, उसकी उतनी प्रतिष्ठा होगी।

 

बंजारा समुदाय में खान-पान 

  • बंजारा समुदाय में खान-पान, आर्थिक स्थिति एवं भौगोलिक स्थिति के अनुरूप होता है। आर्थिक स्थिति कमजोर हो तो उबले गेहूँ में नमक डालकर बनी घूघरी और गुड़ की डली से भी भोजन हो जाता है। 
  • त्योहार और शादी विवाह में सीरा ( गुड़- लॉंग - इलायची खोपरा को घी से बघारकर बनाया गया पदार्थ) जिसमें रोटी को मीड़ कर खाया जाता है। खिचड़ी (दाल-चावल मिलाकर बना व्यंजन) लापसी (चावल, घी, शक्कर गुड़ से बना) भाँग (गेहूँ के आटे को घी में भूनकर फिर गुड़ डालकर हलुवे जैसा बनाकर उसे छोटे छोटे टुकड़ों को काटकर बनाया जाता है) और आमड़या (बेसन) में मसाले मिलाकर आंटे की तरह गूंथकर लंबे आकार में बनाकर उबलते पानी में डालकर पकाते हैं, जिसे मसालेदार सब्जी की तरह बनाया जाता है) बाजरे की रोटी, चूरमा (बाटी को मीड़कर उसमें घी, गुड़ मिलाकर) इत्यादि बनाया जाता है। 
  • रेगिस्तान में हरी सब्जी की उपलब्धता नहीं होने पर या अन्य स्थान पर घूमते हुए हरी सब्जी क्रय नहीं कर पाने पर स्थाई रूप से उपलब्ध अनाज गेहूँ, चने की दाल का बेसन, चावल, बाजरा, गुड़, घी को ही भोजन के रूप में प्रयोग किया जाता है।


बंजारा समुदाय में लोकगाथा 

  • बंजारा समुदाय में लोकगाथा भी प्रचलित हैं जो तीज त्योहार से जुड़ी हुई हैं। भुजलियाँ का त्योहार आमतौर पर रक्षाबंधन के दूसरे दिन मनाया जाता है, किन्तु बंजारा समुदाय हरियाली अमावस को भुजलियाँ विसर्जन करते हैं। 
  • एक समय जब आल्हा ऊदल का युद्ध चल रहा था, तब उनकी बहन चंद्रावलि का डोला जंगल में इनके गाँव में 15 दिन रूका रहा, इसलिए 15 दिन पूर्व ही भुजलियाँ का त्योहार मनाया जाता है। जिसमें मिट्टी के गणगौर बनाते हैं यह त्योहार तीन दिनों तक मनाया जाता है। 
  • पौराणिक कथा है कि जब भगवान शंकर लम्बे समय तक तपस्या में लीन रहते थे, तब माँ पार्वती अकेली रहती थी। उन्होंने अपनी शक्ति से पाँच गण बनाए जो उनकी सेवा करते थे। बड़े होने पर उनके विवाह की चिंता हुई, उस समय कैलाश में कोई नहीं रहता था। यह निर्णय लिया गया कि इंद्र की परियाँ जब सरोवर में स्नान करने आएँगी, उस समय उनके वस्त्र चुरा लें, जब वे अपने वस्त्र लेने आएँगी, उनसे गणों का विवाह कर देंगे । परियाँ स्नान करने आई, गणों ने वस्त्र चुरा लिए, किंतु परियाँ तो उड़ने वाली थी, उन्होंने उड़कर अपने वस्त्र वापस प्राप्त कर लिए। 
  • दूसरी बार पुनः वस्त्र चुराए गए और इतनी तीव्र गति से दौड़े की मार्ग में तपस्यारत गुरु गोरखनाथ टकरा गए। जैसे ही गुरु की आँखें खुली तो उन्हें सामने निर्वस्त्र परियाँ दिखाई दी, लज्जावश सभी परियों ने सिर झुका लिया और दूसरी ओर मुँह करके खड़ी हो गईं। ऐसा माना जाता है कि उसी समय से बंजारा समुदाय की महिलाएँ पुरुषों के सामने अपना मुँह नहीं दिखाती हैं, घूँघट काढ़ती हैं और दूसरी ओर मुँह कर लेती हैं।

 

  • गुरु गोरखनाथ ने मंत्र शक्ति से उन उड़ने वाली परियों के सिर में कील ठोक दी और पैर में बेड़ियाँ (पैड़ियाँ) डाल दी और गणों से उनका विवाह करा दिया। उसी प्रथा के पालन में बंजारा महिलाएँ सिर पर चूड़ा (लकड़ी) बना नुकीला तिकोना) और पैर में घुँघरूदार पैड़ी पहनती है। वे जिधर से भी गुजरती है घुँघरू की झनकार से उनके आने की आहट आ जाती है। 
  • उसी समय से मिट्टी के गण बनाकर गणगौर का त्योहार मनाया जाता है। यह त्योहार तीन दिन का उत्सव होता है। गाँव में पहले सभी को भुजलिया बोने का बुलौवा दिया जाता है, मुखिया ( नायक) के घर एकत्र होकर भुजलिया बोई जाती है। दूसरे दिन महिलाएँ मिट्टी के गण ( स्त्री पुरुष के पुतले) टोकनी में रखकर लाती हैं। प्रत्येक घर में लड्डू बनाए जाते हैं, महिलाएँ टोकनी में लड्डू रखकर गीत गाते हुए पाँच-पाँच, सात-सात लड्डू बाँटती हैं, बच्चे लड्डू लेते हैं तो उन्हें झूठ-मूठ की लाठी मारी जाती है । इस प्रकार श्रद्धा और उमंग के साथ तीन दिनों तक यह उत्सव मनाया जाता है ।

 

बंजारा समुदाय त्योहारों में होली का पर्व 

 

  • होलिका दहन का कार्यक्रम होता है। होली की सात-सात परिक्रमा की जाती है, नारियल प्रसाद चढ़ाया जाता है, फाग गाई जाती है। दूसरे दिन सभी एकत्र होकर नायक के घर जाते हैं, जहाँ पान - प्रसादी के बाद रंग-गुलाल खेला जाता है। 
  • फाग गाते हुए नृत्य होता है। होली के बाद समुदाय में जिस भी परिवार में बच्चे का जन्म होता है, उस घर में सभी महिला पुरुषा ढफला (ढफली) लेकर - जाते हैं, गीत गाते हैं और उस परिवार द्वारा पंचों को फगुआ (रूपए) दिया जाता है, भाँग घुघरी खिलाई जाती है जिस परिवार - में विवाह हुआ है वहाँ भी नई बहू के स्वागत में सभी महिला-पुरुष जाते हैं, वहाँ भी फगुआ, भाँग घुघरी के साथ गीत नृत्य होता है । 
  • सभी पंच फगुआ से प्राप्त राशि को इकट्ठा कर उससे बकरा भोज का कार्यक्रम करते है। होली का त्योहार सात दिनों तक मनाते हैं । दीपावली एवं अन्य त्योहार भी पूर्ण गरिमा से मनाया जाता है। मुख्य त्योहार गणगौर होली है । 


बंजारा समुदाय में गीत-संगीत-नृत्य 

गीत-संगीत-नृत्य के बिना बंजारा जीवन अधूरा है। जीवन के प्रत्येक संस्कार में गाए जाने वाले लोकगीत इस समुदाय की विशष्टता लिए हुए हैं। जन्म, विवाह, त्योहार परब, सभी अवसर पर गीत गाए जाते हैं। जन्म के समय बधाई, विवाह में सगुन गीत, गारी, होली में फाग, भुजलियागणगौर में आल्हा गीत, ईश्वकर आराधना में झामरा भजन- जस, श्रमगीत, शोक गीत एवं अन्य उत्सव में गीत गायन होता है। 


जैसे-

बंजारा समुदाय  का  बधाई लोकगीत 

पहलो मेंड़ों हे गोसाई बाबा रो

निकरो कौड़ौँ उपजो 

तू जो मेड़ों धरती माता रो लीजो 

जेरी ऊपजी हरियल दूब 

तीजों मेंड़ों धरती माता रो वासंग

देवता जे पे रचणा रचायो

 

बंजारा समुदाय  का  गारी

 

उल्ले पारे की पीपड़ी पिल्ले पारे में उनो पेदड़ जाय

गड़ती रात मोहरो है आधी रात भरो धरो है कटोरा दूधे रे 

चितुर सो होए सो झेंले मूरखे फेर-फेर जाय 

चतरे रे माथे मोड़या मूरखे रे माथे धौड़ी पाग

 

बंजारा समुदाय  का गणगोर गीत 

किड़ी मुत्ते रे जाले सारी गौरिया एहे एहे जाय

फेटा बांधों लौंगु सुपारी सड़ली बांधौ सौंफ 

झाजा लोभी होय दीवाना 


होरी गीत 

 

गेड़े मेंडला में फाग मची रे होरी (रमेर) 

टांडे रो नाइक गेरे के कोनीए 

टांडे रो नाइक भांग घोटि के कोनीए 

टांडे रो नाइक रंग धीचो के कोनीए गेड़े

 

झामरा लोकगीत 

 

मैया हाथे डंडा रे पग घुँघराए माते (जस) 

म्हारी मैया ने दीजो रे सणदेष 

जाजो रे भगता एके लोरे 

खेरा पतिन ने दीजो रे सणदेष 

मांडवे न जाजो रे भगता पूरवे न जाजो

माई ने जाजो रे भगता ऐ कला

 

बंजारा समुदाय की अन्य परंपरा एवं संस्कार 

  • मानव जीवन जन्म से मृत्यु के बीच की यात्रा है। बंजारा समुदाय में बच्चे के जन्म समय नार (नाल) गिरने तक परिवार में सूतक होता है, उसके बाद शुद्धिकरण । महिलाएँ बधाई गाती है। भाँग घुघरी बंटती है। 
  • अंतिम संस्कार में वर्तमान में दाह संस्कार किया जाने लगा है। पहले जंगल / रास्ते में जहाँ कहीं मृत्यु होती थी, वहीं उसे दफना दिया जाता था, तीन दिन सूतक के बाद तीसरा में शुद्धि की जाती समीप में जो भी नदी-नरूआ हो उसे गंगा मानकर अस्थि विसर्जन किया जाता है। 
  • आर्थिक स्थिति के अनुसार तेरहवीं की जाती है। मृत आत्मा को देवी-देवता में लेने के लिए दीवाली या होली के पहले 'धौड़ोधान' की रोटी करते हैं। परिवार में किसी मांगलिक कार्य होने के पूर्व यह प्रक्रिया होना जरूरी होता है। पूर्वजों को मीठी लापसी घी-गुड़ की धूप दी जाती है। कंडे अंगार में धोप (धूप) दी जाती है, पानी दिया जाता है। 
  • विवाह की परंपरा इस समुदाय में अब समय के साथ परिवर्तित हो रही है। पूर्व में जब बेटों के अनुपात में बेटियों की संख्या कम थी, उस समय विवाह की शर्त होती थी कि वर पक्ष जब तक वधू पक्ष को ओखली (धान कूटने की ओखली) भर रूपए ( उस समय चाँदी के सिक्के प्रचलित थे) नहीं देंगे, तब तक विवाह नहीं हो सकता। 
  • विवाह संबंध कम उम्र में ही तय हो जाते हैं, सगाई कर देते हैं फिर साल दो साल में जब जिसकी जैसी गुंजाइश होती है, विवाह किया जाता है। 
  • बारात आगमन पर किसी भी वृक्ष के नीचे वर पक्ष को जनवासा दिया जाता है। जनवासे में बारातियों को कचौड़ियाँ (नाश्ता ) गुड़ और रोटी का चूरमा लड्डू परोसा जाता है। 
  • दुल्हन के लिए भाँवरे की जो साड़ी लाई जाती है, उसे चार लोग तान कर घर से निकलते हैं और बीच में दूल्हा कटार लेकर निकलता है। आँगन में चौक स्वस्तिक बनाया जाता है, हल्दी चढ़ती है, पूजन के पश्चोत् घर की महिलाएँ दूल्हे को भेंटती है, जिसे ढावलो काड़ना कहते हैं, जिसमें गीत गाए जाते हैं । इन गीतों में माँ अपने बेटे को शिक्षा देती है कि तुम ससुराल जा रहे हो तो अपना व्यवहार अच्छा रखना, मर्यादा का पालन करना इत्यादि । समाज को भोजन करवाकर फिर बारात निकलती है। 


बंजारा समुदाय में विवाह की परंपरा 

  • विवाह में पंडित का कार्य बड़तिया बंजारा करते हैं। बारात झेलने के बाद भाँवर पड़ती है। विवाह मंडप के लिए कुम्हार से 28 बेई (छोटे मिट्टी के कलश / करवा ) लाई जाती है। चारों कोनों में 7-7 बेई लगाई जाती है। 
  • आक-ढाक सहित सात प्रकार की लकड़ी लाते हैं, जिन्हें बेई के चारों ओर सजाते हैं। मंडप के बीच दो मूसल (ओखली में कूटने वाली लकड़ी) गड़ाई जाती है, जिसमें साड़ी या चादर का पर्दा तानकर दोनों तरफ दूल्हा और दुल्हन को बैठाया जाता है। हल्दी लगती है, महिलाएँ गीत गाती हैं ।
  • दूल्हा-दुल्हन को नहलाया जाता है, उस समय ढोक्स्या फुड़ाई की रस्म होती है। पहले दुल्हन को नहलाया जाता है फिर मान्य परम्परानुसार दूल्हे को नहलाया जाता है। चौक पूर कर स्वस्तिक बनाकर पूजन बाद भाँवर पड़ती है। 
  • साला दूल्हे के कान में कंकड़ गड़ाकर अपनी बहन के पक्ष में बातें मनवाता है कि मेरी बहन से पूछकर बाजार जाओगे, कोई भी काम करोगे मेरी बहन से पूछकर करना। यह रस्म अपनी बहन के भविष्य को सुरक्षित रखने की प्रतीक परम्परा है। 
  • दूल्हे को सास दुपट्टे से बाँधकर अंदर घर में ले जाती है, पीछे से दूसरी सास मूसल से मारती है। यह इस बात का प्रतीक है कि हमारी बेटी तुम्हारे घर जा रही है, किन्तु उसे कभी अकेली मत समझना, हम सभी मजबूती से उसके साथ हैं। 
  • घर में दूल्हा-दुल्हन लापसी का हुमन (आग पर गुड़ घी डालकर धूप देना) कर देवता की पूजा करते हैं। दूल्हा-दुल्हन एक ही थाली में भोजन करते हैं, ऐसी मान्यता है कि दोनों का आपसी प्रेम बढ़ेगा। इसके पश्चात् माँड खिलाने की रस्म होती है, जिसमें परात में पसई के चावल में सिक्के और कौड़ी को डाला जाता है और दोनों से ढूँढने के लिए कहा जाता है। इस अवसर पर गीत गाए जाते हैं, दूसरे दिन बकरा देने की परपंरा भी है जो अब बदल गई है। 
  • विवाह के समय बेटी को उपहार स्वरूप कपड़े (घाघरा चोली) दिए जाते हैं, जिनकी गिनती भी होती है। माना जाता है कि जिस घर में कपड़ों की संख्या जितनी अधिक होगी, उनकी उतनी मान प्रतिष्ठा होगी। विदाई के समय दुल्हन को बैल पर बिठाकर मुखिया के घर ले जाते थे । वहाँ वह सबको आशीर्वाद देता है । 
  • विवाह भोज में भाँग, घुघरी, खिचड़ी, लापसी, सीरा, आमड़या इत्यादि पकवान परोसे जाते हैं। यदि परिवार की आर्थिक स्थिति कमजोर है तो केवल भांग (गुड़- आटे से बना व्यंजन ) और घुँघरी बांटकर ही भोज की परपंरा सम्पन्न हो जाती है।

साभार डॉ. टीकमणि पटवारी  बंजारा संस्कृति और परम्परा

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MP One Liner GK
One Liner GK 
MP PSC Main Paper 01
MP PSC Mains Paper 02
MP GK Question Answer
MP PSC Old Question Paper

1 comment:

  1. Dear Sir,
    apane bahut achhi janakari di he he hamare samaj ke bare me kintu kuchh topic apako apake blog me add karna chahiye jaise ki vivah aur kisi bache ke janm par to us parivar ke yaha khushiya manane jate he kintu yadi us varsh holi se pahale yadi kisi ka nidhan ho gaya ho to us parivar ke yaha shok manane bhi jate he aur parivar ko dilasa bhi diya jata he ke pura samuh apake sath he.aur dusari baat teej tyohar par banay jane wale laddu jaise vyanjan ko DHAMOLI kaha jata he.hamare samaj ke geeto me LORD SHIVA'S, RAMAYANA, KRUSHA, MAHABHAT aadi ka ullekh adhik praman me milata he, aur to aur A GOOD ADMINISTRATION, A GOOD CIVILISATION AND MANAGMENT, AND GOOD JUDICIARY bhi yaha dekhne milta tha par samar parivartan ke saath saath ab in sab me bohat se changes aa gaye he....

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