व्यवस्थावादी उपागम: चेस्टर बर्नार्ड |व्यवस्था सिद्धान्त | Chestar Bernard Ka Lok Prashasan Sidhant

व्यवस्थावादी उपागम: चेस्टर बर्नार्ड

व्यवस्थावादी उपागम: चेस्टर बर्नार्ड |व्यवस्था सिद्धान्त | Chestar Bernard Ka Lok Prashasan Sidhant



व्यवस्था सिद्धान्त

  • व्यवस्था सिद्धान्त एक व्यापक उपागम है जिसमें संकुचित परिप्रेक्ष्य में चीजों को देखने की आम कमी नहीं रहती। असल जोर समूचे व्यक्ति और कुल संगठन पर रहता है। जिस तरह शान्त सरोवर में पत्थर फेंकने से हर दिशा में लम्बी हरे उठती हैंइसी प्रकार अधिकांश क्रियाएं परस्पर सम्बन्धित होती हैं और उनका क्षेत्र सामान्यतया अपेक्षित क्षेत्र से कहीं अधिक होता है। 


  • व्यवस्था उपागम में संगठन को एक समेकित और उद्देश्यपूर्ण संस्था के रूप में विकसित करना है जो परस्पर सम्बद्ध भागों में निर्मित है। व्यवस्था सिद्धान्त किसी संगठन का विभिन्न भागों में अलग-अलग अध्ययन करने के बजाय प्रबन्धकों को ऐसा दृष्टिकोण प्रदान करता है कि वे संगठन को समूचे रूप में और बड़े तथा बाहरी वातावरण के भाग के रूप में देखें। व्यवस्था सिद्धान्त से यह भी पता चलता है कि किसी भी संगठन के किसी एक भाग की गतिविधि का प्रभाव अन्य प्रत्येक भाग की गतिविध पर पड़ता है। प्रबन्धक का कार्य यह सुनिश्चित करना है कि संगठन के सभी भागों में आपस में समन्वय हो ताकि संगठन के लक्ष्य प्राप्त किए जा सकें।

 

  • एक 'व्यवस्थाकी परिभाषा वस्तुओं की व्यवस्था के उस सेट के रूप में दी जाती है जिससे वे इस प्रकार जुड़े या सम्बन्धित हों कि एक एकीकृत पूर्ण का निर्माण हो । एक व्यवस्था का निर्माण उन पर सम्बन्धित तथा अन्तर निर्भर तत्वों से होता है जो अनतःक्रिया करते समय एकात्मक पूर्ण’ बनाते हैं।

 

  • व्यवस्थावादी उपागम अपने आप में नया नहीं है। इस उपागम का सर्वप्रथम विकास प्राकृतिक तथा भौतिक विज्ञानों में हुआ। टॉलकॉट पारसन्स ने सामाजिक संरचनाओं के अध्ययन में इस उपागम को अपनाया। इसी तरह मनोवैज्ञानिकराजनीतिशास्त्री तथा प्रशासनिक विश्लेषक तथ्य या घटना के विश्लेशण में व्यवस्थावादी उपागम का प्रयोग करते रहे हैं। प्रशासनिक विश्लेषण में सामयिक वर्षों में व्यवस्थावादी उपागम का विस्तृत रूप से प्रयोग हो रहा है।

 

  • चेस्टर बर्नार्ड को मूल रूप से एक व्यवहारवादी माना जाता है क्योंकि उन्होंने प्रबन्ध के मनोवैज्ञानिक पक्ष पर बल दिया। उसके साथ ही उन्हें व्यवस्थावादी विचारक माना जाता है। वह संगठन को एक सामाजिक व्यवस्था के रूप में देखते हैं।

 

  • बर्नार्ड अपने सिद्धान्त का विकास एक केन्द्रीय प्रश्न को लेकर करता है कि किन परिस्थितियों में व्यक्ति का सरकारी व्यवहार सम्भव हैवह संगठन को एक सहकारी व्यवस्था समझते हैं। उनका कहना है कि सहयोग का जन्म उन उद्देश्यों की प्राप्ति की आवश्यकता से होता हैजिन्हें वह अकेले प्राप्त नहीं कर सकता। परिणामस्वरूपसंगठन दूसरे लोगों के सहयोग की भर्ती बन जाता है। चूंकि संगठन में बहुत से व्यक्ति सहयोगी व्यवहार में संलग्न होते हैंयह निरन्तर बदलता है तथा जटिल जीव वैज्ञानिकमनोवैज्ञानिक तथा सामाजिक कारक निरन्तर पारस्परिक क्रिया करते हैं। सहयोगी संगठन को अपने अस्तित्व के लिए संगठन उद्देश्यों को प्राप्त करने के अर्थ में प्रभावी एवं व्यक्तिगत उद्देश्यों को सन्तुष्ट करने में व्यवहारिक होना चाहिए। इस प्रकार संगठन और व्यक्ति दोनों महत्वपूर्ण बन जाते हैं। प्रभावशीलता तथा कुशलता का यही चिन्तन सहयोगी व्यवहार के उसके सिद्धान्त का मूल आधार है।

 

  • सहयोग के तथ्यों का परीक्षण करते हुए सहयोग के कारणों की खोज बर्नार्ड भौतिक तथा क्रियात्मक कारणों में करते हैं। व्यक्ति सहयोग करते हैं क्योंकि अकेले वे अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने में समर्थ नहीं हैं। उनकी शारीरिक सीमाएं सहयोगी कार्यवाही की ओर उन्हें ले जाती हैं। सहयोगी तथ्यों को परखने की एक दूसरी दृष्टि है कि प्रकृति अकेले व्यक्ति पर ऐसे प्रतिबन्ध लगा देती है कि व उन पर सहयोगी कार्यवाही के अतिरिक्त विजय नहीं पा सकता।

 

  • बर्नार्ड के अनुसार सहयोगी व्यवस्थाएं औपचारिक संगठनों को जन्म देती हैं। संगठन की परिभाषा देते हुए बर्नार्ड कहते हैं कि संगठन जान-बूझकर समन्वित की गयी व्यक्तिगत गतिविधियों या शक्तियों का नाम है।

 

संक्षेप मेंबर्नार्ड की मान्यता है कि प्रत्येक संगठन मूलतः एक सहयोगी व्यवस्था हैसहयोगी प्रयास को चेतनागत रूप से समन्वित होने की आवश्यकता है। संगठनात्मक प्रक्रिया का वह क्षेत्र है जिसमें कार्यपालिका को एक सहयोगी व्यवस्था के लक्ष्यों तथा ध्येयों को प्राप्त करने में भूमिका निभानी है।


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