विदेशी व्यापार से क्या तात्पर्य है ? |भारत के विदेशी व्यापार की संरचना या स्वरूप | Bharat Me Videshi Vyapar


विदेशी व्यापार से क्या तात्पर्य है ?

विदेशी व्यापार से क्या तात्पर्य है ? |भारत के विदेशी व्यापार की संरचना या स्वरूप | Bharat Me Videshi Vyapar



विदेशी व्यापार का महत्व


विदेशी व्यापार का अर्थ विश्व के अन्य देशों के साथ व्यापार करने से है। किसी देश की अर्थव्यवस्था में विदेशी व्यापार का महत्वपूर्ण स्थान होता है। 

विदेशी व्यापार का महत्व निम्न बिन्दुओं से स्पष्ट है।

1. प्राकृतिक संसाधनों का अनुकूलतम प्रयोग होता है ।

2. आधिक्य या अधिशेष का निर्यात कर सकता

3. आधुनिक प्रविधि का आयात-निर्यात कर सकता है।

4.निर्मित व कच्चे माल का आयात व निर्यात कर सकता है।

5. निर्यात से भारत को विदेशी मुद्रा की प्राप्ति होती है ।

6. विश्व के अन्य देशों के साथ आर्थिक और राजनीतिक सम्बन्धों में सुधार होता है ।


स्वतंत्रता के उपरान्त भारत का विदेशी व्यापार


स्वतंत्रता के पश्चात् नियोजित आर्थिक विकास हेतु किए गए प्रयासों के तारतम्य में देश के विदेशी व्यापार की मात्रा, निर्यात की जाने वाली वस्तुओं की संख्या तथा उनकी गुणवत्ता में सुधार कर में निर्यात को प्रोत्साहित करने का प्रयास किया गया तथा आयात को नियंत्रित किया गया। 


भारत के विदेशी व्यापार की संरचना या स्वरूप


  • विदेशी व्यापार की संरचना से आशय वस्तुओं के आयात एवं निर्यात से है । वस्तुतः विदेशी व्यापार की संरचना का अर्थ है कि किस मात्रा में और किन-किन वस्तुओं का आयात अथवा निर्यात होता है । जिन वस्तुओं की पूर्ति हम विदेशों से करते हैं उसे आयात कहते है तथा जिन वस्तुओं की पूर्ति हम विदेशों को करते हैं उसे निर्यात कहते है।

ब्रिटिश शासन के दौरान भारत के विदेशी व्यापार का स्वरूप औपनिवेशिक था। इस अवधि में भारत के विदेशी व्यापार संरचना की निम्नलिखित दो प्रमुख विशेषताएँ थी -

  • 1. भारत के कच्चे माल का निर्यात होता था ।
  • 2. भारत निर्मित माल का आयात करता था ।

भारत के निर्यात एवं आयात की संरचना 


भारत के निर्यात एवं आयात की संरचना
भारत के निर्यात एवं आयात की संरचना



1. पारम्परिक वस्तुएँ: 

  • पटसन तथा पटसन से निर्मित वस्तुएँ, कपास तथा कपास से निर्मित वस्तुएँ, चाय, तिलहन, चमड़े आदि पारम्परिक वस्तुएँ कहलाती है।

2. गैर-पारम्परिक वस्तुएँ:

  • इंजीनियरिंग वस्तुएँ, हस्तकला की वस्तुएँ, मोती, बहुमूल्य पत्थर, जेवर एवं जवाहरात, लोहा एवं इस्पात, रसायन, बने-बनाए पोशाक, चीनी, मछली, काजू, काफी आदि को गैर-पारम्परिक वस्तुएँ कहते हैं ।

3. उपभोक्ता वस्तुएँ: 

  • वे वस्तुएँ जिनका प्रत्यक्ष रूप से उपभोक्ता एवं सरकार के द्वारा उपभोग किया जाता है जैसे कागज, भोजन सामग्री, बिजली का सामान एवं औषधियाँ आदि ।

4. कच्चा माल एवं मध्यवर्ती वस्तुएँ: 

  • वे वस्तुएँ जिसका उपयोग उत्पादक एवं सरकार के द्वारा अन्य वस्तुओं के उत्पादन में लगाया जाता है या बेचने के लिए खरीदा जाता है | उदाहरण के लिए खनिज तेल, कच्चा माल, रंग और रसायन, पटसन, गेहूँ, इत्यादि ।

5. पूँजीगत वस्तुएँ: 

  • उत्पादन के उत्पाद साधन के संचय (stock of produced menas of production) को पूँजीगत वस्तु कहते हैं जो अन्य वस्तुओं के उत्पादन एवं मूल्य वृद्धि (value) में योगदान देते है। इन वस्तुओं के अन्तर्गत लेखांकन या वित्तीय वर्ष के अन्त में शेष वस्तुएं तथा इनके उत्पादन में वृद्धि करने वाले उत्पादन के साधनों को सम्मिलित किया जाता है। ये वस्तुएँ है प्लाण्ट और यंत्र, कच्चे माल का संचय, परिवहन आदि ।

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