प्राचीन काल में वर्ण व्यवस्था | वर्ण व्यवस्था क्या है ||Varn vyavastha kya hai

प्राचीन काल में वर्ण व्यवस्था | वर्ण व्यवस्था क्या है

प्राचीन काल में वर्ण व्यवस्था | वर्ण व्यवस्था क्या है ||Varn vyavastha kya hai



वर्ण व्यवस्था सामान्य परिचय 

  • प्राचीन भारतीय समाज की आधारभूत एवं भौतिक व्यवस्था थी। प्राचीन भारतीय समाज की आधारशिला के रूप में वर्ण व्यवस्था ने कार्य किया है। भारतीय ऋषि मुनियों एवं विद्वानों के मस्तिष्क की यह अद्भुत उपज थी जो विश्व में अपने प्रकार की भौतिक एवं अनोखी व्यवस्था थी। कार्य विभाजन पर आधारित यह व्यवस्था व्यक्ति एवं समाज में विकास के भूलभूत सिद्धान्तों पर आधारित थी। यह एक ऐसी व्यवस्था थी, जिसमें वर्ग सहयोग की भावना निहित थी, तथा जिसमें समाज का सम्पूर्ण कार्य सुचारू रूप से ब्राहण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र चतुर्वर्णो में विभाजित था। इस व्यवस्था में चारों वर्णों के कार्य एवं कर्तव्य पारिभाषित एवं व्याख्यायित किये गये थे। कार्य विभाजन पर आधारित होने के बाबजूद वर्ण व्यवस्था में चारों वर्णों के लिए अन्योन्याश्रितता का सिद्धान्त भी निहित था।

 

  • आश्रम व्यवस्था की उत्पत्ति किसी न किसी रूप में वैदिक काल में हो गयी थी, अन्तर वैदिक कालीन अनेक अंको से आश्रम व्यवस्था के होने से संकेत मिलते हैं। तैत्तरीय संहिता, शतपथ ब्राह्मण, एत्तरेय ब्राह्मण आदि में आश्रम व्यवस्था की विद्यमानता के प्रमाण निहित है। छांदोग्य उपनिषद् में गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा ब्रह्मचर्य तीन आश्रमों का उल्लेख हुआ है।

 

  • भारतीय धर्मशास्त्रों, उपनिषदों, भगवत्गीता एवं स्मृतियों में मनुष्य के जीवन के मूल कर्त्तव्यों में धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष नामक पुरूषार्थो का वर्णन है। जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति के लिए पुरूषार्थों की प्राप्ति को आवश्यक बताया गया है। जीवन के अन्तिम उद्देश्य 'मोक्ष' अर्थात् जन्म मरण के बंधन से मुक्त परब्रह्म परमात्मा में समा जाने के लिए धर्म, अर्थ और काम को सफलतापूर्वक प्राप्त करना आवश्यक है।

 

  • 'जाति व्यवस्था' जन्म पर आधारित व्यवस्था है, जिसमें विवाह, खान-पान, ऊँच-नीच, जैसे प्रतिबंध जाति के सदस्यों पर रहते हैं। तात्पर्य यह है कि एक जाति का सदस्य, दूसरी जाति में विवाह नहीं कर सकता, दूसरी जाति के व्यवसाय को नहीं अपना सकता, ऊँची जाति के लोग नीची जाति के लोगों के साथ भोजन नहीं कर सकते हैं और एक जाति के सदस्य पर ये नियम कठोरता से लागू होते हैं, इनके उल्लंघन पर जाति से बहिष्कार का दण्ड दिया जा सकता है।

 

 प्राचीन काल में वर्ण व्यवस्था किस पर आधारित थी

वर्ण व्यवस्था क्या है 

 वर्ण शब्द की उत्पत्ति

  • वर्ण शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा की वृ, वृत, वरी या वरी धातु से हुई है जिसका शाब्दिक अर्थ चुनना या वरण करना है। 
  • वस्तुतः वर्ण से तात्पर्य वृत्ति अर्थात् व्यवसाय का चुनाव करने से है। इस प्रकार वर्ण के शाब्दिक अर्थ से स्पष्ट है कि कोई भी व्यक्ति अपनी पसंद के व्यवसाय चुनाव का सकता था और व्यवसाय के के साथ ही व्यक्ति का वर्ण निश्चित हो जाता था। 
  • र्वप्रथम वर्ण शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में रंग के अर्थ में हुआ है। 
  • ऋग्वेद में आर्यो को श्वेत (गोरा) वर्ण (रंग) तथा अनार्यो (दास, दस्यु) को श्याम ( काला, कृष्ण) वर्ण (रंग) का कहा गया है। ऋग्वेद में आर्यो और अनार्यो के बीच अनेक शारीरिक एवं सांस्कृतिक अंतरों का वर्णन किया गया है अतः स्पष्ट है कि ऋग्वेद काल में रंग के आधार पर वर्ण निश्चित होता था। 

ऋग्वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था

  • प्रारम्भिक वैदिक काल (1500-1000 ई0प0) अर्थात् ऋग्वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था नामक सामाजिक व्यवस्था नहीं थी। आर्यों और अनार्यों को क्रमशः श्वेत और श्याम रंग के साथ ही, प्रजातीय एवं सांस्कृतिक आधार पर स्पष्ट रूप से विभाजित किया गया था। 
  • ऋग्वेद में ब्रह्म, क्षत्र और विश तीन शब्दों का प्रयोग क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं जन साधारण वर्ग के लिए हुआ है। 
  • शूद्र शब्द का प्रयोग पूरे ऋग्वेद में मात्र दशवें मण्डल में हुआ है।
  • इस प्रकार पूर्व वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था स्थापित नही थी और समाज में किसी प्रकार का सामाजिक और आर्थिक भेदभाव तथा प्रतिबंध नही था।

 उत्तर वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था

  • उत्तर वैदिक काल (1000-500 ई0प0) अर्थात् यजुर्वेद सामवेद और अथर्ववेद, ब्राह्मण ग्रथों, आरण्यकों, उपनिषदों एवं महाकाव्यों (रामायण-महाभारत) के काल में वर्ण व्यवस्था समाज में पूर्णतः स्थापित हो गयी थी। 
  • समाज में स्तरीकरण का सिद्धान्त स्थापित हो चुका था, चारों वर्णों के अधिकार और कर्तव्य सुनिश्चित हो चुके थे और वर्ण व्यवस्था जन्म पर आधारित हो चुकी थी। 
  • किन्तु सब कुछ स्पष्ट रूप से परिभाषित होने के बाबजूद आसानी से वर्ण परिवर्तन किया जा सकता था ऊँच-नीच का कठोर बंधन अभी कायम नहीं हुआ था।

 सूत्र काल में वर्ण व्यवस्था

  • सूत्र काल (600-300 ई0प0) अर्थात श्रौतसूत्र, गृहसूत्र एवं धर्मसूत्र के रचनाकाल में वर्ण व्यवस्था समाज में कठोरता से स्थापित हो चुकी थी। वर्ण व्यवस्था को पूर्णतः जन्म पर आधारित कर दिया गया था। समाज में खानपान, व्यवसाय ऊँच-नीच का भेदभाव स्थापित हो चुका था। इस काल में ब्राह्मणों और क्षत्रियों की स्थिति मजबूत हुई ।
  • वैश्यों से शिक्षा का अधिकार छीन लिया गया। उनकी स्थिति में गिरावट आनी प्रारंभ हो गयी। वहीं शूद्रों की स्थिति अत्यंत निम्न स्तर की हो गयी थी, उनसे शैक्षणिक और धार्मिक अधिकार छीन लिये गये थे।

 बौद्ध काल में वर्ण व्यवस्था

  • बौद्ध काल में वर्ण व्यवस्था को जन्म के स्थान पर कर्म की प्रधानता प्रदान की गयी। बौद्ध ग्रंथों में वर्ण व्यवस्था, उसकी ऊँच-नीच की भावना आदि की कठोर शब्दों में निंदा की गयी। 
  • कर्म की प्रधानता ने ब्राह्मणों की सर्वोच्चता को समाप्त कर दिया। 
  • बौद्ध ग्रंथों में क्षत्रियों को ब्राह्मणों से श्रेष्ठ बताया गया है। क्षत्रियों की स्थिति बौद्ध काल में अत्यन्त शक्तिशाली हो गयी थी। पहले की तुलना में वैश्यों की स्थिति में सुधार हुआ। 
  • शूद्रों की स्थिति में भी कुछ सुधार हुआ उन्होने बौद्ध धर्म को अपनाना प्रारम्भ कर दिया था। किन्तु फिर भी बहुसंख्यक शूद्रों की स्थिति में विशेष कोई फर्क नहीं पड़ा। 
  • तृतीय शताब्दी ईशा पूर्व से बारहवीं शताब्दी ईशा तक के काल में वर्ण व्यवस्था पूर्णतः जन्म पर आधारित हो गयी। 
  • अभिलेखों एवं साहित्यिक साक्ष्यों में उल्लेखित है कि राजा वर्णाश्रम धर्म को समाज में प्रतिष्ठित करने के लिये संकल्पित रहे। 
  • वर्ण व्यवस्था अत्यंत कठोर हो गयी थी। किसी को भी अपने निर्धारित अधिकार और कर्तव्यों की सीमा को लांघने की छूट नहीं थी।

 

अतः हम कह सकते हैं कि ऋग्वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था के बीज समाज में पड़े, उत्तरवैदिक में यह अंकुरित होकर पौधा बना, सूत्रकाल में यह वृक्ष बनकर फली फूली एवं 12 वी शताब्दी तक यह वर्ण व्यवस्था का यह वृक्ष सशक्त होकर वट वृक्ष बन गया। जिसे हिलाना कठिन तो नहीं पर असंभव हो गया था।


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