आश्रम व्यवस्था क्या है | भारतीय संस्कृति की आश्रम व्यवस्था | Aahsram Vyastha Kya Hai

 आश्रम व्यवस्था क्या है

भारतीय संस्कृति की आश्रम व्यवस्था

आश्रम व्यवस्था क्या है | भारतीय संस्कृति की आश्रम व्यवस्था | Aahsram Vyastha Kya Hai



आश्रम व्यवस्था

 

  • भारतीय संस्कृति की आश्रम व्यवस्था विश्व के सामाजिक इतिहास एवं संस्कृति के लिए अदभुत एवं अभूतपूर्व देन है।
  • भारतीय मनीषियों ने अपने मौलिक चिंतन से आश्रम व्यवस्था के रूप में एक ऐसी व्यवस्था का सृजन कियाजिसमें व्यक्ति के जीवन का वैज्ञानिक विभाजन करके जीवन के प्रत्येक भाग का समुचित एवं सुनियोजित उपयोग का मूलमंत्र निहित था। 
  • भारतीय मनीषियों की इस चिंतनशील व्यवस्था का अंतिम उद्देश्य व्यक्ति का आध्यात्मिक उत्थान करना था। भारतीय मनीषियों ने बड़ी समझबूझ और योग्यता से व्यक्ति के जीवन का प्रबंधन किया तथा 100 वर्षो का जीवनकाल मानकर 25-25 वर्षों के चार भागों ( आश्रमों) में विभाजित किया। 
  • इस विभाजन की पृष्ठभूमि में प्रत्येक भाग की विशिष्ट उपयोगिता एवं विशेषता थीजिसका प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष लाभ समाज को मिलना था।

जैसा कि डॉ. जयशंकर मिश्र ने ठीक ही लिखा है कि

आश्रम व्यवस्था का दर्शन प्राचीन व्यवस्थाकारों के अद्वितीय ज्ञान और प्रज्ञा का प्रतीक है जिसमें ज्ञान और विज्ञान लौकिक और पारलौकिककर्म और धर्म तथा भोग और त्याग का अद्भुत समन्वय है। उन्होंने जीवन की वास्तविकता को ध्यान में रखते हुए ज्ञानकर्तव्यत्याग और आध्यात्म के आधार पर मानव जीवन को ब्रह्मचर्मग्रहस्थवानप्रस्थ और सन्यास नामक चार आश्रमों में विभाजित किया हैजिसका अन्तिम लक्ष्य था मोक्ष की प्राप्ति।

आश्रम शब्द की उत्पत्ति

  • आश्रम शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा की 'श्रम धातु से हुई हैजिसका शाब्दिक अर्थ परिश्रम करना है। 
  • इस प्रकार आश्रम मनुष्य को जीवन यात्रा के वह पड़ाव या विश्राम स्थलजहाँ मनुष्य धर्मानुसार सामाजिक दायित्वों को पूर्ण करके अगले आश्रम की तैयारी करता है और अपने जीवन के अन्तिम लक्ष्य मोक्ष की ओर बढ़ता है। 
  • इसीलिए महाभारत मे शान्तिपूर्व में ठीक ही कहा गया है कि आश्रम ब्रह्मलोक तक पहुचने के मार्ग की चार सीढ़िया है।


आश्रम व्यवस्था की उत्पत्ति कब हुई ?

  • आश्रम व्यवस्था की उत्पत्ति किसी न किसी रूप में वैदिक काल में हो गयी थीअन्तर वैदिक कालीन अनेक अंको से आश्रम व्यवस्था के होने से संकेत मिलते हैं। तैत्तरीय संहिताशतपथ ब्राह्मणएत्तरेय ब्राह्मण आदि में आश्रम व्यवस्था की विद्यमानता के प्रमाण निहित है। छांदोग्य उपनिषद् में गृहस्थवानप्रस्थ तथा ब्रह्मचर्य तीन आश्रमों का उल्लेख हुआ है।

 

1 ब्रह्मचर्य आश्रम

 

  • व्यक्ति के शैक्षणिक विकास और ज्ञानमय उत्कर्ष की आधार शिला के लिए ब्रह्मचर्य आश्रम का विधान किया गया था। 
  • ब्रह्मचर्य आश्रम में बालक घर से दूर गुरू के आश्रम में शिक्षा प्राप्त करता थायह शिक्षा धार्मिकनैतिक एवं सामाजिक रूप से बालक का उत्थान करती थी। 
  • ब्रह्मचर्य शब्द दो शब्दों ब्रह्म और चर्य से मिलकर बना हैजिनका शाद्धिक अर्थ क्रमशः वेद या ब्रह्म का विचरण करना या अनुसरण करना हैइस प्रकार ब्रह्मचर्य का अर्थ महान मार्ग का अनुसरण करना है। 
  • बालक का ब्रह्मचर्य जीवनउपनयन संस्कार के बाद प्रारम्भ होता था। मनु के अनुसार ब्राह्मण बालक 8 वर्ष की आयु में क्षत्रिय बालक 11 वर्ष की आयु में तथा वैश्य बालक 12 वें वर्ष ब्रह्मचर्य आश्रम में प्रवेश करता था। 
  • ब्रह्मचर्य आश्रम में बालक गुरू के आश्रम में कठोर अनुशासनधर्मानुसार नियमित दिनचर्यासंयम और शुद्ध आचरण की प्रबन्धित जीवन शैली के आध्यात्मिक आचरण में शिक्षा ग्रहण करता था। 
  • ब्रह्मचर्य आश्रम का मूल उद्देश्य भी बालक का शैक्षणिक उत्थान करना था। 25 वर्ष की आयु तक ब्रह्मचर्य जीवन में रहने के बाद युवा बालक गृहस्थ जीवन में प्रवेश करता था।

 

2 गृहस्थ आश्रम

 

  • गृहस्थ आश्रम को आश्रम व्यवस्था का केन्द्र बिन्दु माना जाता है क्योंकि सारे आश्रमों को पोषण करने का दायित्व गृहस्थ आश्रम पर ही हैइसके साथ ही समाज के आध्यात्मिक एवं सामाजिक उत्थान के लिए एक स्तंभ के रूप में गृहस्थ आश्रम कार्य करता था।
  • व्यक्ति 25 वर्ष की आयु में विवाह संस्कार पूर्ण कर गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता था। 
  • हिन्दू धर्मशास्त्रों में गृहस्थ आश्रम में सामाजिक एवं धार्मिक कर्तव्यों का विस्तृत विवरण दिया गया है। 
  • गृहस्थ आश्रम में ही षोडस संस्कारों की संपन्नतापंच महायज्ञों ( ब्रह्मयज्ञदेवयज्ञपितृयज्ञभूतयज्ञनृयज्ञ) की संपन्नताऋणों (देव ऋणऋषि ऋणपितृ ऋण) से मुक्ति तथा पुरुषार्थो की संपादन करता था। 
  • मनुस्मृति में कहा गया है किलौकिक और पारलौकिक सुख समृद्धि की कामना रखने वाले व्यक्ति को के कर्तव्यों और दायित्वों का लगन और परिश्रम से पालन करना चाहिए। 
  • व्यक्ति का गृहस्थ आश्रम गृहस्थ आश्रम 25 से 50 वर्ष की आयु का होता था। इसके बाद व्यक्ति वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करता था। यह आश्रम व्यक्ति के जीवन की कर्मभूमि होता है।

 

3 वानप्रस्थ आश्रम

 

गृहस्थ आश्रम की समाप्ति और 50 वर्ष की आयु पूर्ण होने के बाद व्यक्ति वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करता था। 

वानप्रस्थ आश्रम को वैखानस आश्रम भी कहा जाता था। 

  • मनु ने गृहस्थ आश्रम से वानप्रस्थ आश्रम में जाने के प्रतीकों का वर्णन करते हुए कहा है कि जब मनुष्य के सिर के बाल सफेद होने लगेंशरीर की त्वचा शिथिल होकर झुर्रियां देने लगे तथा उसके पौत्र हो जाये तो उसे वानप्रस्थी (जंगल की ओर प्रस्थान) हो जाना चाहिए।
  • वानप्रस्थ में व्यक्ति को संयमितत्यागमयविरक्त एवं कठोर धर्मानुसार अनुशासन में बद्ध जीवन यापन करने का सुझाव शास्त्र देते हैं। 
  • वानप्रस्थ आश्रम में व्यक्ति सांसारिक भौतिक सुखों को परित्याग कर शरीर पर मृगचर्म धारण करवनों से प्राप्त खाद्य पदार्थो से ही अपना भरण पोषण कर धर्म कर्मों तप-जपपूजापाठअध्ययन-अध्यापन में अपना समय व्यतीत करता था। 
  • व्यक्ति 50 से 75 वर्ष तक वानप्रस्थ आश्रम में रहता थावानप्रस्थ आश्रम के दौरान वह पत्नी के साथ रह सकता था और समय-समय पर उसके परिवार के सदस्य उससे मिलने भी आ सकते थे और वह समाज से एक प्रकार से जुड़ा रहता था।

 

4 सन्यास आश्रम

 

  • जब व्यक्ति 75 वर्ष की आयु पूर्ण कर लेता था तब वह सन्यास आश्रम में प्रवेश करता था।
  • सन्यास का शाब्दिक अर्थ 'पूर्ण त्यागहैअर्थात सन्यास आश्रम में व्यक्ति पूर्णतः भौतिक संसार से दूर एवं जितेन्द्रिय की स्थिति प्राप्त कर लेता था। 
  • हिन्दू धर्मशास्त्रों में भिक्षुकयतिपरिव्राजक, ' परिवार आदि शब्द सन्यासी के पर्यायवाची के रूप में प्रयुक्त हैं। हिन्दू धर्मशास्त्र में सन्यासी के लिए अनेक नियम बताये गये हैं। 
  • सन्यासी को सत्यअहिंसाब्रह्मचर्यअस्तेयजितेन्द्रियदेशाटन आदि का अनुशासन के साथ पालन करते हुए जीवन के अन्तिम उद्देश्य मोक्ष प्राप्ति के लिए साधना में लीन रहना चाहिए।

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