भारतीय इतिहास के गैर साहित्यिक स्रोत |Non-literary sources of Indian History

भारतीय इतिहास के गैर साहित्यिक स्रोत

भारतीय इतिहास के गैर साहित्यिक स्रोत |Non-literary sources of Indian History


 

अभिलेख किसे कहते हैं

 

  • पत्थरधातुपकी हुई मिट्टी आदि जैसी सख़्त सतह पर खुरचकर उकेरी हुई लिखावट को अभिलेख कहते हैं। इनका अध्ययन पुरालेख विद्या के अंतर्गत होता है ऐसे बिलकुल प्रांरभिक लेख शिलाओं या पत्थरों पर खुदे हुए मिलते हैं । 
  • आम तौर पर इनमें इन्हें खुदवाने वालों की उपलब्धियोंक्रिया-कलापों और विचारों का विवरण मिलता है । इसलिए हमें ऐसे शिलालेख मिलते हैं जिनमें राजाओं की यशोगाथा होती है या लोगों द्वारा धार्मिक उद्देश्य से किए गए दान पुण्य का उल्लेख होता है। 
  • कवियों ने राजाओं तथा आश्रयदाताओं की प्रशंसा में ऐसे जिन अभिलेखों की रचना की थीउन्हे प्रशस्तियाँ कह हैं। कुछ उत्कीर्ण लेखों में तारीखें दी हुई हैं। अन्य के समय का अनुमान पुरालिपिशास्त्र या लेखनृशैली के आधार पर काफी सटीकता से लगाया जाता है। बिल्कुल प्रारंभिक शिलालेख प्राकृत में मिलते हैं जो आम लोगों की भाषा थी। आगे चलकर इनमें तमिल और संस्कृत का प्रयोग भी होने लगा। 
  • शिलालेख लिखवाने वालों में सबसे पहला नाम मौर्य सम्राट अशोक का है। उनके अधिकतर शिलालेख ब्राह्मी लिपि में लिखी प्राक त भाषा में हैंहालाँकि उत्तर-पश्चिम में मिले कुछ शिलालेखों की लिपि खरोष्ठी है। 
  • अफ़गानिस्तान में मिले शिलालेख अरामाइक और ग्रीक लिपि में हैं ताकि स्थानीय लोग उनमें लिखी हुई बातें समझ सकें । ब्राह्मी लिपि को पढ़ने में सबसे पहले जेम्स प्रिंसेप को 1837 में सफलता मिली । 
  • प्रिंसेप ब्रिटिश शासन मे सिविल सर्वेंट थे । ब्राह्मी हिंदी (देवनागरी) की ही भाँति बाएँ से दाएँ लिखी जाती थी जबकि खरोष्ठी दाएँ से बाएँ लिखी जाती थी। अशोक के शिलालेखों से हमें उनकी धर्म तथा प्रशासन संबंधी नीतियों को समझने में बहुत सहायता मिलती है । 
  • ईसा पूर्व पहली सदी से राजा धर्मार्थ भूमि का दान करने लगे थे। सबसे पहले दक्कन के सातवाहन राजाओं ने ऐसा दान शुरू किया । उत्कीर्ण लेखों में ऐसे दाताओं और दान प्राप्त करने वालों का विवरण खुदा हुआ मिलता है। 
  • ऐसे लेखों से हमें उस युग की धार्मिक तथा आर्थिक गतिविधियों के बारे में जानकारी मिलती है। इनमें से कुछ लेख पत्थरों पर पाए गए हैं पर अधिकतर लेख ताँबे के पत्तरों पर मिलते है। ताँबे के पत्तरों पर खुदे अभिलेख शायद भूमि पानेवालों के हित में भूमि के स्वामित्व के प्रमाण के रूप में तैयार किए जाते थे । 
  • मगर इस प्रकार के लेखों को प्रमाण के तौर पर पूरी तरह स्वीकारने में कुछ बाधाएँ है । उदाहरण के लिएकहीं अक्षर काफी हल्के खुदे हैंइसलिए उन्हें पूरी तरह पढ़ना-समझना संभव नहीं होता। इसके अलावा कहीं-कहीं लिखावट घिस गई है और कुछ अक्षर गायब हो गए हैं। यह भी हो सकता है कि कुछृ शब्दों के अर्थ हमारे सामने स्पष्ट न हो सकें क्योंकि वे किसी विशेष स्थान या समय से जुड़े हों ।


सिक्के

 

  • सिक्कों का अध्ययन मुद्रा शास्त्र कहलाता है। इसके अंतर्गत सिक्कों पर उकेरी हुई लिपि और आकृतियों जैसे दृश्य तत्व ही नहीं धातुओं के विश्लेषण जैसे तत्त्व भी आ जाते हैं । 
  • प्राचीन सिक्के अधिकतर ताँबाचाँदीसोना तथा सीसा जैसी धातुओं में ढाले जाते थे ।
  • भारत में सबसे पहले पाए जाने वाले सिक्कों में कुछ प्रतीक बने होते थे और इन्हें आहत (पंच मार्क्ड) सिक्के कहा जाता था। ये (ई.पू. छठी शताब्दी के बाद से) चाँदी और ताँबे मे ढले होते थे। पहले-पहल जिन सिक्कों में शासकों के नाम और आतियाँ दिखाई देती हैं । 
  • न्हें भारतीय- यूनानियों ने जारी किया था जिनका (ई.पू. दूसरी शताब्दी के लगभग) इस उपमहाद्वीप के उत्तर पश्चिमी भाग पर नियंत्रण स्थापित हो चुका था। 
  • सर्वप्रथम स्वर्ण मुद्राएँ ईसा की पहली सदी के लगभग कुषाणों ने जारी की थीं। कुछ बहुत ही दर्शनीय स्वर्ण मुद्राएँ गुप्त वंश के शासकों ने जारी की थीं। इनमें प्रारंभिक मुद्राएँ इनके सोने की शुद्धता के लिए जानी जाती हैं । 
  • सिक्के चूँकि विनिमय (लेन-देन) के माध्यम के रूप में काम में लिए जाते थे इसलिए उनसे आर्थिक इतिहास के बारे में उपयोगी जानकारी मिलती है। 
  • कुछ सिक्के शासकों की अनुमति से व्यापारियों और दस्तकारों के संघों द्वारा भी जारी किए जाते थे। इससे दस्तकारी और वाणिज्य के प्रभाव का पता चलता हैं। 
  • सिक्कों पर राजाओं और देवताओं की आक तियाँ भी दिखाई देती है और धार्मिक प्रतीक भी इन सबसे उस समय की कला और धर्म पर प्रकाश पड़ता है।

 

पुरातत्व-भारतीय इतिहास के गैर साहित्यिक स्रोत 

 

  • अतीत के भौतिक अवशेषों का अध्ययन पुरातत्त्व की सहायता से होता है जो हमें पुराने टीलों की तहों की एक के बाद एक व्यवस्थित रूप से खुदाई करना और इसके द्वारा मिले अवशेषों के आधार पर बीते युग के मनुष्यों के भौतिक जीवन के बारे में अनुमान लगााना सिखाता है ।
  • इतिहास - पूर्व कालअर्थात् लेखन का आविष्कार होने के पहले के युग के अध्ययन के लिए पुरातत्त्व बहुत महत्त्वपूर्ण है । इतिहास मूलतः लिखित सामग्री पर आधारित होता है।
  • हालाँकि भारत में 2500 ई.पू. में भी सिंधु घाटी संस्क ति के काल में लेखन का प्रचलन हो चुका थापर उस लिपि को अब तक पढ़ा नहीं जा सका है। 
  • इस प्रकार हालाँकि हड़प्पावासी लिखना जानते थेपर इतिहासकार उस लेखन को पढ़ नहीं पाए हैं। उनकी संस्कृति को प्रारंभिक ऐतिहासिक दौर में रखा गया है। जिस सबसे पहली लिपि को पढ़ा जा चुका हैवह है ब्राह्मीजो ई. पू. तीसरी सदी की लिपि है और अशोक के शिलालेखों में प्रयुक्त हुई है। 
  • खुदाई के द्वारा भारत में सात लाख वर्ष पहले रहने वाले मानवों के द्वारा प्रयुक्त औज़ार तक मिले हैं। हड़प्पा के स्थानों की खुदाई से वहाँ की बस्तियों की योजना तथा लोगों के निवास स्थानों के स्वरूप का पता चलता है। साथ ही यह भी पता चलता है कि वे मिट्टी के किस प्रकार के बर्तनोंकैसे औज़ारों और उपकरणों और किस प्रकार के खाद्यानों का इस्तेमाल करते थे । 
  • दक्षिण भारत में कुछ व्यक्तियों को उनके मिटटी के बर्तनोंऔज़ारोंहथियारोंऔर अन्य निजी वस्तुओं के साथ बड़े-बड़े भारी पत्थरों के नीचे दफनाया जाता था। इन कब्रों को महापाषाण (मेगालिथ) कहा जाता है। इनकी खुदाई से हमें तीसरी सदी ई.पू. के पहले दक्षिण भारत में रहने वाले लोगों के जीवन के बारे में पता चलता है। 
  • खुदाई में मिले अवशेषों की प्राचीनता या उम्र का निर्धारण कई पद्धतियों से होता है । इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण है रेडियो कार्बन या कार्बन- 14 ( सी 14) काल - निर्धारण पद्धति। कार्बन-14 एक विकिरणशील कार्बन है जो सभी प्रकार के जीवनधारियों में होता है। जीवनधारियों की मत्यु के बाद सभी विकिरणशील पदार्थों की तरह यह भी एक निश्चित समान गति से नष्ट होता है। किसी भी प्राचीन पदार्थ (लकड़ी या हड्डी) की उम्र का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि उसके सी-14 तत्त्वों का किस सीमा तक हास हुआ । 
  • मौसम और वनस्पतियों के इतिहास का पता पौधों के अवशिष्ट अंशों और मुख्यतः पराग के विश्लेषण से लगता है। इस आधार पर यह अनुमान लगाया गया है कि कश्मीर और राजस्थान में 7000-6000 ई.पू. के लगभग भी खेती होती थी। 
  • धातु की बनी वस्तुओं की प्रकृति तथा उनके अवयवों का भी वैज्ञानिक विश्लेषण हो सकता है और इससे उन खदानों का भी पता चल सकता है जिनसे ये धातुएँ निकाली गई थीं। इस प्रकार धातु प्रौद्योगिकी (टेक्नॉलॉजी) के विकास के चरणों को भी पहचाना जा सकता है। 
  • भूवैज्ञानिक अध्ययन से प्रागैतिहासिक मानव के निवास स्थल की मिटटीचट्टानों आदि के इतिहास का अनुमान हो जाता है। जब तक एक ओर मनुष्य और दूसरी ओर मिट्टीपौधों और पशुओं के निरंतर पारस्परिक संपर्क को न समझा जाए तब तक मानव इतिहास को भी नहीं समझा जा सकता ।
  • पुरातात्त्विक अवशेषों के साथ ही भूवैज्ञानिक और प्राणिशास्त्रीय अध्ययनों का योग मानव इतिहास की पुनः रचना और विकास के लिए महत्त्वपूर्ण सामग्री प्रस्तुत करता है ।

 

 

विदेशी यात्रियों के वृत्तांत

 

  • स्थानीय साहित्य से प्राप्त जानकारी को विदेशियों द्वारा दिए गए ब्यौरों से और बढ़ाया जा सकता है। भारत समय-समय पर ग्रीसरोम और चीन से आगंतुक आते रहे कोई राजदूत बनकरकोई यात्री के रूप में तो कोई धर्म के अध्ययन के लिए उन्होंने जो कुछ देखावे उसका व त्तांत छोड़ गए हैं। 
  • चंद्रगुप्त मौर्य के दरबार में मेगास्थनीज़ नामक ग्रीक राजदूत आया था जिसने 'इंडिकानामक ग्रंथ लिखा। इसका मूल पाठ आज नहीं मिलता लेकिन इसके कुछ अंश परवर्ती ग्रीक लेखकों की रचनाओं में उद्धरणों के रूप में सुरक्षित रह गए हैं। इन्हें एकत्रित करके पढ़ा जाए तो हमें मौर्य काल की प्रशासन व्यवस्था ही नहींबल्कि सामाजिक वर्गों तथा आर्थिक गतिविधियों की भी बहुमूल्य जानकारी मिलती हैं। 
  • पहली और दूसरी शताब्दी ईस्वी के ग्रीक और रोमन व त्तांतों में कई भारतीय बंदरगाहों का और उन वस्तुओं का उल्लेख हुआ है जिनका व्यापार भारत तथा रोमन साम्राज्य के बीच होता था। इस संदर्भ में ग्रीक में लिखे ग्रंथ 'एरिथ्रियन सीऔर टॉलेमी के 'ज्यॉग्रफीबहुमूल्य सामग्री उपलब्ध कराते हैं ।
  •  चीनी यात्रियों में फ़ाहियान और हवेनत्सांग (ह्वेन त्सांग)का नाम लिया जा सकता है। दोनों बौद्ध थे और इस देश में बौद्ध तीर्थों के दर्शन तथा बौद्ध धर्म का अध्ययन करने आए थे। ईसा की पाँचवी शताब्दी में भारत में आए फ़ाहियान ने गुप्तकालीन भारत की स्थितियों का वर्णन किया है जबकि हवेनत्सांग ने सातवीं सदी में राजा हर्षवर्धन के काल का वैसा ही ब्यौरा दिया है ह्वेन त्सांग ने उस समय नालंदा विश्वविद्यालय (बिहार) के उत्कर्ष का भी बड़े विस्तार से वर्णन किया है ।

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