मध्यकाल में भारत का विज्ञान |Science in India in the Middle Ages

मध्यकाल में भारत में विज्ञान 

Science in India in the Middle Ages

मध्यकाल में भारत में विज्ञान |Science in India in the Middle Ages


 

मध्यकाल में भारत में विज्ञान

 

  • मध्यकाल में मुस्लिम भारत में आए। इस समय तक परम्परागत स्वदेशी शास्त्रीय शिक्षा पहले ही पिछड़ चुकी थी। इस काल में शिक्षा की वह व्यवस्था जो अरब देशों में प्रचलित थी, धीरे-धीरे अपनाई जाने लगी। परिणामस्वरूप मदरसों और मकतबों की स्थापना हुई। इन संस्थाओं को शाही संरक्षण प्राप्त था कई स्थानों पर खोले गए इन मदरसों की श्रृंखला में समान पाठ्यचर्या सामग्री पढ़ाई जाती थी। दो-भाई शेख अब्दुल्ला और शेख अजीजुल्लाह जो तार्किक विज्ञान में विशेषज्ञ थे, सम्बल और आगरा के मदरसों के प्रधान बने। देश में स्थानीय रूप से प्राप्त विद्वत्ता के अलावा अरब, पर्शिया और मध्य एशिया से भी विद्वानों को मदरसों में शिक्षा का कार्यभार सम्भालने के लिए बुलाया गया।
 
  • क्या आप जानते हैं कि मुस्लिम शासकों ने प्राथमिक विद्यालयों की पाठ्यचर्चा को सुधारने का प्रयत्न किया। कुछ आवश्यक विषय जैसे गणित, मापन विज्ञान, रेखागणित, नक्षत्रविज्ञान, लेखा जोखा, लोकप्रशासन और कृषि आदि विषय प्राथमिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में समाहित किए गए। यद्यपि शासकों द्वारा शिक्षाओं में सुधार लाने के लिए विशेष प्रयत्न किए गए थे, लेकिन विज्ञान।  में कुछ विशेष प्रगति नहीं हुई। भारतीय पारिभाषिक वैज्ञानिक संस्कृति और अन्य देशों में प्रचलित मध्ययुगीन विज्ञान के प्रति उपागम | में एक प्रकार की संगति बिठाने के प्रयत्न किए गए। आइए अब हम देखें कि इस अवधि में विभिन्न क्षेत्रों में क्या क्या प्रगति हुई। शाही घरानों और सरकारी विभागों में खाद्यसामग्री, भण्डारण और अन्य साधन प्रदान करने के लिए बड़ी-बड़ी कार्यशालाएं जिन्हें कारखाना कहा जाता था, बनाई गई। ये कारखाने केवल उत्पादन की संस्थाओं के रूप में ही नहीं कार्य करते थे बल्कि युवा वर्ग को तकनीकी और व्यावसायिक प्रशिक्षण भी प्रदान करते थे। इन कारखानों ने विभिन्न शाखाओं में कलाकार और हस्तशिल्प में प्रशिक्षित युवा तैयार किए जिन्होंने बाद में अपने स्वतंत्र कारखाने भी स्थापित कर लिए।

 

गणित -मध्यकाल में भारत

  • इस अवधि में गणित के क्षेत्र में अनेक ग्रंथ लिखे गए। नरसिंह दैवज्ञ के पुत्र नारायण पंडित गणित में अपने ग्रंथ के लिए सुप्रसिद्ध हुए-गणितकौमुदी और बीजगणितावतंस। गुजरात में गंगाधर ने लीलावती करमदीपिका, सिणन्तदीपिका और लीलावती व्याख्या लिखी। | ये प्रसिद्ध ग्रंथ थे जिन्होंने त्रिकोणमितिक पद जैसे साइन, कोसाइन, टेन्जेन्ट और कोरटेन्जेन्ट निकालने के नियम बनाए। नीलकण्ठ सोमसुतवन ने तंत्रसंग्रह लिखा जिसमें भी त्रिकोणमितिक प्रक्रियाओं के लिए नियम दिये गए हैं।

 

  • गणेश दैवज्ञ ने लीलावती पर व्याख्या बुणिविलासिनी लिखी थी और जिसमें अनेक उदाहरण दिए गए थे। वल्लाल परिवार के छष्ण ने 'नवांकुर' की रचना की जो भास्कर द्वितीय के बीजगणित पर व्याख्या थी और जिसमें प्रथम और द्वितीय क्रम के अंतर्ममय सरणियों (Intermediate equations) पर नियमों की व्याख्याएं दी गई थीं। नीलकण्ठ ज्योतिर्विद ने 'तांत्रिक' ग्रंथ लिखा जिसमें अनेक पर्शियन तकनीकी पदों का परिचय दिया गया था अकबर के कहने पर फैजी ने भास्कराचार्य के बीजगणित का अनुवाद  किया। शिक्षा व्यवस्था में अन्य विषयों के साथ अकबर ने गणित के भी पढ़ाये जाने पर बल दिया। नसीरुद्दीन तुसी गणित का एक अन्य विद्वान था।

 

जीवविज्ञान-मध्यकाल में भारत

 

  • इसी प्रकार जीवविज्ञान के क्षेत्र में भी उन्नति हुई। 13वीं शताब्दी में हंसदेव ने 'मृगपक्षिशास्त्र' नामक ग्रंथ का निर्माण किया। यह ग्रंथ शिकार के कुछ पशुपक्षियों के विषय में जानकारी देता है यद्यपि वे सभी तथ्य विज्ञान- परक नहीं हैं। मुस्लिम शहंशाह जो योद्धा और शिकारी हुआ करते थे, अपने पास शिकार के लिए बहुत से पशु रखते थे जैसे घोड़े, कुत्ते, चीते और बाज। इसमें जंगली और पालतू दोनों ही प्रकार के पशुओं का वर्णन किया गया है । बाबर और अकबर यद्यपि दोनों ही राजनैतिक गतिविधियों में उलझे रहते थे फिर भी उन्होंने इस ग्रंथ को पढ़ने के लिए समय निकाला। अकबर को हाथी और घोड़े जैसे पालतू पशुओं की अच्छी नसल पैदा करवाने का बेहद शौक था। जहांगीर ने अपनी कृति तुजुके जहांगीरी में नसल को सुधारने और संकर नस्ल पैदा करने के अपने परीक्षण और अनुभव अंकित किए हैं। उन्होंने पशुओं की 36 नस्लों का वर्णन किया है उनके दरबारी कलाकार विशेषत: मंसूर ने पशुओं के भव्य और सही चित्र बनाए। इनमें से कुछ तो अभी भी कई संग्रहालयों और निजी संग्रहों में सुरक्षित हैं। प्रकृति | प्रेमी होने के कारण जहांगीर पौधों के अध्ययन में भी रुचि रखता था उसके दरबारी कलाकारों ने फूलों के चित्रों में प्रायः 57 पौधे को चित्रित किया है।

 

रसायन विज्ञान -मध्यकाल में भारत

  • मध्यकाल में कागज का प्रयोग भी प्रारंभ हो गया था कागज के उत्पादन में रसायन शास्त्र का महत्त्वपूर्ण प्रयोग होता था। कश्मीर, सियालकोट, जाफराबाद, पटना, मुर्शिदाबाद, अहमदाबाद, औरंगाबाद और मैसूर कागज़ बनाने के सुप्रसिद्ध केन्द्र थे। कागज बनाने की तकनीक प्राय: पूरे देश में समान थी केवल विभिन्न कच्चे माल से लुगदी बनाने का तरीका अलग अलग था।  
  • मुगलों को बारूद और तोपों में उसके प्रयोग की तकनीक का ज्ञान था। भारतीय हस्तशिल्पियों ने इस तकनीक को सीखा और समुचित विस्फोटक पदार्थों की रचना की शुक्राचार्य द्वारा रचित शुक्रनीति में कैसे शोरा गंधक और कोयले को विभिन्न अनुपातों में मिलाकर विभिन्न प्रकार की बंदूकों में प्रयोग करने के लिए बारूद बनाया जा सकता है, इसका वर्णन दिया गया है। मुख्य प्रकार की आतिशबाजी में वे बम्ब सम्मिलित है जो तेजी से आकाश में जाते हैं, अग्नि के स्फुलिंग पैदा करते हैं, जो विभिन्न रंगों में चमकते हैं और धमाके के साथ फट जाते हैं आइने अकबरी में अकबर के इत्र कार्यालय के नियमों का वर्णन है। गुलाब का इत्र एक बहुप्रसिद्ध इत्र था जो सम्भवत नूरजहां द्वारा खोजा गया था ।

 

नक्षत्रविज्ञान-मध्यकाल में भारत 

  • नक्षत्र एक अन्य क्षेत्र था जो इस काल में खूब विकसित हुआ। नक्षत्रविज्ञान में पहले से सुस्थापित नक्षत्र विषयक अवधारणाओं पर अनेक टीकाएं लिखी गईं। महेन्द्र सूरी ने जो बादशाह फीरोज शाह का दरबारी नक्षत्र वैज्ञानिक था, एक नक्षत्र विषयक यंत्र 'यन्त्रज' बनाया। परमेश्वर और महाभास्करीय, दोनों ही केरल में प्रसिद्ध नक्षत्रविज्ञानियों के कुल से थे और पंचाग बनाते थे। नीलकण्ठ सोमसुतवन ने आर्यभटीय पर टीका लिखी। कमलाकर ने इस्लामिक नक्षत्रविज्ञान विषयक विचारों का अमययन किया। वह इस्लामिक ज्ञान के विषय में प्रमाण माना जाता था जयपुर के महाराजा सवाई जयसिंह नक्षत्रविद्या के संरक्षक थे उन्होंने दिल्ली उज्जैन, वाराणसी, मथुरा और जयपुर में पांच नक्षत्रविषयक वेधशालाएं बनवाई।

 

औषधविज्ञान-मध्यकाल में भारत 

  • शाही संरक्षण के अभाव में आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति प्राचीन काल के समान इतनी उन्नति नहीं कर पाई, फिर भी आयुर्वेद पर कुछ महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना हुई जैसे धिर संहिता और चिकित्सा संग्रह की रचना वंगसेन ने, यग्तवज़ और भावप्रकाश की रचना भावमिश्र ने की। 13वीं शताब्दी में शारंगधर संहिता लिखी गई जिसमें औषध बनाने की सामग्री में अफीम का भी उपयोग सम्मिलित है और निदानात्मक उद्देश्यों से मूत्र परीक्षण का भी जिक्र है। रसचिकित्सा व्यवस्था के धातु- मिश्रण सहित मादक द्रव्यों तथा आयातित द्रव्यों का भी वर्णन है। 
  • रसचिकित्सा व्यवस्था में अनेक प्रकार की धातुज औषधियों का वर्णन है जिनमें कुछ पारे से बनाई जाती थीं और कुछ बिना पारे के। सिद्ध व्यवस्था जो तमिलनाडु में सर्वाधिक प्रचलित थी, उसका श्रेय उन सिद्धों को जाता है जिन्होंने धातुज औषधियों से युक्त अनेक प्रकार के आयुवर्धक नुस्खों को तैयार किया।

 

  • मध्यकाल में यूनानी तिब्ब औषध व्यवस्था भी खूब पनपी। अली बिन रब्बन ने संपूर्ण यवन औषध ज्ञान और साथ ही भारतीय औषध विज्ञान का सारांश अपनी रचना 'फिरदौसे हिकमत' में दिया है। प्राय: 11वीं शताब्दी में मुसलमानों के साथ यूनानी चिकित्सा पद्धति भी भारत में आई और अपने विकास के लिए संरक्षण भी प्राप्त किया। हकीम दिया मुहम्मद ने एक पुस्तक 'मजिन्ये दिये' लिखी जिसमें अरबी, पर्शियन और आयुर्वैदिक औषधीय विज्ञान को समाहित किया फीरोज शाह तुगलक ने भी एक पुस्तक तिब्बे-फीरोजशाही लिखी। तिब्बे औरंगजेबी जिसका श्रेय औरंगजेब को दिया जाता है, आयुर्वेदिक स्रोतों पर आमारित है। नूरुद्दीन मुहम्मद की मुसलजाति दाराशिकोही जो दाराशिकोह को समर्पित है, ग्रीक औषध विज्ञान का वर्णन करती है और अंत में प्राय: पूरी की पूरी आयुर्वेदिक औषधियों का निर्देश करती है ।

 

कृषि-मध्यकाल में भारत 

  • मध्यकाल में कृषि के तरीके प्रायः वैसे ही थे जैसे प्रारंभिक भारत में विदेशी व्यापारियों के कारण कुछ नई फसलों के उत्पादन में, वृक्षों और उद्यान संबंधी पौधों के रोपने में कुछ आवश्यक परिवर्तन किए गए। प्रमुख फसलें थीं- गेहूं, चावल, जौ, बाजरा, दालें, तिलहन, कपास, गन्ना और नील। पश्चिमी घाटों पर उनम कोटि की काली मिर्च उगाई जाती थी और कश्मीर केसर और फलों के लिए पूर्ववत् प्रसिद्ध था तमिलनाडु से अदरक और दालचीनी, केरल से इलायची, चन्दन और नारियल अधिक प्रसिद्ध होते जा रहे थे। तम्बाकू, मिर्चे, आलू, अमरूद, शरीफा, काजू और अनानास आदि वे महत्त्वपूर्ण पौधे थे जो भारत में 16वीं और 12वीं शताब्दी में भारत में आए। इसी काल में ही मालवा और बिहार क्षेत्रों में पोस्त के पौधों से अफीम की पैदावार भी प्रारंभ हो गई। संशोधित उद्यान संबंधी तरीकों का बहुत सफलतापूर्वक प्रयोग होने लगा। 16वीं शताब्दी के मध्य में गोआ के येशु-सम्राजियों द्वारा विधिपूर्वक आम की कलम भी लगानी प्रारंभ की गई। शाही मुगल उद्यान समुचित क्षेत्र थे जहां व्यापक तौर पर फलों के बाग लगाए जाने लगे। सिंचाई के लिए कुँए, तालाब नहर, रहट, चरस और देकली ( चमड़े की बनी एक प्रकार की बाल्टी जिसका जुते हुए बैलों की सहायता से पानी ले जाने के लिए किया जाता था) आदि का प्रयोग होता था। आगरा क्षेत्र में रहट का प्रयोग किया जाता था। मध्यकाल में भूमि मापन और भूमि श्रेणीकरण की व्यवस्था द्वारा राज्य में कृषि को एक मजबूत आधार प्रदान किया गया जो शासकों और किसानों दोनों के ही लिए लाभदायक था।

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