लोक अदालत क्या है |लोक अदालत का अर्थ | लोक अदालतों के कार्य |What is Lok Adalat

लोक अदालत के बारे में बताइए Lok Adalat Kya hai

लोक अदालत क्या है |लोक अदालत का अर्थ | लोक अदालतों के कार्य |What is Lok Adalat


लोक अदालत क्या है | What is Lok Adalat

  • लोक अदालत एक मंच (फोरम) है जहां वे मामले जो न्यायालय में लंबित हैं अथवा अभी मुकदमे के रूप में दाखिल नहीं हुए हैं (यानी न्यायालय के समक्ष अभी नहीं लाए गए हैं), सौहार्दपूर्ण ढंग से निपटाए जाते हैं, यानी दोनों पक्षों के बीच विवाद का समाधान लोक अदालतों में कराया जाता है।

 

लोक अदालत का अर्थ 

सर्वोच्च न्यायालय ने लोक अदालत संस्था के अर्थ को निम्न प्रकार से परिभाषित किया है

 

  • लोक अदालत न्याय व्यवस्था का एक पुराना स्वरूप है जो कि प्राचीन भारत में प्रचलित था और इसकी वैधता आधुनिक युग में भी समाप्त नहीं हुई है। शब्द युग्म लोक अदालत का अर्थ है। जनता की अदालत या न्यायालय। यह व्यवस्था गांधीवादी दर्शन पर आधारित है । यह वैकल्पिक विवाद समाधान (Alternative Dispute Resolution) का एक अंग है। भारतीय अदालतें लम्बित मुकदमों के रोष से दबी हैं और नियमित न्यायालयों में इन पर तिथि के लिए लंबी, खर्चीली और श्रमसाध्य प्रक्रिया है। अदालतों को क्षुद्र मामलों के निपटारे में भी कई साल लग जाते हैं। इसलिए लोक अदालत त्वरित तथा कम खर्चीले न्याय का एक वैकल्पिक समाधान प्रस्तुत करती है ।

 

  • लोक अदालत की कार्यवाही में कोई विजयी या पराजित नहीं होता इसलिए आपस में दोनों पक्षों के बीच विद्वेष नहीं रह जाता।

 

  • लोक अदालत का प्रयोग भारत में एक वहनीय, किफायती, कार्यक्रम तथा अनौपचारिक विवाद समाधान के वैकल्पिक तरीके के रूप में स्वीकृति पा चुका है।

 

  • न्यायालयी न्याय में लोक अदालत एक और विकल्प है। यह आमजन को अनौपचारिक, सस्ता तथा त्वरित न्याय उपलब्ध कराने की एक नई रणनीति है जिसमें ऐसे मामलों को लिया जाता है जो अदालतों में लम्बित हैं तथा ऐसों को भी अभी अदालतों तक नहीं पहुंचे हैं, और बातचीत, मध्यस्थता, मान मनौव्वल, सहजबुद्धि तथा वादियों की समस्याओं के प्रति मानवीय दृष्टिकोण अपनाकर विशेष रूप से प्रशिक्षित एवं अनुभवी विधि अभ्यासियों द्वारा वाद निपटाए जाते हैं।

 

लोक अदालत की वैधानिक स्थिति

लोक अदालत की शुरुआत कब हुई

  • स्वातंत्र्योत्तर काल में पहला लोक अदालत शिविर 1982 में गुजरात में आयोजित किया गया था यह पहल विवादों के निपटारे में बहुत सफल हुई थी। परिणामस्वरूप लोक अदालतों का देश अन्य हिस्सों के प्रसार होने लगा। इस समय यह व्यवस्था एक स्वैच्छिक एवं समझौताकारी एजेंसी के रूप में कार्य कर रही थी और इसके निर्णयों के पीछे कोई वैधानिक पिष्टपोषण (backing) नहीं था। लेकिन लोक अदालतों की बढ़ती लोकप्रियता को देखते हुए इस सुरक्षा तथा इसके द्वारा पारित फसलों को वैधानिक पिष्टपोषण (backing) देने की मांग उठी।
  • यही कारण है कि लोक अदालत को वैधानिक दर्जा प्रदान करने के लिए वैधानिक सेवाएं प्राधिकरण अधिनियम, 1987 (Legal Services Authorities Act) पारित किया गया ।


लोक अदालतों का आयोजन
लोक अदालतों के कार्य

वैधानिक सेवाएं प्राधिकरण अधिनियम1987  अधिनियम लोक अदालतों के आयोजन तथा इसके कार्यों के संबंध में निम्नलिखित प्रावधान करता है:

 

  • राज्य वैधानिक सेवाएं प्राधिकरण या जिला वैधानिक सेवाएं प्राधिकरण, या सर्वोच्च न्यायालय वैधानिक सेवाएं प्राधिकरण अथवा उच्च न्यायालय वैधानिक सेवाएं प्राधिकरण लोक अदालतों का आयोजन ऐसे समयान्तरण का अपने क्षेत्राधिकार का उपयोग करते हुए ऐसे स्थानों पर कर सकता है जिसे यह भी उपयुक्त समझता है।

 

  • किसी इलाके के लिए आयोजित प्रत्येक लोक अदालत में उतनी संख्या में सेवारत अथवा सेवानिवृत्त न्यायिक अधिकारियों तथा उस इलाके के अन्य व्यक्ति शामिल होंगे जितनी कि लोक अदालत का आयोजन करने वाली एजेंसी निर्दिष्ट करे साधारण एक लोक अदालत में अध्यक्ष के रूप में एक न्यायिक अधिकारी तथा एक वकील व सामाजिक कार्यकर्ता सदस्यों के रूप में होते हैं।


लोक अदालत के अधिकार 

3. लोक अदालत को यह अधिकार होगा कि वह निम्नलिखित विवादों में दोनों पक्षों के बीच समझौता कराने का निश्चिय करें:

 

(i) कोई भी मामला जो किसी न्यायालय में लंबित हो या 

(ii) कोई मामला जो किसी न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में आता हो लोक अदालत के समक्ष नहीं लाया जाएगा। 

  • इस प्रकार लोक अदालत केवल न्यायालय में लंबित मामलों को ही नहीं बल्कि उन मामलों का भी निपटारा कर सकती है जो न्यायालय में अभी नहीं पहुंचे। 
  • विवाह सम्बन्धी/पारिवारिक विवाद, आपराधिक मामले (Compoundable offences), भूमि अधिग्रहण, सम्बन्धी मामले, श्रम विवाद, कर्मचारी क्षतिपूर्ति के मामले, बैंक वसूली के मामले पेंशन मामले, आवास बोर्ड एवं मलिन बस्ती क्लियरेंस सम्बन्धी मामले, आवास वित्त सम्बन्धी मामले, उपभोक्ता शिकातार के मालमे, बिजली, टेलीफोन बिल सम्बन्धी मामले, नगरपालिका सम्बन्धी मामले, मकान कर सहित सोल्युलर कम्पनियों से सम्बन्धित विवाद आदि मामले लोक अदालतें द्वारा हाथ में लिए जा रहे हैं । 7a लेकिन लोक अदालतों का उन मामलों में कोई न्याय अधिकार नहीं होगा जो किसी किसी ऐसे अपराध से जुड़े हैं जो किसी कानून के अंतर्गत समाधेय (Compoundable) नहीं हैं। दूसरे शब्दों में, बीते अपराध जो गैर-समाधेय (non- compoundable) हैं, किसी भी ऐसे कानून के तहत, इस अदालत के अधिकार क्षेत्र में नहीं आते।

 

4. अदालत के समक्ष लम्बित कोई भी मामला लोक अदालत को संदर्भित किया जा सकता है, यदि: 

(i) यदि वाद को पक्ष विवाद का समाधान लोक अदालत में करना चाहते हैं, या 

(ii) वादियों में से कोई एक न्यायालय में मामले को लोक अदालत को संदर्भित करने के लिए आवेदन देता है, या 

(ii) यदि न्यायालय संतुष्ट है कि मामला लोक अदालत के संज्ञान में लाए जाने के उपयुक्त है। मुकदमा दायर किए जाने के पहले के किसी विवाद के मामले को लोक अदालत आयोजित करने वाली एजेंसी द्वारा समाधान के लिए लोक अदालत को संदर्भित किया जा सकता है अगर सम्बन्धित राज्यों में से किसी एक का इस आशय का आवेदन प्राप्त होता है।

 

5. लोक अदालतों को वही शक्तियां प्राप्त होती हैं जो कि सिविल कोर्ट को कोड ऑफ सिविल प्रोसीजर (1908) के अंतर्गत प्राप्त होती है, जबकि निम्नलिखित मामलों में मुकदमा चलना हो:

 (a) किसी गवाह को तलनामा भेजकर बुलाना और शपथ दिलवाकर उसकी परीक्षा लेना,

(b) किसी दस्तावेज को प्राप्त एवं प्रस्तुत करना 

(c) शपथ-पत्रों पर साक्ष्यों की प्राप्ति 

(d) किसी भी अदालत या कार्यालय से सार्वजनिक अभिलेख अथवा सामग्री की मांग करना, तथा

(e) अन्य विनिर्दिष्ट सामग्री

लोक अदालत की कार्यवाही 

  • लोक अदालत को अपने समक्ष प्रस्तुत किए गए मामले के निस्तारण की आपकी पद्धति विनिर्दिष्ट करने की समुचित शक्ति होगी। साथ ही लोक अदालत में प्रस्तुत चली कार्यवाही को भारतीय दंड संहिता 1860 (IPC, 1860) में निर्धारित अर्थों में अदालती कार्यवाही माना जाएगा तथा प्रत्येक लोक अदालत आपराधिक प्रक्रिया संहिता (1973) के उद्देश्य से एक सिविल कोर्ट माना जाएगा। 
  • लोक अदालत का निर्णय सिविल कोर्ट के हुकमनामें अथवा किसी भी अन्य अदालत के किसी भी आदेश की तरह अन्य होगा लोक अदालत द्वारा दिया गया फैसला अंतिम तथा सभी पक्षों पर बाध्यकारी होगा और लोक अदालत के फैसले के विरुद्ध किसी अदालत में कोई अपील नहीं होगी।

 

लोक अदालत के लाभ

 

सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार लोक अदालत के निम्नलिखित लाभ हैं:

 

  • इसमें कोई अदालती फीस (court-fee) नहीं लगती और अगर अदालती फीस का भुगतान कर दिया गया हो तो लोक अदालत में मामला निपटने के बाद राशि लौटा दी जाएगी। 
  • लोक अदालत की प्रमुख विशेषताएं हैं-लचीली प्रक्रिया तथा विवादों की त्वरित सुनवाई। लोक अदालत में दावों का आकलन करने के लिए सिविल प्रक्रिया संहिता तथा साक्ष्य अधिनियम, जैसे पद्धतिमूलक कानूनों के सख्त उपयोग की जरूरत नहीं पड़ती । 
  • यहां सभी पक्ष अपने वकीलों के माध्यम से न्यायाधीश से सीधे संवाद कर सकते हैं, जो कि नियमित न्यायालयों में संभव नहीं है ।
  • लोक अदालत पर निर्णय सम्बद्ध पक्षों पर बाध्यकारी होता है और इसकी हैसियत सिविल कोर्ट के निर्णय के बराबर होती है, साथ ही गैर-अपीलीय होता है जिससे विवाद के अंतिम समाधान में निलंब नहीं होता। 
  • अधिनियम में प्रावधानित उपरोक्त सावधानियों के होने से लोक अदालतें मुकदमें में उलझे लोगों के लिए वरदान हैं क्योंकि यहां विवादों का समाधान शीघ्र, नि:शुल्क तथा सौहार्दपूर्ण ढंग से हो जाता है। 


वैकल्पिक विवाद समाधान (Alternative Dispute Resolution-ADR)

भारत के विधि आयोग ने वैकल्पिक विवाद समाधान (Alternative Dispute Resolution-ADR) के लोगों को संक्षेप में इस रूप में प्रस्तुत किया है :

 

1. यह कम खर्चीला है। 

2. इसमें कम समय लगता है। 

3. यह तकनीकी उलझनों से युक्त है कानूनी न्यायालयों के मुकाबले 

4. सम्बद्ध पक्ष अपने वैचारिक मतभेदों पर खुलकर चर्चा करते हैं, बिना किसी खुलासे के व्यय के, जैसा कि कानूनी न्यायालयों में होता है। 

5. लोगों को यह अनुभूति होती है कि उनके बीच कोई विजयी या पराजित पक्ष नहीं है, तब भी उनकी शिकायत का निराकरण होता है और सम्बन्ध भी सुरक्षित रहते हैं ।


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