न्यायिक संयम का अर्थ | Meaning of judicial restraint

 न्यायिक सक्रियता बनाम न्यायिक संयम

न्यायिक संयम का अर्थ | Meaning of judicial restraint


 

न्यायिक संयम का अर्थ Meaning of judicial restraint

 

  • अमेरिका में न्यायिक सक्रियता तथा न्यायिक संयम ये दो वैकल्पिक न्यायिक दर्शन हैं। न्यायिक संयम के पैरोकार मानते हैं कि न्यायाधीश की भूमिका सीमित होनी चाहिएउनका काम इतना भर बताना है कि कानून क्या है, क़ानून बनाने का काम उन्हें विधायिका एवं कार्यपालिका पर ही छोड़ देना चाहिए। इसके अलावा न्यायाधीशों को किसी भी स्थिति में अपने निजी राजनीतिक मूल्यों एवं नीतिगत एजेंडा को अपने न्यायिक विचार पर हावी नहीं होने देना चाहिए। इस विचार के अनुसार संविधान निर्माताओं के मूल इरादे एवं उनसे संबंधित संशोधन स्पष्ट एवं जानने योग्य हैं और न्यायालयों को उन्हीं से निदेशित होना चाहिए।

 

न्यायिक संयम की पूर्वधारणा Presumption of judicial restraint 

अमेरिका में न्यायिक संयम की अवधारणा निम्न छह पूर्वधारणाओं पर आधारित हैं' :

 

  • 1. न्यायालय मूलत: अलोकतांत्रिक है क्योंकि यह अनिर्वाचित तथा लोक मत के प्रति अग्रहणशील एवं अनुत्तरदायी है । अपने कथित एकतंत्रीय गठन के कारण न्यायालय को जहाँ तक संभव हो मामलों को सरकार की अधिक लोकतांत्रिक संस्थाओं को सुपुर्द अथवा संदर्भित कर देना चाहिए।

 

  • 2. न्यायिक समीक्षा की महान शक्ति के प्रश्नवाचकीय स्रोतएक ऐसी शक्ति जो संविधान द्वारा विशेष रूप से प्रदत्त नहीं है।

 

  • 3. शक्ति के बँटवारे का सिद्धांत।

 

  • 4. संघवाद की अवधारणाराष्ट्र एवं राज्यों के बीच विभाजकीय शक्ति न्यायालयों से अपेक्षा करती है कि वे राज्य सरकारों एवं कार्मिकों की कार्यवाहियों के प्रति सम्मान का भाव रखें।

 

  • 5. अ-विचारधारात्मक किन्तु सकारात्मक धारणा कि चूँकि न्यायालय अपने क्षेत्राधिकार एवं संसाधनों के लिए काँग्रेस पर निर्भर हैऔर अपनी प्रभावकारिता के लिए जन स्वीकार्यता पर आश्रित हैइसलिए इससे जुड़े जोखिमों को ध्यान में रखकर इसे अपनी सीमा नहीं लाँघनी चाहिए।

 

  • 6.यह संभ्रांत धारणा एक विधि का न्यायालयआँग्ल अमेरिकी वैधिक परम्परा का उत्तराधिकारी होने के नातेइसे अपने को गिराकर राजनीतिक के स्तर पर नहीं ले आना चाहिए कानून तर्क एवं न्याय की एक प्रक्रिया है जबकि राजनीति केवल सत्ता एवं प्रभाव तक ही सीमित है।

 

उपरोक्त से स्पष्ट है कि सभी धारणाएँ (दूसरी को छोड़कर जो कि न्यायिक समीक्षा से संबंधित है) भारतीय संदर्भ में भी ठीक बैठती हैं।

 

न्यायिक संयम पर सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणियाँ

 

सन् 2007 में एक मामले में फैसला सुनाते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायिक संयम की बात की और न्यायालयों से कहा कि वे विधायिका एवं कार्यपालिका के कार्य अपने हाथ में न लें। यह भी कहा कि संविधान में शक्तियों का बँटवारा किया गया और सरकार के प्रत्येक अंग को अन्य अंगों के प्रति सम्मान का भाव रखते हुए दूसरे के कार्यक्षेत्र का अतिक्रमण नहीं करना चाहिए। इस संदर्भ में संबंधित पीठ ने निम्नलिखित टिप्पणी दी":

 

  • 1. पीठ यानी बेंच ने कहा, "बार-बार हमारे सामने ऐसे मामले आ रहे हैं जिनमें जजों ने विधायी अथवा कार्यपालिकीय कार्य अपने हाथ में ले लिए जिसका कोई औचित्य नहीं है। यह साफ-साफ असंवैधानिक है। न्यायिक सक्रियता के नाम पर जज अपनी सीमा का उल्लंघन नहीं कर सकते और सरकार के अन्य अंगों के कार्य खुद नहीं कर सकते।"

 

  • 2. पीठ ने कहा, "जजों को अपनी सीमा जान लेनी चाहिए और सरकार चलाने की कोशिश बिल्कुल नहीं करनी चाहिए। उनमें सदाशयता तथा विनम्रता होनी चाहिए और सम्राटों की तरह व्यवहार नहीं करना चाहिए ।

 

  • 3. मोंटेस्क्यू की किताब 'दि स्पिरिट ऑफ लॉजसे उद्धरण देते हुए जिसमें तीनों अंगों की शक्तियों के विभाजन को नहीं मानने के परिणामों की चर्चा की गई हैपीठ ने कहा कि फ्रेंच दार्शनिक की चेतावनी भारत की न्यायपालिका के लिए बहुत सामयिक और सटीक हैचूँकि अक्सर अन्य दो अंगों के कार्यक्षेत्र में दखलंदाजी एवं अतिक्रमण के लिए इसकी उचित ही आलोचना होती है ।

 

  • 4. न्यायिक सक्रियता किसी हाल में न्यायिक दुस्साहस में नहीं बदलना चाहिएबेंच ने न्यायालयों को चेतावनी दी कि न्यायनिर्णय ऐतिहासिक रुप से स्वीकृत एवं मान्य संयम तथा न्यायाधीशों की तरजीहों को सचेतन रुप से न्यून रखने की प्रणाली पर ही आधारित होना चाहिए ।

 

  • 5. न्यायालय प्रशासनिक पदाधिकारियों को असुविधा में न डालें और इस बात को स्वीकार करे कि प्रशासनिक अधिकारियों की प्रशासन के क्षेत्र में विशेषज्ञता हैन्यायालयों की नहीं।

 

  • 6. पीठ (बेंच) ने कहा, "कार्यपालिका एवं विधायिका के कार्यक्षेत्र में न्यायिक अतिक्रमण का औचित्य यह बताया जाता है कि ये दोनों अंग ढंग से अपना काम नहीं कर रहे। यह मान भी लिया जाए तो यही आरोप न्यायपालिका पर भी लगाया जा सकता है क्योंकि न्यायालयों में आधी सदी से मामले लंबित हैं"

 

  • 7. यदि विधायिका और कार्यपालिका ढंग से कार्य नहीं कर रही हैतो उन्हें ठीक करने की जिम्मेदारी लोगों पर है जो अगले चुनाव में अपने मताधिकार का सही रुप से प्रयोग करें और ऐसे उम्मीदवारों को मत दें जोकि उनकी अपेक्षाओं को पूरा कर सके या फिर अन्य कानूनी तरीके अपनाकर व्यवस्था को दुरुस्त करेंजैसे - शांतिपूर्वक प्रदर्शन।

 

  • 8. "उपचार यह नहीं है कि न्यायपालिका विधायी एवं कार्यपालिका कार्य अपने हाथ में ले लेक्योंकि इससे न केवल संविधान में प्रावधानित नाजुक शक्ति संतुलन की व्यवस्था का उल्लंघन होगाबल्कि यह भी महत्वपूर्ण है कि न्यायपालिका के पास इन कार्यों की न तो विशेषज्ञता हैन ही संसाधन।"

 

  • 9. पीठ ने कहा, "न्यायिक संयम राज्य के तीनों अंगों के बीच शक्ति संतुलन की व्यवस्था की संगति में है और इसे पूरकता प्रदान करता है। इसे वह दो तरीकों से करता है पहलान्यायिक संयम न केवल न्यायपालिका के साथ ही अन्य दो शाखाओं के बीच समानता को मान्यता देता हैबल्कि इसे बढ़ावा भी देता है। न्यायपालिका द्वारा अंतर-शाखा हस्तक्षेप को न्यूनतम स्तर पर रखकर। दूसरान्यायिक संयम न्यायपालिका की स्वतंत्रता की भी रक्षा करता है। जब न्यायालय विधायी या कार्यपालकीय क्षेत्रों में अतिक्रमण करता है तो इसका अनिवार्य परिणाम यह भी होगा कि मतदाता विधायक तथा अन्य निर्वाचित पदधारी इस निर्णय पर पहुँचेंगे कि न्यायाधीशों की गतिविधियों पर नजदीकी नजर रखी जाए।

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