MPPSC Mains Solved Paper | Year 2018 Paper First

 MPPSC MAINS 2018 PAPER First Solution

लोकसेवा आयोग मुख्य परीक्षा 2018 प्रथम प्रश्न पत्र एवं उत्तर

MPPSC MAINS 2018 PAPER First Solution


सामान्य अध्ययन प्रश्न पत्र 2018 खण्ड अ


मध्यप्रदेश राज्य सेवा मुख्य परीक्षा प्रथम प्रश्न पत्र सामान्य अध्ययन के प्रश्न उत्तर को सुविधा की दृष्टि से अलग-अलग आर्टिकल में बांटा गया है इस आर्टिकल में सामान्य अध्ययन प्रश्न प्रश्न पत्र खण्ड अ के  लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर दिये गये हैं।

(लघुउत्तरीय प्रश्न संख्या 10)

प्रश्न-

यूरोपीय पुनर्जागरण में माइकल एंजिलो के योगदान को रेखांकित कीजिए ?

उत्तर- ललित साहित्य के साथ ही चित्रकला तथा वास्तुकला के क्षेत्र में भी पुनर्जागरण युग की देन अद्वितीय है। नए युग में कलाकार यथार्थ प्रकृति और सौन्दर्य की तरफ आकर्षित हुए।

माइकल एंजिलो (1475-1564)- माइकल एंजिलो एक महान मूर्तिकाल, शिल्पकार तथा अद्वितीय चित्रकार था। उसकी कला की सर्वश्रेष्ठ कृतियाँ रोम के गिरजाघरों की छतों तथा चैखटों पर बनाए गए चित्र हैं। 1508 से 1512 से बीच माइकल एंजिलो द्वारा चित्रित सिसटाइन गिरजाघर की छत की चित्रावलियाँ कला विशेषज्ञों के लिए विस्मय की वस्तु हैं। उसकी एक अन्य प्रसिद्ध कृ लास्ट जजमेंट को पूरा होने में अनेक वर्ष लगे। एंजिलो ने 145 चित्रों तथा 40 मूर्तियों की रचना की। एंजिलो द्वारा निर्मित दो मूर्तियाँ बहुत प्रसिद्ध हैं एक पंत जिसका निर्माण रोम में हुआ था और दूसरी डेविड, जिसे फ्लोरेंस के आग्रह पर लाया गया था। एंजिलो मनुष्य का ईश्वर की सबसे सुंदर कृति मानता था। यह सौंदर्य बोध उस महान् कलाकार की तूलिका और छैनी दोनों में देखा जा सकता है।

प्रश्न-

सन् 1688 की इंग्लैण्ड की गौरवपूर्ण क्रांति या रक्तहीन क्रांति के कारणों को उजागर कीजिए ?

उत्तर- इंग्लैण्ड के इतिहास में सन् 1688 विशेष रूप से राजनीतिक तथा वैधानिक महत्व का वर्ष था। सन् 1685 में चार्ल्स  द्वितीय की मृत्यु के पश्चात उसके भाई जेम्स द्वितीय का राज्यरोहण हुआ था। जेम्स द्वितीय का पिता चार्ल्स प्रथम था तथा उसकी माता का नाम मेरिया हेनरिटा था। चार्ल्स द्वितीय के राज्यकाल में जेम्स स्काॅटलैंड का शासक तथा नौसेना अध्यक्ष था। जेम्स द्वितीय की विचारधारा कैथोलिक थी। अतः व्हिग दल ने उसके उत्तराधिकार का विरोध किया था।

इंग्लैण्ड की गौरवपूर्ण क्रांति या रक्तहीन क्रांति के कारण इस प्रकार थे-

  • संसद अपने विशेष अधिकारों का उपयोग करना चाहती थी तथा राजा के अधिकारों को सीमित व नियंत्रित करना चाहती थी।
  • चार्ल्स द्वितीय के अवैध पुत्र मन्मथ ने जेम्स द्वितीय के विरुद्ध सिंहासन प्राप्ति हेतु विद्रोह कर दिया। जेम्स ने मन्मथ को युद्ध में पराजित कर दिया तथा बंदी बना लिया।
  • जेम्स द्वितीय फ्रांस के कैथोलिक राजा लुई- 14 से आर्थिक और सैनिक सहायता प्राप्त कर इंग्लैंड में अपना निरंकुश और स्वेच्छाचारी शासन स्थापित करना चाहता था। लुई कैथोलिक था और प्रोटेस्टेटों पर अत्याचार करता था। इससे ये प्रोटेस्टेंट इंग्लैण्ड में आकर शरण ले लिया।
  • जेम्स  कैथोलिक धर्म का अनुयायी था जबकि इंग्लैंड की अधिकांश जनता एंग्लिकन मत की थी।
  • कैथोलिक होने के कारण जेम्स ने विश्वविद्यालयों में भी ऊंचे पदों पर कैथोलिकों को नियुक्त किया।
  • जेम्स द्वितीय ने इंग्लैण्ड को कैथोलिकों का देश बनाने के लिए दो बार धार्मिक अनुग्रहों की घोषणा की।
  • जेम्स ने 1686 में कोर्ट ऑफ हाई कमीशन को पुनरू स्थापित किया जिसके अन्तर्गत कैथोलिक धर्म की अवहेलना करने वालों पर मुकदमा चलाकर उनको दण्डित किया जाता था।

प्रश्न-

भारत में बौद्ध धर्म के उदय की सामाजिक आर्थिक पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालिए ?

भारत ने बौद्ध धर्म के उदय की सामाजिक, आर्थिक पृष्ठभूमि तैयार की थी। बौद्वधर्म का प्रसार न केवल भारत में वरन् विश्व के अनेक देशों में हुआ। बौद्व धर्म शनैः शनैः एक विश्व धर्म बन गया। और एशिया के अनेक देशों में आज भी विद्यमान है। बौद्व धर्म अपने प्रादुर्भाव के थोड़े ही समय में समस्त भारत में फैल गया था।

आर्थिक कारण

  • तत्कालिक समय में नयी कृषिमुलक अर्थव्यवस्था तथा व्यापार वाणिज्य का तेजी से विकास हो रहा था लेकिन वैदिक धर्म इसके विकास में बाधा पहुंचा रहा था. वैदिक धर्म में बलि जैसी प्रथा के कारण कृषि एवं संबंधित कार्य हेतु पशुओं की कमपाई हो रही थी.
  • वैदिक धर्म कुशीदन (सूदखोरी) की निंदा करता था जबकि इस समय यह एक प्रमुख जरूरत बन चुकी थी. ऐसे में बौद्ध धर्म के प्रति काफी लोगों का रुझान बढ़ा।

सामाजिक कारण

  • तत्कालिक समाज में वर्णव्यवस्था कर्ममुलक न रहकर जन्ममुलक हो गई थी. उपर के तीनों वर्गों के अपेक्षा शूद्रों को बहुत कम तरह के अधिकार दिए गये थे. इससे शुद्र वर्ग में काफी असंतोष था.
  • वर्ण व्यवस्था में तीसरे दर्जे पर स्थान प्राप्त करने वाले वैश्य वर्ग भी संतुष्ट नहीं थे. बदलते अर्थव्यवस्था में उनकी आर्थिक स्थिति काफी बेहतर हुई थी लेकिन वर्णव्यवस्था के तहत उन्हें भी कम अधिकार प्राप्त था. बौद्ध धर्म में उन्हें अपनी स्थिति बेहतर दिखाई दी. ऐसे में उन्होंने इसे फलने-फूलने में सहयोग किया.

धार्मिक कारण

  • ब्राह्मण धर्म में प्रारम्भ में सादगी थी लेकिन उत्तर वैदिक काल तक आते आते इसमें कर्मकांड, तंत्र-मंत्र बलि आदि हावी हो गये. इससे धार्मिक जीवन जटिल होने लगा. फलतः उसका विरोध किया गया और बौद्ध धर्म को प्रोत्साहन मिला.

प्रश्न. 

ई.पू. छठी शताब्दी में उत्तर भारत की राजनीतिक दशा पर प्रकाश डालिए ?

उत्तर- छठी शताब्दी ई. पूर्व के प्रारंभ में भारत में किसी का एकछत्र राज्य नहीं था। भारत अनेक छोटे-बड़े राज्यों में विभाजित था, जिनमें से कुछ राजतंत्र व अन्य गणतंत्र थे। इस समय भारत की राजनीतिक स्थिति तत्तकालीन यूनान की स्थिति के समान थी। यद्यपि भारत के कुछ राजतंत्र यूनानी राज्यों से बहुत बड़े थे। भारतीय राज्यों के विषय में बी.सी. लाॅ ने लिखा है ‘‘ आरंभ में इनमें से अधिकांश राजा ही शासन करते थे। यूनान के समान भारत में भी राजतंत्र के स्थान पर गणतंत्र राज्यों की स्थापना का मूल कारण संभवतः राजा की आयोग्यता एवं अत्याचार रहा होगा।‘‘ छठी शताब्दी ई.पू. तक आते-आते प्रत्येक जनपद का विस्तार हो चुका था।सीमा विस्तार की भावना एवं पारस्परिक युद्धों से जनपद अपेक्षाकृत विस्तृत हो गए तथा महाजनपद कहलाने लगे थे।

महाजनपद

बौद्ध साहित्य अंगुत्तर निकाय तथा महावस्तु से 16 महाजनपदों के विषय में जानकारी मिलती है।

सुत्त पिटक तथा विनय पिटक से महाजनपद काल की जानकारी मिलती है।15 महाजनपद नर्मदाघाटी के उत्तर में थे जबकि अश्मक गोदावरी घाटी में स्थित था।

सोलह महाजनपद एवं राजधानी एवं उनकी राजधानियां इस प्रकार थी

  1. अंग - चम्पा
  2. अवन्ति - उज्जैन महिष्मति
  3. काशी - वाराणसी
  4. कौशल - श्रावस्ती कुशावती
  5. कम्बोज - हाटक
  6. कुरू - हस्तिनापुर
  7. गांधार - तक्षशिला
  8. अश्मक - पोटन पैथान
  9. मगध - गिरिव्रज राजगीर राजगृह
  10. मल्ल - कुशीनगर
  11. मत्स्य - विराटनगर(बैराठ)
  12. वत्स - कौशाम्बी
  13. वज्जीय - वैशाली
  14. पांचाल - अहिच्छलध्काम्पिल्य
  15. चेदि - सोथीवति सुक्तिवती
  16. सूरसेन - मथुरा

 

प्रश्न- 

फिरोजशाह तुगलक के जनकल्याणकारी कार्यों का वर्णन कीजिए ?

  1. बेरोजगार व्यक्तियों को काम देने के लिए फिरोजशाह तुगलक ने दिल्ली में एक रोजगार दफ्तर खुलवाया सभी बेरोजगारों को इस दफ्तर में पंजीकृत किया गया और आवश्यकता अनुसार उन्हें रोजगार उपलब्ध कराया गया
  2. सिंचाई को प्रोत्साहित करने की दृष्टि से, सुल्तान ने सिंचाई कार्यों पर बहुत ध्यान दिया। एवं चार नहरों का निर्माण किया
  3. सुल्तान ने सूखे के समय मुहम्मद तुगलक द्वारा दिए गए ऋण को माफ कर दिया। उन्होंने अफसरों को सख्त निर्देश दिए कि किसानों को परेशान न करें।
  4. सुल्तान ने चार नहरें, दस सार्वजनिक स्नानागार, चार मस्जिदें, तीस महल, दो सौ, सराय श्, एक सौ कब्रें, 30 नगर और एक सौ पुल बनवाए।
  5. फिरोज तुगलक इतिहासकारों, कवियों और विद्वानों का एक महान संरक्षक था।
  6. सुल्तान ने कई प्रकार के नए सिक्कों और छोटे सिक्कों को पेश किया और सुनिश्चित किया कि कोई भी झूठे सिक्के प्रचलन में न आए।
  7. अस्पतालों को महत्वपूर्ण शहरों में स्थापित किया गया था जहाँ दवाएँ मुफ्त दी जाती थीं। गरीब लोगों को भी भोजन दिया जाता था।
  8. पुराने भवनों की मरम्मत- नए भवनों के निर्माण के साथ-साथ फिरोजशाह तुगलक ने पुराने भवनों का भी निर्माण करवाया
  9. दीवान- ए- एइस्तिहाक( पेंशन विभाग) यह पेंशन विभाग का सुल्तान ने इस विभाग की स्थापना निर्धनों और वृद्धों की सामाजिक सुरक्षा हेतु किया था


प्रश्न

 दीन-ए-इलाही के स्वरूप एवं उसके महत्व का उल्लेख कीजिए ?

उत्तर-

दीन-ए-इलाही की स्थापना

मार्च 1582 ई. में अकबर ने सभी धर्मों के आचार्यों व राज्य के प्रमुख व्यक्तियों की एक सभा का आयोजन किया, जिसमें इस बात पर विचार किया कि कौन-सा धर्म सर्वाेत्तम है, किन्तु इस सभा में निर्णय नहीं हो सका। तब अकबर ने अपने विचार प्रस्तुत किए और एक नवीन धर्म की स्थापना की, जिसे दीन-ए-इलाहीके नाम से जाना गया। दीन-ए-इलाहीका शाब्दिक अर्थ है ईश्वर का धर्म इसमें प्रत्येक धर्म की अच्छी बातों का समावेश किया गया था। अतः यह एक प्रकार से सभी धर्मों का सार था। दीन-ए-इलाही अकबर धार्मिक सहिष्णुता और उदार लोकेश्वरवाद का प्रतीक था

अकबर ने सभी धर्मो का तुलनात्मक अध्ययन कर दीन-ए-इलाही या तकहीद-ए-इलाही अथवा दैवी एकेश्वरवाद (डिवाइन मोनोथीज्म) नामक एक धर्म की स्थापना की।

इस धर्म के मुख्य सिद्धान्त निम्नांकित थे-

  •  यह धर्म ईश्वर की एकता में विश्वास करता था।
  • एक-दूसरे का अभिवादन करते समय इस धर्म के सदस्य अल्ला-हु-अकबर तथा जल्ला जलालुह शब्दों का प्रयोग करते थे।
  • इस धर्म के अनुयायियों के लिए मांस भक्षण वर्जित था।
  • इस धर्म के अनुयायियों को अपने जन्म दिवस पर एक दावत देना आवश्यक था।
  • इस धर्म के अनुयायियों को मछुआरों या शिकारियों के साथ भोजन करना वर्जित था।
  • इस धर्म के अनुयायियों को अपने जीवन-काल में ही श्राद्ध देना आवश्यक था।
  • इज्जत, समान धर्म, सम्पत्ति और सम्राट् के प्रति स्वामिभक्ति इस धर्म के अनुयायियों के चार आदर्श थे।
  • सूर्य के लिए सम्मान तथा अग्नि पूजा इस धर्म में मान्य थे।
  • दीन-ए-इलाही के अनुयायियों के लिए दान व उदारता का पालन आवश्यक था ।
  • दीन-ए-इलाही के अनुयायियों को उनकी इच्छा के अनुरूप जलाया या दफन किया जा सकता था।

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि यह कोई एक धर्म नहीं था, वरन् अनेक धर्मों का मिश्रण था। दीन-ए-इलाही के अनुयायियों की संख्या काफी कम थी। यदि अकबर चाहता तो संपूर्ण प्रजा को इस धर्म का अनुयायी बनने के लिए विवश कर सकता था, किन्तु अकबर चाहता था कि लोग स्वेच्छा से ही उसके विचारों को स्वीकार करें। अतः उसने किसी को विवश नहीं किया। दीन-ए-इलाही में कुल 18 अनुयायी थे। अकबर के अनेक घनिष्ठ लोगों ने भी इसे स्वीकार नहीं किया था। दीन-ए-इलाही कभी भी जनता में प्रिय नहीं हो सका और न ही राजधर्म बन सका। अकबर की मृत्यु के साथ ही इस धर्म का पतन हो गया।


प्रश्न 2 

आर्थिक दोहन की व्याख्या कीजिए इसके कारणों की समीक्षा कीजिए।

उत्तर- भारत की संपत्ति और संसाधनों का एक हिस्सा अंग्रेज ब्रिटेन को भेज रहे थे और इसके बदले भारत को पर्याप्त आर्थिक या भौतिक लाभ नहीं मिल रहा था। यह आर्थिक दोहन ब्रिटिश शासन की खास विशेषता थाी।

ब्रिटिश शासन से पहले ही बुरी से बुरी भारतीय सरकारों, शासनों ने भारतीय सरकारों ने भी जनता से चूसी गई दौलत का उपयोग देश के अंदर ही किया था। चाहे उन्होंने इस धन को सिंचाई की नहरें या ट्रंक रोड बनाने में खर्च किया। महल, मंदिर या मस्जिद बनाने में लगाया, युद्धों और विजय लिए उसका उपयोग किया या व्यक्तिगत भोग-विलास में उसे उड़ाया, मगर धन अंततः भारतीय उद्योग और व्यापार को ही प्रोत्साहित करता था और भारतीयों को रोजगार देता था। इसका कारण यह था कि विदेशी विजेता, जैसे कि मुगल, भी जल्द ही भारत मेें बस गए और उन्होंने इसी को अपना घर बना लिया। पर अंग्रेज हमेसा विदेशी ही बने रहे। भारत में काम कर रहे या व्यापार कर रहे लगभग सभी अंग्रेज ब्रिटेन वापस जाने की योजना बनाते रहते थे।

भारत की सरकार पर नियंत्रण विदेशी व्यापारियों की एक कंपनी का और ब्रिटेन की सरकार का था। परिणामस्वरूप भारतीय जनता से प्राप्त करों और आय का बहुत बड़ा हिस्सा अंग्रेज भारत में नहीं बल्कि अपने देश ब्रिटेन में खर्च करते थे। बंगाल से संपत्ति का ये दोहन वर्ष 1757 में आरंभ हुआ और इसके बाद कंपनीके नौकर भारतीय भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की आर्थिक नीतियों ओर प्रशासकों, जमीदारों, व्यापारियों और साधारण जनता से झटककर जमा की गई बेपनाह दैालत अपने देश ले जाने लगे।  1758 और 1765 के बीच उन्होंने लगभग 60 लाख पौंड की दौलत ब्रिटेन भेजी। वर्ष 1765 में कंपनी ने बंगाल की दीवानी प्राप्त कर ली ओर इस तरह राजस्व पर उसका नियंत्रण स्थापित हो गया। जल्द ही कंपनी ने अपने नौकरों से भी बड़े पैमाने पर प्रत्यक्ष दोहन की व्यवस्था खड़ी कर ली।

वह बंगाल के राजस्व से ही भारतीय माल खरीदकर उसका निया्रत करने लगे। इन खरीदों की पूंजी निवेश कहा जाता था। इस तरह इन पूूंजी निवेशों के रूप में बंगाल का धन इंग्लैण्ड भेजा जाता था। मिसाल के लिए 1765 से 1770 के बीच कंपनी ने मालों के रूप में लगभग 40 लाख पौंड का धन बाहर भेजा जो बंगाल मात्र के राजस्व का का 33 प्रतिशत था। 18 वीं सदी के अंत तक भारत की राष्ट्रीय आय का लगभग 9 प्रतिशत बाहर भेजा जा रहा था। पर वास्तिवक दोहन और भी अधिक था, क्योंकि अंग्रेज अधिकारियों के वेतनों और दूसरी आयों तथा अंगे्रज व्यापारियों के व्यापारिक लाभ का एक बड़ा हिस्सा भी इंग्लैण्ड ही जाता था।

इस दोहन के नतीजे में भारत का निर्यात उसके आयात से बढ़ गया, मगर इसका कोई लाभ भारत को न मिला। हालांकि वार्षिक दोहन की ठीक-ठाक रकम का हिसाब अभी तक नहीं लगाया जा सका है, और इतिहासकारों में इसे लेकर मतभेद भी है,पर कम से कम 1757 और 1857 के बीच इस दोहन की वास्तविकता को ब्रिटिश अधिकारी बड़े पैमाने पर स्वीकार करते थे।  उदाहरण के लिए हाउस आफ लाईस की सेलेक्ट कमेटी के अध्यक्ष और बाद में भारत के गवर्नर-जनरल लाॅर्ड एलनबेरो ने 1840 में स्वीकारा कि भारत से आशा की जाती थी कि वह इस देश (ब्रिटेन) को 20 से 30 लाख पौंड स्टर्लिग के बीच कोई रकम भेजे और बदले मे मामूली मूल्य के सैनिक भंडारों के अलावा किसी बात की आशा न करे। मद्रास के बोर्ड आॅफ रेवेन्यू के अध्यक्ष जाॅन सुलिवन ने टिप्पणी की कि  ‘‘हमारी प्रणाली बहुत कुछ स्पंज की तरह काम करती है जो गंगा के तटो सें सभी अच्छी चींजे खेकर थेम्स के तटों पर निचोड़ देती है।‘‘ वर्ष 1858 के बाद यह दोहन बढ़ता ही रहा।

प्रश्न 2

बिरसा मुंडा आंदोलन का संक्षिप्त विवरण दीजिए ?

मुंडा विद्रोह

उत्तर-  मुंडा बिहार की एक प्रमुख जनजाति है। भारत की अनेक दूसरी जनजातियों की तुलना में मुंडा लोग राजनीतिक रूप से काफी जागरूक रहे हैं। इस तथ्य को 19वीं शताब्दी के अंत में होने वाला मंुडा विद्रोह के से सरलतापूर्वक समझा जा सकता है। इस जनजाति में प्राचीनकाल में भी सामुदायिक कृषि का प्रचलन था।  अनके क्षेत्रों के मुंडा गाॅव जब राजाओं के अधीन हो गये तथा वहाँ जमीदारी प्रथा आरंभ हो गई तब धीरे-धीरे मुंडा लोगों को आर्थिक शोषण बढ़ने लगा। इस दशा में मुंडा जनजाति के लोग डीक (बाहरी व्यक्ति या गैर मुंडा व्यक्ति) लोगों से घृणा करने लगे। ब्रिटिश शासन के दौरान मुंडा जनजाति के ग्रामों में ईसाई मिशनरियों के प्रवेश से भी इनका शोषण बढ़ने लगा। इसके फलस्वरूप सन् 1814 से 1832 के बीच अनेक मुंडा ग्रामों में जमीदारों के खिलाफ संघर्ष होने लगे जिन्हें ब्रिटिश शासन ने दबा दिया। सन् 1885 मे बिरसा मुंडा नाम के एक युवक ने मुंड जनजाति में एक नई राजनैतिक चेतना उत्पन्न की । बिरसा मुंडा की अलौकिक शक्ति को मानते हुए ये मुंडा आदिवासी उसके अनुयायी बअन गए। बाद में सन् 1895 मे बिरसा मुंडाके नेतृत्व में लगभग सात हजार आदिवासियों ने संगठित होकर अपने शोषण  के विरूद्ध विद्रोह किया। यह विद्रोह पांच वर्षों तक चलता रहा तथा बिरसा की मृत्यु के बाद ही शांत हो सका। इस जनजाति के कुछ क्षेत्रों में आज भी बिरसा को एक अवतार के रूप में देखा जाता है। वास्तविकता में यह है कि भारत की अधिकांश जनजातियों में जब राजनीतिक चेतना नहीं थी, उस समय मुंडा विद्रोह एक सशक्त राजनीतिक घटना के रूप में हमारे सामने आता है। यह विद्रोह मुंडा जनजाति की राजनीतिक चेतना का प्रतीक है।


प्रश्न 2

कुंवर सिंह पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए ?

कुंवर सिंह

अंग्रेजों के विरूद्ध स्वतंत्रता संघर्ष का आंदोलन 18वीं शताब्दी में धीमी गति से चला, जो 19वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में उग्र रूप धारण करने लगा। यद्यपि ऐसे विद्रोह स्थानीय सीमित शक्ति के कारण सफल तो नहीं सके, लेकिन जन समुदाय में स्वतंत्रता की भावना को पनपाने व फैलाने में अहम भूमिका रही और कहा जाए, तो 1857 के आंदोलन को जागृत करने में इन्हीं छोटे-छोटे आंदोलनों की भूमिका रही। इन आंदोलनों में अनेक रणबांकुरों ने अपने प्राणों की आहुति दी थी, उनमें म.प्र. के प्रथम रणवीर कुंवर चैनसिंह थे, जिन्होंने अपनी वीरता से अंग्रेजों को नाको चने चबवाये।

कंपनी सरकार ने 1818 में सीहारे में सैनिक छावनी की स्थापना की थी। यहाँ पाॅलीटिकल एजेंट मिस्टर मैडाक के अधीन 1000 सैनिक रखे गए, जिन्हें भोपाल स्टेट के खजाने से वेतन मिलता था। भोपाल के साथ-साथ नरसिंहगढ़, खिलचीपुर और राजगढ़ की रियासतों संबंधी राजनीतिक अधिकार मैडाक को सौंप दिए गए। अंग्रेजों की कुटिलता के कारण सीहोर में छः वर्ष पश्चात विद्रोह भड़क उठा। नरसिंहगढ़ रियासत में दीवान आनंदराम बख्शी को अंग्रेजों ने अपनी ओर मिला लिया, जो नरसिंहगढ़ के राजकुमार कुंवर चैनसिंह ने विश्वस्त की जानकारी मिलते ही गद्दार आनंदराम को मौत के घाट उतार दिया। एक और मंत्री रूपाराम बोहरा ने इंदौर के होल्कर राज्य द्वारा अंग्रेजों के विरूद्ध मध्यभारत के सभी रजवाड़ों के संघर्ष के लिए एकजुट करने हेतु बैठक बुलाने तथा उसमें कुंवर चैनसिंह के भाग लेने की जानकारी मैडाक को पहुंचाई थी, उसे भी गद्दारी के कारण दंड स्वरूप मौत के घाट उतार दिया गया  था।


प्रश्न 2

रामकृष्ण मिशन के सामाजिक शैक्षणिक योगदानों का सविस्तार वर्णन कीजिए ?

स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी 1863 में एक क्षत्रिय परिवार में हुआ था, उनके बचपन का नाम नरेन्द्र नाथ दत्त था। उन्होंने बी.ए. किया। उन पर यूरोप के बुद्धिवाद और उदारवाद का प्रभाव था। उन्होने जाॅन स्टुअर्ट मिल, ह्यूम, स्पेन्सर, रूसो जैसे पाश्चात्य दार्शनिकों का अध्ययन किया था। वे ब्रम्हा समाज की ओर आकर्षित हुए। बाद में दक्षिण में रामकृष्ण से मिलने गए।

शिकागो सर्व धर्म सम्मेलन- इस विदेश यात्रा के तीन उद्देश्य थे

1- भारतीयों के अंधविश्वासों को समाप्त करना चाहते थे कि वे समुद्र यात्रा नहीं कर सकते।

2- भारतीय को अपना आदर स्वयं करना चाहिए और दूसरों को प्रभावित करना चाहिए।

3- विश्व के सभी धर्म एक ही धर्म के विभिन्न अंग हैं और संपूर्ण विश्व में एक ही धर्मिक एकता का भाव जागृत होना चाहिए।

रामकृष्ण मिशन की स्थापना 1887 ई. में स्वामी विवेकानंद ने की थी। विवेकानंद का लक्ष्य स्वामी रामकृष्ण के विचारों को संपूर्ण विश्व में फैलाना था। रामकृष्ण मिशन का प्रमुख उद्देश्य पश्चिम के स्वतंत्र तथ जनतंत्र के साथ पूर्व के अध्यात्मक का समन्वय करना था। इसने सर्वधर्म एकता का संदेश दिया।

रामकृष्ण मिशन के समाज कल्याण संबंधी कार्य

रामकृष्ण मिशन ने समाज कल्याण के क्षेत्र में अनेक कार्य किए। भूचाल तथा अकाल के समय मिशन लोक सेवा के कार्यों को करता है। मिशन ने विभिन्न स्थानों पर स्कूल, काॅलेज तथा पुस्तकालय आदि स्थापित किए हैं। मिशन का पूरा कार्यक्षेत्र भारत नहीं अपितु संपूण्र विश्व है। मिशन का उद्देश्य मानव मात्र की सेवा करना है। उनका मत है कि मानव की पूजा ही ईश्वर की सच्ची पूजा है।


प्रश्न 2

मध्यप्रदेश के विश्व धरोहर, स्थलों का संक्षिप्त विवरण दीजिए ?

उत्तर- मध्यप्रदेश में तीन विश्व धरोहर स्थल हैं जिनका वर्णन इस प्रकार है-

1- खजुराहो

म.प्र. के छतरपुर जिले में चंदेल राजाओं द्वारा 950 से 1050 ई. में निर्माण कराए गए विश्वविख्यात मंदिर तत्कालीन शिल्पियों के अद्वितीय कला कौशल को प्रदर्शित कर रहे हैं। वर्तमान में चैसठ योगिनी, कंदरिया महादेव, देवी जगदम्बा, लालगुवा महादेव, चित्रगुप्त मतंगेश्वर, विश्वनाथ, पार्वती, वाराह, लक्ष्मण एवं नंदी मंदिर प्रमुख हैं। सभी पश्चिमी समूह से संबंधित हैं।

पूर्वी समूह के मंदिरों में ब्रम्हा, वामन एवं जावरी तथा घटाई आदिनाथ एवं पाश्र्वनाथ के जैन मंदिर हैं। दक्षिणी समूह में दुल्हादेव एवं चतुर्भुज मंदिर हैं। खजुराहों के मंदिरों में मानवीय अंतर्द्धंद, मनावेगों एवं प्राकृतिक भावना को उभारा गया है।

2- साॅची

यह भोपाल से 46 किमी दूर रायसेन जिले में स्थित विश्व प्रसिद्ध बौद्ध स्थल है। यहाॅ तीन स्तूप हैं जिनका निर्माण सम्राट अशोक ने कराया था। स्तूपों के अतिरिक्त चैत्य और विहार भी बौद्ध कला के सर्वोत्तम नमूने हैं।

3- भीमबेटका

विंध्य पर्वत श्रृंखलाओं के उत्तरी छोर से घिरा हुआ भीमबेटका भोपाल से 40 कि.मी. दूर दक्षिण की ओर स्थित है। भीमबेटका समूह मानव इतिहास का एक बहुमूल्य इतिवृत्त और समृद्ध पुरातात्विक संकुल माना जाता है।

दर्शनीय स्थल- यहां 500 से अधिक गुफाओं मे प्रागैतिहासिक गुफावासियों की दैनंदिन जीवनचर्या के मनोहारी चित्र दिखाए गए हैं।


प्रश्न 2

राजपूतकालीन सामाजिक संरचना की विवेचना कीजिए ?

राजपूतकालीन समाज कई जातियों और उपजातियों में विभाजित था। समाज में ब्राहम्णों का ऊँचा स्थान था। वे राजपूत राजाओं के पुरोहित और मंत्री होते थे। उन्हें विशेष अधिकार और सुविधाएं प्राप्त थीं, जैसे प्राणदण्ड ब्राम्हणों को नहीं दिया जाता था। वे अपना समय अध्ययन, अध्यापन, यज्ञ और धार्मिक संस्कारों मे बिताते थे। रक्षा का भार क्षत्रियों पर होता था और शासक और सैनिक होते थे। व्यापार वैश्य करते थे। शुद्र अन्य जातियों की सेवा का कार्य करते थे। जाति बंधन कठोर होने के कारण समाज का विकास अवरूद्ध हो गया था। विचारों में संकीर्णता और रूढ़िवादिता आ गई थी। रूढ़िवादी प्रवृत्तियों से ग्रस्त हो जाने के कारण हिन्दू समाज की गतिशीलता समाप्त हो चुकी थीं। फलतः वह विदेशियों को अपने में आत्मसात नहीं कर सका।

प्रसिद्ध विद्धान अलबरूनी को यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि हिन्दू लोग यह नहीं चाहते थे कि जो एक बार अपवित्र हो चुका है, उसे पुनः अपना लिया जाय। उनका विश्वास था कि एक देश, धर्म और जाति के रूप में श्रेष्ठतम थे। अलबरूनी कहता है कि - हिन्दू विश्वास करते हैं कि उनके जैसा कोई देश नहीं है, उनके जैसा कोई राष्ट्र नहीं है, उनके जैसा शास़्त्र नहीं है। उनके पूर्वज वर्तमान पीढ़ी के समान संकुचित मनोवृत्ति वाले नहीं थे।

नारी का समाज में सम्मान होता था। पर्दे की प्रथा नहीं थी। राजपूतों की नारियों को पर्याप्त स्व्तंत्रता प्राप्त थी। और वे अपने पति का वरण स्व्यं कर सकती थीं। स्वयंवर प्रथा का प्रचलन था। उच्च परिवारों की नारियां साहित्य और दर्शन का अच्छा ज्ञान रखती थीं। राजपूतों में सती-प्रथा भी प्रचलित थी। जौहर की प्रथा भा थी। जौहर एक प्रकार से सामूहिक आत्महत्या की पद्धति थी, जिसमें राजपूत नारियाँ विजयी  शत्रुओं द्वारा अपवित्र होने के बजाय स्वयं को अग्नि को भेंट कर देती थीं।

विवाह सवर्ण और सजातीय होते थे। अन्तर्जातीय विवाह कभी-कभी होते थे। विधवा-विवाह आमतौर पर निम्न जातियों में प्रचलित था। विधवाओं को कठोर जीवन व्यतीत करना पड़ता था। कन्या का जन्म राजपूतों में अशुभ माना जाता था क्योंकि कन्या के विवाह के समयपिता को झुकना पड़ता था। कई बार कन्याओं का जन्म के समय वध कर दिया जाता था। शुद्ध शाकाहारी  भोजन अच्छा समझा जाता था। शराब और अफीम का भी राजपूतो में प्रचलन था। चावल, दाल, गेहूॅ, दूध, दही, सब्जी तथा मिष्ठान्न लोगों का प्रमुख भोजन था। संगीत, नृत्य, नाटक, चैपड़, आखेट, और शतरंज, मनोविनोद के साधन थे। आभूषणों का आम प्रचलन था। आभूषण स्त्रियाँ और पुरूष दोनों पहनते थे।

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