Bharat ki Mitiya Soil of India | भारत की मिट्टियाँ

Bharat Ki mrada
  • पौधे के विकास में सहायक महीन कणयुक्त तथा ह्यूमस वाले, मेंटल की ऊपरी परत के ढीले पदार्थ को मिट्टी या मृदा कहते हैं।
  • मिट्टी में मुख्य रूप से शैलकण, खनिज कण, कार्बनिक, पदार्थ, जल, वायु एवं जीवाणु पाये जाते हैं।
  • मिट्टी के कणों के आकार का आकार इसकी प्रमुख विशेषता है। मिट्टी के कणों को मिलीमीटर में मापा जाता है।
  • कार्बनिक पदार्थों के सड़ने के बाद जो उत्पाद बच जाता है, वह ह्यूमस कहलाता है। ह्यूमस से मिट्टी की उर्वरता बनी रहती है। अलग-अलग प्रकार की मिट्टी में ह्यूमस की मात्रा अलग-अलग होती है।
  • जिस मिट्टी में चूने की मात्रा कम होती है, उसे अम्लीय मिट्टी कहते हैं। इसी प्रकार जिस मिट्टी में चूने की मात्रा अधिक होती है, उसे क्षारीय मिट्टी कहते हैं। निष्क्रिय मिट्टी का पीएच मान 7.2 होता है। इसी प्रकार अम्लीय मिट्टी का पी.एच. मान 7.2 से कम एवं क्षारीय मिट्टी का पी.एच. मान 7.2 से अधिक होता है।
  • भारत में विभिन्न प्रकार के उच्चावच, भू-आकृतियां, जलवायु, परिमंडल तथा वनस्पितियां पाई जाती हैं। इन्होंने भारत में विभिन्न प्रकार की मिट्टियों के विकास में योगदान दिया है।
  • भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के तत्वाधान में राष्ट्रीय मृदा सर्वेक्षण ब्यूरो तथा भूमि उपयोग एवं आयोजन संस्थान ने भारत में मृदाओं पर विभिन्न अध्ययन किये हैं।
  • मृदा के अध्ययन तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसे तुलनात्मक बनाने के लिए भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने भारतीय मृदा को उनकी प्रकृति एवं गुणों के आधार पर वर्गीकृत किया है।

ICAR USDA SOIL CLASSIFICATION
Bharat ki Mitti

उत्पत्ति , रंग, संयोजन तथा अवस्थिति  के आधार पर भारत की मिट्टियों को निम्न प्रकार वर्गीकृत किया गया है-
  1. जलोढ़ मृदाएँ
  2. काली मृदाएँ
  3. लाल एवं पीली मृदाएँ
  4. लैटेराइट मृदाएँ
  5. शुष्क मृदाएँ
  6. लवण मृदाएँ
  7. पीटमय मृदाएँ
  8. वन मृदाएँ

जलोढ़ मृदाएँ Alluvial soil


  • जलोढ़ मृदाएँ उत्तरी मैदान और नदी घाटियों के विस्तृत भाग में पाई जाती है।
  • जलोढ़ मृदाएँ देश की कुल मृदा के 40 प्रतिशत भाग को ढके हुए है। ये निक्षेपण मृदाएं हैं जिन्हें नदियों एवं सरिताओं  ने वहित तथा निक्षेपित किया है।
  • राजस्थान के संकीर्ण गलियारे से गुजरात के मैदान में जलोढ़ मृदा मिलती है। प्रायद्धीपीय प्रदेशों में ये पूर्वी तट की नदियों के डेल्टाओं और नदियों की घाटियों में पाई जाती है।
  • जलोढ़ मृदा के गठन में बलुई, दोमट एवं चिकनी मिट्टी की प्रकृति पाई जाती है। सामान्यतः इनमें पोटाश की मात्रा अधिक और फॉस्फोरस की मात्रा कम पाई जाती है।
  • गंगा के ऊपरी और मध्यवर्ती मैदान में खादर एवं बांगर नाम की दो भिन्न मृदाएं विकसित हुई हैं। खादर प्रतिवर्ष बाढ़ों द्वारा निक्षेपित होने वाला नया जलोढक है। जो महीन गाद होने के कारण मृदा की उर्वरता को बढ़ा देता है। बांगर पुराना जलोढक होता है जिसका जमाव बाढकृत मैदान से दूर होता है। खादर एवं बांगर मृदाओं में कैल्सियमी संग्रथन अर्थात कंकड पाए जाते हैं।
  • जलोढ़ मृदा का रंग हल्के धूसर से राख धूसर जैसा होता है। इसका रंग निक्षेपण की गहराई, जलोढ़ के गठन और निर्माण में लगने वाली समयावधि पर निर्भर करता है।

काली  मृदाएँ Black Soil

  • काली  मृदाएँ दक्कन के पठार के अधिकतर भाग में पाई जाती है। इसमें महाराष्ट्र के कुछ भाग, गुजरात, आंध्रप्रदेश तथा तमिलनाडु के कुछ भाग शामिल हैं।
  • गोदावरी और कृष्णा नदियों के ऊपरी भागों और दक्कन के पठार के उत्तरी-पश्चिमी भाग में गहरी काली मृदा पाई जाती है। इस मृदा को रेगरतथा कपास वाली मिट्टीभी कहा जाता है। आमतौर पर काली  मृदाएँ गहरी और अपारगम्य होती है। ये मृदाएं गीले होने पर फूल जाती है और चिपचिपी हो जाती है। सूखने पर यह सिकुड़ जाती है। इस प्रकार शुष्क ऋतु में इस मृदा में चौड़ी दरार पड़ जाती है।
  • नमी के धीमे अवशोषण एवं नमी के धीमे क्षय के कारण यह काली मृदा में लंबी अवधि तक नमी बनी रहती है।
  • रासायनिक दृष्टि से काली मृदा में चूने, लौह, मैग्नीशिया तथा ऐलुमिना के तत्व काफी मात्रा में होते हैं। इनमें पोटाश का मात्रा भी पाई जाती है। लेकिन इसमें फॉस्फोरस नाइट्रोजन और जैव पदार्थों की कमी पाई जाती है।
  • इस मृदा का रंग गाड़े काले एवं स्लेटी रंग के बीच की विभिन्न आभाओं का होता है।

लाल एवं पीली मृदाएँ Red Soil

  • लाल एवं पीली मृदाएं का विकास दक्कन के पठार के पूर्वी और दक्षिणी भाग में कम वर्षा वाले उन क्षत्रों में हुआ है, जहां रवेदार आग्नेय चट्टाने पाई जाती हैं।
  • पश्चिमी घाट के गिरीपद क्षेत्र की एक लंबी पट्टी में लाल दुमटी मृदा पाई जाती है। पीली और लाल मृदाएं ओडीशा तथा छत्तीसगढ़ के कुछ भागों और मध्य गंगा के मैदान के दक्षिणी भागों में पाई जाती है।  इस मृदा का लाल रंग रवेदार तथा कायांतरित चट्टानों में लोहे के व्यापक विसरण के कारण होता है। जलयोजित होने के कारण यह पीली दिखाई देती है।
  • इसमें सामान्यतः नाइट्रोजन,फोस्फोरस और ह्यूमस की कमी होती है।

लैटेराइट मृदाएं Laterite Soil

  • लैटेराइट शब्द एक लैटिन शब्द लैटरसे बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ ईट होता है। लैटेराईट मृदाएं उच्च तापमान और अधिक वर्षा के क्षेत्र में विकसित होत हैं। ये मृदाएं उष्ण कटिबंधीय वर्षा के कारण हुए तीव्र निक्षालन का परिणाम है। वर्षा के साथ चूना और सिलिका तो निक्षालित हो जाते हैं तथा लोहे के ऑक्साइड और एल्यूमिनियम के यौगिक से भरपूर मृदाएं शेष रह जाती हैं। उच्च तापमान में आसानी से पनपने वाले जीवाणु ह्यूमस को तेजी से नष्ट कर देते हैं। इन मृदाओं जैव पदार्थ, नाइट्रोजन, फॉस्फेट और कैल्सियम की कमी होती है। तथा लौह ऑक्साइड तथा पोटॉश की अधिकता होती है। लैटैराइट मृदा कृषि के लिए पर्याप्त उपजाउ नहीं होती है।

शुष्क मृदाएं Desert Soil

  • शुष्क मृदाओं का रंग लाल से लेकर किशमिशी तक होता है। ये सामान्यतः संरचना से बुलई और प्रकृति से लवणीय होती हैं। कुछ क्षेत्रों में मृदा में नमक की मात्रा इतनी अधिक होती है कि इनके पानी को वाष्पीकृत करके नमक प्राप्त किया जाता है। शुष्क जलवायु, उच्च तापमान और तीव्रगति से वाष्पीकरण के कारण इन मृदाओं में नमी और ह्यूमस कम होते हैं। इस मृदा में नाइट्रोजन अपर्याप्त और फॉस्फेट सामान्य मात्रा में पाया जाता है। ये मृदाएं शुष्क स्थालाकृति वाले पश्चिमी राजस्थान में अभिलाक्षणिक रूप से विकसित हुई हैं। ये मृदाएं अनुर्वर हैं क्योंकि इसमें जैव पदार्थ और ह्यूमस कम मात्रा में पाए जाते हैं।

लवण मृदाएं Salt Soil

  • लवण मृदा को ऊसर मृदा भी कहते हैं। लवण मृदा में सोडियम, पोटेशियम एवं मैग्नीशियम का अनुपात अधिक होता है। अतः ये अनुर्वर होती हैं इनमें किसी भी प्रकार की वनस्पिति नहीं उगती है। मुख्य रूप से शुष्क जलवायु और खराब अपवाह के कारण इनमें लवणों की मात्रा बढ़ जाती है। इनकी संरचना बुलई से लेकर दुमटी तक होती है। इनमें नाइट्रोजन एवं चूने की कमी होती है। लवण मृदाओं का अधिकतर प्रसार पश्चिमी गुजरात,पूर्वी तट के डेल्टाओं और पश्चिमी बंगाल के संुदर वन क्षेत्रों में है। पंजाब और हरियाणा  में मृदा में लवणता की समस्या से निपटने के लिए जिप्सम डालने की सलाह दी जाती है।

पीटमय मृदाएं
  • ये मुदाएं भारी वर्षा और उच्च आर्द्रता युक्त उन क्षेत्रों में पाई जाती है जहां वनस्पिति की अच्छी वृद्धि होती है। अतः इन क्षेत्रों में मृत जैव पदार्थ बड़ी मात्रा में इकट्ठे होते हैं, जो मृदा को ह्यूमस और पर्याप्त मात्रा में जैव तत्व प्रदान करते हैं। इन मृदाओं में जैव पदार्थों की मात्रा 40 से 50 प्रतिशत होती है।ये मृदाएं सामान्यतः गाढ़े और काले रंग की होती हैं। अनेक स्थानों में ये क्षारीय भी है। ये मृदाएं अधिकतर बिहार के उत्तरी भाग, उतरांचल के दक्षिणी भाग, पश्चिमी बंगाल के तटीय क्षेत्रों, ओडीशा और तमिलनाडु में पाई जाती है।

वन मृदा
  • यह मृदा पर्याप्त वर्षा वाले वन क्षेत्रों में पाई जाती है। इन मृदाओं का निर्माण पर्वतीय पर्यावरण में होता हैै। इस पर्यावरण में परिवर्तन के अनुसार मृदाओं का गठन और संरचना बदलती रहती है। घाटियों में ये दुमटी और पांशु होती हैं तथा उपरी ढ़ालों पर ये मोटे कणों वाली होती है।हिमालय के हिमाच्छादित क्षेत्रों मेें मृदाओं को अनाच्छादन होता है और ये अम्लीय और कम ह्यूमस वाली हो जाती हैं। निचली घाटी में पाई जाने वाली मृदाएं उर्वर होती हैं।

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