सीमावर्ती राजवंशों का अभ्युद | Simvarti Rajvansh

Simvarti rajvansh

पाल वंश

  • पाल वंश ने बंगाल में शासन किया। पश्चिम बंगाल को ‘ गौड़ ‘ एवं पूर्वी बंगाल को ‘ बंग कहा जाता था।
  • पाल वंश बंगाल पर अधिकार होने से पहले वहां अराजकता एवं अशांति का माहौल था, जिसे ‘ मत्स्य न्याय ‘ कहते थे।
  • पाल वंश का संस्थापक गोपाल ( 750-770 ई. ) था। गोपाल के ओदंतपुरी के प्रख्यात मंदिर का निर्माण करवाया।
  • गोपाल के बाद धर्मपाल ( 770-801ई. ) शासक बना। इसके शासनकाल में ही कन्नौज के त्रिपक्षीय संघर्ष की शुरूआत हुई।
  • धर्मपाल बौद्ध धर्म का अनुयायी था तथा इसने ही विक्रमशिला विश्वविद्यालय की स्थापना की। इसने बौद्ध लेखक हरिभद्र को संरक्षण भी दिया।
  • रामपाल ( 1077-1120 ई. ) पालों का अंतिम शक्तिशाली शासक था। इसके समय संध्याकर नंदी ने रामपालचरित नामक पुस्तक लिखी।
  • रामपाल के समय ‘ कैवर्त ‘ केे किसानों का विद्रोह हुआ।
  • मदनपाल पाल वंश का अंतिम शासक था।

सेन वंश

  • पालों के बाद बंगाल में सेनवंश का शासक स्थापित हुआ। इस वंश का संस्थापक सामंतसेन था। सामंतसेन से  राढ़ में राज्य की स्थापना की थी।
  • विजयसेन ( 1095-1158 ई. ) ने दो राजधानियों-प. बंगाल में ‘ विजयपुरी ‘एवं पूर्वी बंगाल में ‘ विक्रमपुरी ‘ की स्थापना की थी।
  • विजयसेन ने देवपाडा में प्रद्युम्नेश्वर ( शिव ) का एक विशाल मंदिर बनवाया। इसी मे समय कवि धायी ने देवपाड़ा प्रशस्ति लेख लिखा। कवि श्रीहर्ष ने विजयसेन की प्रशंता में विजय प्रशस्ति लिखी।
  • बल्लालसेन (1158-1178  ई. ) एक विद्वान, विद्या प्रेमी एवं विद्वानों का संरक्षक था। उसने स्वयं चार ग्रंथ लिखे, जिनमें से दानसागर एवं खगोल विज्ञान पर अवधूत सागर अब भी विद्यमान है।
  • बल्लालसेन ने कुलीवाद के नाम से एक सामाजिक आंदोलन भी चलाया था, जिसका उद्देश्य वर्ण व्यावस्था या जाति कुलीनता या रक्त की शुद्धता को बनाये रखना था।
  • बल्लालसेन के बाद उसका पुत्र लक्ष्मणसेन ( 1178--1205 ई. ) शासक बना। उसके बंगाल की प्राचीन राजधानी गौड़ केे पास एक राजधानी ‘लक्ष्मणवती ‘( लखनौती ) की स्थापना की।
  • लक्ष्मणसेन के दरबार में कई प्रसिद्ध विद्वान थे, जैसे-बंगाल के प्रसिद्ध वैष्णव कवि एवं गीत-गोविंद के रचयिता ‘ जयदेव ‘ हलायुद्ध एवं  पवनदूत के लेखक ‘ धायी ‘ एवं आर्यसप्तमी के लेखक ‘ गोवर्द्धन‘।
  • अंत मे सेन राज्य, देव वंश के अधीन हो गया।

बंगाल का सेन-वंश {Sen-dynasty of Bengal}

  • 12वीं सदी के अंत तक बंगाल में पाल के स्थान पर सेन वंश स्थापित हो गया।
  • सेन शासक बल्लाल सेन ने दान सागर एवं अद्भूत सागर ग्रंथों की रचना की।
  • लक्ष्मणसेन के दरबार में गीतगोविंद के लेखक जयदेव तथा ‘ब्राह्मण सर्वस्व’ के लेखक हलायुध् रहते थे।
  • सेन-वंश का मूल-सामन्तसेन को, जिसने बंगाल के सेन वंश की नीव डाली थी, कर्नाटक क्षत्रिय कहा गया है।
  • सेन वंश के लोग सम्भवत: ब्राह्मण थे किन्तु अपने सैनिक-कर्म के कारण वे बाद में क्षत्रिय कहे जाने लगे। इसलिए उन्हें ब्रह्म क्षत्रिय भी कहा गया है। 
  • पाल साम्राज्य के केन्द्रीय भग्नावशेष पर ही सेनों के राज्य की भित्ति खड़ी हुई
  • विजयसेन (1095-1158 ई.)- सामन्तसेन का उत्तराधिकारी हेमन्त सेन था। वंश के संस्थापक सामन्तसेन के पौत्र विजयसेन ने अपने वंश के गौरव को बढ़ाया। उसने 64 वर्षों तक राज्य किया। विजय सेन ने बंगाल से वर्मनों को निकाल बाहर किया। उत्तरी बगाल से मदनपाल को निर्वासित करने वाला भी विजयसेन ही था। कहा जाता है कि उसने नेपाल, आसाम और कलिंग पर विजय प्राप्त की। रामपाल की मृत्यु के बाद, पाल साम्राज्य के ध्वंसावशेष पर विजयसेन ने जिस राज्य की स्थापना की उसमें पूर्वी, पश्चिमी और उत्तरी बंगाल के भाग सम्मिलित थे। उसने परम माहेश्वर की उपाधि ग्रहण की जिससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि विजयसेन शैव था। सैन्य विजयों के साथ-साथ उसने सांस्कृतिक और धार्मिक कार्य भी किये। उसने शिवमन्दिर का निर्माण कराया, एक झील खुदवाई, विजयपुर नामक नगर बसाया और उमापति को राज्याश्रय प्रदान किया। पूर्वी बंगाल में विक्रमपुर संभवत इस वंश की दूसरी राजधानी थी। इन्हीं उपलब्धियों के कारण विजयसेन को सेन वंश का वास्तविक संस्थापक कहा जाता है।
  • बल्लाल सेन (1158-1179 ई.) बल्लाल सेन एक विचित्र शासक था। बंगाल के ब्राह्मणों और अन्य ऊंची जातियों में उसे इस बात का श्रेय दिया गया है कि आधुनिक विभाजन उसी ने कराये थे। बल्लाल सेन ने वर्ण-धर्म की रक्षा के लिए उस वैवाहिक प्रथा का प्रचार किया जिसे कुलीन प्रथा कहा जाता है। प्रत्येक जाति में उप-विभाजन, उत्पत्ति की विशुद्धता और ज्ञान पर निर्भर करता था। आगे चलकर यह उप-विभाजन बड़ा कठोर और जटिल हो गया। बल्लाल सैन ने अपने पिता के राजस्व-काल में शासन-कार्य का संचालन किया था। वंशक्रमानुगत द्वारा उसे जो राज्य मिला, उसकी उसने पूर्ण रूप से रक्षा की। उसका राज्य पांच प्रान्तों में विभक्त था। उसकी तीन राजधानियाँ थीं- गौड़पुर, विक्रमपुर और सुवर्णग्राम। कहा जाता है कि बल्लाल सेन ने अपने गुरु की सहायता से दानसागर और अद्भुतसागर नामक ग्रन्थों का प्रणयन किया। दूसरा ग्रन्थ वह अपूर्ण ही छोड़कर मर गया। परम माहेश्वर और निश्शकशकर आदि विरुदों से बल्लाल सेन के शैव होने का प्रमाण मिलता है।
  • लक्ष्मण सेन (1179-1205 ई.)- लक्ष्मण सेन अपने वंश का एक प्रसिद्ध शासक था, साथ ही साथ भारत के सबसे कायर नरेशों में भी उसकी गणना की जानी चाहिए। अभिलेखों में उसके लिए कहा गया है कि उसने कलिंग, आसाम, बनारस और इलाहाबाद पर विजय प्राप्त की और इन स्थानों पर उसने अपने विजय-स्तम्भ गाड़े थे। परन्तु अभिलेखों के इस कथन पर पूरी तरह से विश्वास नहीं किया जा सकता। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि लक्ष्मण सेन प्रसिद्ध गहड़वाल नरेश जयचन्द्र का समसामयिक था जिसके अधिकार में बनारस और इलाहाबाद थे। अतएव इन स्थानों पर, लक्ष्मणसेन के द्वारा विजय-स्तम्भ गाड़े जाने की कल्पना बिल्कुल निराधार जान पड़ती है। सम्भव है कि उसने आसाम और कलिंग पर विजय प्राप्त की हो। किन्तु यदि मुस्लिम इतिहासकारों के कथन पर विश्वास किया जाय तो कहना पड़ेगा कि लक्ष्मणसेन नितान्त कायर था।
  • लक्ष्मण सेन का शासन संस्कृत साहित्य के विकास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। उसकी राजसभा में पाच रत्न रहते थे, जिनके नाम थे- जयदेव (गीतगोविन्द के रचयिता), उमापतिधोयी (पवनदूत के रचयिता), हलायुध और श्रीधरदास। लक्ष्मण सेन ने स्वयं अपने पिता के अपूर्ण ग्रन्थ अद्भुतसागर को पूरा किया। लक्ष्मण सेन के राज्य पर मुसलमानों का आक्रमण 1199 ई. में हुआ था। इसके बाद सेन राजवंश का अन्त हो गया, यद्यपि पूर्वी बंगाल पर उसके बाद तक इस वंश के राजा राज्य करते रहे।

अन्हिलवाड के सोलंकी Solanki Of Anhilvad


  • गुजरात में अन्हिलवाड (पाटन) नामक स्थान पर पहले प्रतिहार साम्राज्य का अधिकार था, परन्तु राजनैतिक प्रभुता के लिए राष्ट्रकूटों और प्रतिहारों में जो पारस्परिक संघर्ष हुआ उससे लाभ उठाकर मूलराज-प्रथम ने दसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में (942 ई.) अपना एक स्वतन्त्र राज्य स्थापित कर लिया और अन्हिलवाड को अपने राज्य की राजधानी बनाया।
  • मूलराज सोलंकी- मूलराज सोलंकी ने अपने एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना कर लेने के बाद इसकी सीमाओं के विस्तार का भी प्रयत्न किया। उसने शीघ्र ही कच्छ देश और सुराष्ट्र के पूर्वी भाग पर अपना अधिकार जमा लिया। परन्तु उसे अपने प्रबल पड़ोसियों की शक्ति का भी सामना करना पड़ा। उसने कई आक्रमणों का सामना किया और अधिकतर में उसे पराजय ही प्राप्त हुई फिर भी उसने अपने राजकुल का, जिसका कि वह स्वयं प्रतिष्ठापक था, नाश नहीं होने दिया। उसकी मृत्यु के समय सोलंकियों का राज्य पूर्व और दक्षिण में साबरमती तक फैला हुआ था। जोधपुर राज्य का संचार भी उत्तर में इसमें सम्मिलित था। मूलराज की मृत्यु रणस्थल में विग्रहराज-द्वितीय के हाथों से हुई। मूलराज के पुत्र चामुण्डराज ने धारा नगरी के परमार नरेश सिन्धुराज को पराजित किया। चामुण्डराज का पौत्र भीमदेव-प्रथम (1022) सोलंकी राजकुल का एक विख्यात नरेश था।
  • भीमदेव-प्रथम- भीमदेव-प्रथम के शासन-काल के प्रारम्भिक वर्षों में महमूद ने उसके राज्य पर आक्रमण किया था। भीम ने उसके आक्रमण का मुकाबला करने का निश्चय किया। परन्तु एकाएक उसके ऊपर मुस्लिम आक्रमणकारी का आतंक छा गया और वह रणभूमि छोड़कर भाग गया। महमूद ने सोमनाथ के मन्दिर को खूब लूटा-खसोटा और वह अतुल सम्पत्ति लादकर अपने देश ले गया। महमूद द्वारा भगवान सोमनाथ के मन्दिर के तुड़वा दिये जाने पर भीमदेव ने उसका पुनर्निर्माण कराया। महमूद के लौट जाने पर भीमदेव ने फिर से अपनी शक्ति का संगठन किया। पहले उसने आबू के परमार राजा को हराया। भीम ने परमार-नरेश के पतन में अपना योगदान दिया। इस कार्य में भीम ने लक्ष्मीकर्ण कलचुरि से सहायता प्राप्त की थी परन्तु उन दोनों की मैत्री अधिक समय तक टिक न सकी। दोनों में परस्पर लड़ाई छिड़ गई जिसमें लक्ष्मीकर्ण की हार हो गई। माना जाता है कि भीम प्रथम ने भीमेश्वर देव तथा मट्टारिका के मंदिरों का निर्माण करवाया। उसके सेनानायक विमल ने माउंट आबू पर एक प्रसिद्ध जैन मंदिर का निर्माण करवाया। यह विमल वसही के नाम से जाना जाता है। भीमदेव के उपरान्त कर्णदेव हलवाड के राजसिंहासन पर समासीन हुआ। कर्ण ने 1064 से लेकर 1094 तक शासन किया। कर्ण का शासन-काल शान्तिपूर्ण कार्यों के लिए विख्यात है। उसने अनेक मन्दिरों (कर्णेश्वर मंदिर) का निर्माण कराया, उसके समय में उसके ही नाम से एक नगर की स्थापना की गई। उसने कवि विल्हण को राजाश्रय प्रदान किया। कर्ण को परमार राजा उदयादित्य ने युद्ध में पराजित किया। कर्ण ने कर्ण सागर झील का भी निर्माण करवाया था।
  • जयसिंह सिद्धराज- कर्ण का पुत्र जयसिंह सिद्धराज अपने वंश का प्रतापी और विख्यात राजा था। अपनी रणवाहिनी को उसने चारों दिशाओं में घुमाया और लगभग सर्वत्र विजय पायी। अपनी विजयों से उसने अपने पड़ोसियों को आतंकित कर दिया। उसने सुराष्ट्र के आभीर सरदार को युद्ध में पराजित करके उस राज्य को अपने साम्राज्य में मिला लिया। जयसिंह ने बारह वर्षों तक मालवा से युद्ध किया और नरवर्मन तथा यशोवर्मन दोनों को सिंहासन-च्युत् करके उनके राज्य पर अधिकार कर लिया। नद्दुल और शाकम्भरी दोनों स्थानों के चाहमान नरेशों ने उसके आगे आत्म-समर्पण कर दिया और उसके सामन्त के रूप में अपने राज्यों का शासन करते रहे। जयसिंह ने यशकर्ण कलचुरि और गोविन्दचन्द्र गहड़वाल से मैत्री-सम्बन्ध स्थापित किया। उसने चन्देल राज्य पर भी आक्रमण किया और कालिंजर तथा महोबा तक आगे बढ़ गया। चन्देल नरेश मदनवर्मन को बाध्य होकर जयसिंह के साथ सन्धि करनी पड़ी और इस सन्धि के फलस्वरूप उसने सोलंकी राज्य को भिलसा का प्रदेश दिया। जयसिंह ने चालुक्य नृपति विक्रमादित्य-षष्ठ पर भी विजय प्राप्त की। कहा जाता है कि सिन्ध के अरबों के विरुद्ध युद्ध में भी जयसिंह को सफलता प्राप्त हुई थी। उसके अभिलेखों के प्राप्ति-स्थानों से विदित होता है कि गुजरात, काठियावाड, कच्छ, मालवा और दक्षिणी राजपूताना उसके राज्य में सम्मिलित थे। जयसिंह ने 1113-14 ई. में एक नया सम्वत् चलाया।
  • राजा भोज की भांति यद्यपि सोलंकी नरेश जयसिंह का भी समय अधिकतर युद्ध में व्यतीत हुआ तथापि भोज की ही तरह उसने भी विद्या को प्रश्रय प्रदान किया। ज्योतिष, न्याय और पुराण के अध्ययन के लिए जयसिंह ने शिक्षण संस्थायें खुलवाई। उसकी राजसभा में प्रसिद्ध जैन लेखक महापण्डित हेमचन्द्र रहते थे जिनके अनेक ग्रन्थ, उनके मस्तिष्क और विचार-शक्ति की उर्वरता को व्यक्त करते हैं। जयसिंह स्वयं कट्टर शैव था, परन्तु उसका धार्मिक दृष्टिकोण राजा भोज की भांति जिज्ञासा-प्रधान था। जयसिंह विभिन्न धमाँ के आचायों के बीच धार्मिक विषयों पर विचार-विमर्श के लिए सम्मेलनों का आयोजन करता था। अकबर की धार्मिक विचारधारा का यह पुर्वाभास था। जयसिंह ने अपने राज्य में अनेक मन्दिरों का निर्माण कराया। स्वयं शैव होते हुए भी उसने जैन पण्डित हेमचन्द्र को अपनी राजसभा में स्थान दिया। जयसिंह ने अवन्तिनाथ और सिद्धराज विरुद धारण किये। उसने सिद्धपुर में रूद्रमहाकाल मंदिर बनवाया। लगभग 1143 ई. में जयसिंह का देहान्त हो गया।
  • कुमारपाल- जयसिंह के उपरान्त उसके दूर के एक सम्बन्धी कुमारपाल ने उसके राज्य पर अधिकार कर लिया, क्योंकि जयसिंह के कोई पुत्र नहीं था। शाकम्भरी के चाहमानों को कुमारपाल ने पराजित किया और आबू के परमारों को दबाया। कोंकण के राजा मल्लिकार्जुन को भी उसने हराया था। कुमारपाल का नाम जैन धर्म के इतिहास में काफी प्रसिद्ध है जैन ग्रन्थों में लिखा है कि आचार्य हेमचन्द्र के सशक्त धर्म-निरूपण से प्रभावित होकर कुमारपाल ने जैन मत ग्रहण कर लिया। उसने अपने राज्य भर में अहिंसा के सिद्धान्तों के परिपालन के लिए कठोर आज्ञायें निकलवा दीं। उसने ब्राह्मणों को इस बात के लिए बाध्य किया कि वे पशुबलि-प्रधान यज्ञों का परित्याग कर दें। राज्य भर में कुमारपाल ने कसाइयों की दुकानों पर ताला लगवा दिया। संन्यासियों को मृगचर्म मिलना बन्द हो गया क्योंकि पशुओं का आखेट करना राजकीय कानून की दृष्टि से अवैध ठहरा दिया गया था। गिरनार पर्वत के निकट शिकारियों के समुदाय भूखों मरने लगे। राज्य भर में मनोरंजन के लिए पशुओं की लड़ाइयों को निषिद्ध ठहरा दिया गया। जुआ और सुरा-सेवन पर कठोर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। जैन ग्रन्थों में कुमारपाल के अहिंसापालन-सम्बन्धी आदेशों के विषय में अनेक कथाएं प्रचलित हैं। फिर भी उसके जैन मतानुयायी होने में संदेह का कोई कारण नहीं दिखलाई पड़ता। जैन धर्म का अनुयायी होने पर भी कुमारपाल ने अपने पूर्वजों की शिवोपासना-सम्बन्धी मनोवृत्ति का त्याग नहीं किया। उसने सोमनाथ के प्रसिद्ध मन्दिर का जीर्णोद्धार कराया। उत्कीर्ण लेखों में कुमारपाल को शैव कहा गया है। 1171 ई. में कुमारपाल का देहान्त हो गया।
  • भीमवेव द्वितीय- कुमारपाल के बाद अजयपाल गुजरात का शासक हुआ जिसने अपने राज्य में जैन मत के विरुद्ध एक प्रतिक्रियात्मक नीति का प्रचार किया। उसने जैन मन्दिर को विध्वस्त कराना शुरू किया। कहा जाता है कि उसने महापण्डित हेमचन्द्र के प्रिय शिष्य और प्रसिद्ध जैन लेखक रामचन्द्र का वध करा दिया था। किन्तु उसकी इस धार्मिक असहिष्णुता और संकीर्णता का प्रभाव अच्छा नहीं पड़ा। 1176 ई. में प्रतिहार नरेश वयजलदेव ने अजयपाल की हत्या कर दी। अजयपाल के पश्चात् मूलराज-द्वितीय ने कुछ समय तक शासन किया। उसके बाद 1178 ई. में भीमदेव-द्वितीय राजा हुआ जिसने राज्यारोहण के वर्ष ही गोर के मुहम्मद को युद्ध में हराया। सन् 1195 में भीमदेव-द्वितीय ने कुतुबुद्दीन ऐबक से युद्ध किया और उसे इतनी गहरी पराजय दी कि मुस्लिम सेनानायक को अजमेर तक पीछे ढकेल दिया। परन्तु दूसरे वर्ष (1197 ई.) में अन्हिलवाड़ा पर मुसलमानों का अधिकार हो गया। किन्तु कुतुबुद्दीन का गुजरात पर स्थायी रूप से अधिकार नहीं स्थापित हो सका।
  • भीमदेव-द्वितीय ने एक लम्बे समय, लगभग साठ वर्षों तक शासन किया। मुसलमानों के जो आक्रमण उसके समय में हुए उससे उसके राज्य की स्थिति काफी डावांडोल हो गई और प्रान्तीय शासकों ने अपनी स्वतन्त्रता घोषित करने का अवसर ताकना आरम्भ किया। अन्हिलवाड़ के राज्य की स्थिति इस समय इतनी गिरी हुई थी कि इसका शीघ्र विनष्ट हो जाना अवश्यवम्भावी प्रतीत हो। रहा था। राज्य के बड़े-बड़े अधिकारियों और कुछ मन्त्रियों की नीयत भी दूषित हो गई। परन्तु अर्णोराज नामक एक बघेल ने राज्य को पूर्ण विनाश से बचा लिया। उसके सुयोग्य पुत्र लवण प्रसाद ने अपने पिता के नाम को जारी रखा और शासन-संचालन का सारा कार्य अपने ही कन्धों पर वहन किया। उसने आन्तरिक विद्रोहों से राज्य की रक्षा की और बाहरी आक्रमणों का सफलतापूर्वक सामना किया। इस प्रकार अन्हिलवाड का राज्य अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा करता हुआ अलाउद्दीन खिलजी के पूर्व तक बना रहा। तेरहवीं शताब्दी के अन्त में इस महत्त्वाकांक्षी मुस्लिम शासक ने अपने दो सेनापतियों उलुग खां और नुसरत खां
  • की अध्यक्षता में एक विशाल सेना भेजी जिसे देखकर कर्ण, जो इस समय का शासक था, भाग गया। गुजरात के राज्य पर मुसलमानों का अधिकार हो गया। जैन आचार्य मेरुतुंग के ग्रन्थ प्रबोधचिन्तामणि से गुजरात के प्राचीन इतिहास के विषय में काफी महत्त्वपूर्ण सूचनायें प्राप्त होती हैं।

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