मालवा के परमार, शाकम्भरी और अजमेर के चौहान कन्नौज के गुर्जर-प्रतिहार ,कामरूप का राज्य

मालवा का परमार राजवंश
  • मालवा  के परमार वंश की स्थापना 10वीं शताब्दी के प्रथम चरण में कृष्णराज अथवा उपेंद्र ने की थी। धारा नामक नगरी परमार वंशीय शासकों की राजधानी थी।
  • हर्ष अथवा सीयक ंिद्वतीय ( 945-972 ई. ) परमारों का एक शक्तिशाली शासक था।
  • सीयक के बाद मुञजक शासक बना, जो इतिहास में ‘ वाक्पति मुञज ने 992 से 998 ईस्वी तक शासन किया।
  • इस वंश के शासक सिंधुराज की उपाधि ‘ नवसहशांक ‘ थी।
  • सिंधुराज के बाद उसका पुत्र भोज ( 1010-1060 ईस्वी ) परमार वंश का शासक बना। वह इस वंश का सबसे प्रतापी सम्राट था।
  • भोज ने ‘ कविराज ‘ की उपाधि धारण की। उसने अपनी राजधानी ‘ धारा ‘ को बनाया तथा उसे विद्या एवं कला का प्रसिद्ध केंद्र बनाया। उसने यहां अनेक मंदिरों का निर्माण कराया, जिसमें सरस्वती मंदिर प्रमुख हैं।
  • भोज ने कई पुस्तकें भी लिखीं, जैसे-व्याकरण , श्रृंगार, प्रकाश, कूर्मशतक, भोजचम्पू आदि।
  • भोज  ने भोपाल के दक्षिण-पूर्व में 250 वर्ग मील लंबी एक्र झील का निर्माण कराया जो भोजराज के नाम से प्रसिद्ध हुर्इ्र।
  • धारा में सरस्वती मंदिर मे समीप भोज ने एक विजय स्तंभ की स्थापना की तथा भोजपुर नामक नगर बसाया। तेरहवीं शताब्दी में तोमरों ने परमारों के राज्य पर अधिकर कर लिया।

  • परमार वंश की उत्पत्ति भी गुर्जर प्रतिहारों की भांति अग्निकुण्ड से बताई जाती है। किन्तु अपेक्षाकृत अधिक प्राचीन अन्य लेखों से सिद्ध होता है कि परमार शासकों का उद्भव राष्ट्रकूटों के कुल में हुआ था। इनकी कई शाखाएं थीं। परमार वंश की स्थापना उपेन्द्र अथवा कृष्णराज ने दसवीं शताब्दी के के प्रारंभ में की थी। पहले परमार लोग दक्कन के राष्ट्रकूटों के सामन्त थे। आबू पर्वत के निकट उपेन्द्र रहता था। उसे राष्ट्रकूट सम्राट् गोविन्द-तृतीय ने का शासक नियुक्त कर दिया था। उपेन्द्र के बाद उसके दो वंशजों ने राष्ट्रकूटों के माण्डलिक नृपतियों के रूप में मालवा पर शासन किया और वे अपने स्वामी (राष्ट्रकूट सम्राट्) के प्रति वफादार बने रहे। चौथे परमार सामन्त वाक्पति राज-प्रथम ने अपने वंश की स्थिति का उन्नयन किया। वीरसिंह-द्वितीय ने धारा नगरी पर अधिकार किया और प्रतिहारों के साथ उसका संघर्ष हुआ, किन्तु उन्होने उसको मालवा से निकाल बाहर कर दिया। उसके उत्तराधिकारी (हर्षसीयक)-द्वितीय ने गुर्जर प्रतिहारों की ह्रासोन्मुखी राजसत्ता से पूरा-पूरा लाभ उठाया और मालवा में फिर से अपने वंश की सत्ता स्थापित की। उसने सम्भवत: हूणों से भी युद्ध किया। हर्षसीयक-द्वितीय ने राष्ट्रकूटों की शक्ति को गिरते हुए देखकर उनसे भी लोहा लिया। उदयपुर के एक अभिलेख से पता चलता है कि 972 ई. में मान्यखेत के राष्ट्रकूटों के साथ उसका संघर्ष हुआ और खोट्टिग नामक राष्ट्रकूट-नरेश को पराजित कर उसने उसकी विपुल सम्पत्ति का अपहरण कर लिया। पाइय-लच्छी नामक प्राकृत शब्दकोष का प्रणेता धनपालसीयक-द्वितीय की राजसभा में रहता था। सीयक-द्वितीय ने मालवा के स्वतन्त्र राज्य की स्थापना की जो दक्षिण में ताप्ती नदी, उत्तर में झालवर, पूर्व में भिलसा और पश्चिम में साबरमती से घिरा हुआ था। उसने सम्राटोचित विरुद भी धारण किये। उसका पुत्र वाक्यपति मुञ्ज अपने कुल का एक प्रतापी सम्राट् था।
  • वाक्यपति मुञ्ज- मालवा के परमारों की शक्ति का वास्तविक रूप में वाकयपति मुञ्ज ने विकास किया। अपने समय का वह एक महान् योद्धा और अपने कुल का सबसे शक्तिशाली नरेश था। उसका सम्पूर्ण जीवन युद्धों और विजयों में व्यतीत हुआ। उत्पलराजअमोघवर्षश्रीवल्लभपृथ्वीवल्लभ आदि विरुद उसने धारण किये। उदयपुर के अभिलेख में वाक्यपति मुञ्ज की विजयों की एक पूरी सूची दी गई है। सबसे पहले उसने त्रिपुरी के राजा युवराज-द्वितीय को पराजित किया। इसके बाद लाट (गुजरात), कर्णाटक, चोल और केरल के राजाओं को युद्ध में परास्त किया। उसने उन हूणों पर, जो मालवा के उत्तर-पश्चिम में हूणमण्डल नामक एक छोटे से प्रदेश पर शासन कर रहे थे, भी विजय प्राप्त की। हूणमण्डल नामक यह लघु-प्रदेश तोरमाण और मिहिरकुल के विशाल सम्राट् का अन्तिम अवशेष था। मुञ्ज ने नद्दुल के चाहमानों पर आक्रमण किया और उनसे आबू पर्वत और आधुनिक जयपुर राज्य के दक्षिण में अनेक राज्यों को छीन लिया। उसने अन्हिलपाटन में चालुक्य वंश के संस्थापक मूलराज को भी हराया।
  • मुञ्ज ने अपने पड़ोस के राज्यों को जीत लेने के उपरान्त, चालुक्य नरेश तैल-द्वितीय पर आक्रमण करने का विचार किया। इस समय तैल-द्वितीय की शक्ति काफी अधिक बढ़ गई थी। उसने राष्ट्रकूटों से दक्कन का प्रदेश जीत लिया था और मालवा पर अपनी शक्ति का सिक्का जमाना चाहा। मुञ्ज ने तैल-द्वितीय की बढ़ती हुई शक्ति को रोकने के लिए उस पर छ: बार आक्रमण किये, परन्तु जब उसने, सातवीं बार अपने अनुभवी मंत्री की चेतावनी की उपेक्षा कर गोदावरी पार की तो वह बन्दी बना लिया गया। उसे कारावास में डाल दिया गया। मुञ्ज ने बाहर आने की योजनायें बना रखी थी, किन्तु उसकी योजनाओं की सूचना उसके शत्रु को मिल गई, जिससे उसका वध करा दिया गया। इस प्रकार राज्यारोहण के बीस वर्ष पश्चात् सन् 995 ई. में मुञ्ज को अपना दु:खद अन्त दखना पड़ा।
  • मुञ्ज राजपूत युग के हिन्दू शासकों में अपना एक विशिष्ट स्थान रखता है, यद्यपि उसकी मृत्यु अत्यन्त दु:खद परिस्थिति में हुई। वह एक महान् विजेता था, यह हम ऊपर देख चुके हैं। साहित्य में मुञ्ज का उल्लेख प्रचुरता से प्राप्त होता है। मेरुतुग के प्रबन्धचिन्तामणि नामक ग्रन्थ की अनेक कथाओं का वह चरितनायक है। मुञ्ज स्वयं कवि था और उसके द्वारा रचित पद्यों का संकलन काव्य-संग्रहों में मिलता है। कला और साहित्य का वह महान् संरक्षक और पोषक था। धनंजय, हलायुध, धनिक और पद्यगुप्त नामक कवि उसकी राजसभा को सुशोभित करते थे। पद्यगुप्त ने नवसाहसांकचरित् और घनञ्जय ने दशरूपक नामक ग्रन्थों का प्रणयन किया। धनिक दशरूपावलोक और हलायुध अभिधानरत्नमाला तथा मृतसंजीवनी के रचयिता थे। मुञ्ज के लिए यह भी कहा जाता है कि वह एक उदार शासक था। उसने अनेक बड़े-बड़े जलाशय खुदवाये और कई मन्दिरों का निर्माण कराया। सिंधुराज- मुंज के निधनोपरान्त उसका अनुज सिंधुराज सिंहासन पर बैठा। उसने चालुक्य नरेश सत्यात्रय तथा लाट नरेश गोंगिराज को पराजित किया। सिंधु राज ने कौशल के सोमवंशीय राजाओं को भी पदावनत किया। किन्तु वह गुजरात नरेश नामुण्डराज द्वारा पराजित हुआ। सिन्धुराज का लगभग 1000 ई. में देहावासन हो गया।
  • भोज- संस्कृत-साहित्य में भोज का नाम अमर है। भारत के सबसे विख्यात और लोकप्रिय शासकों में भोज की गणना की जाती है। उसका शासन-काल अर्द्ध-शताब्दी से भी अधिक समय तक रहा। भोज अपने समय का एक पराक्रमी योद्धा था, किन्तु अपनी सैनिक सफलताओं के द्वारा भी वह अपने राज्य की सीमा का विस्तार अधिक न कर सका। हां, यह अवश्य है कि सैनिक-कार्यों ने समकालीन नरेशों के बीच उसकी ख्याति जमा दी। भोज ने कल्यानी के चालुक्य नरेश जयसिंह-द्वितीय को परास्त करके मुञ्ज की हार का बदला लिया। भोज ने कलिंग के गड्डों के एक सामंत इन्द्र्रथ और उत्तरी कोंकण के शासकों को हराया। गांगेयदेव और राजेंद्र चोल से उसने मित्रता स्थापित की जिससे वह अपने चिरशत्रु दक्कन के चालुक्यों से लोहा ले सके। प्रारम्भ में तो भोज को अवश्य सफलता प्राप्त हुई किन्तु बाद में अपने राजाओं के साथ पीछे लौटने के लिये उसे विवश होना पड़ा। बाद में चालुक्य नरेश सोमेश्वर ने भोज के राज्य पर आक्रमण करके उससे बदला लिया। माण्डू का सुदृढ़, उज्जैन की प्रसिद्ध नगरी और परमार राज्य की राजधानी धारा नगरी, इन सब पर सोमेश्वर का अधिकार हो गया और उसने इनकों खूब लूटा-खसोटा। चंदेलों, ग्वालियर के कच्छपघाटों और कन्नौज के राष्ट्र्कुतों के विरुद्ध युद्ध में उसे विफलता ही प्राप्त हुई। शाकम्भरी के चाहमान नरेशों के विरुद्ध युद्ध में उसे कुछ सफलता प्राप्त हुई। नद्दुल के चाह्मानों द्वारा गहरी पराजय सहन करनी पड़ी। भोज ने गुजरात के भीम-प्रथम तथा लात की किर्तिराज को परस्त किया। 1043 ई. में उसने कुछ अन्य हिन्दू नरेशों की सहायता से मुसलमानों से हाँसी, थानेश्वर तथा नगरकोट छीन लिया। उदयपुर की प्रशस्ति में भोज की विजयों का अतिरंजनापूर्ण वर्णन है और उसे कैलाश तथा मलय भूमि का विजेता कहा गया है। निस्संदेह यह प्रशस्ति ऐतिहासिक तथ्य से दूर है। वास्तव में भोज को युद्ध में जितनी विजयें प्राप्त हुई, लगभग उतनी ही पराजयों को भी उसने सहन किया। हाँ, यह अवश्य है कि एक सच्चे वीर की भाँति भोज ने विशेष महत्त्व नहीं दिया। अपनी विजयों द्वारा उसने अपने समय आंतकित किया और साथ ही साथ उसकी पराजयों ने उसके सैन्य-जीवन अपयश भी लगाया। उसके सेनानायकों, कुलचन्द्र, साद और सूरादित्य ने उसके राज्य-प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान दिया। भिज का राज्य बंसवाड़ा से लेकर नासिक तक और कैर से लेकर भिलसा तक फैला हुआ था। अपने सैन्य जीवन में भोज को एक दुखद अन्त देखना पड़ा।
  • भोज को अपने पश्चिम के पड़ोसी राज्य चालुक्य के विरोध में प्रारम्भ में कुछ सफलता प्राप्त हुई, परन्तु चालुक्य नरेश भीम ने भोज का सामना करने में चतुर कूटनीति का अवलम्बन लिया। उसने भोज के पूर्वीय पड़ोसी राज्य कलचुरि से मित्रता स्थापित कर ली। कलचुरि नरेश कर्ण को साथ लेकर भीम ने पूर्व और पश्चिम दोनों दिशाओं से भोज के राज्य पर धावा बोल दिया। भोज ने इस आक्रमण का सामना करने की तैयारी की परन्तु वह काफी वृद्ध हो चला था और आजीवन युद्ध करते रहने से शरीर भी शिथिल हो गया था। अतएव उसे रोग ने धर दबाया 1055 ई. में उसका देहान्त हो गया। भोज शिक्षा और संस्कृति का महान संरक्षक था। वह शैव था। उसने धर नगरी का आकार बढ़ाया तथा भोजपुर नगर की स्थापना की। इस नगर के निकट उसने 250 वर्ग मिल क्षेत्र में एक विशाल झील का निर्माण कराया था। मालवा के सुल्तान हुशंग शाह ने 15 वीं शताब्दी में इस झील को सुखा कर कृषि योग्य भूमि में परिवर्तित कर दिया। भोज के नाम पर एक शिवमन्दिर आज भी उस स्थान पर विद्यमान है। सम्भवत: धार का लौह-स्तम्भ (43 फीट-4इंच) उसके शासन-काल में बनाया गया था। भोज के सरस्वती मन्दिर में मां सरस्वती की जो प्रतिमा बनाई गई थी, वह ब्रिटिश म्यूजियम लन्दन में आज भी सुरक्षित है। इतिहासकार डॉ. गांगुली ने भोज का मूल्यांकन करते हुए लिखा है- जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में भोज को, ये सब उपलब्धियां उसे मध्यकालीन भारत के महान् सम्राटों में प्रतिष्ठापित करती हैं। उसने धार में एक सरस्वती मंदिर एवं संस्कृत महाविद्यालय की स्थापना की।
  • उसके बारे में यह प्रचलित है की वह हरेक कवि को प्रत्येक श्लोक के लिए एक लाख रूपये देता था। उसके दरबार में भाष्कर भट्टदामोदर मिश्र और धनपाल जैसे विद्वान् रहते थे। आयुर्वेदसर्वस्वसमरंगण सूत्रधारराजमृगांकव्यवहार समुच्चयशब्दानुशासनसरस्वती कंठाभरणनाममालिकायुक्तिकल्पतरु जैसे ग्रन्थों को लिखने का श्रेय भी उसे जाता है। उसकी मृत्यु से विद्या और विद्वान् दोनों निरक्षित हो गए। वह शस्त्र विद्या और शास्त्र विद्या दोनों मे पारंगत था,  कमल-कृपाण दोनों का योद्धा था। भोज की रानी अस्न्धती भी एक उच्च कोटि की विदुषी थी। उसकी मृत्यु पर एक विद्वान् ने अपने उद्गार इन शब्दों में व्यक्त किए थे- असधारा निराधारा निरालम्ब सरस्वती पंडित खण्डितासर्वे भोजराज दिवगते। अर्थात्- भोजराज के निधन हो जाने से आज धारनगरी निराधार हो गई है। सरस्वती बिना किसी अवलम्ब के हो गई है और सभी पण्डित खण्डित हो गए हैं।'
  • भोज के उत्तराधिकारी- भोज का उत्तराधिकारी जयसिंह एक ऐसे समय में मालवा के परमार राजसिंहासन पर आरूढ़ हुआ जिस समय राज्य को चालुक्य और कलचुरि आतंकित किए थे। जयसिंह ने ऐसी कठिन परिस्थिति में अपने दक्षिणी पड़ोसियों, दक्कन के चालुक्यों से सहायता की याचना की। दक्कन के चालुक्यों ने अपना पुराना बैर भुलाकर जयसिंह की प्रार्थना को स्वीकार कर लिया और राजकुमार विक्रमादित्य ने मालवा को उसके शत्रुओं से मुक्त कर दिया। उदयादित्य ने, जो सम्भवत: भोज का भाई था, सिंहासन पर अनुचित तरीकों से अपना अधिकार जमा लिया। उसने मालवा की गिरती शक्ति को संभालने का प्रयत्न किया। उसने उदयपुर में नीलकण्ठेश्वर मन्दिर का निर्माण कराया जो अब भी अच्छी स्थिति में विद्यमान है और उस युग के उत्तर भारत की वास्तुकला का सुन्दर नमूना प्रस्तुत करता है। इन्दौर के एक गांव उन में बहुत से जैन और हिन्दू मन्दिर हैं जिनमें से अधिकांश का निर्माण सम्भवतः उदयादित्य ने कराया था।
  • उदयादित्य के उपरान्त लक्ष्मणदेव मालवा का नरेश हुआ। उसने यशकर्ण कलचुरि और कदाचित् चोलों तथा गजनी के महमूद के वंशजों पर विजय प्राप्त की। नरवर्मन और यशोवर्मन लक्ष्मणदेव के बाद मालवा के उत्तराधिकारी हुए जिनकी ज्ञात तिथि क्रमश: 1097-1111 और 1134-1142 है। इस काल में मालवा के ऊपर सोलंकियों ने अपना अधिकार जमा लिया और 1137 से लेकर 1173 तक उस पर उनका अधिकार स्पष्ट है। यशोवर्मन की मृत्यु के बाद परमारों का राज्य उसके उत्तराधिकारियों के बीच विभाजित कर दिया गया।
  • अर्जुनवर्मन के समय में मालवा का प्राचीन वैभव कुछ अंशों में लौट आया। अमरुशतक पर एक टीका अर्जुनवर्मन ने स्वयं लिखी और उसके शासन-काल में पारिजातमञ्ज नामक नाटक लिखा गया, जो अपने पूर्ण रूप में आज उपलब्ध नहीं है, परन्तु यह पाषाणस्तम्भों पर उत्कीर्ण कराया गया था, अतएव इसके कुछ अंश अब भी मिलते हैं। अर्जुनवर्मन की मृत्यु के पश्चात् परमारों की शक्ति धीरे-धीरे गिरने लगी। सन् 1234 में इल्तुतमिश ने और 1292 ई. में अलाउद्दीन खिलजी ने मालवा को खूब लूटा। इसके बाद मालवा की हिन्दू-सत्ता का नाश हो गया।
शाकम्भरी और अजमेर के चौहान
  • पृथ्वीराज चौहान, चौहानों का एक सबसे प्रसिद्ध शासक था। इसको ‘ राय पिथौरा‘ के नाम से भी जाना जाता है।
  • इसने कन्नौज के राजा रामचंद्र के समय उसकी पुत्री संयोगिता का अपहरण कर लिया था।
  • चाहमान वंश के अनेक राजपूत सरदार आठवीं शताब्दी के प्रारम्भ से ही अजमेर के उत्तर में सांभर झील के निकट सांभर (शाकम्भरी) नामक स्थान पर राज करने लगे थे। इस वंश की अन्य शाखाओं का राज्य आगरा और ग्वालियर के मध्य में धौलपुर नामक स्थान में, रणथम्भौर में और आबू पर्वत के उत्तर में नद्दूल (नंदोल) में भी था, परन्तु ये वंश शाकम्भरी के चौहानों की तरह विख्यात और महत्त्वपूर्ण नहीं थे। इसी वंश के कुछ सरदार गुर्जर महेन्द्रपाल-द्वितीय के समय में उज्जैन के शासक के सामन्त थे। भड़ौच चाहमान सरदार, नागभट्ट-प्रथम के सामन्त थे, सांभर के चौहानों की ही तरह प्राचीन थे।
  • इस वंश का प्रथम उल्लेखनीय नरेश विग्रहराज-द्वितीय था। उसने सन् 973 के लगभग शासन करना आरम्भ किया और अपने राजवंश की स्वतन्त्र सत्ता स्थापित की। कहा जाता है कि उसने अन्हिलीवाड़ के मूलराज-प्रथम को पराजित किया। पृथ्वीराज-प्रथम ने सन् 1105 ई. के लगभग राज्य किया। उसके पुत्र अजयराज ने अजयमेरु अथवा अजमेर नामक नगर की स्थापना की। उसने बारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में शासन करना प्रारम्भ किया। वह अपने कुल का प्रथम शासक था जिसने एक आक्रमणात्मक साम्राज्यवादिनी नीति का अवलम्बन किया। उसने उज्जैन पर आक्रमण किया और परमार सेनानायक को बन्दी बना लिया। उसके लिए यह कहा जाता है कि उसने युद्ध में तीन राजाओं को तलवार के घाट उतार दिया। परन्तु हमें इस बात का विवरण प्राप्त नहीं है कि इन युद्धों के फलस्वरूप उसके राज्य की सीमा में कोई विस्तार हुआ या नहीं। अजयराज के विषय में एक विचित्र बात यह है कि उसकी कुछ मुद्राओं पर उसकी रानी सोमलदेवी का नाम उत्कीर्ण मिलता है। यह बात भारतीय इतिहास में बहुत ही कम दिखलाई पड़ती है। अजयराज के उपरान्त अर्णोराज सिंहासनारूढ़ हुआ, जिसके दो अभिलेखों पर सन् 1139 की तिथि दी हुई है। उसका जयसिंह सिद्धराज और अन्हिलीवाड के कुमारपाल से संघर्ष हुआ। अर्णोराज ने कुछ तुस्कों (अर्थात् पंजाब के मुसलमानों) को, जिन्होंने उसके राज्य पर आक्रमण किया था, युद्ध में पराजित कर दिया और मार डाला।
  • विग्रहराज-चतुर्थ- विग्रहराज-चतुर्थ अथवा वीसलदेव चाहमान वंश का एक अति प्रतापी और विख्यात नरेश था, जिसने चाहमानों की शक्ति में पर्याप्त वृद्धि तथा उसे एक साम्राज्य के रूप में परिणत करने का प्रयास किया। सन् 1153 . में विग्रहराज-चतुर्थ वीसलदेव शाकम्भरी राजसिंहासन पर बैठा। मेवाड़ के नामक स्थान से एक लेख प्राप्त हुआ है जिससे यह सूचित होता है कि उसने गहड़वालों से दिल्ली छीनकर अपने राज्य में मिला ली। परन्तु कुछ विद्वानों कथन है कि यद्यपि विग्रहराज-चतुर्थ एक वीर विजेता था और अपनी विजयों द्वारा उसने अपने राज्य की सीमा का पर्याप्त विस्तार भी किया, तथापि उसके द्वारा दिल्ली-विजय की बात प्रमाणिक नहीं मणि जा सकती। उसने जाबालिपुर, नददूल और राजपूताना के अन्य छोटे-छोटे भू-भागों पर अपना अधिकार कर लिया। ये राज्य कुमारपाल के अधीनस्थ थे, अतएव इनको विजित कर विग्रहराज-चतुर्थ ने उस पराजय का बदला लिया जो उसके पिता को चालुक्यों द्वारा सहन करनी पड़ी थी। डॉ. आर.सी. मजूमदार ने लिखा है कि अपनी उत्तरी विजयों द्वारा विग्रहराज ने अमर यश का उपार्जन किया। उसने ढिल्लिका (दिल्ली) को जीत लिया। विग्रहराज-चतुर्थ के लेखों से पता चलता है कि उसका राज्य उत्तर में शिवालिक की पहाड़ियों तक फैला हुआ था और दक्षिण में कम से कम उदयपुर और जयपुर जनपद को उसके राज्य की सीमा स्पर्श करती थी।
  • विग्रहराज चतुर्थ- प्राचीन भारत के राजपूत राजाओं की पंक्ति में एक गौरवशाली स्थान का अधिकारी है। वह केवल विजेता ही न था, उसका सुयश उसके एक ग्रन्थ हरिकोल नाटक पर अवलम्बित है। वह स्वयं एक नाटककार था, साथ ही वह विद्वानों और कवियों का आश्रयदाता भी था। सोमदेव उसके दरबार में रहता था, जिसने अपने संरक्षक के सम्मान में ललितविग्रहराज नाटक का प्रणयन किया। उसने मालवा के भोज-प्रथम की भांति अजमेर में एक संस्कृत विद्यालय की स्थापना कराई थी। इस संस्कृत विद्यालय के स्थान पर एक मस्जिद खड़ी है जो विद्यालय की एक भव्य दीवार तुड़वा कर बनवाई गई थी। अजमेर की इस मस्जिद का नाम अढ़ाई दिन का झोपडा है। इसमें जड़े कुछ पाषाण-खण्डों पर हरिकेल नाटक के कुछ अंश खुदे हुए दिखाई पड़ते हैं। ललितविग्रहराज नाटक भी संस्कृत-विद्यालय के भग्नावशेषों पर उत्कीर्ण मिला है। विग्रहराज-चतुर्थ का देहान्त 1164 ई. में हुआ।
  • पृथ्वीराज-तृतीय- चाहमान वंश का सबसे प्रतापी राजा पृथ्वीराज-तृतीय या रायपिथोरा था। डॉ. त्रिपाठी के शब्दों में- इस राजा के व्यक्तित्व पर एक अद्भुत प्रभामण्डल है जिसने रोमांचक जनश्रुतियों और गीतों का उसे नायक बना दिया है। जबकि डॉ. मजूमदार ने भी लिखा है कि- भारतीय इतिहास में पृथ्वीराज का नाम एक अद्वितीय स्थान का अधिकारी है। उत्तरी भारत के अन्तिम हिन्दू सम्राट् के रूप में उसकी स्मृति लोकगाथाओं से समलंकृत की गई है और इसने लोकगीतों को विषय प्रदान किया है। चन्दबरदाई नामक सुप्रसिद्ध कवि ने अपने प्रसिद्ध महाकाव्य पृथ्वीराजरासो में उसे अमर बना दिया है, परन्तु जिस रूप में यह पुस्तक उपलब्ध है, उस रूप में इसे उसके जीवन का समकालीन और प्रामाणिक विवरण-ग्रन्थ नहीं माना जा सकता। उसके जीवनचरित् से सम्बन्धित एक अन्य ग्रन्थ है जिसका नाम पृथ्वीराजविजय है। यह प्राचीनतर और अधिक विश्वसनीय ग्रन्थ है। परन्तु इसका कुछ ही अंश अभी तक प्रकाश में आया है। मुस्लिम इतिहासकारों ने भी पृथ्वीराज-तृतीय के विषय में अपने विवरण दिये हैं।
  • पृथ्वीराज-तृतीय एक महान् विजेता और रणबांकुरा सेनानायक था। परमाल नामक चन्देल राजा को उसने पराजित किया और उसने 1182 ई. में उसकी राजधानी महोबा छीन ली। चन्देल-नरेश के ऊपर पृथ्वीराज चौहान की विजय का एक अभिलेखिक साक्ष्य भी प्राप्त होता है। परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि वह महोबा पर अधिक समय तक अधिकार न रख सका।
  • मुख्यतः इस बात पर पृथ्वीराज का यश अवलम्बित है कि उसने मुस्लिम आक्रमण का सफलतापूर्वक सामना किया, यद्यपि देश में राष्ट्रीयता की भावना के अभाव और अपनी ही राजनैतिक अदूरदर्शिता के कारण वह दुबारा इस आक्रमण के सामने ठहर न सका। मुहम्मद गोरी ने पंजाब को विजित कर लेने के उपरान्त, पृथ्वीराज चौहान के पास यह सन्देश भिजवाया कि वह चौहान राजा के साथ मित्रता करना चाहता है। परन्तु पृथ्वीराज ने, जो इस समय यौवन की स्फूर्ति और साहसिकता से उद्वेलित हो रहा था, न केवल गोरी के प्रस्ताव को घृणापूर्वक ठुकरा दिया, वरन् वह मुहम्मद गोरी से मोर्चा लेने के लिए आगे बढ़ा। मन्त्री के परामर्श को मानकर वह चुपचाप गोरी के आक्रमण की प्रतीक्षा करने लगा। जब मोहम्मद गोरी, पृथ्वीराज के राज्य की सीमा में प्रविष्ट होकत उसकी प्रजा को संत्रस्त और उत्पीडित करने लगा तो चाहमान-राजा एक विशाल सेना लेकर उसका सामना करने के लिए आगे बाधा। तारें के मैदान में दोनों सेनाओं की मुटभेड़ हुई औरर एक भयंकर युद्ध हुआ। युद्ध में मुसलमानों के छक्के छूट गए और वे भाग खड़े हुए। गोरी बड़ी कठिनाई से अपने कुछ विश्वासपात्र सरदारों के साथ प्राण लेकर रणक्षेत्र से भाग निकला। भुजते हुए प्रदीप की अंतिम प्रभापूर्ण शिखा की भांति हिंडौन की यह अंतिम महँ सैनिक सफलता थी।
  • परन्तु इस गहरी पराजय से गोरी तनिक भी हतोत्साह नहीं हुआ, वरन अपनी इस अपमानजनक पराजय का बदला लेने के लिए वह दिन-रात बेचैन रहने लगा। मध्य एशिया के पहाड़ी लड़ाकुओं की एक विशाल सेना एकत्र कर गोरी ने पुनः अगले ही वर्ष पृथ्वीराज पर आक्रमण कर दिया। वीरतापूर्वक राजपूत सैनिकों ने युद्ध किया परन्तु अन्त में उनको पराजय ही का मुख देखना पड़ा। इस युद्ध में अनेक वीर राजपूत सरदार दिवंगत हुए। स्वयं पृथ्वीराज भी बन्दी बना लिया गया और उसे तलवार के घाट उतार दिया गया। शाकम्भरी और अजमेर के राज्य पर गोरी ने अपना अधिकार जमा लिया।
  • मुहम्मद गोरी ने पृथ्वीराज की मृत्यु के बाद उसके पुत्र को अजमेर के सिंहासन पर बैठा दिया और उसे वार्षिक कर भेजने के लिए विवश किया। परन्तु कुछ ही समय के बाद अपने चाचा के कारण उसे अजमेर छोड़कर रणथम्भोर चले जाना पड़ा। पृथ्वीराज के पुत्र ने रणथम्भौर में अपने एक नये राजकुल की स्थापना की जिसका अन्त अलाउद्दीन खिलजी ने सन् 1301 में किया। इधर कुतुबुद्दीन ने हरिराज को पराजित कर चौहान वंश का अन्त कर दिया।

कन्नौज के गुर्जर-प्रतिहार
  • गुर्जरों की साखा से संबंधित होने के करण इसे गुर्जर-प्रतिहार ‘ कहा जाता है। गुर्जर-प्रतिहारों ने 8वीं शताब्दी से लेकर 11वीं शताब्दी के प्रारंभ तक शासन किया।
  • इस वंश की स्थापना नागभट्ट प्रथम ( 730-756 ई. ) ने की थी।
  • नागभट्ट के बाद वत्सराज (775-885 ई.) शासक बना। इसे प्रतिहार साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक कहां जाता है।
  • वत्सराज के बाद उसका पुत्र नागभट्ट द्वितीय ( 800-833 ई. ) शासक बना। वह अपने वंश का महान शासक था, जिसमें उत्तर भारत के एक बड़े क्षेत्र पर अपना राज्य स्थापित किया था। इसने कन्नौज को अपनी राजधानी बनाया।
  • मिहिरभोज प्रथम ( 836-885 ई. ) इस वंश का सबसे प्रतापी सम्राट था। इसने‘ आदिवाराह ‘ की उपाधि धारण की। मिहिरभोज प्रथम के बाद उसका पुत्र महेंद्रपाल प्रथम ( 885-910 ई. ) राजा बना। यह साम्रज्य निर्माता, महान , कुशल प्रशासक तथा विद्या एवं साहित्य का महान संरक्षक था।
  • महेंदपाल प्रथम की राजसभा में प्रसिद्ध विद्वान राजशेखर निवास करतें थे। जो उसके राजगुरू भी। राजशेखर ने बालरामायण, काव्यमीमांसा, कर्पूरमञजरी , विद्वाशालभंजिका, भुवनकोश तथा हरविलास जैसे प्रसिद्ध ग्रथों की रचना की।
  • मुसलमान लेखक अल-मसुदी महिपाल के समय 915-16 ईस्वी में भारत यात्रा पर आया था।
  • विजयपाल इस वंश का अंतिम शासक था। इसके बाद गुर्जर-प्रतिहारों के साम्राज्य पर गहढ़वालों ने अधिकार कर लिया।
  • हर्षोत्तर-कालीन भारत की राजनैतिक शक्तियों में गुर्जर-प्रतिहारों का राज्य प्रमुख था। गुर्जर-राजकुल राजपूत जाति का था। गुर्जर-राजकुल प्रतिहार शाखा का था, अतएव इतिहास में यह गुर्जर-प्रतिहार के नाम से विख्यात है। सन् 836 ई. के लगभग प्रतिहार राजवंश ने कन्नौज के नगर में अपनी सत्ता जमा ली। नवीं शताब्दी के अन्त के पूर्व ही इस सम्राट्-कुल की शक्ति सभी दिशाओं में फैल गई और महान् प्रतिहार सम्राट् की आज्ञा पंजाब के पेहोआ से लेकर मध्य भारत में देवगढ़ तक और काठियावाड़ में अना से लेकर उत्तरी बंगाल में पहाड़पुर तक के विस्तृत भूभाग में मानी जाती थी।
  • गुर्जर-प्रतिहारों की वंशावलियों द्वारा हमें 500 ई. के पूर्व का उनका इतिहास विदित नहीं होता। सबसे पहले उनका उल्लेख पुलकेशिन-द्वितीय के एहोल अभिलेख (634 ई.) में किया गया है। हर्षचरित् में बाण ने भी उनका उल्लेख किया है। छठी शताब्दी के प्रारम्भ से गुर्जरों ने भारत की राजनैतिक घटनाओं में महत्त्वपूर्ण भाग लिया। उन्होंने पंजाब, मारवाड़ और भडौंच में अपने राज्य स्थापित कर लिये। आठवीं शताब्दी के मध्य के लगभग कतिपय गुर्जर-सरदारों ने राष्ट्रकूट सम्राट् के अधीन उज्जैन में एक यज्ञ के अनुष्ठान-कार्य में द्वार-रक्षक का काम किया। अतएव वे लोग गुर्जर-प्रतिहार कहे जाने लगे। कुछ साहित्यिक कृतियों जैसे राजशेखर की काव्य मीमांसाकर्पूरमंजरीविद्धशालमञ्किाबाल रामायण, जनायक का पृथ्वीराज विजय तथा कल्हण की राजतरंगिणी से भी गुर्जर प्रतिहारों के इतिहास पर प्रकाश पड़ता है। ग्वालियर अभिलेख के अनुसार गुर्जर प्रतिहार अपने को राम के भाई लक्ष्मण का वंशज कहते हैं। राजशेखर अपने संरक्षक महेन्द्रपाल को रघुकुल तिलक और रघुग्रामिणी कहता है। कुछ विद्वानों का मानना है कि गुर्जर प्रतिहार राष्ट्रकूटों के द्वारपाल रहे थे। प्रतिहार अपनी पैतृक परंपरा हरिश्चंद्र नामक ब्राह्मण से भी जोड़ते हैं। उनके मूल स्थान के बारे में मतभेद है। कुछ विद्वान् उनका मूल स्थान उज्जैन (अवन्ति) मानते हैं। प्रतिहार का संबंध अवन्ति से अवश्य रहा होगा क्योंकि एक जैन ग्रन्थ महावंश में प्रतिहार शासक वत्सराज का संबंध अवन्ति से जोड़ा गया है। इस वंश का प्रथम ऐतिहासिक पुरुष हरिशचंद्र था जिसकी दो पत्नियां थी- ब्राह्मण एवं क्षत्रिय। ऐसा माना जाता है कि ब्राह्मण पत्नी से उत्पन्न पुत्र मालवा पर शासन कर रहे थे और क्षत्रिय पत्नी से उत्पन्न पुत्र जोधपुर पर शासन कर रहे थे। गुर्जर-प्रतिहारों के प्रारम्भिक इतिहास में सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उन्होंने अरब आक्रान्ताओं के प्रसार और विस्तार को रोका और उनको सिन्ध से आगे बढ़ने नहीं दिया। अरबों के प्रसार को रोककर गुर्जर-प्रतिहारों ने वस्तुत: भारत के प्रतिहारी (द्वार-रक्षक) का कार्य किया। इस वंश के संस्थापक नागभट्ट-प्रथम ने, जिसका समय अनुमानत: 725-740 तक निश्चित किया जा सकता है, म्लेच्छों को पराजित किया था। उसके द्वारा म्लेच्छों की पराजय सम्भवत: इसी घटना का उल्लेख करती है कि उसने सिन्ध प्रान्त के अरबों को आगे बढ़ने से रोक दिया था। हेनसांग ने भीनमल के गुर्जर राज्य का उल्लेख किया है जिसके आधार पर नागभट्ट की शक्ति का केन्द्र वहीं पर निश्चित किया जा सकता है। ग्वालियर अभिलेख में कहा गया है कि वह नारायण के रूप में लोगों की रक्षा के लिए उपस्थित हुआ था।
  • गुर्जर-प्रतिहार वंश का चतुर्थ नरेश वत्सराज अपने कुल का एक शक्तिशाली राजा था। यह सम्भवत: नागभट्ट-प्रथम का प्रपौत्र था। वत्सराज ने बंगाल के शासक को पराजित किया। किन्तु राष्ट्रकूट वंश के ध्रुव नामक राजा ने उसे पराजित कर दिया और अन्त में वह बंगाल के राजा द्वारा भी हरा दिया गया। वत्सराज ने अपने वंश की शक्ति और प्रतिष्ठा को बढ़ाने का प्रयास किया। उसने जोधपुर पर कब्जा किया जिससे प्रतिहारों की दोनों शाखाएं एक हो गई।
  • वत्सराज का उत्तराधिकारी नागभट्ट-द्वितीय (800-834) भी अपने कुल का एक प्रतापी सम्राट् था। नागभट्ट को अपने सैन्य-जीवन के प्रारम्भ में कई सफलतायें प्राप्त हुई। नागभट्ट-द्वितीय को इस बात के लिए श्रेय प्रदान किया जाता है कि उसने उत्तर में सिन्ध से लेकर दक्षिण में आन्ध्र और पश्चिम में अनर्त (काठियावाड़ में एक स्थान) से लेकर पूर्व में बंगाल की सीमाओं तक अपने राज्य का विस्तार किया। यद्यपि राष्ट्रकूट वंश के राजा गोविन्द तृतीय ने नागभट्ट-द्वितीय को पराजित कर दिया तथापि कन्नौज पर प्रतिहार वंश का अधिकार बना रहा। नागभट्ट-द्वितीय को गोविन्द-तृतीय द्वारा पराजय सहन करने से कुछ हानि अवश्य उठानी पडी किन्तु कन्नौज को उसने अपने हाथ से नहीं जाने दिया और इसे अपनी राजधानी बनाया। नागभट्ट-द्वितीय का उत्तराधिकारी रामभद्र था (834-840), जिसके शासन-काल में कोई महत्त्वपूर्ण घटना घटित नहीं हुई।
  • मिहिरभोज- अपने वंश का मिहिरभोज अत्यन्त प्रतापी और प्रभावशाली नरेश था। इसने एक सुदीर्घ काल (840-890) तक शासन किया। मिहिरभोज को ही वास्तव में अपने राजकुल की सीमाओं को विस्तृत करने का श्रेय दिया जा सकता है, क्योंकि उसके पूर्वजों का पर्याप्त समय पालों और राष्ट्रकूटों से युद्ध करने में व्यतीत हो जाता था। मिहिरभोज को इस बात का गौरव प्राप्त था कि राजनैतिक प्रभुता के लिए तीन राजकुलों में जो संघर्ष छिड़ा, उसमें अपने वंश को उसने सबसे अधिक शक्तिशाली बनाया। विभिन्न दिशाओं में उसकी विजयों के फलस्वरूप गुर्जर-प्रतिहारों का राज्य एक वास्तविक साम्राज्य के रूप में परिणत हो गया। उसके राज्य में पूर्वी पंजाब, राजपूताना का अधिकांश भाग, वर्तमान उत्तर प्रदेश का अधिकतर हिस्सा और ग्वालियर आदि प्रदेश सम्मिलित थे। अपने उत्तराधिकारियों की भांति भोज ने भी सम्भवतः सुराष्ट्र (काठियावाड), मालवा और अवन्ति पर शासन किया। इस प्रकार भोज के अधीन कन्नौज का राज्य उत्तर-पश्चिम में सतलज द्वारा, पश्चिम में वहिन्द (हकरा) द्वारा, जिसके उस ओर सिन्ध का मुस्लिम राज्य था और दक्षिण-पश्चिम में नर्मदा नदी द्वारा घिरा हुआ था। नर्मदा नदी राष्ट्रकूटों और गुर्जर-प्रतिहारों के साम्राज्यों के मध्य में थी और उनके बीच एक विभाजक सीमा का निर्माण करती थी। पूर्व में भोज के राज्य की सीमा बंगाल और बिहार के राजा देवपाल के राज्य के बिल्कुल निकट थी। भोज ने देवपाल पर सफलतापूर्वक आक्रमण किया। दक्षिण में जैजाकभुक्ति (बुन्देलखण्ड) के चन्देलों का राज्य था जो अभी शक्ति प्राप्त कर रहा था। इस राज्य ने कदाचित् मिहिरभोज की अधीनता स्वीकार कर ली थी। इस प्रकार गुर्जर-प्रतिहार-साम्राज्य के विस्तार की तुलना गुप्तों या हर्ष के साम्राज्य से की जा सकती है। भोज के एक अर्द्ध-शताब्दी के सुदीर्घकालीन शासन में प्रतिहार वंश ने अपने गौरव और समृद्धि का उपभोग किया। भोज के विषय में हमें उसके अभिलेखों द्वारा कुछ महत्त्वपूर्ण सूचना प्राप्त होती है। उसकी मुद्रायें भी हमें उसके सम्बन्ध में कुछ सूचना प्रदान करती है। उसकी रजत-मुद्रायें काफी प्रचुर संख्या में प्राप्त हुई हैं जो उसके विस्तृत साम्राज्य और सुदीर्घ शासन-काल का प्रमाण प्रस्तुत करती हैं। उसके सिक्कों पर फारसी-प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगत होता है। भोज ने आदि-वराह और प्रभास के विरुद्ध धारण किये थे जो उसके सिक्कों पर उत्कीर्ण हैं।
  • भोज विष्णु और शिव का उपासक था। उसने आदिवराह की उपाधि ली। उसने सम्भवत: भोजपुर की स्थापना कराई थी। अरब यात्री सुलेमान ने भोज के साम्राज्य, उसके शासन, उसके राज्य के व्यापार तथा समृद्धि की बड़ी प्रशंसा की है। उसने उसे अरबों तथा मुसलमानों का सबसे प्रबल शत्रु कहा है। भोज की एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण उपलब्धि उसके द्वारा मुस्लिम आक्रान्ताओं के विस्तार पर अंकुश लगाना था। उसके प्रतिरोध के कारण मुसलमान आक्रांत दक्षिण अथवा पूर्व की ओर नहीं बढ़ सके। सुलेमान ने उसे बरूआ भी कहा है। सुलेमान ने लिखा है- जर्ज (गुर्जरों) के राजा के पास असंख्य सेनायें हैं और किसी भी भारतीय राजकुमार के पास इतनी सुन्दर अश्वारोही सेना नहीं है।...उसके पास अतुल सम्पत्ति है और उसके घोड़ों तथा ऊंटों की संख्या भी बहुत अधिक है। भारत में कोई ऐसा अन्य देश नहीं है जो डाकुओं से इसकी अपेक्षा अधिक सुरक्षित हो। कश्मीर-नरेश शंकरवर्मन उत्पल के लिए कहा जाता है की उसने भोज की शक्ति को रोका था। परन्तु यह स्पष्ट रूप से नहीं कहा जा सकता है की इस बात में सत्यांश किय्ना है। डॉं. रमेशचंद्र मजूमदार में भोज का मूल्यांकन करते हुए लिखा है- भोज ने एक प्रबल शासक के रूप में ख्याति अर्जित कर ली थी। वह अपने साम्राज्य में शान्ति बनाए रखने तथा बाह्य आक्रमणों से उसकी रक्षा करने में सक्षम रहा। वह मुसलमानों के आक्रमणों के विरुद्ध एक सुरक्षा-दीवार की भाँति खड़ा था और अपने उत्तराधिकारियों को अपने कार्यों की एक विरासत दे गया?
  • महेन्द्रपाल (885-910 ई.)- मिहिरभोज का उत्तराधिकारी महेन्द्रपाल (890-908) अपने महान् पिता का एक योग्य पुत्र था। अपने पिता द्वारा प्राप्त साम्राज्य के ऊपर न केवल उसने अपना सुदृढ अधिकार रखा, वरन् उसमें कुछ अन्य भाग भी मिलाये। उसके अभिलेख पेहेवा (करनाल, आधुनिक हरियाणा का एक जनपद), मगध में गया, तथा काठियावाड़ में प्राप्त हुए हैं। सियहदोनि (ग्वालियर) तथा स्रावस्ती के भुक्ति में भी उसके अभिलेख मिले हैं। उसके अभिलेख यह सूचित करते हैं कि उसने पालों से मगध और उत्तर बंगाल छीन लिया। कश्मीर के राजा शंकरवर्मन के आक्रमणों के फलस्वरूप महेन्द्रपाल की राज्य-सीमा कुछ घट गई, परन्तु अन्य किसी प्रकार के हास की सूचना हमें नहीं प्राप्त होती। महेन्द्रपाल ने हर्ष और यशोवर्मन की भांति विद्या को प्रोत्साहन दिया। राजशेखर नामक कवि उसके राजदरबार में रहता था।
  • भोज द्वितीय (910-913 ई.) और महिपाल प्रथम (913-944 ई.)- महेन्द्रपाल का उत्तराधिकारी उसका पुत्र भोज-द्वितीय हुआ, महेन्द्रपाल प्रथम की दो प्रधान रानियां थीं। एक का नाम देहनागा देवी तथा दूसरी का नाम महादेवी था।
  • देहनागादेवी नामक रानी के पुत्र का नाम भोज और महादेवी नामक रानी के पुत्र का नाम महीपाल था। महेन्द्रपाल की मृत्यु के उपरान्त इन दोनों सौतेले भाइयों में गृहयुद्ध प्रारम्भ हो गया। युद्ध में भोज द्वितीय सफल रहा। किन्तु उधर महिपाल प्रथम भी राजसिंहासन प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहा। अत में चन्देल नरेश हर्षदेव की सहायता से उसने अपने भाई को पराजित कर सिंहासन पर अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया। उसके बाद उसका अनुज महीपाल कन्नौज के राज-सिंहासन पर आसीन हुआ। महीपाल के शासन-काल से कन्नौज के प्रतिहार-वंश की राजलक्ष्मी विचलित होने लगी। परन्तु उसके शासनकाल के प्रारम्भिक वर्षों में उसके राज्य में शान्ति और समृद्धि व्याप्त थी। साम्राज्य की शक्ति इस समय अक्षुण्ण बनी रही और इसकी सीमायें संकुचित भी नहीं होने पाई। कवि राजशेखर ने, जिसने उसकी राजसभा को भी सुशोभित किया था, उसे आर्यावर्त का महाराजाधिराज कहा है और उसने मेखलों, कलिगों, केरलों और कुन्तलों पर महीपाल की विजयों का भी उल्लेख किया है। परन्तु महीपाल की स्थिति निरापद नहीं थी। गुर्जर-प्रतिहारों के चिर शत्रु राष्ट्रकूट और बंगाल के पाल नरेश दोनों ही सजग हो गये और कन्नौज के राज्य पर आक्रमण करने का अवसर ताकने लगे। सन् 916 ई. में राष्ट्रकूट नरेश इन्द्र-तृतीय ने एक बहुत बडी सेना लेकर कन्नौज पर आक्रमण कर दिया और इसको अपने अधिकार में कर लिया। परन्तु महीपाल ने चन्देल राजा की सहायता से अपने राज्य पर पुन: अधिकार कर लिया। कन्नौज के साथ-साथ उसने दोआब, बनारस, ग्वालियर और सुदूरवर्ती काठियावाड पर भी अपना स्वामित्व स्थापित किया। इस प्रकार महीपाल प्रथम के साम्राज्य के अन्तर्गत पूर्व में बिहार की पश्चिमी सीमा तक उत्तर-पश्चिम में पंजाब के कुछ प्रदेशों तक, पश्चिम में सौराष्ट्र तक, उत्तर में तराई प्रदेश तक और दक्षिण में नर्मदा के तटीय प्रदेश तक का क्षेत्र आता था।
  • महीपाल के उत्तराधिकारी- महीपाल की मृत्यु सन् 944 ई. के लगभग हुई। उसके उपरान्त महेन्द्रपाल-द्वितीय राजा हुआ। उसने अपने पिता के राज्य को दो-तीन वर्षों तक सम्भाला, परन्तु उसके बाद उसका अनुज देवपाल प्रतिहार साम्राज्य का स्वामी हुआ। देवपाल के समय से साम्राज्य का विघटन प्रारम्भ हो गया। परवर्ती प्रतिहार राजाओं ने गंगा की घाटी, राजपूताना के कुछ भागों और मालवा पर किसी प्रकार अपना अधिकार स्थापित रखा। परन्तु चन्देलों ने, जो पहले उसके सामन्त थे, उसका विरोध करते हुए अपनी आक्रमणात्मक नीति प्रारम्भ की। चालुक्यों ने गुजरात में अपनी स्वतन्त्रता घोषित कर दी, परमार मालवा में स्वतन्त्र हो गये और चन्देलों तथा चेदियों ने यमुना-नर्मदा के मध्यवर्ती भाग में अपने को स्वतन्त्र घोषित किया। महीपाल के पश्चात् महेन्द्रपाल, देवपाल, विजयपाल और राज्यपाल प्रतिहार वंश के राजसिंहासन पर बैठे थे, परन्तु इनमें से कोई भी अपने वंश के गौरव को पुनर्जीवित न कर सका। जब राज्यपाल कन्नौज के राज-सिंहासन पर बैठा (960-1028), तब उसका राज्य सिकुड़कर केवल गंगा और यमुना नदियों के मध्यवर्ती प्रदेश तक ही रह गया था। मुसलमानों के आक्रमण दसवीं शताब्दी में होने लगे थे जिनका आघात राज्यपाल के राज्य को भी लगा। जब गजूनी के महमूद ने 1018-19 ई. में कन्नौज पर आक्रमण किया तो राज्यपाल ने निर्विरोध आत्मसमर्पण कर दिया। फिर भी महमूद ने कन्नौज को काफी लूटा-खसोटा। महमूद के लौट जाने के बाद चन्देल राजकुमार विद्याधर ने राज्यपाल को उसकी कायरता का दण्ड देने के लिए उसके ऊपर आक्रमण कर दिया और युद्ध में उसे मार डाला। इस प्रकार प्रतिहार साम्राज्य को एक दु:खद अन्त देखना पड़ा। अभिलेखों में त्रिलोचन और यशपाल के नाम मिलते हैं। इन अभिलेखों से यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि प्रतिहार राजाओं के हाथ से कन्नौज निकल गया था और इस पर 1090 ई. के लगभग गहड़वाल वंश के चन्द्रदेव ने अपना अधिकार जमा लिया था।
  • सभी प्रतिहार-नरेश शैव या वैष्णव धर्मों के अनुयायी थे। कुछ प्रतिहार शासक वैष्णव धर्म को मानते थे और कुछ शैव धर्म को। भगवती के प्रति भी उनकी श्रद्धा और भक्ति थी, गुर्जर-प्रतिहारों के पश्चात् कन्नौज का राज्य गहड़वालों के अधिकार में चला गया।
कामरूप का राज्य

  • प्राचीन भारत का कामरूप राज्य वर्तमान असम-राज्य से बडा था। यह राज्य आधुनिक काल में भारत की पूर्वी सीमा का निर्माण करता था। प्राग्ज्योतिष प्राचीन कामरूप की राजधानी थी। यह राज्य करतोया नदी तक फैला हुआ था। और इसमें कूचबिहार तथा रंगपुर के जिले सम्मिलित थे। महाभारत में कामरूप राज्य और उसके नरेश का उल्लेख किया गया है। परन्तु, अभिलेखों में कामरूप का उल्लेख सबसे पहले समुद्रगुप्त की प्रयाग-प्रशस्ति में किया गया है। प्रयाग-प्रशस्ति से पता चलता है कि कामरूप-राज्य ने समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार कर ली थी, किन्तु स्वायत्त शासन के सम्बन्ध में इसने अपना अधिकार अक्षुण्ण रखा था। आदित्यसेन गुप्त के अफस अभिलेख में भी लौहित्य (ब्रह्मपुत्र) तक महासेनगुप्त तक पहुँचने का उल्लेख मिलता है। महासेन गुप्त ने कामरूप के राजा को युद्ध में पराजित किया था। यह राजा कदाचित् सुस्थितवर्मन था।
  • सुस्थितवर्मन का पुत्र भास्करवर्मन कामरूप का एक प्रसिद्ध शासक था तथा संतर हर्ष का समकालीन था। हर्षचरित में कामरूप के राजा के साथ हर्ष की मैत्री और संधि का उल्लेख किया गया है। जब नालंदा में चीनी यात्री ह्वेनसांग दुबारा रुका तो भास्करवर्मन ने साग्रह उससे परिचय प्राप्त किया और उससे अपने राज्य का पर्यटन करने का अनुरोध किया। कामरूप की राजधानी में कुछ दिन रूकने के बाद चीनी यात्री को भास्करवर्मन के साथ हर्षवद्धन से मिलने के लिए जाना पड़ा। भास्करवर्मन का दूसरा नाम कुमार भी था। चीनी यात्री ने लिखा है कि कुमार या भास्कर ब्राह्मण था और अपने को विष्णु की सन्तान कहता था। बाण ने लिखा है कि भास्करवर्मन का जन्म एक अत्यन्त प्राचीन कुल में हुआ था। भास्करवर्मन के ही आग्रह पर चीनी सम्राट् ने अपने देश के प्रसिद्ध दार्शनिक लाओ-त्से के ग्रन्थ को संस्कृत में अनूदित करने के लिए ह्वेनसांग को आदेश दिया।
  • हर्षचरित् के अनुसार भास्करवर्मन शिव का अनन्य भक्त था। उसने हर्ष के साथ जो मैत्री सम्बन्ध स्थापित किया उसका कारण कदाचित् धर्म न होकर राजनीतिक हित का विचार था। कर्णसुवर्ण का राजा शशांक अपनी शक्ति बढ़ाने में लगा हुआ था। उसकी बढ़ती हुई शक्ति से भास्करवर्मन को भय था। इसके अतिरिक्त जब देवगुप्त ने (मालवाधिपति) शासक के साथ सन्धि कर ली तो भास्करवर्मन का भय और अधिक बढ़ गया। इधर सम्राट् हर्ष भी शशांक की ओर से सशंक तथा भयभीत था। अतएव जब कामरूपाधिपति ने हर्ष से मैत्री का प्रस्ताव किया तो उसने तुरन्त उसे स्वीकार कर लिया। हर्षचरित् में बाण ने जिन शब्दों में भास्करवर्मन और हर्ष के सन्धि सम्बन्ध का वर्णन किया है, वे स्पष्ट सूचित करते हैं कि दोनों ही नरेश शशांक से भयभीत थे और उसकी शक्ति को रोकने के लिए ही दोनों ने आपस में एक-दूसरे से मित्रता की थी।
  • भास्करवर्मन और हर्ष की इस पारस्परिक सन्धि के व्यवहारिक परिणाम क्या हुए, यह ठीक से ज्ञात नहीं। कामरूप-नरेश ने हर्ष को उसके रण-अभियान में, विशेषकर शशांक के विरुद्ध किसी प्रकार की सैनिक सहायता दी थी अथवा नहीं, यह नहीं कहा जा सकता। परन्तु जिस उद्देश्य से भास्करवर्मन ने हर्ष के साथ मित्रता स्थापित की थी, उस उद्देश्य की पूर्ति हो गई। भास्करवर्मन के राज्य को शशांक कोई क्षति नहीं पहुंचा सका, बल्कि इस मैत्री सम्बन्ध से कामरूप-नरेश भास्करवर्मन को और अधिक लाभ हुआ। ह्वेनसांग के वर्णन से ज्ञात होता है कि हर्ष की मृत्यु के अनन्तर जब उसका साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया तब कामरूप के नृपति ने भी उससे लाभ उठाया और कणसुवर्ण को अपने राज्य में मिला लिया। कुछ समय तक बंगाल भास्करवर्मन के अधिकार में रहा। निधानपुर वाले लेख से विदित होता है कि उसने कर्ण्कासुवर्ण की राजधानी से कुछ भूमि दान में दी थी। भास्करवर्मन ने हर्ष के जीवन-काल में ही बंगाल के कुछ भाग पर अधिकार कर लिया था। सम्भवत: शशांक का साम्राज्य दो भागों में विभक्त कर दिया गया था, हर्ष के अधिकार में पश्चिमी बंगाल, उड़ीसा और फोंगोद आये और भास्करवर्मन को बंगाल का अवशिष्ट भाग मिला। परन्तु इस सम्बन्ध में उपलब्ध सामग्री इतनी स्वल्प है कि सुनिश्चित सम्मति देने का साहस नहीं किया जा सकता। भास्करवर्मन के बाद का भी इतिहास मिलता है, किन्तु उसके बाद का इतिहास अस्पष्ट और धुंधला है। भास्करवर्मन के समय के पश्चात् से कामरूप की शक्ति क्षीण होने लगी और देश की राजनीतिक गतिविधि में इसका कोई महत्त्वपूर्ण भाग नहीं था। मुसलमानों के समय में आसाम ने अपनी स्वतन्त्रता अक्षुण्ण रखी परन्तु अंग्रेजों के आने पर यह उनके अधिकार में चला गया। आज आसाम स्वतन्त्र भारत की पूर्वी सीमा पर स्थित एक राज्य है।

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