क्लाइव का द्वैध शासन | दोहरी प्रणाली का औचित्य दुष्परिणाम | Dual System of Robert Clive in Hindi

 

क्लाइव का द्वैध शासन और 1757 से 1772 के दौरान बंगाल में अंग्रेज

क्लाइव का द्वैध शासन | दोहरी प्रणाली का औचित्य दुष्परिणाम | Dual System of Robert Clive in Hindi
 

बंगाल की व्यवस्थाः दोहरी प्रणाली (Settlement of Bengal: The Dual System): 

  • क्लाइव ने बंगाल की उलझन को कुख्यात दोहरी प्रणाली द्वारा सुलझाने का प्रयत्न किया। इसमें वास्तविक शक्ति तो कम्पनी के पास थी परन्तु प्रशासन का भार नवाब के कन्धों पर था। 
  • मुगल साम्राज्य के स्वर्ण काल से ही प्रान्तों में दो मुख्य अधिकारी होते थेसूबेदार तथा दीवान। सूबेदार का कार्य निजामत अर्थात् सैनिक संरक्षणपुलिस तथा फौजदारी कानून लागू करनातथा दीवान का कार्य कर व्यवस्था तथा दीवानी कानून लागू करना था। ये दोनों अधिकारी एक दूसरे पर नियंत्रण का काम भी करते थे तथा सीधे केन्द्रीय सरकार के प्रति उत्तरदायी थे। औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात् मुगल सत्ता क्षीण हो गयी तथा बंगाल का नवाब मुर्शिद कुली खाँ दीवानी तथा निजामत दोनों कार्य करता था।

 

  • 12 अगस्त, 1756 के फरमान के अनुसार आलम ने 26 लाख वार्षिक के बदले दीवानी का भार कम्पनी को सौंप दिया। कम्पनी को 53 लाख र निजामत के कार्य के लिए भी देने थे। फरवरी 1756 में अपने पिता मीर जाफर की मृत्यु पर नजमुद्दौला को नवाब बनाने की अनुमति दे दी गई परन्तु शर्त यह थी कि निजामत का लगभग समस्त कार्य भारअर्थात् सैनिक संरक्षण तथा विदेशी मानले पूर्णतया कम्पनी के हाथों में तथा दीवानी मामले डिप्टी सूबेदारजिनको कम्पनी मनोनीत करेगी तथा जिसे कम्पनी की अनुमति के बिना हटाया नहीं जा सकेगासौंप दे। इस प्रकार कम्पनी का मुगल सम्राट से दीवानी तथा बंगाल के सूबेदार से निजामत का कार्यभार मिल गया। 

  • इस समय कम्पनी सीधे कर संग्रह करने का भार न तो लेना चाहती थी और न ही उसके पास ऐसी क्षमता थी। कम्पनी ने दीवानी कार्य के लिए दो उपदीवानबंगाल के लिए मुहम्मद रजा खाँ तथा बिहार के लिए राजा शिताब राय नियुक्त कर दिए। मुहम्मद रजा खाँ उपनिजाम के रूप में भी कार्य करते थे। इस प्रकार समस्त दीवानी तथा निजामत का कार्य भारतीयों द्वारा ही चलता था यद्यपि उत्तरदायित्व कम्पनी का था। इस व्यवस्था को दोहरी प्रणाली की संज्ञा दी गई अर्थात् दो राजेकम्पनी तथा नवाब। व्यावहारिक रूप में यह व्यवस्था खोखली सिद्ध हुई क्योंकि समस्त शक्ति तो कम्पनी के पास थी तथा भारतीय अधिकारी केवल बाहरी मुखौटा मात्र ही थे।

 

क्लाइव की दोहरी प्रणाली का औचित्यः 

क्लाइव समझता था कि समस्त शक्ति कम्पनी के पास है तथा नवाब के पास सत्ता की केवल छाया ही है। उसने प्रवर समिति (Select Committee) को लिखा थाः "यह नामयह छाया आवश्यक है तथा हमें इसको स्वीकार करना चाहिए।" इसके पक्ष में उसने निम्नलिखित कारण दिए:-

 

1. यदि कम्पनी स्पष्ट रूप से राजनैतिक सत्ता हाथ में ले लेती है तो उसका वास्तविक रूप लोगों के सम्मुख आ जाएगा और सम्भवतः सारे भारतीय इसके विरोध में एकत्रित हो जाएं। 

2. सम्भवतः फ्रांसीसीडच तथा डेनविदेशी कम्पनियां सुगमता से कम्पनी की सूबेदारी को स्वीकार नहीं करेंगी तथा कम्पनी को वे कर इत्यादि नहीं देंगी जो नवाब के फरमानों के अनुसार उन्हें देने होते थे। 

3. स्पष्ट राजनैतिक सत्ता हाथ में लेने सेइंग्लैण्ड तथा विदेशी शक्तियों के बीच कटुता आ जाती और सम्भवतः ये सभी शक्तियां इंग्लैण्ड के विरुद्ध एक मोर्चा खड़ा कर लें जैसा कि 1778-80 के बीच अमरीकी स्वतंत्रता संग्राम के समय हुआ। 

4. इंग्लैण्ड के पास ऐसे प्रशिक्षित अधिकारी भी नहीं थे जो शासन का भार संभाल लेते। क्लाइव ने इंग्लैण्ड में अधिकारियों को यह लिखा था कि यदि हमारे पास तीन गुणा भी प्रशासनिक सेवा करने वाले लोग हों तो भी वे इस कार्य के लिए पर्याप्त नहीं होंगे। जो थोड़े बहुत लोग कम्पनी के पास थे भीवे भारतीय रीति-रिवाजों तथा भाषा से अनिभज्ञ थे। 

5. कोर्ट ऑफ डाइरेक्टर्ज उस समय समस्त प्रदेश को ले लेने के पक्ष में नहीं था। क्योंकि इससे कम्पनी के व्यापार में बाधा पड़ने की सम्भावना थी। वे लोग प्रदेश के स्थान पर धन में अधिक रुचि रखते थे। 

6. क्लाइव यह भी समझता था कि यदि वह बंगाल की राजनैतिक सत्ता हाथ में ले लेता तो सम्भवतः अंग्रेजी संसद कम्पनी के कार्य में हस्तक्षेप करना आरम्भ कर देगी।

 

दोहरी प्रणाली के दुष्परिणामः 

प्रशासन की जो व्यवस्था क्लाइव ने स्थापित की वह अप्रभावी तथा अव्यावहारिक थी तथा इसने बंगाल में अराजकता तथा भ्रान्ति फैला दी। आरम्भ से ही यह असफल रही।


(क) प्रशासनिक व्यवधान (Administrative Breakdown): 

  • निजामत की शिथिलता के कारण देश में कानून और व्यवस्था लगीाग ठप्प हो गई। न्याय तो केवल विडम्बना मात्र रह गया। नवाब में कानून लागू करने तथा न्याय देने की सामर्थ्य नहीं थी। कम्पनी प्रशासन के उत्तदायित्व को स्वीकार नहीं करती थी। ग्रामीण प्रदेशों में डाकू स्पष्ट रूप से घूमते थे तथा संन्यासी छापामारों (raiders) के कारण सरकार केवल नाम मात्र ही रह गई थी। 1858 में ब्रिटिश हाउस ऑफ कॉमन्ज में सर जॉर्ज ने कहा था, "मैं निश्चयपूर्वक यह कह सकता हूँ कि 1765-84 तक ईष्ट इण्डिया कम्पनी की सरकार से अधिक भ्रष्टझूठी तथा बुरी सरकार संसार के किसी भी सभ्य देश में नहीं थी।"

 

(ख) कृषि का ह्रासः 

  • भारत का अन्न भण्डार बंगाल अब उजाड़ बन चुका था। भूमि कर संग्रह करने का भार प्रति वर्ष अधिकाधिक बोली देने वाले को दे दिया जाता था जिसकी भूमि में स्थाई रूप से कोई अभिरूचि नहीं थी। वे अधिकाधिक लगान प्राप्त करते थे। बंगाल में कृषकों पर भूमि कर अधिक होता था तथा उसके संग्रह करने में भी बहुत कड़ाई होती थी। 1770 में एक अकाल पड़ा जिससे अत्यधिक जान तथा माल की हानि हुई उसे देख कम्पनी के एक पदाधिकारी ने इस प्रकार लिखा था, "आज जो करुणामय दृश्य देखने को मिलता है उसका वर्णन करना मनुष्य की शक्ति से परे है। यह निश्चित है कि कुछ प्रदेशों में लोगों ने मृतकों को खाया है।"

 

(ग) व्यापार तथा वाणिज्य का विघटन (Disruption of Trade and Commerce): 

  • कृषि की उपज में कमी से व्यापार तथा वाणिज्य पर भी कुप्रभाव पड़ा। 1717 से बंगाल में अंग्रेजो को कर के बिना व्यापार करने की अनुमति थी। इसके अनुसार कम्पनी के कलकत्ता स्थित गवर्नर की आज्ञा से कोई भी माल बिना निरीक्षण तथा बेरोकटोकइधर-उधर जा सकता था। कर सम्बन्धी आज्ञा से सरकार को हानि हुई तथा भारतीय व्यापार भी नष्ट हो गया।

 

(घ) उद्योग तथा दक्षता का ह्रास (Ruination of Industry and Skill): 

  • बंगाल के कपड़ा उद्योग की बहुत हानि हुई। कम्पनी ने बंगाल के रेशम के उद्योग को निरुत्साहित करने का प्रयत्न किया क्योंकि इससे इंग्लैण्ड के रेशम के उद्योग को क्षति पहुंचती थी। 1769 में कम्पनी के डाइरेक्टरों ने कार्यकर्ताओं को आदेश दिए थे कि कच्चे सिल्क के उत्पादन को प्रोत्साहित करो तथा रेशमी कपड़ा बुनने को निरुत्साहित करे रेशम का धागा लपेटने वालों को कम्पनी के लिए काम करने पर बाध्य किया जाता था।

 

(ङ) नैतिक पतनः 

  • बंगाली समाज का नैतिक पतन भी आरम्भ हो गया था। कृषक ने अनुभव किया कि यदि वह अधिक उत्पादन करता है तो उसे अधिक कर देना पड़ता है अतएव केवल इतना ही उत्पादन करो जिससे केवल गुजारा हो सके। इसी प्रकार वह जुलाहा जो अपने परिश्रम का लाभ स्वयं नहीं भोग सकता थाअब उत्तम कोटि का उत्पादन करने को उद्यत नहीं था। कार्य की प्रेरणाा समाप्त हो गई तथा समाज निर्जीव हो गया तथा उसमें सड़न के लक्षण दीखने लगे।

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