अजेय, पराक्रमी आदि भावनाएँ मुगलों के प्रति थीं।
धर्मांध और क्रूर बादशाह औरंगजेब को पराक्रमी कहा जाता है। उसके प्रशासनकाल में
भारत के विशाल भूभाग पर मुगलों के प्रशासन था, ऐसा
वर्णित है। पर मुगलों को हराने की साहसी और पराक्रमी लोग भारत में थे। अपने शौर्य और छल से अन्य राज्यों को वश में करनेवाले मुगलों को हरानेवाले कई
पराक्रमियों के इतिहास को इतिहास ने छिपा रखा हैं। ऐसा ही एक राजवंश अहोम था।
अहोम राजवंश का प्रतीक
अहोम राजवंश 13 वीं शताब्दी के प्रारंभ में वास्तव में
प्रस्तुत मायंमार और थाईलैंड देशों से आकर भारत के वर्तमान असम भाग में बसने लगे।
अहोम नाम से ही इस भाग का असम नाम आया है। अहोम वंश के लोगें ने बाहर से आने पर भी
बहुत जल्दी भारत की संस्कृति को अपनाकर 1228
में अपने साम्राज्य की स्थापना की। 'सुकपा' इस वंश का स्थापक था। चिरायडाय इस साम्राज्य की
पहली राजधानी थी। 1300 के करीब दिल्ली के सुल्तान खिलजियों ने इन पर
आक्रमण किया था, पर अहोम राज्य की सेना ने खिल्जी सेना को
भगाया। 1350 में इल्यास शाही तथा तुगलक सेना भी अहोम से
पराजित हुई। 15 वीं शताब्दी के अंत में लोधी सेना ने अहम राज्य को घेर लिया, पर उन्हें भी हारकर लौटना पड़ा। बाद में बंगाल
के सुल्तान अहोम राज्य पर निरंतर आक्रमण करते रहे। उनको भी हर बार युद्ध में अहम
राज्य ने हराकर खदेड़ दिया। 1658
में गद्दी पर बैठा मुगल बादशाह औरंगजेब अहोम राज्य को किसी प्रकार वश में लेने की
ताक में था। इसलिए अपने विश्वस्त सेनानी मीर जुम्ला और दिलेर खाँ को भारत के
पूर्वोत्तर भाग पर भेजा। उनको बंगाल और अहोम राज्यों पर विजय पाकर आने की
जिम्मेदारी दी।
जयध्वज सिंघ :
मुगल सेना ने अभूतपूर्व तैयारी की। हाथी, थलसेना, अश्वसेनाएँ
तैयार हुई। कुल करीब 70000 सिपाहियों की यह सेना पहले बंगाल पर आक्रमण
करके, वश में लेने के बाद में ब्रह्मपुत्रनदी को पार
करते हुए अहोम राज्य पहुंचीं। मीर जुम्ला की सेना ने गुवाहाटी, सिमलगुरी, और
अहोम की राजधानी गर्गाम को वश में कर लिया। यह युद्ध मृत्यु और दर्द का कारण बना।
इस भयंकर युद्ध से अहोम साम्राज्य का बहुत बड़े भूभाग को खोना पड़ा। जयध्वज को
अत्यंत शर्मनाक समझौता करना पड़ा। इस समझौते से उसके खजाने से बड़े पैमाने पर
संपत्ति युद्ध के उपचार के रूप में मुगलों को देनी पड़ी। इसके अलावा स्वर्ण, रजत, जैसे
अमूल्य संपत्ति देनी पड़ी। तत्समय अहोम राज्य हाथी के लिए प्रसिद्ध था। अपनी गज
सेना के अमूल्य हाथियों को भी उसने मुगलों को समर्पित कर दिया। सबसे ज्यादा
शर्मनाक विषय तो यह है कि जयध्वज को अपनी छः वर्ष की बेटी को भी शत्रुओं को सौंपना
पड़ा।
इस समझौते से राज्य तो बच गया किंतु वह मानसिक शांति खो बैठा। युद्ध
के बाद जयध्वज ने बहुत जल्दी बिस्तर पकड़ा, अपजय
और अपमान के कारण उसकी जल्दी मृत्यु हो गयी।
चक्र ध्वज सिंघ :
जयध्वज की मृत्यु के बाद चक्रध्वज सिंघ असम राज्य का राजा बना। इसके
काल में साम्राज्य की स्थिति उतनी अच्छी नहीं थी और चारों ओर से शत्रुओं की
घेराबंदी, खाली खजाना, अविश्वासओं
के कारण से राज्य शोभाहीन था। सैनिकों में आत्मबल घटा था। चक्रध्वज को अपना राज्य
पुनर्निर्माण की महत्वाकांक्षा थी। इसके लिए वह एक समर्थ सेनानायक की तलाश (शोध)
में था। उस समय उसकी आंखों के सामने आने वाला व्यक्ति था लचित।
लचित का जन्म 1620
में हुआ, उसके पिता राजा के दरबार में उच्च पदों पर थे।
लचित को बचपन से ही उत्तम संस्कार के अलावा युद्धविद्या भी प्राप्त थी। उसको
प्रशासन और क्षात्रिय कामों में बहुत रुचि थी। इस कारण से वह जल्दी ही पदोन्नति
प्राप्त करते आगे बढ़ा। पहले वह राजा के मंत्री तथा मुख्यमंत्री के रूप में
नियुक्त होकर, बाद में वह अश्वसेना का नायक बना। कुछ समय के
बाद प्रजा और सैनिकों की अपेक्षा से, राजा
ने लचित को असम राज्य का मुख्य सेनानायक रूप में चुना। इस पद का नाम बोर्फकन था।
तब से लचित, लचित बोर्फकन बना।
लचित का पहला लक्ष्य, सैनिकों
में आत्मविश्वास को बढ़ाने की दृष्टि से, चार
वर्ष राज्य के सिपाहियों को कठिन प्रशिक्षण का आयोजन किया। अश्वदल को सुसज्जित बनाया। हाथियों के दल को नया रूप दिया। नौसेना को सुसज्जित किया। कई बड़े युद्ध नौकाओं का निर्माण हुआ। राज्य के सब किलों को मजबूत बनाया। बड़ी संख्या में राज्य के नवजवानों को सेना में भर्ती कराया। शस्त्रात्रों को आधुनिक बनाया। बारूद, गोलियों
को अधिक प्रमाण में संग्रह किया। पर लचित ने इस तैयारी के संकेत मुगलों को न मिलने की तरह सतर्कता से कार्यरत रहा। मुगलों को बार-बार उपहार भेजकर, उनको
अपने दोस्तों की तरह देखभाल किया।
गुवाहाटी पर कब्जा :
मुगलों के साथ घटित युद्ध में अहोमवंश गुवाहाटी को खो बैठा था। गुवाहाटी मुगलों के वश में था।
उसके मुखिया के में रशीद खाँ खाँ चुनकर आया था। 1667 में उसके स्थान रूप पर फिरोज खाँ आकर बैठ गया। यह बहुत एशो-आरामी, लंपट और निर्दयी था। उसकी अय्याशी के लिए उसने
असामी कन्याओं को भेजने के लिए चक्रध्वज को आदेश दिया। इस घटना ने अहोम की जनता के
आत्माभिमान भड़काया।
मुगलों को किसी भी तरह अहोम की भूमि से भगाने का संकल्प किया। इसलिए
पहले इटखुली किले को वश में लेना था। अहोमी सिपाहियों ने युक्ति से इस किले पर
चढ़कर शास्त्रास्त्रों पर पानी में डालकर बेकार कर दिया। अगले दिन ही लचित अपने
नेतृत्व में बड़ी सेना से उस किले को चारों ओर से घेरकर, वहाँ के मुगल अधिकारियों और सिपाहियों को वहाँ
से भगाया। गुवाहाटी अहोम राज्य को फिर प्राप्त हुआ।
अलबोय युद्ध :
गुवाहाटी अपने नियंत्रण से छूट जाने का विषय जानते ही औरंगाजेब आग
बबूला हुआ। दूसरी बार मुगल सेना युद्ध के लिए तैयार हुई। इस बार 70000 सैनिकों को अहोम राज्य पर आक्रमण करने के लिए
भेजा। दोनों सेनाएँ अलबोय मैदान में आमने-सामने हुई, और एक बार भयानक युद्ध हुआ। अहोम सेना से मुगल सेना अधिक शक्तिशाली
थी।
सरायघाट संग्राम :
1670
में चक्रध्वज सिंघ की मृत्यु के बाद उदयादित्य सिंघ ने अधिकार प्राप्त किया।
पराजित मुगल अपने प्रतिकार लेने की प्रतीक्षा कर रहे थे। 1671 में उनको एक अवसर प्राप्त हुआ। अहोम राज्य के
कुछ भागों में सेना के संख्याबलों में कमी थी। वहाँ राज्य के अंदर आसनी से घुसने
का गुप्त विचार मुगलों तक पहुंचा। वे सेना के साथ युद्ध के लिए टूट पड़े। इस बार
जीतना चाहते थे, इसलिए नौसेना के लिए विशेष महत्व देकर 40 बृहद जहाजों का निर्माण हुआ। 1671 में सरायघाट में म मुग़ल तथा अहोम सेना, ब्रह्मपुत्र नदी में आमना-सामना हुआ। मुगल की
युद्ध नौकाओं की तुलना में उनकी नौकाएँ बहुत छोटी थी। इससे मुगलों का उत्साह को
बढ़ा। युद्ध के प्रारंभ में अहोम की सेना डरकर युद्ध से पीछे हटने लगी। उस समय
अहोम सेना की दुर्बलता का समाचार लचित तक पहुंचा। वह अस्वस्थ होकर भी इस बुरे
समाचार को सुनते ही वैद्यों की सलाह के विरुद्ध युद्ध में भाग लेने के लिए तैयार
हुआ।
समग्र राज्य में मुझे अकेला युद्ध करना पडे तो भी मैं पीछे नहीं
हटूंगा। उसने अपने तलवार को हाथ में लेकर सैनिकों को प्रेरणा दी। अहोम सेना नऐ
युद्धोत्साह से रणघोष करते हुए आगे बढ़ने लगी। अहोम की छोटी छोटी नावों ने
बड़ी-बड़ी नावों से कई गुना अधिक तेजी से आगे बढ़कर मुगलों के नावों को नदी में ही
किले का निर्माण किया। नदी में निर्मित किले से बारूद गोलियाँ बरसाकर जल समाधि
बनायी। इसके अलावा नदी में निर्मित कई जलकिलों से तोपों द्वारा बारूद और गोलियाँ
बरसाने लगे। ब्रह्मपुत्र नदी ही युद्धभूमि बनी। नदी के ऊपर यह युद्ध विशेष रुप से
चलने के कारण इस युद्ध को भारत में सरायघाट संग्राम के नाम से इतिहास में दर्ज
किया गया। अहोम सेना की बहादुरी से मुगल नौसेना के सहनायक मुन्नावर खाँ को गोली
मारकर हत्या कर दी। उनकी सेना के तीन प्रमुख अधिकारियों के साथ-साथ करीब 4000 सैनिक मरकर नदी में डूब गए। अंत में अहोम सेना
को युद्ध में विजय प्राप्त हुई।
अंतिम अहोम और मुगल युद्ध :
इस युद्ध के समाप्त होने के वर्ष ही लचित की अस्वस्थता के कारण
मृत्यु हुई। इस युद्ध में मुगल साम्राज्य को अहोम लोगों ने ऐसा घातक जवाब दिया कि
वे ग्यारह साल तक इस राज्य के प्रशासन की ओर हस्तक्षेप नहीं किये। पर उनके भीतर
क्रोध ऐसे दहकता रहा जो 1682 में विस्फोट हुआ। इस बार आहोम राज्य का राजा
गदाधर सिंघ था। उसके समय मुगलों की सेना ने मंसूर खाँ के नेतृत्व में आक्रमण किया, पर इस बार उनको सफलतापूर्वक हराकर, भगाने वाला गधाधर सिंह था। मुगलों के अधीन के
समस्त अहोम प्रान्तों को अपने वश में लेने के साथ-साथ 'कामरूप' को
भी उसने जीता। इसके अलावा मुगलों को ब्रह्मपुत्र के समस्त भूभागों से भगाया। मानस
नदी तक उसका साम्राज्य फैला हुआ था। इस निर्णायक युद्ध को 'इटकुली युद्ध' कहते हैं। यह अहोम और मुगलों के बीच घटित अंतिम युद्ध था।
अहोम राजाओं ने कुल छः स्थानों को अपनी राजधानी के रूप में समृद्ध
बनाया। उत्तर भारत के छोटे-छोटे राज्यों को एकत्रित करके मगध में मौर्य ने बृहत
साम्राज्य की स्थापना की थी। इसी तरह पूर्वोत्तर भारत में सैकड़ों जनजातियों के
प्रशासनों को एकत्रित करके एक बृहद शक्तिशाली साम्राज्य की स्थापना की। यह अहोम
राज्य के राजाओं की उपलब्धि है। दक्षिण में विजयनगर साम्राज्य, मराठा साम्राज्य, पश्चिमोत्तर में राजपूत साम्राज्य, कश्मीर में कार्कोर्ट साम्राज्य की तरह, भारत के समस्त पूर्वोत्तर भागों को एकत्रित
करके प्रशासन करने वाला महान साम्राज्य ही 'अहोम'। इस साम्राज्य ने किसी भी मुस्लिम बादशाहों के
सामने अपना सिर नहीं झुकाया। समग्र देश का प्रशासन करने वाले मुगलों को अहोम राजाओं
ने दशकों तक प्रबल प्रतिरोध देते आए। मुगलों को अहोम सेना ने सत्रह छोटे-बड़े
युद्धों में निरंतर रूप से हराया। 1228
में स्थापित इस साम्राज्य का 598
वर्षों तक दीर्घ प्रशासन किया 1826
में यह साम्राज्य अंत हुआ।
एक बार ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे पर मुगलों के विरुद्ध युद्ध में
लचित ने एक रात में मुगलों को खदेड़ने का प्रण किया, पर उसके मामा ने युद्ध में सेनानी होने पर भी उस युद्ध में भाग लेने
उदासी जतायी। रात के अत्यंत निर्णायक समय में वह अपने सैनिकों के साथ अपने तंबू
चला गया और निद्रा मग्न था। अपने मामा से सहायता की याचना की पर उसके उद्दंडता से
क्रोधित कर लचित अपने म्यान से तलवार निकालकर अपने मामा के सिर को काट दिया। मुझे
अपने मामा से साम्राज्य ही अधिक महत्वपूर्ण है। इस तरह उसने गरजा। लचित की स्वामी
निष्ठा को देखकर सब सेनानी चकित रह गए। उसके सहायता के लिए खड़े हुए। कहा जाता है
कि एक दिन में ही किले का निर्माण किया, उसके
अगले दिन बहुत बहादुरी से लड़कर साम्राज्य को विजय दिलाया।
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