मराठों का आगमन और विस्तार 1761 तक | Maratha History in MP

मराठों का आगमन और विस्तार 1761 तक

मराठों का आगमन और विस्तार 1761 तक | Maratha History in MP


मराठों का आगमन और विस्तार 1761 तक

  • मालवा पर प्रारंभिक आक्रमण मराठों का विजय अभियान-देवास वाजीराव प्रथम की गतिविधियां अमफेरा का युद्ध-मालवा पर मराठों का नियंत्रण-मालवा में मराठा शासन द्वारा जारी सवद-उत्तर भारत मध्यप्रदेश में मराठा आक्रमण मंबोला में पेशवा और जयसिंह की भेंट-वाजीराव द्वारा दिल्ली को प्रतिनिधि मण्डल-भोपाल का युद्ध और दोराहा सराय की संधि-बुंलेखण्ड में वाजीराव प्रथम-परिणाम-पिलाजी जाधव का बुंदेलखण्ड प्रभाव-नादिरशाह का आक्रमण-वाजीराव प्रथम की मृत्यु-पेशवा बालाजी वाजीराव की गतिविधि ायां-मराठा सत्ता का सुदृढ़ीकरण-मालवांचल में प्रशासनिक व्यवस्था-होल्कर रियासत-शिदेवंश घर और देवास की पवार रियासतें बालाजी बाजीराव के समय बुंदेलखण्ड अभियान-दिल्ली का राजनीति और मराठे-पानीपत का तृतीय युद्ध छत्रपति राजाराम (1688-1700 ई.) के समय में ही मराठे बरार, खानदेश तथा नर्मदा पारकर चुके थे। खाफी खान के अनुसार "बादशाह जब मराठों के इलाकों में उनके गगनचुम्बी दुर्गों को जीतने का अहसास कर रहा था तभी मराठे बादशाह के मुल्क को रौंद रहे थे। जिस समय औरंगजेब दक्षिण में विजय-पराजय की अधेड़बुन में व्यस्त था मराठों द्वारा उज्जयिनी से मछलीपट्नम तक आक्रमण के द्वारा बादशाह की नाक में दम कर रखा गया।

 

मालवा पर प्रारंभिक आक्रमण

 

  • अपने स्वतंत्रता संग्राम के दौर में मराठे मालवांचल की सीमा में प्रवेश कर चुके थे। यद्यपि उनके प्रथम प्रवेश को लेकर कुछ मतभेद हैं। सर जॉन मालकम जिसने लॉर्ड हेस्टिंग्ज के काल में पेशवा तथा विभिन्न रियासतदारों से 1817-18 ई. में संधियाँ हस्ताक्षरित की थीं के अनुसार मराठों के विभिन्न दल 1690-1694 ई. व 1696 ई. में मालवा क्षेत्र में घुसपैठ करते रहे थे। मालकम के मत में इस दौर में वे माण्डू की सीमा तक पहुँच गये थे।' परन्तु एक उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि संघर्ष मुगलों के लिए इतना कष्टप्रद हो चुका था कि बादशाह के सेनापति कई बार मराठों से वास्तविक संघर्ष किये बिना ही भयभीत अवस्था में उसे खबरें भेजते रहते थे। औरंगजेब के लिए हर मौसम खतरा बन चुका था। मराठे दक्खन, खानदेश, बारार, मराठवाड़ा क्षेत्र में परगने और गाँवों में टिड्डियों और चींटियों के समान  फैले हुए थे। मराठे जहाँ-जहाँ जाते अपनी जड़ें जमाने की फिक्र में छोटी-छोटी गढ़ियाँ व दुर्गनुमा किले बनवाते, शाही पद्धति अनुसार सूबेदार, कमाविसदार, राहदार जैसे पद धारण कर विशेषतया व्यापारियों से राहदारी वसूल करते व मुगलों के काफिले पर आक्रमण करते हुए मुगल सरदारों से कमाविसदार चौथाई वसूली किया करते थे। 1699 ई. में राजाराम के समय में कृष्णा सावंत ने पंद्रह हजार सैनिकों के साथ नर्मदा पार करके मालवा में प्रवेश किया व धामुनी के क्षेत्र में धूम मचा दी।

 

  • ताराबाई के कार्यकाल में परशुराम त्र्यंबक, संताजी सिलिमकर, शंकराजी तारायण, परसोजी भोंसले, राणेजी घोरपड़े, हनुमंतराव निंबालकर, नेभाजी शिंदे अपनी वीरता प्रदर्शित करते हुए मुगल प्रदेशों को रौंदते रहे जिसमें गुजरात व मध्यप्रदेश के हिस्से भी थे। दक्षिण में औरंगजेब व उसके सेनापति उलझे हुए थे। उसी का लाभ उठाते हुए अब मराठे ताप्ती व नर्मदा पार कर गुजरात व मध्यप्रदेश के मालवांचल तक फैलने लगे।

 

  • 1701-02 ई. में नेभाजी शिंदे द्वारा नर्मदा पार की गई तथा वह मालवा में प्रविष्ट हुआ। मराठे इस समय सिरोंज तक बढ़ गये। 1703 ई. में बरार के गवर्नर गाजीउद्दीन खान फिरोजजंग ने उनका पीछा किया और सिरोंज में उनकी टक्कर हुई। मराठे इसी समय बिखर गये व बुंदेलखण्ड तक फैल गये। 
  • शायस्ता खान का पुत्र उस समय मालवांचल का सूबेदार था। उसने उज्जैन में शरण ली जबकि माण्डू के फौजदार नवाजीश खान ने धार में आश्रय की खोज की उसके इस भय प्रदर्शन के कारण उसे अपने पद से हाथ धोना पड़ा। 3 अगस्त 1704 ई. को शाहजादा बेदरबख्त को मालवा का मुगल गवर्नर नियुक्त किया गया तथा खानदेश का भी अतिरिक्त भार उसे सौंपा गया व नावाजिश खान सहायक सूबेदार नियुक्त हुआ। इरादत खान माण्डू का फौजदार नियुक्त हुआ।

 

  • 1707 ई. में मुगल बादशाह औरंगजेब की मृत्यु के साथ महान मुगलों का युग समाप्त होकर भारतीय राजनीति का नया दौर आरंभ हुआ व कूटनीति, छल, ईर्ष्या, द्वेष से परिपूर्ण परवर्ति मुगलों का युग आरंभ हुआ। मराठों ने इसका पूर्ण लाभ उठाते हुए दक्षिण से उत्तर में 'स्वराज्य' को 'साम्राज्य' बनाने के लिए मुगल साम्राज्य के वटवृक्ष पर प्रहार करते हुए उसके तने को खोखला करना आरंभ किया। उनका उद्देश्य था मराठा स्वराज्य को अब साम्राज्य में परिवर्तित करना। मध्यप्रदेश का दक्षिण, पश्चिम व पूर्व भाग इस हेतु स्प्रिंग बोर्ड का काम कर सकता था।

 

मराठों का विजय अभियान 

  • अब स्वतंत्रता के लिए संघर्ष समाप्त होकर विजय अभियान जिसे 'मुलुखगिरी' कहा जाता था आरंभ हुआ। शाहू को अपनी स्थिति को दृढ़ करने हेतु 'स्वराज्य' क्षेत्र में विभिन्न शक्तियों ताराबाई, सेनापति जाधव, कान्होजी आंग्रे आदि से जो संघर्ष करना पड़ा उसमें उसे श्रीवर्धन के देशमुख बालाजी विश्वनाथ भट का महत्वपूर्ण सहयोग प्राप्त हुआ तथा इन्हीं कारणों से उसने इस चतुर कूटनीतिज्ञ को अपना प्रधानमंत्री (पेशवा) बनाया। 
  • मध्यप्रदेश का पश्चिम क्षेत्र (मालव प्रदेश) अत्यंत उपजाऊ था। "मालव भूमि गहन गंभीर, पग पग रोटी डग डग नीर। दूसरे, औरंगजेब के जीवन के अंतिम वर्षों में व उसके अवसान के पश्चात् सत्ता के लिए संघर्ष अभियान चल रहे थे, यदि मराठे दक्षिण में ही सीमित रहते तो उत्तर में क्षेत्रीय शासक-प्रशासक अपने-अपने स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लेते। फिर, मराठों के लिए शिवाजी का भारतीयों का हिंदु पदपादशाही का स्वप्न पूर्ण करने का अच्छा अवसर मिल सकता था। किन्तु यह विवादस्पद तथ्य भी है क्योंकि जब उनके हाथों सत्ता आई तो उसे राजनीतिक व व्यवहारिक आधार पर उन्होंने विस्तृत करना चाहा यद्यपि, अपने स्वधर्मियों और स्वधर्म की रक्षा उनका लक्ष्य सदैव रहा। तीसरे दक्षिण में यातायात व संवाहन की सुविधा नहीं थी। चौथे उत्तर में साम्राज्य विस्तार के लिए किसी केन्द्र की आवश्यकता भी थी अतः सैनिक व राजनीतिक नियंत्रण हेतु मराठों की अपनी बसाहट भी आवश्यक थी। आगामी वर्षों में जब बाजीराव प्रथम को 17 अप्रैल 1720 ई. को जब पेशवा का पद बहाल किया गया था तो उसने दरबार में घोषित किया था "मुगलों की सत्ता निढाल हो चुकी व उसका अंत निकट है। आज की तिथि तक शिवाजी महाराज की हिंदु-प्रभुत्व स्थापना का स्वप्न अपूर्ण है.  

  • बालाजी पंत नाना (बालाजी विश्वनाथ) ने मार्ग प्रदर्शित कर दिया है अब हमें प्रहार करना हैं। "यह प्रहार मालवांचल पर किया गया। पश्चिम मध्यप्रदेश (मालवा) के इस क्षेत्र में कोई दृढ़ इच्छाशक्ति वाला प्रशासक भी नहीं था। सवाई जयसिंह या आसफजहाँ निजामुलमुल्क जैसे गवर्नर अपने स्वतंत्र राज्य निर्मित करने के लिए प्रयत्नशील थे न कि इस क्षेत्र के संरक्षण के लिए जैसा कि सर जॉन मालकम मत था। 
  • औरंगजेब के द्वारा राजपूतों की स्वामिभक्ति के बावजूद उनके साथ जो सौतेला व्यवहार किया गया उस कारण उन्हें विश्वास हो गया था कि उन्होंने मुगल साम्राज्य के आधार को मजबूत करने हेतु अपना बलिदान व्यर्थ में दिया था। अतः गुप्त रूप से या प्रत्यक्ष रूप से जयपुर, मेवाड़ व मालवा के राजपूत राजवाड़े व ठिकानेदार मराठे के पक्ष में हो रहे न कि मुगल सत्ता के संरक्षक। क्योंकि तत्कालीन फारसी व हिंदू लेखकों के लेखन से इस तथ्य की पुष्टि होती है कि शायद ही कोई प्रबल प्रतिरोध मालवांचल में देखा गया। मुगल अधिकारी नंदलाल मंडलोई कुँवर निहालकरण और अन्य भी मराठों के पक्ष पोषक बन गये। यहाँ तक कि सवाई जयसिंह भी मराठों के प्रति उदारता बरतता था। वह मात्र कर्त्तव्य बोध से उनका विरोध कर रहा था परन्तु समय-समय पर मुगल दरबार में उनका पक्षपोषण भी करता था। "जयसिंह मराठों को गुप्त रूप से सहयोग कर रहा है जिससे शाही ताकत को ठेस पहुँचती है।" यह भी माँग करता है कि यदि उसे मालवा का गर्वनर बनाया जाए तो अपने मित्र निजाम के सहयोग से मराठों को रोक सकेगा।

 

  • अन्य महत्वपूर्ण कारण आर्थिक या धनालाभ था। क्योंकि मुगल कैद से मुक्त होने पर व शाहू के स्वराज्य के शासक बनने पर उसे धन की अत्यधिक कमी रहती थी और उसे प्राप्त करना अति आवश्यक था। उस काल के लिखे कई पत्रों में इस धनाभाव का उल्लेख मिलता है बाजीराव प्रथम के पेशवा बनने पर उसकी विस्तारवादी नीति एक अन्य महत्वपूर्ण कारण थी। 1719 ई. में बालाजी विश्वनाथ के दिल्ली प्रयाण के समय बाजीराव पिता के साथ इस क्षेत्र से गया था व यहाँ के सूबेदार व राजा रजवाड़ों की स्वतंत्र होने की गतिविधियाँ देख चुका था।

 

  • एक अन्य कारण शाहू के दरबारियों की आपसी शत्रुता मनमुटाव भी थे, विशेष रूप से प्रथम पेशवा के 1719 ई. में अवसान के पश्चात् उसके 19 वर्षीय पुत्र बाजीराव प्रथम के पेशवा बनाए जाने पर उम्रदराज सामन्त नाराज थे। अतः वह चाहता था कि मालवा विजित कर उसे स्थायी आधार बनाकर दरबार की राजनीति से दूर जा सके। अभी जब मुगल सम्राट से प्राप्त स्वराज्य में अधिकार सुरक्षित नहीं थे तो पुनश्च मुगलों से दो हाथ करना मराठों की मूर्खता होती यह मत वे प्रकट कर चुके थे।' इन परिस्थितियों में पेशवा बाजीराव अपने अधीनस्थों के सहयोग से मध्यप्रदेश (मालवांचल) की ओर अग्रसर हुआ। डॉ. एच.एम. सिन्हा का मत है कि जयसिंह हिंदुओं के उत्थान के लिए मराठों को सहयोग करना चाहता था। किन्तु जयसिंह ने कुटनीतिक उद्देश्य से नीति का अवलम्बनं किया था। मालवा के राजे-रजवाड़ों से उसके संबंध अच्छे थे।

 

  • सवाई जयसिंह को मुगल दरबार के कुचक्र व षड़यंत्रों की अच्छी जानकारी थी सो वह कई बार मराठों को सलाह व सूचना भी देता था। अतः यह विचारणीय तथ्य है कि किन कारणों से वह मराठों के प्रति सहृदय था? इसका उत्तर यह हो सकता है कि पतनोन्मुख मुगल सत्ता के विरुद्ध मराठों को कुछ धन या प्रदेश देकर मालवा के सघन प्रदेश पर वह अपना प्रभुत्व कायम रख सकता था। स्थानीय राजपूत रजवाड़ों के लिए भी जयसिंह की यह नीति लाभप्रद होती अतः उन्होंने भी मराठों का विरोध नहीं किया। शाहू को 1715 ई. में दस हजारी मन्सब दिया गया था। अतः 1717 ई. में संताजी ने मालवा पर आक्रमण किया किन्तु उसे लौटना पड़ा। संक्षेप में मराठों के आरंभिक अभियान धन की प्राप्ति के लक्ष्य से किये गये थे। 

  • 1719 ई. के पश्चात् मालवांचल विजय के लक्ष्य या उद्देश्य में अंतर दिखाई पड़ता है क्योंकि 1719 ई. में मुगल दरबार में मराठों की प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई थी।" मुगल सम्राट मुहम्मदशाह द्वारा शाहू को स्वराज्य पर अधिकार व दक्षिण के छः सूबों से सरदेशमुखी व चौथ व सुनने का अधिकार प्राप्त हुआ था।" 
  • रिचर्ड टेम्पल ने सही लिखा है कि 'बालाजी विश्वनाथ ने अपनी समस्त माँगों को बड़ी चतुरता से मनवा कर पश्चिमी भारत में एक ऐसा दस्तावेज साथ में लाया जो भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना है और इसीलिए यह मराठा राज्य के लिए एक मैग्नाकार्टा था। ग्रांट डफ ने इन दस्तावेजों का अध्ययन किया था।

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