दतिया राज्य की स्थापना |Datia State History in Hindi

दतिया राज्य की स्थापना (Datia State History in Hindi)

दतिया राज्य की स्थापना |Datia State History in Hindi

दतिया राज्य की स्थापना 

  • ओरछा के शासक वीरसिंहदेव बुन्देला ने अक्टूबर 1626 ई. में अपने बारह पुत्रों में से छठे पुत्र भगवानदास बुन्देला को बड़ौनी- दतिया की पृथक जागीर प्रदान की थी, वर्तमान में इस स्थान को छोटी बड़ौनी के नाम से जाना जाता है। दतिया के बुन्देला शासकों ने सत्ताई- कूटनीति का सहारा लेते हुए. मुगल सत्ता के संरक्षण में लगातार प्रगति करते हुए बुन्देलखण्ड के इस पश्चिमी भाग में शक्तिशाली दतिया राज्य कायम कर लिया था । दतिया के शासकों को राव उपनाम से संबोधित किये जाने की परम्परा प्रारंभ से ही रही थीअतः दतिया के प्रथम शासक भगवानदास दतिया के इतिहास में भगवानराव बुन्देला (1626-1640 ई.) नाम से प्रसिद्ध हुए थे । भगवानराव ने 1626 ई. में जहाँगीर के समय में महाबतखाँ के विद्रोह दमन में और शाहजहाँ के समय में 1628 ई. में ओरछा के अपने भाई जुझारसिंह बुन्देला के विद्रोह दमन में एवं 1630 ई. में खांजहाँ लोदी के विद्रोह दमन के मुगल अभियानों में भाग लेकर मुगल सत्ता को प्रभावित किया था । जुझारसिंह बुन्देला के दूसरे विद्रोह काल 1635-1636 ई. में भगवान राव ने भाग लिया था। इस समय मुगल सेनाओं ने ओरछा के कुछ मंदिर भी गिराए थेपर आंचलिक बुन्देला शासकों का इस गलत मुगल गतिविधि को रोकने का साहस नहीं हुआ था। सत्ताई पक्ष और सत्ता की भूख आदमी के साहस को कुंद कर देती हैयही इस समय हुआ था। 

 

शुभकरन बुन्देला 

  • भगवानराव के पुत्र शुभकरन बुन्देला दतिया के शासक के रूप में बुन्देलखण्ड का सबसे प्रभावशाली मुगल मनसबदार माना जाता था। समकालीन कवि गोरेलाल ने अपने ऐतिहासिक ग्रंथ "छत्रप्रकाश" में शुभकरन को मुगल सूबेदारों के बीच प्रमुख सेनापति के रूप में चित्रित किया है। पिता की मृत्यु के बाद कहा जाता है कि दतिया की गद्दी पर इनके एक छोटे भाई पृथ्वीराज बुन्देला ने अधिकार कर लिया था । परन्तु बाद में शाहजहाँ के हस्तक्षेप के कारण पृथ्वीराज बुन्देला को पृथक से बड़ौनी की सनद देकर संतुष्ट कर दिया गया था और इस प्रकार शुभकरन की राह का काँटा हट गया था । शुभकरन के शाहजादा औरंगजेब से अच्छे संबंध रहे थेबाद में 1658 ई. में बादशाह बनने पर औरंगजेब ने इनसे बुन्देलखण्ड में चंपतराय के दमन में योगदान से लेकर लगातार दक्षिण भारत के मुगल अभियानों में 1662-1678 ई. तक सहयोग लिया था । शुभकरन के पुत्र दलपतराव बुन्देला ने भी अपने पिता के साथ बीस - इक्कीस वर्ष की आयु से ही मुगल युद्ध अभियानों में भाग लेना प्रारंभ कर दिया था। समकालीन इतिहासकार भीमसेन सक्सेना ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ "तारीख-ए-दिलकुशा में " शुभकरन की वीरता एवं संगठन क्षमता का विवरण दिया है। दक्षिण भारत की मुगल राजधानी औरंगाबाद में शुभकरन की हवेली थीवहाँ उसके साथ स्थाई रूप से बस गए कामदारों के वंशज अभी भी वहाँ रहते हैं। शुभकरन बुन्देला का मनसब 2500 जात, 2000 हजार सवार का था। दतिया राज्य सदैव मुगल सत्ता का समर्थक रहकर उनके ही संरक्षण में पनपा था। 

 

दलपतराव बुन्देला (1678-1707) 

  • दलपतराव बुन्देलादतिया राज्य का सबसे प्रसिद्ध शासक हुआ था । उसका मूल नाम प्रतापसिंह थादलपतराव इनकी उपाधि थीपर ये इतिहास में दलपतराव नाम से ही जाना जाता है। दलपतराव ने दतिया में एक विशाल दुर्ग का निर्माण करवाया थाइसका नाम प्रतापगढ़ दुर्ग है। दतिया राज्य के अनेकों कागज पत्र उपलब्ध हुए हैजिनमें नीचे लिखा रहता है "लिखितम दलीपनगर" यह नाम दलपतराव के नाम पर ही दतिया का पड़ा था। परन्तु यह नाम प्रचलन में नहीं आ सका था और केवल कागज पत्रों तक ही सीमित रहा था। बुन्देलखण्ड अंचल में यह कहावत आज भी प्रसिद्ध है "दतिया दलपतराव की जीत सके न कोय। सन् 1665 ई. से 1705 ई. तक दक्षिण भारत के मराठा विरोधी अभियानों में दलपतराव ने औरंगजेब बादशाह के विभिन्न सेनानायकों के अधीन रहकर प्रायः "हरावल दस्ते 20 के नायक के रूप में युद्ध किया था। दक्षिण में चार दुर्गों की मजबूत श्रृंखला जिंजीगढ़ नाम से प्रसिद्ध थी। मराठा छत्रपति राजाराम के वहाँ होने की सूचना से औरंगजेब विचलित होकर वहाँ स्वयं जा पहुँचा था । इस युद्ध अभियान में मुगल सेनानायक जुल्फिकारखाँ के नेतृत्व में दलपतराव ने अपने बुन्देला साथियों के साथ जो घोर संग्राम किया थावह बुन्देलखण्ड के इतिहास का अमर पृष्ठ माना जाता है। यह युद्ध लगभग आठ वर्ष के बाद 1658 ई. में जीता जा सका था। दलपतराव को इस युद्ध में वीरता प्रदर्शित करने के फलस्वयप "जिंजीगढ़ के विजेता" का खिताब और उस दुर्ग के फाटक ईनाम के रूप में मिले थेजो आज भी दतिया दुर्ग के फूलबाग-द्वार की शोभा बड़ा रहे हैं। दलपतराव का मनसब 5000 हजारी जात, 5000 हजारी सवार का था । औरंगजेब की मृत्यु के बाद उसके पुत्रों के बीच हुए उत्तराधिकार के युद्ध में दलपतराव ने आजमखाँ का पक्ष लिया था और धौलपुर के समीप जाजऊ के रणक्षेत्र में 20 जून, 1707 ई. में वे वीरगति को प्राप्त हो गया था । 

 

रामचन्द्र बुन्देला (1707-1733 ई.) 

  • रामचन्द्र बुन्देलादलपतराव का ज्येष्ठ पुत्र थापिता के स्वर्गवासी हो जाने के बाद वह ओरछा के शासक उदोतसिंह के समर्थन से ही दतिया की गद्दी पा सका था। रामचन्द्र बुन्देला के उत्तराधिकार को उसके सौतेले भाई अनुज भारतीचन्द्र से कठिन चुनौती मिली थी। रामचन्द्र बुन्देला के अपने पिता दलपतराव से 1695-1700 ई. के दौर में गंभीर कौटुम्बिक मतभेद रहे थे। पिता-पुत्र दोनों ही उस समय बादशाह औरंगजेब की सेना के साथ दक्षिण भारत में चल रहे अनवरत मुगल अभियानों में युद्धरत थे। जयपुर के सवाई जयसिंह जो मुगल सेवा में बड़ा अधिकारी थाहिन्दू राजपूत होने के कारणइस काल के बुन्देला शासकों के स्वभाविक नेता के रूप में उभरा था। दतिया के रामचन्द्र बुन्देला उसके पूरे प्रभाव में था और उसका सवाई जयसिंह से निरंतर पत्र-व्यवहार बना रहता थावह प्रत्येक राजनीतिक कार्य में उसकी सलाह पर ही चलता था। इस समय बुन्देलखण्ड के शासक मुगलों की कमजोर होती राजनीतिक शक्ति के कारण अपनी सत्ता के स्थायित्व के लिए चिंतित होने लगे थे। सवाई जयसिंह के हस्तक्षेप के कारण बुन्देलखण्ड की स्वतंत्रता के समर्थक पन्ना के शासक छत्रसाल बुन्देला के प्रति भी रामचन्द्र बुन्देला का सहानुभूति का रुख इस दौर में रहा था। इलाहाबाद का सूबेदार मुहम्मद बंगसछत्रसाल बुन्देला को नीचा दिखाने पर तुला हुआ थामुगल वजीर कमरुद्दीन के आदेश के बाद भी दतिया के रामचन्द्र ने छत्रसाल के विरुद्ध उसकी सहायता नहीं की थी।

 

  • रामचन्द्र का एक भाई पृथ्वीसिंह बुन्देला दतिया राज्य के सेंवढ़ा में स्वतंत्र जागीरदार बन गया था वह हिन्दी साहित्य के इतिहास में "रसनिधि के नाम से विख्यात है। रामचन्द्र बुन्देला के अंतिम समय में दतिया राज्य में मराठा शक्ति का प्रवेश हो गया था। रामचन्द्र बुन्देला की मृत्यु 1733 ई. में मुगल पक्ष की ओर से गाजीपुर-असोथर के जागीरदार भगवन्तसिंह खींची से युद्ध करते समय हो गई थी । रामचन्द्र बुन्देला मुगल काल का दतिया राज्य का अंतिम शक्तिशाली शासक था ।

 दतिया राज्य का बड़ौनी और सेवढ़ा 

बड़ौनी 

  • दतिया से उत्तर-पूर्व में सात किलोमीटर दूर यह बड़ौनी कस्बा हैजिसे छोटी बड़ौनी नाम से जाना जाता है। यहाँ मध्यकालीन इमारतों के भग्न अवशेष आज भी दर्शनीय हैं। ओरछा के शासक मधुकरशाह बुन्देला ने अपने पुत्र वीरसिंहदेव बुन्देला को सन् 1592 ई. में बड़ौनी की जागीर प्रदान की थी। वीरसिंहदेव ने बड़ौनी के जागीरदार के रूप में कार्य करते हुए आसपास के मुगल-थानोंठिकानों पर आक्रमण कर भारी लूटपाट की थी। उनकी इन आक्रामक गतिविधियों से नाराज होकर अकबर बादशाह ने उन पर कई बार आक्रमण करवाए थे। परन्तु अंततोगत्वा 1602 ई. में अकबर के मंत्री अबुल फजल का वध कर वे शाहजादे सलीम बाद के बादशाह जहाँगीर को प्रभावित कर ओरछा के शासक और बुन्देलखण्ड के सर्वेसर्वा बनने में सफल हुए थे। इस घटना के आगे का विवरण पूर्व में दिया जा चुका है।

 

इस विवरण के आलोक में यह स्पष्ट है कि यह बड़ौनी कस्बा सरसब्ज रूप में दतिया-राज्य की स्थापना (1626 ई.) के पूर्व मध्यकाल में आबाद था समकालीन कवि केशव ने भी इस धारणा की पुष्टी की है,-

 

दोहा 

मधुकर साहि महि मनु राखि प्रेम कौ भौन। 

वीरसिंह की वृत्ति को बैठक दई बड़ौन ।। 

देखत दूरि भये दुख केशव सांच की बेलि बड़ौन मैं बौंड़ी। 


और आगे कवि ने लिखा है कि बादशाह की चारों ओर की भूमि वीरसिंहदेव ने जीत ली है-

 

बड़ौन बैठि के लई जलाल साहि की मही । 

सुकृति जित्ति कै गई। दिसा नई नई ।।

 

बड़ौनी में पहाड़ी श्रृंगोंनदी-नालोंझरनों कीघने वनों की एवं घेरे के रूप में आवृति बनाये प्राकृतिक परिस्थितियों की स्वाभाविक प्रस्तुति थी। इस कारण बड़ौनी कस्बा प्राचीनकाल से आबाद और सुरक्षित था। सिन्धमहुअर एवं पार्वती नदी की तलहटी का क्षेत्र होने के कारण बुन्देलखण्ड का यह पश्चिमी भाग उपजाऊ भी था। मध्यकाल में यहाँ का व्यापार-व्यवसाय उन्नत अवस्था में था। कवि के उपर्युक्त वर्णन से भी यही सब कुछ आभासित होता है।

 

जब वीरसिंहदेव ने अपने पुत्र भगवानराव को दतिया की जागीर पृथक रूप से दी थीउस समय उसने बड़ौनी क्षेत्र की राजस्व आय भी उसके साथ में उसको दी थी। इससे यह स्पष्ट होता है कि दतिया कस्बा या नगर अभी ठीक से बसा नहीं था। भगवानराव के पुत्र शुभकरन बुन्देला और पृथ्वीराज बुन्देला दोनों शाहजहाँ बादशाह के समकालीन और उनके प्रिय वफादार थे और दोनों ही मुगल सेवा में तत्पर रहते थे। इस कारण पृथ्वीराज बुन्देला को बड़ौनी की पृथक से सनद शाहजहाँ बादशाह से मिल गई थी। बड़ौनी की राजस्व आय पर फिर दतिया राज्य परिवार का अधिकार नहीं रह गया था। उत्तरप्रदेश के फतेहपुर के खजुवा नामक स्थान पर हुए उत्तराधिकार के युद्ध में पृथ्वीराज बुन्देला ने जनवरी, 1659 ई. में औरंगजेब का पक्ष लेकरदारा और शुजा से युद्ध किया थाइसमें वह वीरगति को प्राप्त हुआ था । पृथ्वीराज के बाद उसका पुत्र छत्रसाल बुन्देला बड़ौनी का जागीरदार हुआ था । बड़ौनी के इन जागीरदारों को मुगलकालीन व्यवस्था में वंशानुगत शासक माना गया था। छत्रसाल बुन्देला सन् 1660-1708 ई. के बीच बड़ौनी के जागीरदार के रूप में बने रहे थे। इनके पुत्र जयसिंह और विजयसिंह अपने वंश के काका दतिया के शासक दलपतराव बुन्देला के शासक दक्षिण के मराठा विरोधी मुगल अभियानों में भाग लेते रहे थे। बड़ौनी और दतिया का बुन्देला परिवार एक ही शाखा का थाऔर इस समय दोनों परिवारों के आपसी सम्बन्ध घनिष्ठ और मधुर थे। बड़ौनी से बुन्देलखण्ड के अनेक स्थानों में जाने का मार्ग दतिया होकर ही गया था। उल्लेखनीय है कि बड़ौनी के छत्रसाल बुन्देला ने बड़ौनी के समीप के जैनियों के धार्मिक स्थान सोनागिर के कुछ मंदिरों के निर्माण में सहयोग भी दिया था। सोनागिर का उपजाऊ क्षेत्र बड़ौनी जागीर का ही हिस्सा रहा था। छत्रसाल बुन्देला के समय बड़ौनी की वार्षिक आय एक लाख पच्चीस हजार रुपये थी। उसके पुत्र जयसिंहविजयसिंह औरंगजेब के पुत्रों के बीच हुए उत्तराधिकार के युद्ध में जून, 1707 ई. में जाजऊ के रणक्षेत्र में भाग लिया था। इस युद्ध में विजयसिंह वीरगति को प्राप्त हुआ था। इस काल में दतिया और बड़ौनी का आपसी मेल-मिलाप सद्भावना पूर्ण बना रहा था और बड़ौनी के बुन्देलामुगलों से सम्बन्ध-व्यवहार बनाए रखने में दतिया के बुन्देला परिवार का सहारा लिए हुए थे। इन परिस्थितियों में ऐसा लगता है कि बड़ौनी के पृथ्वीराज बुन्देलाछत्रसाल बुन्देला और जयसिंह - विजयसिंह को मुगलों की ओर से मनसब भी मिला हुआ था. 

 

छत्रसाल बुन्देला ने बड़ौनी जागीर का बँटवारा अपने चारों पुत्रों के बीच क्रमशः नन्द महाराजमानधाताजयसिंह और विजयसिंह के बीच कर दिया था । अन्त समय तक बड़ौनी जागीर बँटते- बँटते 12 भागों में विभाजित हो गई थी। बड़ौनी के बुन्देला परिवार और दतिया के बीच बाद के वर्षों में बड़ौनी पर अधिकार को लेकर मतभेद उभरे थे। दतिया का बुन्देला परिवार बड़ौनी को अपने आधीन मानता था। दीवान प्रतिपालसिंह ने लिखा है, "सन् 1882 ई. में एक भारी प्रश्न जो कई वर्षों से चल रहा था तय हुआ था। वह बड़ौनी जागीर के भाग राज्य में अदा करने के सम्बन्ध में था। मुख्य प्रश्न उस जागीर आदि स्थापना के विषय में था। सरकार ने ऐसा निश्चय किया था कि बड़ौनी की जागीर दिल्ली से दी गई थी और दतिया से सर्वथा स्वतंत्र रूप में स्थापित हुई थी। निदान उसके साथ महाराज का वैसा सम्बन्ध नहीं जैसा दतिया राज्य से दी हुई अन्य जागीरों से है। निदान बड़ौनी के ठाकुर केवल नैतिक रूप से दतिया के अर्न्तगत समझे जावें। 

 

सेंवढ़ा 

  • सेंवढ़ादतिया से उत्तर-पूर्व में 64 किलोमीटर दूर सिन्ध नदी के किनारे स्थित है। सिन्ध नदी के किनारे स्थित होने के कारण इसका नाम सेंधवासिहुड़ासिंधवा आदि के रूप में विभिन्न कालों में प्रचलित रहा था। अकबरकालीन व्यवस्था में आगरा सूबे की पवाया सरकार के अंतर्गत एक महाल का नाम सोहन्दी लिखा है और यहाँ ईंटों का बना हुआ एक किला बताया गया है तथा यहाँ के निवासियों  में परमार ठाकुरों की अधिकता बताई गई हैं। वर्तमान सेंवढ़ा का ही अकबरकालीन नाम सोहन्दी थाजिसका अर्थ सिन्ध नदी के किनारे का दुर्ग होना ही निकलता है। यह स्थान 14वीं सदी के . परमार ठाकुरों के प्रसिद्ध ठिकाने बेरछा के समीप था । अतः अनुमान होता है कि सोहन्दी के इस दुर्ग का निर्माण परमार ठाकुरों ने ही करवाया होगा। अकबर के समय की प्रशासनिक व्यवस्था में इस दुर्ग को महाल का दर्जा प्रदान किया गया था। वर्तमान में यह स्थान नए सेंवढ़ा से तीन-चार किलोमीटर दूर पुराने सेंवढ़ा नाम से प्रसिद्ध है और यहाँ मध्यकाल के पुराने नगर के अवशेष देखे जा सकते हैं।

 

  • सेंवढ़ा की जागीर दलपतराव ने अपने पुत्र पृथ्वीसिंह बुन्देला को प्रदान की थी। उसने ही सेंवढ़ा को नवीन तरीके से बसाकर वहाँ सिन्ध के किनारे एक दुर्ग का निर्माण करवाया थाजिसका नाम कन्नरगढ़ दुर्ग रखा गया था। सेंवढ़ा का इस समय का एक प्रचलित नाम पृथ्वीनगर भी रहा थाजो बाद में आगे केवल कागज पत्रों तक ही सीमित रहा था। पृथ्वीसिंह बुन्देला औरंगजेब के समय में मुगल मनसबदार रहे थेउनका सर्वोच्च मनसब 600 जात, 400 सवार का था। दक्षिण के मराठा-विरोधी मुगल अभियानों में पृथ्वीसिंह ने अपने पिता दलपतराव के साथ भाग लिया था। वह जाजऊ के  उत्तराधिकार के युद्ध में अपने पिता के साथ आजमशाह की ओर से लड़ा भी था। जाजऊ के युद्ध में पिता दलपतराव की, 1707 ई. में मृत्यु के बाद वह सेंवढ़ा का स्वतंत्र जागीरदार हो गया था। मुगल बादशाह जहाँदारशाह ने 1712 ई. में पृथ्वीसिंह की जागीर सेंवढ़ा को पृथक राज्य के रूप में मान्य कर दिया था। सन् 1722 ई. के आसपास पृथ्वीसिंह बुन्देला जयपुर के सवाई जयसिंह के साथ जाटों के दमन हेतु भी गया थासवाई जयसिंह इस समय आगरा का सूबेदार था। पृथ्वीसिंह के अपने समकालीन चंदेरी के शासक दुर्जनसिंह बुन्देला और ओरछा के उदोतसिंह बुन्देला से भी मधुर संबंध रहे थे। चंदेरी के दुर्जनसिंह से पृथ्वीसिंह का साहित्यिक पत्रचार भी हुआ था । वंशानुगत शासकों के पुत्रों के बीच परवर्ती मुगलकाल में लगातार बुन्देला राज्य जागीरों में बँटकर छोटे होते गए थे ।

 

  • औरंगजेब की मृत्यु के बाद के मुगल बादशाह अशक्त और कमजोर सिद्ध हुए थे । दरबारी - गुटबंदी के कारण बादशाहत करना कठित हो गया था और बादशाहत में अल्पकाल में तब्दीली होना एक आम घटना हो गई थी। ऐसे समय का लाभ उठाते हुएसेंवढ़ा के पृथ्वीसिंह बुन्देला ने एक कुशल राजनीतिक - कूटनीतिक उदाहरण प्रस्तुत करते हुए सेंवढ़ा में व्यवस्थित प्रशासकीयलोक-कल्याणकारीव्यवस्था कायम कर ली थी। वह 1758 ई. तक सेंवढ़ा में शासन करता रहा। उसके समय में मराठों ने सेंवढ़ा राज्य से चौथ वसूलना शुरू कर दिया था। पृथ्वीसिंह बुन्देला "रसनिधिउपनाम से कविताएँ भी लिखता थारीतिकालीन साहित्यकारों में उसका नाम अग्रगण्य है। । उसकी मृत्यु के बाद सेंवढ़ा पर पुनः दतिया के बुन्देला परिवार का कब्जा हो गया था। दतिया राज्य के अंग के रूप में सेंवढ़ा के इतिहास का पृथक से महत्व है क्योंकि सेंवढ़ा की सिन्ध नदी के पार का क्षेत्रदूसरे राज्यों का था और सेंवढ़ा का दुर्ग दतिया राज्य की सीमांत क्षेत्र का प्रहरी दुर्ग था .

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