शैक्षिक नियोजन एवं प्रबन्धन का अर्थ एवं आयाम |Educational Planning and Management in Hindi

शैक्षिक नियोजन एवं प्रबन्धन के आयाम

शैक्षिक नियोजन एवं प्रबन्धन  का अर्थ एवं  आयाम |Educational Planning and Management in Hindi


 

शैक्षिक नियोजन एवं प्रबन्धन के आयाम प्रस्तावना 

हमारे जीवन में प्रत्येक वह कार्य सफल व सुफल होता है जिसे हम नियोजित रूप से करते हैं। शिक्षा हमारे जीवन में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। हमारे जीवन का अधि भाग शिक्षा प्राप्त करने में ही बीतता है। शिक्षा हमारे जीवन की दिशा एवं दशा भी निर्धारित करती है । सफल जीवन के लिए शैक्षिक नियोजन अनिवार्य हो जाता है।

 

उचित प्रबन्धन के अभाव में श्रेष्ठ नियोजन भी अर्थहीन हो जाता है। किसी भी कार्य की योजना बनाने के योजना के अनुसार हमें विशेष प्रबन्ध करने होते हैं। यदि हमारी प्रबन्धन की प्रक्रिया उचित नहीं है तो निय पर किये गए हमारे सारे प्रयास निष्फल होते हैं। अतः हम कह सकते हैं कि किसी भी दूसरे क्षेत्र की तरह क्षेत्र में भी नियोजन एवं प्रबन्धन की महती आवश्यकता है।

 

आगे की पंक्तियों में हम शैक्षिक नियोजन एवं शैक्षिक प्रबन्धन के अर्थ को स्पष्ट करने का प्रयास करेंगे।

 

शैक्षिक नियोजन का अर्थ :- 

शैक्षिक नियोजन' वर्तमान शिक्षा व्यवस्था की अनिवार्य शर्त है। शैक्षिक नियोजन को समझने से पूर्व हमें नियोजन शब्द का अर्थ समझना होगा।

 

नियोजन का अर्थ:- 

नियोजन का साधारण अर्थ किसी कार्य की योजना बनाने से है। जब हम किसी कार्य को पूर्ण गम्भीरता से सम्पादित करना चाहते हैं तथा उससे श्रेष्ठ परिणामों की अपेक्षा रखते हैं तब हम इस बात की विधिवत व लिखित रूप में योजना बनाते हैं कि हम क्या कार्य करने जा रहे हैं? उक्त कार्य को करने के पीछे हमारे उद्देश्य क्या हैं? हम अपने अपेक्षित कार्य को किस प्रकार सम्पादित करेगे ? उक्त कार्य सम्पादन के लिए हमें किस प्रकार के संसाधनों की आवश्यकता होगी? इन संसाधनों की व्यवस्था कहाँ से होगी? कार्य सम्पादन में किस प्रकार की बाधाएं आ सकती हैं? इन बाधाओं का निवारण कैसे होगा? कार्य सम्पादन के क्या परिणाम प्राप्त होंगे? कार्य सम्पादन के उपरान्त भविष्य में किस प्रकार की योजना की आवश्यकता होगी? आदि प्रश्नों के विस्तृत व लिखित उत्तर देने की प्रक्रिया को ही हम "नियोजन" इस नाम से सम्बोधित कर सकते हैं।

 

शैक्षिक नियोजन का अर्थ 

जैसा कि हम ऊपर की पंक्तियों में जान चुके हैं कि किसी महान उद्देश्य की प्राप्ति के लिये विस्तृत कार्य योजना बनाने को "नियोजन करना" कहते हैं। यही कार्य जब हम शिक्षा के लिये करते हैं तब इसे "शैक्षिक नियोजनकहा जाता है।

 

भारत सहित विश्व के प्रत्येक देश में शिक्षा व्यवस्था को अत्यधिक महत्व दिया जाने लगा है। आधुनिक को हम तकनीकि रूप से जटिल समाज की संज्ञा दे सकते हैं। तकनीकि जटिलता का सही आकलन एक दुष्कर कार्य है। तथापि "भविष्य की शैक्षिक आवश्यकताओं का सही-सही आकलन करके तदनुकूल संसाधनों की व्यवस्था करते हुए, उत्तम परिणाम प्राप्त करने की प्रत्याशा में लिखित एवं व्यवस्थित कार्य योजना को हम " शैक्षिक नियोजन" इस नाम से सम्बोधित कर सकते हैं। "

 

सुप्रसिद्ध शिक्षाविद डा0 आर0पी0 भटनागर ने शैक्षिक नियोजन को परिभाषित करते हुए लिखा है- 

''शैक्षिक नियोजन को अन्य प्रशासनिक कार्यों से अलग करना कठिन है। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसका प्रयोग प्रशासक को नेता, विनिश्चयकर्ता, परिवर्तन अभिकत्र्ता आदि की भूमिका निभाते हुए करना पड़ता है। " 


शैक्षिक नियोजन के चरण:- 

शैक्षिक नियोजन को और अधिक स्पष्ट करने के लिये हमें शैक्षिक नियोजन के विविध चरणों को जान लेना चाहिये। किसी भी राष्ट्र, राज्य अथवा संस्था में शैक्षिक नियोजन करने के लिये हमें निम्नांकित चरणों का अनुगमन करना होता है। सूचनाओं का एकत्रीकरण:-किसी भी प्रकार का शैक्षिक नियोजन करने से पूर्व हमें सर्वप्रथम विविध प्रकार की सूचनाओं को एकत्र कर लेना चाहिये। इन सूचनाओं को हम शैक्षिक नियोजन करते समय उपयोग में ला सकते हैं।

 

आवश्यकता का आकलन:- 

सूचना एकत्रीकरण के पश्चात् हमें इस बात का आकलन करना चाहिए कि आखिर हमारी आवश्यकता क्या है। यह कार्य हम प्राप्त सूचनाओं को आधार बनाकर कर सकते हैं। वस्तुतः जब तक हम अपनी आवश्यकता को नहीं समझते है तब तक हमारे लिये नियोजन का कार्य कठिन होगा। आवश्यकता का आकलन हमें शैक्षिक नियोजन हेतु उपयुक्त आधार प्रदान करता है।

 

उद्देश्यों का निर्धारण:-

शैक्षिक नियोजन करने के लिये हमें प्राप्त सूचनाओं के आधार पर नियोजन के उद्देश्यों का निर्धारण भली-भांति कर लेना चाहिये। उद्देश्य निर्धारण हम जितनी अच्छी प्रकार से कर लेंगे शैक्षिक नियोजन उतना ही उत्तम होगा। क्योंकि किसी भी कार्य का वास्तविक आधार उसका उद्देश्य ही होता है। 

सम्भावित समस्याऐं :- 

उद्देश्य निर्धारण के उपरान्त हमें यह जान लेना चाहिये कि हमारे मार्ग में कौन-कौन सी बाधा आ सकती हैं तथा हम उन बाधाओं का निवारण किस प्रकार कर सकते है। सम्भावित समस्याओं तथा के समाधान के विषय में जान लेने पर हमारा नियोजन का कार्य सफलता की सम्भावनाओं से भर जाता है। 

स्रोतों की उपलब्धि: - 

नियोजन कार्य के उपरोक्त चार चरण पूरे कर लेने के पश्चात् हमारे लिये यह जानना आवश्यक हो जाता है कि उक्त कार्य योजना के लिये हमें कितने संसाधनों की आवश्यकता है। हमारे पास कितने संसाधन उपलब्ध हैं? तथा हमें बचे हुए संसाधनों की पूर्ति किस प्रकार करनी होगी? स्रोत अथवा संसाधन तीन प्रकार के हो सकते हैं-

 

1. मानव संसाधन 

2. आर्थिक संसाधन 

3. भौतिक संसाधन

 

कार्य योजना:-

शैक्षिक नियोजन का यह सबसे महत्वपूर्ण चरण है। उपरोक्त सूचनाओं के आधार पर हमें अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिये बहुत ही सावधानी पूर्वक विस्तृत कार्य योजना बनानी होती है। ध्यान रहे इस चरण में जरा सी असावधानी पूरे शैक्षिक नियोजन को पथ भ्रष्ट कर सकती है। अतः हमें पूरी सावधानी एवं तत्परता के साथ शैक्षिक नियोजन की कार्य योजना का निर्माण करना चाहिये।

 

प्रबन्धन एवं क्रियान्वयनः-

शैक्षिक नियोजन के लिये जितना महत्वपूर्ण चरण कार्य योजना बनाना है उससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण उक्त योजना का विधिवत प्रबन्धन एवं क्रियान्वयन करना है। क्रियान्वयन के समय की गई त्रुटि पूरी योजना को अस्त-व्यस्त कर सकती है। अतः हमें शैक्षिक नियोजन के इस चरण में समस्त सहभागियों को सचेत रखना चाहिये । प्रबन्धन एवं क्रियान्वयन को शैक्षिक नियोजन की आत्मा भी कहा जा सकता है।

 

पुनरीक्षण/मूल्यांकन:-

शैक्षिक नियोजन प्रक्रिया का यह अन्तिम चरण है। इस चरण में हम प्रक्रिया के समस्त चरणों का समय-समय पर पुनरीक्षण करते रहते हैं और बदली हुई परिस्थितियों में आवश्यकतानुसार परिवर्तन भी करते हैं।

 

शैक्षिक प्रबन्धन का अर्थ - 

प्रायः प्रबन्धन शब्द को अर्थशास्त्र अथवा वाणिज्य का विषय माना जाता है। किन्तु यह धारणा भ्रामक है। वस्तुतः प्रबन्धन जीवन के प्रत्येक चरण एवं प्रत्येक क्षेत्र का आवश्यक तत्व है। जीवन के जिस क्षेत्र में हम प्रबन्धन की बात करते हैं प्रबन्धन उसी क्षेत्र का विषय हो जाता है जैसे वित्त प्रबन्धन, समय प्रबन्धन, संसाधन प्रबन्धन, शैक्षिक प्रबन्धन आदि।

 

प्रबन्धन का अर्थ:-

 

जेम्स लुण्डे’” ने प्रबन्धन को परिभाषित करते हुए लिखा है

" प्रबन्धन मुख्य रूप से किसी विशिष्ट उद्देश्य के लिये प्रयासों को नियोजित, समन्वित, अभिप्रेरित एवं नियन्त्रित करने की कला है।

 

Management is principally an art of Planning, Organizing, Coordinating, Motivating, the task and efforts of other Persons to realize a specific objective.

 

प्रबन्धन की उक्त परिभाषा तथा अन्य विद्वानों के विचारों का अध्ययन करने के पश्चात् हम जान जाते हैं कि प्रबन्धन एक ऐसी कला है जिसमें वैज्ञानिक पद्धतियों का पालन करते हुए व्यक्तियों से कार्य लिया जाता है। कार्य लेने की इस प्रक्रिया में नियोजन, संगठन, प्रशासन, निर्देशन एवं नियन्त्रण सम्मिलित हैं। प्रबन्धन की प्रक्रिया में प्रबन्धक को मानवीय, भौतिक एवं आर्थिक संसाधनों का प्रबन्धन करना होता है।

 

शैक्षिक प्रबन्धन का अर्थ:- 

शिक्षा जीवन पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है। व्यक्ति के सन्दर्भ में यह प्रक्रिया व्यक्ति के जीवन पर्यन्त चलती है तथा राष्ट्र एवं समाज के सन्दर्भ में यह प्रक्रिया राष्ट्र एवं समाज के जीवन पर्यन्त चलती है। जीवन पर्यन्त चलने वाली इस प्रक्रिया की व्यवस्था करने हेतु प्रशासक के रूप में निर्णय लेने वाले एक व्यक्ति अथवा संस्था की होती है।

 

शिक्षा से सम्बन्धित विविध प्रकार के कार्यों के सम्बन्ध में निर्णय लेना, उन निर्णयों को लागू करना तथा निर्णय से प्राप्त परिणाम की जिम्मेदारी लेना शैक्षिक प्रबन्धन कहलाता है। एक अच्छे शैक्षिक प्रबन्धन के अन्तर्गत हम उपलब्ध न्यूनतम संसाधनों के उपयुक्ततम उपयोग के द्वारा अधिकतम श्रेष्ठ परिणामों को प्राप्त करने का प्रयास करते हैं। शैक्षिक प्रबन्धन की इस प्रक्रिया में मानव रूपी संसाधनों का सर्वश्रेष्ठ विकास करने का प्रयास किया जाता है।

 

शैक्षिक प्रबन्धन मूल रूप से एक उद्देश्यपूर्ण व्यावहारिक क्रिया है। इस क्रिया में हम उपलब्ध संसाधनों का सर्वश्रेष्ठ प्रयोग करके मानव को समाज की अपेक्षाओं और आवश्यकताओं के अनुकूल बनाने का प्रयास करते हैं।

 

शैक्षिक प्रबन्धन के घटक :- 

" शैक्षिक प्रबन्धन" शैक्षिक नियोजन की अपेक्षा जटिल प्रक्रिया है। वास्तव में 'शैक्षिक नियोजन' 'शैक्षिक प्रबन्धन' का एक घटक है। 'शैक्षिक प्रबन्धन' एक कार्य न होकर विविध कार्यों का जटिल समूह है। इसीलिए इसमें एक प्रबन्धक न होकर प्रबन्धन कार्य की समग्र व्यवस्था के लिये प्रबन्धकों का एक समूह सम्मिलित रूप से अपने कार्यों का निष्पादन करता है। 


शैक्षिक प्रबन्धन के विविध घटक निम्नांकित हैं- 


शैक्षिक नियोजन:- 

'शैक्षिक नियोजन' 'शैक्षिक प्रबन्धन' का सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटक है यह शैक्षिक प्रबन्धन का प्रथम चरण भी है। शैक्षिक नियोजन के बिना शैक्षिक प्रबन्धन का कार्य आरम्भ ही नहीं किया जा सकता। 

शैक्षिक प्रबन्धन के इस सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटक शैक्षिक नियोजन पर हम पीछे के पृष्ठों में पर्याप्त चर्चा कर चुके हैं। अतः यहां इस विषय पर अधिक चर्चा की आवश्यकता नहीं है।

 

शैक्षिक संगठन:- 

शैक्षिक संगठन शैक्षिक प्रबन्धन का द्वितीय चरण है। 'संगठन' शब्द को परिभाषित करते हुए इसे हम 'व्यवस्थित ढांचा' कहकर सम्बोधित कर सकते हैं। संगठन के द्वारा हम व्यवस्था को विभाजित और व्यवस्थित कर सकते हैं। 'लूथर गुलिक' संगठन को परिभाषित करते हुए लिखते हैं-

 

संगठन सत्ता का औपचारिक ढांचा है, जिसके द्वारा किसी औपचारिक लक्ष्य की प्राप्ति के लिये कार्यों को विभाजित तथा निर्धारित किया जाता है और उनका समन्वय किया जाता है।

 

शैक्षिक नियोजन को कार्यरूप में परिणित कर शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये एक संगठन की आवश्यकता होती है जिसे हम शैक्षिक संगठन कहते हैं। यद्यपि भारत का शैक्षिक संगठन बहुत पुराना है तथापि अपनी परिवर्तनशील प्रकृति के कारण यह आज भी नवीन है।

 

शैक्षिक संगठन औपचारिक व अनौपचारिक दोनों ही प्रकार का हो सकता है। औपचारिक संगठन व्यवस्थित होता है तथा सत्ता द्वारा गठित एवं मान्यता प्राप्त होता है। इसमें प्रत्येक स्तर पर अधिकार एवं उत्तरदायित्व स्पष्टतः परिभाषित होते हैं। मंत्रालय एवं सचिवालय द्वारा लिये गए निर्णयों के अनुपालन के लिये नीचे के स्तर पर अधिकारी एवं कार्यकत्र्ता उत्तरदायी होते हैं। अनौपचारिक शैक्षिक संगठन का आधार व्यक्तिगत एवं सामाजिक सम्बन्ध होते हैं। ये सम्बन्ध किसी भी प्रकार के नियमों से बंधे हुए नहीं होते। इस पर भी परस्पर अन्योन्याश्रित होने के कारण अनौपचारिक शैक्षिक संगठन शिक्षा के क्षेत्र में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करता है। अनौपचारिक संगठन अनेक प्रकार से औपचारिक शैक्षिक संगठन के कार्यों को सकारात्मक रूप से प्रभावित करता है। इसके लिये प्रायः अनौपचारिक सम्बन्धों में जुड़े हुए व्यक्ति बिना किसी फल की प्रत्याशा में अपना कार्यभार बढ़ाकर औपचारिक शैक्षिक संगठन की कार्यप्रणाली को सरल बना देते हैं।

 

शैक्षिक प्रशासन:- 

अपने शाब्दिक अर्थों में शैक्षिक प्रशासन वह व्यवस्था है जिसमें शिक्षा व्यवस्था का सुचारू संचालन किया जाता है। शैक्षिक प्रशासन को शिक्षा पर शासकीय नियन्त्रण के रूप में भी देखा जा सकता है। शिक्षा प्रशासन का सम्बन्ध शैक्षिक नीति, शैक्षिक नियोजन, शैक्षिक निर्देशन आदि से होता है। शैक्षिक प्रशासन को हम वाहय प्रशासन' एवं आन्तरिक प्रशासन' दो भागों में बांट सकते हैं। वाहय प्रशासन के अन्तर्गत शैक्षिक नियन्त्रण यथा नियम, नीति, निर्देश आदि एवं आन्तरिक प्रशासन के अन्तर्गत आन्तरिक व्यवस्था से सम्बन्धि निर्णयों को रखा जा सकता है। 


शिक्षाविद् रामबाबू गुप्त के अनुसार- 

"शैक्षिक प्रशासन का तात्पर्य शिक्षा प्रक्रिया को सुचारू रूप से चलाने वाली उस व्यवस्था से है जिसके अन्तर्गत प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से काम करने वाले व्यक्तियों, विचारों एवं प्रयासों में सामंजस्य या सम्बन्ध स्थापित किया जाता है और भौतिक तत्व एवं शिक्षा सम्बन्धी अन्य साधनों का इस प्रकार उपयोग किया जाता है कि छात्रों में मानवीय गुणों का विकास प्रभावशाली ढंग से हो। "

 

इनसाइक्लोपीडिया आफ एजुकेशन रिसर्च के अनुसार- -

 

" शैक्षिक प्रशासन वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा कार्यकर्ताओं के प्रयासों में सामंजस्य स्थापित किया जाता है तथा उपयुक्त सामग्री का मानवीय गुणों का विकास प्रभावशाली ढंग से करने के लिये प्रयोग में लाया जाता है।"

 

Educational Administration is the Process of integrating the efforts of personal and of utilizing appropriate material in such a way as to promote effectively the deployment of human qualities. It is not concerned only with the development of children and youth but also with the growth of adults and particularly with the growth of school personnel.

 

शैक्षिक निर्देशन:-

 

शैक्षिक निर्देशन भी शैक्षिक प्रबन्धन का एक महत्वपूर्ण घटक है। शैक्षिक प्रबन्धन के प्रत्येक क्षेत्र से सम्बन्धित समस्याओं के समाधान में शैक्षिक निर्देशन सहायक है। शैक्षिक प्रबन्धन के अन्तर्गत सेवाऐं सतत् रूप से चलती रहती हैं। ये सेवायें अधिकारी स्तर से न केवल प्राचार्य / प्रधानाचार्य स्तर तक, अपितु शिक्षकों के स्तर तक सर्वत्र व्याप्त हैं। अपने पाठ्यक्रम में अन्यत्र शैक्षिक निर्देशन के विषय में आप विस्तार से अध्ययन कर चुके हैं। अतः यहाँ इतना संकेत पर्याप्त है। 


शैक्षिक नियन्त्रण:- 

शैक्षिक प्रबन्धन का यह अन्तिम घटक अत्यधिक महत्वपूर्ण है। केन्द्र सरकार राज्य सरकार स्थानीय निकाय, प्रबन्धतन्त्र व समाज मिलकर शैक्षिक नियन्त्रण का कार्य करते हैं। शैक्षिक नियोजन व 'शैक्षिक नियन्त्रण’ ‘शैक्षिक प्रबन्धनके दो सिरे हैं। इनके द्वारा सम्पूर्ण शिक्षा व्यवस्था को व्यवस्थित व सन्तुलित किया जाता है। सम्पूर्ण शिक्षा व्यवस्था को अनुशासित करने का कार्य 'शैक्षिक नियन्त्रण' के माध्यम से ही किया जाता है। इस कार्य को करने में लिए शिक्षा मंत्रालय, शिक्षा निदेशालय व शिक्षा सचिवालय का सदैव सक्रिय एवं जागरूक रहना अनिवार्य है। केन्द्र व राज्य सरकारों द्वारा पारित अनेक अधिनियम भी शैक्षिक नियन्त्रण का कार्य करते हैं। शिक्षा के क्षेत्र में समय-समय पर किये जाने वाले अनुसन्धान कार्य भी शैक्षिक नियन्त्रण में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करते हैं। शिक्षा संस्थानों, केन्द्र सरकार एवं राज्य सरकार द्वारा समय- समय पर अध्यापकों को दिया जाने वाला प्रशिक्षण भी शैक्षिक नियन्त्रण' में सहायक होता है। इसी प्रकार केन्द्र व राज्य सरकार के आनुषांगिक संगठन आर्थिक अनुदान के माध्यम से शैक्षिक नियन्त्रण' का कार्य करते हैं। शैक्षिक नियन्त्रण के द्वारा कार्य संचालन में आने वाली कठिनाइयों, अपव्यय तथा असन्तुलन को दूर किया जाता है समय-समय पर केन्द्र व राज्य सरकारों द्वारा गठित विभिन्न आयोग भी 'शैक्षिक नियोजन' एवं शैक्षिक नियन्त्रणके गुरूतर दायित्व को भली-भाँति संपन्न करते हैं।

 

शैक्षिक नियोजन एवं प्रबन्धन के आयाम

 

विभिन्न विद्वानों ने शैक्षिक नियोजन एवं प्रबन्धन के आयाम निम्नवत् निर्धारित किये हैं। 

शैक्षिक विस्तार आयाम:- 

इस आयाम के अन्तर्गत हम यह जानने का प्रयास करते हैं कि शिक्षा के क्षेत्र में किसी एक लक्ष्य विशेष को पाने के लिये कितनी मात्रा में व्यवस्था की आवश्यकता है। इस अनुमान के आधार पर हम भविष्य की आवश्यकता का आकलन करते हैं। तत्पश्चात् लक्ष्य विशेष की प्राप्ति हेतु समुचित नियोजन एवं प्रबन्ध हैं। यद्यपि नियोजन एवं प्रबन्धन का यह आयाम बहुत सरल एवं स्पष्ट है तथापि इसकी अनेक सीमाऐं भी हैं। जैसे यह आयाम सम्पूर्ण शैक्षिक व्यवस्था पर कार्य न करके किसी एक लक्ष्य का आकलन करता है। इस प्रकार सम्पूर्ण शैक्षिक व्यवस्था के लिये यह एक लम्बी और उबाऊ प्रक्रिया में बदल जाता है। दूसरे यह आयाम केवल भौतिक एवं मानव संसाधनों के परिकलन व आवश्यकता के आकलन का कार्य करता है। मानव संसाधनों की सामथ्र्य एवं योग्यता में वृद्धि के मूल्यांकन का कोई पैमाना इस आयाम में उपलब्ध नहीं है।

 

जनांकिकीय प्रक्षेपण आयाम :- 

यह उपागम भावी शैक्षिक नियोजन एवं शैक्षिक प्रबन्धन के लिये जनसंख्या का अनुमान लगाने में सहायता का कार्य करता है। उदाहरणार्थ यह आयाम इस बात का अनुमान लगाता है कि भविष्य में एक निश्चित समय के बाद एक निश्चित क्षेत्र में जनसंख्या की स्थिति क्या होगी? उस जनसंख्या की शैक्षिक आवश्यकताऐं क्या-क्या होंगी? तथा उनकी आवश्यकता पूर्ती के लिये कितने अध्यापकों की आवश्यकता होगी


स्कूल मैपिंग :- 

शैक्षिक नियोजन एवं शैक्षिक प्रबन्धन का यह आयाम जनांकिकीय प्रक्षेपण आयाम का उन्नत रूप है। इस आयाम में पूर्वोक्त आयाम के अतिरिक्त विद्यालयों की भौगोलिक एवं सामाजिक स्थिति का भी आकलन किया जाता है। इस आयाम में यह प्रयास किया जाता है कि 

1. विद्यालय ऐसे स्थान पर स्थित हो जहाँ अधिकतम जनसंख्या उनसे लाभान्वित हो सके। 

2. विद्यालय ऐसे स्थान पर स्थित हो जहाँ परिवहन के अधिकतम साधन सहज ही उपलब्ध हों। 

3. विद्यालय का सामाजिक वातावरण राष्ट्र की आवश्यकताओं के अनुकूल हो

 

मानव संसाधन विकास आयाम:- 

जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है यह आयाम मानव संसाधन के विकास को अपना मुख्य लक्ष्य बनाता है। किसी भी समाज अथवा राष्ट्र का भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, नैतिक अथवा चारित्रिक विकास उस समाज अथवा राष्ट्र के मानव संसाधन का समुचित विकास करने पर निर्भर करता है। शैक्षिक नियोजन एवं शैक्षिक प्रबन्धक का यह आयाम अपेक्षाकृत अधिक महत्वपूर्ण एवं उपयोगी है। मानव संसाधन विकास उपागम के अन्तर्गत इस बात का आकलन किया जाता है कि राज्य के किस क्षेत्र में किस प्रकार के मानव संसाधन की कितनी मात्रा में आवश्यकता है। उदाहरणार्थ यह आयाम आकलन करता है कि चिकित्सा के क्षेत्र में भविष्य की आवश्यकताऐं क्यो होंगी तथा उसके लिये हमें किस-किस प्रकार के कितने चिकित्सक चाहिये। इसी प्रकार इंजीनियर, प्रबन्धक, व्यवसायी, शिक्षक, प्रशासक आदि की आवश्यकताओं का आकलन किया जाता है। तत्पश्चात् इस आयाम में शैक्षिक नियोजन के अन्तर्गत उपरोक्त मानव संसाधनों का विकास किस प्रकार से किया जाऐगा। किस-किस प्रशिक्षण के लिये कितने प्रशिक्षकों की आवश्यकता होगी; कहाँ कितने नए प्रशिक्षण संस्थान खोलने होंगे तथा कितने पुराने प्रशिक्षण संस्थानों का उन्नतिकरण करना होगा आदि बातों का नियोजन किया जाता है इसी प्रकार उत्तम नियोजन में लगने वाला समय संसाधनों की व्यवस्था तथा आर्थिक आवश्यकताओं का आकलन तथा पूर्ति की व्यवस्था भी नियोजन आयाम के अन्तगत कर ली जाती है तत्पश्चात ' मानव संसाधन विकास का प्रबन्धन आयाम' अपने कार्य को आरम्भ करता है तथा नियोजन को लागू करने से लेकर उसके प्रशासन, निर्देशन एवं उस पर नियन्त्रण करने तक की प्रक्रिया प्रबन्धन के आयाम के अन्तर्गत संपन्न की जाती है पुनश्च नियोजन एवं प्रबन्धन का यह आयाम अति महत्वपूर्ण आयाम है। 


सामाजिक माँग आयाम:- 

शैक्षिक नियोजन एवं शैक्षिक प्रबन्धन का यह उपागम मानव संसाधन विकास उपागम से भिन्न है। जहाँ एक ओर मानव संसाधन विकास उपागम में मानव संसाधन की प्रत्येक क्षेत्र में अपेक्षित माँग के अनुकूल नियोजन एवं प्रबन्धन पर बल दिया जाता है। वहीं दूसरी ओर सामाजिक मांग उपागम में शैक्षिक नियोजन एवं प्रबन्धन का वास्तविक माँग से कोई सरोकार नहीं होता।

 

इस उपागम में केवल इस बात पर ध्यान दिया जाता है कि किसी क्षेत्र विशेष की वर्तमान समय में समाज कितनी माँग कर रहा है। स्वतन्त्रता से पूर्व एवं स्वतन्त्रता के संक्रमण काल में भारतीय समाज शैक्षिक संपन्नता के प्रति जागरूक नहीं था। किन्तु स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत में शैक्षिक माँग बढी है। इस उपागम के अन्तर्गत क्षेत्र विशेष में शैक्षिक जागरूकता अथवा सामाजिक माँग को आधार बनाते हुए शैक्षिक नियोजन एवं प्रबन्धन किया जाता है। सामाजिक माँग उपागम का वास्तविक माँग से कोई सम्बन्ध न होकर सामाजिक माँग से सीधा सम्बन्ध होता है जैसे वर्तमान समय में माँग और पूर्ती की चिन्ता किये बिना प्रत्येक अभिभावक अपने पाल्य को इंजीनियर अथवा डाक्टर बनाना चाहता है। यही कारण है कि इन दोनों ही क्षेत्रों में बेरोजगारी बड़ी तेजी से फैलती जा रही है। इस उपागम के कारण मानव विकास के अनेक क्षेत्र उपेक्षित भी रह जाते हैं।

 

प्राप्ति दर अथवा विनियोग आयाम:- 

शैक्षिक नियोजन एवं प्रबन्धन का यह आयाम अपने नाम के अनुकूल शिक्षा पर किये जाने वाले व्यय को विनिवेश मानता है तथा उससे प्रतिलाभ की अपेक्षा करता है। इस आयाम के अनुसार शैक्षिक तन्त्र देश के अर्थतन्त्र को समृद्ध करने हेतु श्रेष्ठ मानव संसाधन तैयार करता है तथा अर्थतन्त्र इस मानव संसाधन का उपयोग करके राष्ट्र को समृद्ध बनाता है। इस आयाम के अनुसार 'शिक्षा' राष्ट्र का सामाजिक दायित्व न होकर राष्ट्र की समृद्धि का सशक्त साधन है। अतः इसे गौण विषयों में न रखकर सरकार के सबसे प्रमुख कर्तव्यों में रखना चाहिये।

 

यद्यपि शैक्षिक नियोजन एवं शैक्षिक प्रबन्धन का यह आयाम एक महत्वपूर्ण आयाम है तथापि शिक्षित बेरोजगारी की दशा में यह आयाम असफल हो जाता है। भारतवर्ष की वर्तमान परिस्थितियों में इस असफलता को स्पष्ट देखा जा सकता है। 10-20 लाख रूपया खर्च करने के बाद इंजीनियरिंग आदि की शिक्षा प्राप्त करके विद्यार्थी 2-3 लाख रूपये प्रति वर्ष की दर से यदि आय प्राप्त करते हैं तो यह धन लागत पर मिलने वाले ब्याज से भी कम है किन्तु वर्तमान समय में राष्ट्र के प्रत्येक कोने में शिक्षित व्यक्तियों की यह दशा देखी जा सकती है। यह आयाम शैक्षिक निवेश में प्राप्ति दर के अनुकूल परिवर्तन का समर्थन करता है जो महत्वपूर्ण होते हुए भी भारत जैसे देश में सम्भव नहीं है।

 

सामाजिक न्याय आयाम:- 

इस आयाम को हम सामाजिक विकास आयाम के नाम से भी सम्बोधित कर सकते हैं। इस आयाम में समग्र समाज के विकास के लिये शैक्षिक नियोजन एवं शैक्षिक प्रबन्धन किया जाता है। यह आयाम इस बात का ध्यान रखता है कि समाज के किसी वर्ग विशेष के साथ अन्याय न हो। भारतवर्ष में महिला तथा समाज के अन्य वर्गों का शिक्षा के क्षेत्र में अनेक प्रकार के प्रवेश व नियुक्ति के लिए आरक्षण इसी आयाम के अन्तर्गत प्रदान किया जाता है। इस आयाम के अन्तर्गत शिक्षा और समाज परस्पर अन्योन्याश्रित हो जाते हैं अर्थात सामाजिक विकास शैक्षिक विकास का कार्य करता है तथा शिक्षा समाज को विकसित करने में योगदान देती है। जैसे सामाजिक विकास का एक महत्वपूर्ण लक्ष्य सामाजिक न्याय है इसी सामाजिक न्याय को प्राप्त करने के लिये शैक्षिक नियोजन' एवं प्रबन्धन करते समय एक निश्चित आयु वर्ग के लिये निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान किया गया। मध्याहन भोजन तथा शिक्षा के क्षेत्र में चलने वाली इस प्रकार की अन्य अनेक महत्वपूर्ण योजनाऐं सामाजिक न्याय के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए चलाई जा रही है।

 

प्राथमिक स्तर पर शैक्षिक नियोजन एवं प्रबन्धन के आयाम 

पीछे के पृष्ठों में हमने शैक्षिक नियोजन एवं शैक्षिक प्रबन्धन के जिन आयामों का वर्णन किया है उनमें से कोई आयाम स्वयं में पूर्ण नहीं है। इतना ही नहीं हम निश्चित रूप से शैक्षिक नियोजन एवं प्रबन्धन के आयामों की संख्या भी निर्धारित नहीं कर सकते। पूर्व वर्णित आयामों के अतिरिक्त अन्य आयाम भी हो सकते हैं। अथवा एक से अधिक आयामों का सम्मिश्रण भी किया जा सकता है।

 

आगे के पृष्ठों में हम भारत में प्राथमिक, माध्यमिक एवं उच्च स्तर पर शैक्षिक नियोजन एवं प्रबन्धन के आयामों की संक्षिप्त चर्चा करेंगे।

 

एक ओर भारतीय शिक्षा व्यवस्था विभिन्न आक्रमणकारियों के लिये प्रयोगशाला बनी रही तो दूसरी ओर यही व्यवस्था उनके स्वार्थों की पूर्ती का साधन । हिन्दू राजाओं से लेकर अंग्रेज सरकार तक किसी ने भी भारतीय शिक्षा व्यवस्था की वास्तव में चिन्ता नहीं की; फलस्वरूप भारत में प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था भी दयनीय स्थिति में बनी रही। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारतीय संविधान के अनुच्छेद 45 में प्राथमिक शिक्षा की भावी योजना बनाते हुए सामाजिक न्याय आयाम" के अन्तर्गत 10 वर्षों में 14 वर्ष तक के बालकों के लिये निःशुल्क व अनिवार्य शिक्षा का प्रस्ताव किया तथा इसके लिये विभिन्न मदों से धन आवंटन की योजना भी बनायी। उक्त कार्य का प्रबन्धन करने के लिए 1957 में अखिल भारतीय प्रारम्भिक शिक्षा परिषद् तथा 1961 में राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद् का गठन किया गया। प्राथमिक शिक्षा की योजना एवं प्रबन्धन को समय-समय पर अवलोकित व संशोधित करने की दृष्टि से 1964 में शिक्षा आयोग का गठन तथा 1968 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति को प्रस्तुत किया गया।

 

संविधान बनने के बाद 36 वर्षों तक निरन्तर डगमगाते कदमों से चलते हुए भारत सरकार अपने पूर्व निर्धारित लक्ष्यों से बहुत दूर बनी रही। अतः योजना एवं प्रबन्धन के समस्त कार्यक्रमों को राष्ट्रीय शिक्षा नीि 1986 के द्वारा परिवर्तित कर दिया गया। उक्त नीति के अन्तर्गत प्राथमिक शिक्षा हेतु 1987-88 से आपरेशन ब्लैक बोर्डनामक अभियान आरम्भ किया गया जो प्राथमिक विद्यालयों में मानवीय व भौतिक संसाधनों की पूर्ति करने वाला था। 1994 में क्च्म्क् जिला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम भी चलाया गया। यह कार्यक्रम आरम्भ में केवल 7 राज्यों में चलाया गया था तथा यह धीरे-धीरे भारत के अनेक अन्य राज्यों में भी चलाया जाने लगा। बच्चों के लिए विद्यालयों में पुष्टाहार की योजना लागू करने के बाद भी भारत सरकार आज तक 'सामाजिक न्याय' के इस लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकी।

 

भारत के राष्ट्रपिता कहे जाने वाले तथा महात्मा की उपाधि से विभूषित शिक्षाविद् मोहनदास करमचन्द गाँधी ने अपने दीर्घकालिक अनुभव एवं अनेक प्रयोगों के पश्चात् स्वतन्त्रता प्राप्ति से पूर्व ही वर्धा शिक्षा योजना के नाम से ख्यात बुनियादी शिक्षा की योजना भारतवर्ष को प्रदान कर दी थी। किन्तु दुर्भाग्य का विषय है कि प्राथमिक शिक्षा के लिये अगणित योजनाऐं बनाकर उनमें बार-बार संशोधन करके तथा अपार धन व्यय करके भी आज तक हम अपने लक्ष्य को नहीं पा सके हैं। वस्तुतः केवल योजना बनाने अथवा धन व्यय कर देने मात्र से ही कोई लक्ष्य प्राप्त नहीं किया जा सकता। अपितु इसके लिये धुन का पक्का होना, लक्ष्य की ओर ईमानदारी से कदम बढ़ाना, समर्पण की भावना होना तथा समुचित रीति से धन का व्यय करना अनिवार्य है।

 

माध्यमिक स्तर पर शैक्षिक नियोजन एवं प्रबन्धन के आयाम 

स्वतंत्र भारत में माध्यमिक शिक्षा हेतु नियोजन का कार्य करने के लिये 1948 में तारा चन्द्र समिति' का गठन किया गया। ताराचन्द समिति ने उक्त कार्य हेतु एक आयोग गठित करने का सुझाव दिया। इसी 1948 में गठित राधाकृष्णन आयोग ने माध्यमिक शिक्षा के नियोजन एवं प्रबन्धन हेतु अनेक उपयोगी प्रदान किये।  

स्वतंत्रता से काफी पहले 1923 में ही भारत में केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा परिषद् का गठन किया जा चुका था जो स्वतंत्रता के बाद केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड कहलाया। यह बोर्ड सम्पूर्ण भारत में एक जैसी माध्यमिक शिक्षा प्रदान करता है। इसे हम शिक्षा का सामाजिक समता आयाम कह सकते हैं। माध्यमिक शिक्षा के नियोजन एवं प्रबन्धन के लिये 1952 में माध्यमिक शिक्षा आयोग तथा 1964 में कोठारी आयोग का गठन किया गया। 1968 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति के माध्यम से माध्यमिक शिक्षा का पुनः नियोजन किया गया तथा 1986 की शिक्षा नीति में इस योजना को और अधिक प्रभावशाली बनाया गया।

 

भारतवर्ष की माध्यमिक शिक्षा में 'सामाजिक न्याय आयाम' के साथ-साथ 'सामाजिक माँग आयाम' का भी ध्यान रखा गया तथा अन्य अनेक आयामों के मिश्रण के साथ भारत के किशोरों में लोकतांत्रिक नागरिकता, व्यावसायिक कुशलता एवं नेतृत्व शक्ति का विशेष विकास करते हुए बालक का सर्वांगीण विकास करना शिक्षा का उद्देश्य निर्धारित किया गया।

 

शैक्षिक प्रबन्धन के लिये 'केन्द्रीय शिक्षा संस्थान' 'केन्द्रीय पाठ्यपुस्तक अनुसंधान ब्यूरो' तथा 'राष्ट्रीय अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद्' आदि ने अपना-अपना कार्य आरम्भ कर दिया। भारत की सैन्य आवश्यकताओं की पूर्ती के लिये सैनिक स्कूल खोले गए। इसी प्रकार केन्द्रीय सरकार के कर्मचारियों पर आश्रित बच्चों को उत्तम शिक्षा प्रदान करने के लिये 'केन्द्रीय विद्यालय संगठन' की स्थापना की गई।

 

प्राथमिक शिक्षा की ही भाँति माध्यमिक शिक्षा में भी अनेक बालक विविध कारणों से अपनी पढ़ाई पूरी नहीं कर पाते। ऐसे विद्यार्थियों की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए "राष्ट्रीय मुक्त विद्यालयकी स्थापना की गई। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 के अन्तर्गत शैक्षिक नियोजन एवं प्रबन्धन" को अनेक नवीन आयाम प्रदान किये गए। माध्यमिक शिक्षा का आदर्श रूप समाज के समक्ष प्रस्तुत करने के लिये 1986 में नवोदय विद्यालयखोले गए। इन विद्यालयों में ग्रामीण पृष्ठभूमि के प्रतिभाशाली बच्चों को प्रवेश देकर उन्हें शिक्षा प्रदान की जाती है। इन आवासीय विद्यालयों के कुछ बच्चे कम से कम 1 वर्ष दूर के राज्यों में अवश्य बिताते हैं। इन विद्यालयों में शिक्षा का समस्त व्यय सरकार वहन करती है। इसे हम शैक्षिक नियोजन एवं प्रबन्धन का प्रतिभा संरक्षक एवं सामाजिक समरसता आयाम" कह सकते हैं।

 

सामाजिक न्याय आयाम के अन्तर्गत माध्यमिक स्तर पर अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति तथा अल्पसंख्यकों के लिये शिक्षा की विशेष व्यवस्था की गई है। इसी आयाम के अन्तर्गत राष्ट्रीय छात्रवृत्ति योजना भी लागू की गई है।

 

माध्यमिक शिक्षा की पाठ्यचर्या में भाषा, गणित, विज्ञान, सामाजिक विज्ञान, ललित कला, खेलकूद, शारीरिक शिक्षा आदि समस्त विषयों की शिक्षा का प्रावधान किया गया है।

 

अभी भी भारत में माध्यमिक शिक्षा को लम्बी यात्रा तय करनी है। इसे अपने उद्देश्यों को स्पष्ट करना है। पाठ्यचर्चा को और अधिक उपयुक्त बनाना है, पूरे देश की माध्यमिक शिक्षा एक जैसी की जानी है, शिक्षकों कमी को दूर करते हुए उन्हें प्रशिक्षण प्रदान करना है तथा परीक्षा एवं मूल्यांकन प्रणाली में पर्याप्त सुधार करने हैं।

 

उच्च स्तर पर शैक्षिक नियोजन एवं प्रबन्धन के आयाम 

19 विश्वविद्यालयों और 452 महाविद्यालयों के साथ स्वतन्त्र भारत में कदम रखते ही भारत सरकार ने उच्च स्तरीय शिक्षा के नियोजन एवं प्रबन्धन के लिये सुप्रसिद्ध शिक्षाविद् एवं यशस्वी शिक्षक डा0 सर्वपल्ली राधाकृष्णन की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन 1948 में किया। यह आयोग विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग के नाम से जाना जाता है। विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग ने भारत में उच्च शिक्षा के लिये अद्वितीय आयाम अपनाया। उक्त आयोग ने भारत में उच्च शिक्षा के उद्देश्य निर्धारित करते हुए भारतीय युवाओं को शारीरिक व मानसिक दृष्टि से स्वस्थ बनाने, उनके आनुवांशिक गुणों का विकास करने, उनमें दूरदर्शिता, बुद्धिमानी और विवेक का संचार करने ज्ञान का खोजी व उत्तम प्रबन्धक बनाने, तथा चारित्रिक एवं सांस्कृतिक विकास करने को प्राथमिकता प्रदान की।

 

उच्च शिक्षा के नियोजन व प्रबन्धन की निरन्तर समीक्षा के लिये भारतीय विश्वविद्यालय संघ की स्थापना की गई जहाँ वर्ष में दो बार अपनी नियमित बैठकों के माध्यम से सभी विश्वविद्यालयों के कुलपति प्रवेश, पाठ्यक्रम, परीक्षा प्रणाली अनुसंधान आदि कार्यों की निरन्तर समीक्षा करते हैं। उच्च शिक्षा में शैक्षिक नियोजन हेतु 1953 में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का गठन किया गया। उच्च शिक्षा में शैक्षिक अनुसंधान कार्य को प्रोत्साहन देने एवं सेवाकाल में उच्च शिक्षा के शिक्षकों को प्रशिक्षण देने की दृष्टि से 1961 में शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद्की स्थापना की गई।

 

1964 में गठित शिक्षा आयोग, 1968 तथा 1986 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भी उच्च शिक्षा के नियोजन एवं प्रबन्धन पर विस्तार से चर्चा की गई है। इसी प्रकार इंदिरा गाँधी मुक्त विश्वविद्यालय, तथा राजर्षि टन्डन मुक्त विश्वविद्यालय, उत्तरांचल मुक्त विश्वविद्यालय एकेडमिन स्टाफ कालेज, पाठ्यक्रम विकास केन्द्र आदि उच्च शिक्षा के नियोजन एवं प्रबन्धन में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर रहे हैं।

 

संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि भारत ने उच्च शिक्षा के क्षेत्र में किसी एक आयाम का अनुसरण करते हुए शैक्षिक नियोजन एवं प्रबन्धन नहीं किया है अपितु भारतीय उच्च शिक्षा के नियोजन एवं प्रबन्धन में पूर्व वर्णित अनेक आयामों का मिश्रित रूप अपनाया गया है।

 

उच्च शिक्षा के क्षेत्र में शैक्षिक नियोजन एवं प्रबन्धन को अभी पर्याप्त गति प्रदान करना बाकी है। भारत में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अपार संभावनाऐं है। उच्च शिक्षा के दरवाजे निजी क्षेत्रों के लिये खुल जाने के पश्चात् हमे अपेक्षाकृत अधिक सजग एवं सावधान रहने की आवश्यकता है।

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