विद्यालय प्रबन्धन एवं प्रशासन में प्रधानाध्यापक एवं शिक्षक की भूमिका । Role of headmaster and teacher in school management and administration

विद्यालय प्रबन्धन एवं प्रशासन में प्रधानाध्यापक एवं शिक्षक की भूमिका 

विद्यालय प्रबन्धन एवं प्रशासन में प्रधानाध्यापक एवं शिक्षक की भूमिका

विद्यालय प्रबन्धन प्रस्तावना 

विद्यालय शब्द स्वयं में अपने अर्थ को अभिव्यक्त कर रहा है। विद्यालय अर्थात् विद्या का घर, अर्थात् वह स्थान जहाँ पर रहकर विद्यार्थी ज्ञान का अर्जन करता है। 

यदि हम विद्यालय शब्द को परिभाषित करें तो हम कह सकते हैं कि विद्यालय वह स्थान है जहाँ विद्यार्थी अपने घर से दूर जाकर एक निश्चित स्थान पर कुशल अध्यापकों के निर्देशन में सामूहिक रूप से औपचारिक शिक्षा ग्रहण करता है"।

 

उक्त परिभाषा हमें यह बोध कराती है कि- 

विद्यालय एक संस्था है। 

इसमें विद्यार्थी एवं अध्यापकों का होना अनिवार्य है। 

इस संस्था का मुख्य कार्य अध्ययन एवं अध्यापन है। 

विद्यालय की उपरोक्त विशेषताओं के आधार पर हम कह सकते हैं कि विद्यालय नामक संस्था को प्रबन्धन की आवश्यकता अनिवार्य रूप से पड़ती है। बिना प्रबन्धन के विद्यालय का संचालन असंभव कार्य है।

 

'प्रबन्धन' शब्द का अर्थ है 'व्यवस्था करना विद्यालय के प्रबन्धन में अध्ययन, अध्यापन तथा विद्यालय संचालन से सम्बद्ध समस्त प्रकार की व्यवस्थायें सम्मिलित हैं।

 

विद्यालय सहित किसी भी प्रकार के प्रबन्धन में मानवीय क्षमताओं का उपयोग अनिवार्य है। मानवीय क्षमताओं का उपयोग किये बिना हम विद्यालय अथवा अन्य किसी भी संस्था का संचालन नहीं कर सकते। विद्यालय प्रबन्धन में अनेक महत्वपूर्ण व्यक्तियों एवं संस्थाओं का योगदान सम्मिलित है।

 

विद्यालय को शिक्षा एवं ज्ञान का मंदिर कहा जाता रहा है। विद्यालय एक ऐसी संस्था है जहाँ दक्ष शिक्षकों के मार्गदर्शन में छात्र अपनी क्षमता तथा योग्यता के अनुसार शिक्षा ग्रहण करते हैं। यह शिक्षा न सिर्फ उनका सर्वांगीण विकास करती है बल्कि उन्हें वास्तविक जीवन की कठिनाईयों का सामना करने तथा अपने भविष्य का निर्माण करने की क्षमता भी प्रदान करती है। बदलते समय के साथ विद्यालय का कार्य एवं उसके स्वरूप में बहुत अंतर आया है।

 

शिक्षा के बदलते स्वरूप को ध्यान में रखते हुए विद्यालयों में पठन-पाठन का कार्य उसके अनुरूप क्रियान्वित करने के लिये यह अत्यन्त आवश्यक हो गया है कि विद्यालय में हर स्तर पर नियुक्त व्यक्ति के कत्र्तव्यों तथा उसके कार्यों को पूर्ण रूप से समझा जाये। वैसे तो विद्यालय में कार्यरत प्रत्येक व्यक्ति का अपना महत्व होता है परन्तु, चूंकि विद्यालय का मुख्य उद्देश्य शिक्षा प्रदान करना होता है अतः शिक्षक तथा प्रधानशिक्षक जिसे हम प्रधानाध्यापक भी कहते हैं की भूमिका सबसे अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। अतः विद्यालय के उचित संचालन के लिये अध्यापक तथा प्रधानाध्यापक की भूमिका को समझना तथा परिभाषित करना सबसे महत्वपूर्ण है।


विद्यालय प्रबन्धन एवं प्रशासन में प्रधानाध्यापक एवं शिक्षक की भूमिका 

शिक्षक एवं प्रधानाध्यापक के कर्तव्यों तथा उनकी भूमिका को समझने से पहले उन्हें परिभाषित करना अत्यन्त आवश्यक है। शिक्षक एक मार्गदर्शक तथा पथ प्रदर्शक होता है जो विद्यार्थियों को हर प्रकार से शिक्षा प्रदान कर उन्हें समाज में रहने लायक एक योग्य मनुष्य बनाता है। अतः कहा जा सकता है कि शिक्षक का कार्य विद्यालय में आने वाले विद्यार्थियों को ज्ञान प्रदान करना, उन्हें उचित मार्गदर्शन देना तथा कृत्रिम परिस्थितियाँ प्रस्तुत कर उन्हें समाज में रहने योग्य बनाना होता है। प्रधानाध्यापक विद्यालय का प्रधान शिक्षक होता है। प्रधान होने के नाते उसका कार्य थोड़ा बढ़ जाता है। एक शिक्षक के कार्यों का निर्वहन तो उसे करना ही होता है उसके साथ-साथ शिक्षकों का भी नेतृत्व तथा मार्गदर्शन करना होता है। यदि शिक्षक का कार्य शिक्षा प्रदान करना है तो यह प्रधानाध्यापक का कर्तव्य होता है कि वह विद्यालय में ऐसा वातावरण उत्पन्न करे कि शिक्षण का कार्य कुशलता एवं सफलता से बिना किसी अवरोध के चलता रहे।

 

विद्यालय प्रबन्धन एवं प्रशासन में प्रधानाध्यापक की भूमिका 

मोटे तौर पर एक प्रधानाध्यापक की भूमिका को ऊपर वर्णित तथा परिभाषित किया जा चुका है। प्रधानाध्यापक एक शिक्षक तो होता ही है साथ-साथ वह विद्यालय का संचालक, शिक्षकों का मुखिया, नेता तथा निर्देशक भी होता है। विद्यालय में शिक्षक एवं प्रधानाध्यापक की वही भूमिका होती है जो मंच पर कलाकारों तथा निर्देशक की होती है।

 

प्रधानाध्यापक की भूमिका को लेकर अनेक शिक्षाविदों एवं विचारकों ने अपने विचार प्रस्तुत किये हैं-

 

पी०सी०रैन के अनुसार जो घड़ी का मुख्य स्प्रिंग, मशीन का मुख्य पहिया या भाप के जहाज का इंजन होता है, उसी प्रकार स्कूल के लिये हैडमास्टर होता है।

 

STO जसवन्त सिंह का विचार है, "हैडमास्टर या स्कूल का प्रिंसिपल शिक्षा प्रणाली की धुरी होते हैं। उसके प्रभाववश शिक्षक नेता होने की योग्यता एवं निपुणता पर ही स्कूल की सफलता निर्भर है। "

 

केन्द्रीय सलाहकार शिक्षा बोर्ड के अनुसार, कोई भी शिक्षा सुधार स्कीम तब तक आवश्यक परिणाम नहीं दे सकती है, जब तक उसको दूरदर्शिता तथा निपुणता से लागू नहीं किया जाता।

 

विभिन्न विद्वानों के उपरोक्त कथन यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हैं कि विद्यालय में प्रधानाध्यापक की भूमिका केन्द्रीय होती है। यदि हम विद्यालय में, विद्यालय प्रबन्धन एवं प्रशासन में प्रधानाध्यापक की भूमिका को व्यवस्थित रूप से अभिव्यक्त करना चाहें तो प्रधानाध्यापक की भूमिका को निम्नलिखित रूप से वर्गीकृत कर सकते हैं-

 

  • शिक्षक के रूप में 
  • नियोजक के रूप में। 
  • पर्यवेक्षण कार्य में। 
  • नेतृत्व कार्य में 
  • संगठन कार्य में। 
  • मानवीय सम्बन्धों की स्थापना में। 
  • निर्देशन कार्य में । 
  • मूल्यांकन कार्य में। अनुशासन स्थापना में। 
  • निर्णय लेने में। 
  • आर्थिक प्रबन्धन में।

 

शिक्षक के रूप में प्रधानाध्यापक की भूमिका:- प्रधानाध्यापक को एक कुशल शिक्षक होना चाहिये। यह उसके कत्र्तव्यों में सबसे प्रमुख एवं मूलभू उत्तरदायित्व है । उसे एक आदर्श शिक्षक का उदाहरण अन्य शिक्षकों के समक्ष प्रस्तुत करना चाहिए एवं ऐसा आचरण करने के लिये उन्हें प्रेरित करना चाहिए। उसे अपने विषय का अच्छा ज्ञान होना चाहिये। तथा समय पड़ने पर कक्षा में जा कर शिक्षण का कार्य करने के लिये तत्पर रहना चाहिये। सामान्यतः भी उसे शिक्षक की भूमिका का निर्वहन करते हुए छात्रों को समय-समय पर उचित शिक्षा तथा मार्गदर्शन प्रदान करना चाहिये।

 

नियोजक के रूप में प्रधानाध्यापक की भूमिका:- 

प्रधानाध्यापक को एक अच्छा संचालक भी होना चाहिये। अच्छा संचालक होने के लिये उसे अच्छा नियोजक बनना होता है। नियोजन, संस्थान के संचालन का अभिन्न अंग है। बिना उचित नियोजन के कुशल संचालन की बात व्यर्थ होती है। नियोजन के अन्तर्गत प्रधानाध्यापक के निम्नलिखित उत्तरदायित्व होते हैं-

 

विद्यालय में स्थूल संसाधनों की आवश्यकतानुसार उपलब्धता का ध्यान रखना। 

प्रवेश सम्बन्धी नियमावली तथा प्रवेश प्रक्रिया की रूपरेखा तैयार करना। 

विद्यालय की आवश्यकतानुसार पाठ्यक्रम निर्धारण तथा उसके आधार पर पुस्तकों का चयन करना। 

विद्यालय में खेल-कूद तथा अन्य पाठ्य सहगामी क्रियाओं का आयोजन एवं संचालन करना। 

शिक्षकों का चयन तथा उनके मध्य कार्य का उचित विभाजन करना। 

पाठ्यक्रम के अनुसार सभी कक्षाओं में प्रभावी रूप से शिक्षण कार्य सम्पन्न किया जाये इस हेतु शिक्षण नियोजन करना । 

परीक्षण एवं मूल्यांकन आयोजित करने हेतु सारिणी तैयार करना । 

विद्यालय की शैक्षिक एवं अन्य गतिविधियों को उचित एवं सुनियोजित रूप से पूर्ण कराने हेतु विद्यालय का वार्षिक कैलेण्डर तैयार करना । 


पर्यवेक्षक के रूप में प्रधानाध्यापक की भूमिका - 

संचालक को उचित नियोजन के साथ-साथ कुशल एवं सही पर्यवेक्षण का ज्ञान होना भी आवश्यक है। किसी भी संस्थान के सफल संचालन के लिये जितना आवश्यक अनेक योजनाओं को नियोजित रूप से तैयार करना हैं, उतना ही आवश्यक उन योजनाओं के क्रियान्वयन को सुनिश्चित करने के लिये समय-समय पर पर्यवेक्षण करना होता हैं पर्यवेक्षक के रूप में प्रधानाध्यापक को निम्नलिखित कार्य करने होते हैं:-

 

1. पर्यवेक्षक के रूप में प्रधानाध्यापक का सबसे महत्वपूर्ण कार्य विद्यालय में हो रहे शिक्षण कार्य पर्यवेक्षण करना होता है। समय सारिणी के अनुसार कक्षाएँ संचालित हो रही हैं या नहीं, शिक्षकों की गलतियाँ जानकर उन्हें दूर करना, उनकी समस्याओं का निवारण करना, शिक्षण सामग्री उपयुक्त मात्रा में प्रत्येक कक्षा एवं विषय के लिये उपलब्ध कराना, शिक्षकों के कार्य की गुणवत्ता को बढ़ाने हेतु समय- समय पर उन्हें उचित परामर्श तथा मार्गदर्शन देना यह सभी कार्य प्रधानाध्यापक के कत्र्तव्यों के अन्तर्गत आते हैं।

 

2. प्रधानाध्यापक का कार्य सिर्फ शिक्षण कार्य तक ही सीमित नहीं होता अपितु उसे कार्यालय सम्बन्धी कार्यों का भी पर्यवेक्षण करना होता है। कार्यालय के शैक्षिक, आर्थिक तथा अन्य प्रशासनिक आलेखों पर नजर रखना तथा उनकी देखरेख रखना भी प्रधानाध्यापक का कर्तव्य होता है।

 

3. इसके अतिरिक्त खेल-कूद, सामाजिक एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम, कैन्टीन, हास्टल, विद्यालय का भवन तथा चल-अचल सम्पत्ति की देखरेख तथा पर्यवेक्षण आदि करना भी प्रधानाध्यापक का ही कार्य होता है। 


नेता के रूप में प्रधानाध्यापक की भूमिका:- 

यह वह कर्तव्य है जो प्रधानाध्यापक के कार्यों का मुख्य एवं अभिन्न अंग होता है। प्रधान अध्यापक यह संज्ञा स्वतः ही उसे एक मुखिया, एक नेता की भूमिका में ला कर खड़ा कर देती है । प्रधानाध्यापक न सिर्फ शिक्षकों का मुखिया होता है बल्कि वह पूरे शिक्षण संस्थान का नेता होता है। विद्यालय से सम्बन्धित प्रत्येक गतिविधि चाहे वह शिक्षण से सम्बन्धित हो या अन्य किसी भी प्रकार की पाठ्य सहगामी गतिविधि हो का नेतृत्व करना प्रधानाध्यापक का कर्तव्य होता है। यह उसकी कार्य-कुशलता एवं योग्यता पर निर्भर करता है कि वह अपने नेतृत्व में विद्यालय का संचालन कितनी कुशलता के साथ कर सकता है, तथा विद्यालय के उद्देश्यों को कितनी सफलतापूर्वक पूर्ण कर पाता है।

 

संगठन में प्रधानाध्यापक की भूमिका:-

 

प्रधानाध्यापक की भूमिका में विद्यालय संगठन का कार्य भी सम्मिलित किया जाता है। संगठन के अन्तर्गत प्रधानाध्यापक के कार्यों को निम्नलिखित रूप से परिभाषित किया जा सकता है-

 

  प्रधानाध्यापक को यह सुनिश्चित करना आवश्यक होता है कि विद्यालय के स्थूल तथा मानव संसाधनों को संयुक्त रूप से इस प्रकार उपयोग में लाया जाये कि संस्थान का श्रेष्ठतम विकास हो सके।

 

सभी कर्मचारियों तथा शिक्षकों के मध्य उचित सामन्जस्य तथा सम्प्रेषण स्थापित कर मानव संसाधन का उपयुक्त प्रयोग सुनिश्चित करना भी प्रधानाध्यापक का कार्य होता है।

 

प्रधानाध्यापक उचित मार्गदर्शन तथा प्रोत्साहन प्रदान कर प्रत्येक व्यक्ति की योग्यता के अनुसार कार्य का विभाजन करता है, तथा उन्हें विद्यालय के संचालन में अपना श्रेष्ठतम् योगदान देने हेतु प्रेरित करता है।

 

वह मानव एवं स्थूल संसाधनों का उत्कृष्ट संगठन कर कार्यकुशलता बढ़ाने तथा कार्य को और प्रभावी बनाने के लिये कार्यरत रहता है।

 

संस्थान के भीतर तथा बाहर, उचित प्रोत्साहन, प्रगाढ़ता तथा माधुर्य सुनिश्चित करना भी प्रधानाध्यापक का कर्तव्य होता है।

 

प्रधानाध्यापक को न सिर्फ अपने अधीनस्थों से कुशलतापूर्वक कार्य लेना होता है बल्कि यह भी सुनिश्चित करना होता है कि विद्यालय संगठन से वह प्रसन्न भी रहें ताकि किसी भी अप्रिय स्थिति या समस्या की सम्भावना उत्पन्न न हो सके।

 

इन सभी बातों को ध्यान में रखकर वह सभी के कर्तव्यों को परिभाषित करता है तथा सभी के मध्य कार्य का विभाजन करता है।

 

मानवीय सम्बन्धों की स्थापना में प्रधानाध्यापक की भूमिका:- 

प्रधानाध्यापक विद्यालय की सभी गतिविधियों की धुरी होता है। उसे विद्यालय से सम्बन्धित प्रत्येक वर्ग, चाहे वह कर्मचारी वर्ग हो, शिक्षक वर्ग हो, छात्र हों या प्रबन्धन या अभिभावक वर्ग के मध्य सामंजस्य बना कर रखना होता है। इस सन्दर्भ में प्रधानाध्यापक की भूमिका को निम्नलिखित रूप से वर्णित किया जा सकता है -

 

वह वैसे तो शिक्षक वर्ग का मुखिया होता है परन्तु सभी शिक्षकों से अधीनस्थों की भांति नहीं अपितु मित्रों तथा सहयोगियों की भाँति व्यवहार करना होता है ताकि उन्हें उचित प्रोत्साहन मिले तथा शिक्षण के साथ-साथ संचालन के कार्य में वे लोग रूचि भी लें तथा अपना कत्र्तव्य भी समझें। सभी शिक्षकों को अपनी बात कहने, सुझाव या प्रस्ताव देने तथा अपनी समस्या व्यक्त करने की आजादी प्रधानाध्यापक द्वारा मिलती है तभी उसे इनका पूर्ण सहयोग प्राप्त होता है।

 

शिक्षक वर्ग के अतिरिक्त छात्रों से भी सम्पर्क तथा सम्बन्ध स्थापित करना प्रधानाध्यापक का कत्र्तव्य होता है। इस कार्य के लिये वह कभी कक्षाओं में जाकर, या छात्र संघ के माध्यम से छात्रों से सम्पर्क स्थापित करता है। इसके अतिरिक्त छात्रों को भी किसी समस्या के निवारण के लिये प्रधानाध्यापक से सम्पर्क स्थापित करने की आजादी दी जानी चाहिये।

 

विद्यालय के सफल संचालन के लिये प्रधानाध्यापक को अभिभावक वर्ग के सहयोग की भी आवश्यकता होती है, जिसके लिये उनसे सम्पर्क स्थापित करना भी आवश्यक है। अतः उसे समय-समय पर अभिभावकों की मीटिंग की व्यवस्था करनी होती है, तथा समय पर या विशेष परिस्थितियों में निजी रूप से भी उनसे सम्पर्क रखने की आवश्यकता होती है।

 

इसके अलावा प्रधानाध्यापक को शिक्षा बोर्ड तथा प्रबन्धन समिति से भी सम्पर्क बनाये रखना होता है।

 

निर्देशन में प्रधानाध्यापक की भूमिका:- 

विद्यालय का मुख्य अधिकारी होने के नाते सभी शिक्षकों तथा अन्य कर्मचारियों को समय- समय पर उचित निर्देशन देना प्रधानाध्यापक का कार्य होता है जिसका उल्लेख उसके पर्यवेक्षण तथा संगठन के कार्यों में किया जा चुका है। शिक्षा के बदलते स्वरूप के साथ आज शिक्षा केवल ज्ञान प्रदान करने का नाम नहीं रह गई है, अपितु यह शिक्षण संस्थान का कत्र्तव्य बनता जा रहा है कि वह छात्रों को न केवल उच्च शिक्षा के लिये विषयों के चयन में सहायता तथा मार्गदर्शन प्रदान करे बल्कि उनकी अभिरूचियों तथा योग्यता को समझकर उनके लिये उचित व्यवसाय का चयन करने में भी उनको सहायता प्रदान करे। इसके लिये विद्यालय में निर्देशन कार्यक्रम भी आयोजित किये जाते हैं। चूंकि यह विद्यालय का तथा शिक्षा का अंग है, प्रधानाध्यापक को ही इसके संचालन का भार उठाना होता है। अतः प्रधानाध्यापक के निर्देशन कार्यक्रम निर्वाह में प्रमुख उत्तरदायित्व निम्नलिखित हैं-

 

निर्देशन कार्यक्रम हेतु उचित भवन, धन तथा समय की व्यवस्था करना। 

छात्रों तथा अभिभावकों को निर्देशन सेवाओं के सम्बन्ध में जानकारी प्रदान करना। 

विद्यालय के शिक्षकों को, निर्देशन का महत्व, समस्याएँ तथा उद्देश्यों को समझने में सहयोग प्रदान करना। 

विद्यालय में योग्य एवं कुशल निर्देशन कार्यकर्ताओं की नियुक्ति, उनके मध्य कार्य का वितरण, उन्हें इस कार्य को सम्पन्न करने हेतु समय-समय पर उचित प्रशिक्षण प्रदान करने की व्यवस्था करना, विद्यालय में निर्देश समिति का गठन करना।

 

इसके अतिरिक्त इस कार्यक्रम का नेतृत्व, संचालन तथा कार्यक्रम की प्रभावशीलता का मूल्यांकन करना भी प्रधानाध्यापक की भूमिका में सम्मिलित होता है। 


मूल्यांकन कार्य में प्रधानाध्यापक की भूमिका :- 

मूल्यांकन, प्रशासन का एक अभिन्न अंग होता है। किसी भी संस्थान के प्रभावी रूप से कार्य करने को सुनिश्चित करने के लिये न केवल कुशल नियोजन, संगठन तथा निर्देशन की आवश्यकता होती है बल्कि उचित नियंत्रण की भी आवश्यकता होती है। संस्थान की गतिविधियों पर नियंत्रण रखने तथा उसकी कार्यकुशलता तथा प्रभावशीलता को बनाये रखने के लिये मूल्यांकन अत्यंत आवश्यक होता है।

 

मूल्यांकन को भी अनेक स्तरों पर विभाजित किया जा सकता है। शिक्षण स्तर पर छात्रों का मूल्यांकन तथा प्रशासनिक स्तर पर अन्य कर्मचारियों, शिक्षकों तथा विद्यालय में गठित अनेक समितियों का मूल्यांकन । शिक्षकों, कर्मचारियों तथा अन्य समितियों के मूल्यांकन के लिये प्रधानाध्यापक पर्यवेक्षण की सहायता लेता है, परन्तु छात्रों के शैक्षिक मूल्यांकन के लिये उसे विद्यालय में मासिक, अर्ध-वार्षिक तथा वार्षिक परीक्षाओं का आयोजन तथा संचालन करना होता है। इसके अतिरिक्त उनके व्यक्तित्व विकास का मूल्यांकन करने के लिये उसे समय-समय पर विद्यालय में अनेक प्रकार की पाठ्य सहगामी गतिविधियों, प्रतियोगिताओं तथा कार्यशालाओं का भी आयोजन करना होता है।

 

अनुशासन स्थापना में प्रधानाध्यापक की भूमिका:- 

यह तो हम सभी को ज्ञात है कि विद्यालय में उचित शिक्षण वातावरण उपलब्ध कराना प्रधानाध्यापक का कत्र्तव्य होता है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये उचित अनुशासन की आवश्यकता होती है। विद्यालय में अनुशासित वातावरण बनाये रखने का कार्य भी प्रधानाध्यापक का ही होता है। इसके लिये वह कभी समझौते की तो कभी दण्डात्मक नीति अपनाता है। विद्यालय में अनुशासन सुनिश्चित करने के लिये प्रधानाध्यापक निम्नलिखित कार्य करने पड़ते हैं-

 

विद्यालय में अनुशासन समिति का गठन, उसका संचालन तथा समय-समय पर उसके कार्ये का मूल्यांकन करना। 

छात्रों, शिक्षकों तथा कर्मचारियों से निरन्तर सम्पर्क में रहकर उनकी समस्याओं का ज्ञान रखना तथा सम्भव समाधान खोजना ताकि सभी को जहाँ तक सम्भव हो संतुष्ट रखा जा सके। 

छात्र संघ, शिक्षक संघ तथा कर्मचारियों से सामन्जस्य बनाये रखना। 

विद्यालय में अराजक तत्वों के उदय को रोकने के लिये निदानात्मक नीति का पालन करना। 

किसी अप्रिय घटना के घटित होने पर स्थिति का उचित अवलोकन कर उचित कार्यवाही करना। 

समय आने पर अनुशासनहीन तत्वों के विरूद्ध सख्त एवं दण्डात्मक कार्यवाही करना भी प्रधानाध्यापक का कर्तव्य होता है।

 

निर्णय लेने में प्रधानाध्यापक की भूमिका:- 

प्रधानाध्यापक की भूमिका एक नेता की अथवा एक मुखिया की होती है। एक नेता होने के नाते यह उसका उत्तरदायित्व होता है कि वह विद्यालय को अपने नेतृत्व में श्रेष्ठता तथा प्रगति के मार्ग पर अग्रसर करे। इसके लिये उसे समय-समय पर आवश्यकतानुसार उचित निर्णय लेने होते हैं। विद्यालय से सम्बन्धित सभी क्रियाकलापों चाहें वह शिक्षण सम्बन्धी हो या प्रशासन सम्बन्धी, के लिये प्रधानाध्यापक को छोटे-बड़े निर्णय लेने होते हैं।

 

नियोजन के स्तर पर कक्षाओं का विभाजन, पाठ्यक्रम, पुस्तकों, शिक्षकों के मध्य कार्य का विभाजन आदि, इसके अतिरिक्त विद्यालय के क्रियाकलापों से सम्बन्धित सारिणी, कर्मचारियों का अवकाश, वेतन आदि छोटी-छोटी बातों पर प्रधानाध्यापक को निर्णय लेना होता है।

 

संकट की स्थिति में, या किसी समस्या के उत्पन्न हो जाने पर प्रधानाध्यापक में निर्णय शक्ति का होना और भी आवश्यक हो जाता है। इसके लिये आवश्यक है कि वह सर्वप्रथम समस्या को समझे, उसके पश्चात उसके निवारण हेतु अनेक प्रकार के सुझावों पर विचार करे, स्थिति का अवलोकन कर जो उपाय सबसे उचित हो उसका प्रयोग कर शीघ्र समस्या का समाधान करे।

 

निर्णय लेना, एक प्रशासक के रूप में प्रधानाध्यापक का एक महत्वपूर्ण कत्र्तव्य होता है। विद्यालय की प्रतिष्ठा तथा विकास, छात्रों का भविष्य तथा उनका विकास सभी कुछ प्रधानाध्यापक की कुशल पर निर्भर करता है। निर्णय क्षमता

 

आर्थिक प्रबन्धन में प्रधानाध्यापक की भूमिका:- 

किसी भी संस्थान के कुशल एवं सफल संचालन के लिये जितनी आवश्यकता कुशल प्रशासन की होती है उतनी ही आवश्यकता आर्थिक संसाधनों की भी होती है। वैसे तो विद्यालय के पास आय के अपने साधन होते हैं जैसे कि छात्रों की फीस, शिक्षा बोर्ड से प्राप्त अनुदान आदि परन्तु इस आय को उचित रूप से छात्रों की, शिक्षा की तथा विद्यालय की प्रगति तथा विकास में लगाना तथा इन आर्थिक संसाधनों का लेखा- जोखा रखना यह भी प्रधानाध्यापक के कत्र्तव्यों में से एक है। आर्थिक प्रबन्धन के लिये प्रधानाध्यापक को निम्न कार्यों की पूर्ति करनी होती है।

 

विद्यालय के कार्यों तथा गतिविधियों के संचालन में कोई रूकावट न आये इसके लिये प्रधानाध्यापक को विद्यालय की आय के साधन बनाने होते हैं। परन्तु अन्य संस्थाओं को विद्यालय के लिये दान करने हेतु प्रेरित करना, विद्यालय की आवश्यकतानुसार बोर्ड से अनुदान की मांग करना, प्रबन्धन समिति को विद्यालय की आवश्यकता से अवगत करना; यह सब प्रधानाध्यापक के ही उत्तरदायित्व होते हैं।

 

आर्थिक संसाधनों को किस प्रकार उचित तथा उपयुक्त रूप से प्रयोग करना है ताकि उसक उपयोग विद्यालय के श्रेष्ठतम हित के लिये किया जा सके इसका निर्णय भी प्रधानाध्यापक को ही करना होता है। इसके लिये प्रधानाध्यापक को एक कुशल आर्थिक नियोजक होना अत्यन्त आवश्यक है।

 

प्रधानाध्यापक को विद्यालय की आय तथा व्यय का अभिलेख भी रखना होता है। इसके अन्तर्गत विद्यालय की आय तथा किन-किन क्रियाओं में कितना व्यय हुआ इस सब का विवरण उसे रखना होता है।

 

विद्यालय की अनेक समितियों तथा विभागों को दिया गया धन उचित रूप से प्रयोग किया जा रहा अथव नहीं इसका भी निरीक्षण प्रधानाध्यापक को करना होता है।

 

समय-समय पर विद्यालय का आडिट करवाना भी उसी के कत्र्तव्यों के अन्तर्गत आता है तथा वह बोर्ड तथा प्रबन्धन समिति के प्रति जवाबदेह भी होता है।

 

इन सभी कत्र्तव्यों के उचित निर्वहन के लिये प्रधानाध्यापक को एक प्रभावी व्यक्तित्व का स्वामी होना चाहिये। आइये विद्यालय प्रबन्धन एवं प्रशासन में प्रधानाध्यापक की जिन भूमिकाओं का वर्णन हम ऊपर की पंक्तियों में विस्तार से कर चुके हैं उन समस्त भूमिकाओं पर पुनः एक दृष्टि डाल लें।

 

किसी भी विद्यालय के कुशल संचालन के लिये- 

(1) सर्वप्रथम प्रधानाध्यापक को एक अच्छा शिक्षक होना चाहिये। एक अच्छा शिक्षक ही उचित शिक्षा के महत्व को तथा छात्र हित को भली-भाँति समझ सकता है। 

(2) उसे एक अच्छा तथा कुशल नेता होना चाहिये। विद्यालय की सफलता तथा प्रगति पूरी तरह से प्रधानाध्यापक के कुशल नेतृत्व पर निर्भर करती है। 

(3) प्रधानाध्यापक को एक उच्च योग्यताओं वाला व्यक्ति होना चाहिय । उसकी योग्यता, विचार, उत्साह तथा व्यक्तित्व ही विद्यालय की पहचान होती है। सूझ-बूझ, शिक्षा-सम्बन्धी।  

(4) प्रधानाध्यापक को एक कुशल मार्गदर्शक भी होना चाहिये। उसके कुशल मार्गदर्शन पर ही विद्यालय की प्रगति निर्भर है। 

(5) प्रधानाध्यापक के पास अपने कार्यों तथा कत्र्तव्यों को कुशलता से पूर्ण करने हेतु व्यावसायिक क्ष भी होना चाहिये। 

( 6 ) प्रधानाध्यापक एक उच्च कोटि का विद्वान होना चाहिए। जो अपनी विद्वता तथा ज्ञान के माध्यम से विद्यालय का श्रेष्ठतम् संचालन करता है, तथा कुशल प्रशासन करता है। 

(7) प्रधानाध्यापक के पास एक सुदृढ़ तथा प्रगतिशील शिक्षा दर्शन भी होना चाहिये ताकि वह विद्यालय में श्रेष्ठ शिक्षा छात्रों के लिये उपलब्ध करवा सके।

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