शैक्षिक नियोजन के उपागम |Approaches to educational planning

शैक्षिक नियोजन के उपागम (Approaches to educational planning)

शैक्षिक नियोजन के उपागम |Approaches to educational planning



शैक्षिक नियोजन के उपागम 

नियोजन विशिष्ट लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु की जाने वाली क्रियाओं की रूपरेखा है। इसमें उद्देश्यों का निर्धारण कर विकल्पो की खोज की जाती हैतत्पश्चात् उपयुक्त विकल्पों का चयन कर उनको लागू कर अभीष्ठ परिणाम प्राप्त करने की आशा की जाती है। मूल्यांकन के माध्यम से विकल्पों की उपयुक्तता भी ज्ञात की जाती है साथ ही यह भी ज्ञात किया जाता है कि लक्ष्यों की प्राप्ति कहाँ तक हो पायी हैं और उनमें क्या कमियाँ रह गयी हैं।

 

शैक्षिक नियोजन के माध्यम से शिक्षा के क्षेत्र से जुड़ी समस्याओं का ज्ञान प्राप्त कर उनमें अपनाये जाने वाले आवश्यक समाधानों और उनको लागू करने के लिए अपनायी जाने वाली क्रिया- प्रणालियों का ज्ञान प्राप्त होता है। वह विशिष्ट बिन्दू जो केन्द्रीय लक्ष्य का निर्धारण करता हैनियोजन का सुधार हेतु उपागम कहलाता है। 


शैक्षिक नियोजन के क्षेत्र में अनेक उपागमों का विकास हुआ हैजिनमे से कुछ प्रमुख उपागम निम्नलिखित हैं-

 

1. अन्तः शैक्षिक विस्तार उपागम ( Intra-educational extrapolation approach) 

2. जनांकिकीय प्रक्षेपण उपागम (Demographic Projection approach) 

3. मानव शक्ति या मानव संसाधन विकास उपागम (Man-Power or Human Resource Development Approach) 

4. सामाजिक माँग उपागम (Social Demand Approach) 

5. लागत लाभ विश्लेषण उपागम (Cost-benefit analysis approach) 

6. सामाजिक न्याय उपागम (Social Justice approach)

 

1. अन्तः शैक्षिक विस्तार उपागम : 

इस उपागम के अन्तर्गत शैक्षिक तन्त्र से जुड़ी विभिन्न समस्याओं में से किसी एक विशिष्ट समस्या हेतु आवश्यक लक्ष्यों - उद्देश्यों का निर्धारण करविकल्पों की खोज एवं उपयुक्त विकल्पों का चयन कर समाधान हेतु उनका क्रियान्वयन किया जाता है। उदाहरण स्वरूप यदि लक्ष्य एक निश्चित स्तर तक के सार्वभौमिक प्राथमिक शिक्षा की प्राप्ति है तो इस प्रकार के लक्ष्य की प्राप्ति हेतु विद्यालयों का निर्माणशिक्षकों की पूर्तिपाठ्य पुस्तकों एवं यूनिफार्म की व्यवस्था आदि उपायों को अपनाना होगा। लाभ: 1 इस उपागम के माध्यम से शैक्षिक समस्याओं को छोटी-छोटी कई समस्याओं के रूप में बाँट कर उनका पृथक-पृथक समाधान खोजा जाता है।

 

2 प्रत्येक समस्या से जुड़ी प्रत्येक छोटी-छोटी क्रियाओंगतिविधियों एवं उपायों का अध्ययन सम्भव है। 

3 परिमाणात्मक निहितार्थ का अनुमान लगाया जाता है।

 

हानि: 

1 इस प्रकार के विश्लेषण के लिए अनेकों अनुक्रम सांख्यिकी (थ्सवू जंजपेजपबे) की आवश्यकता होती हैजिनका अध्ययन काफी जटिल होता है। 

2 यह उपागम तब और जटिल हो जाता है जब राष्ट्रीय के साथ-साथ क्षेत्रीय और जिला सम्बन्धी भिन्नताओं को ध्यान में रखने का प्रयास किया जाता है। 

2. जनांकिकीय प्रक्षेपण उपागम : यह उपागम उस जनसंख्या के विषय में ज्ञान प्राप्त करने के लिए मौलिक प्राचल (Parameter) प्रदान करता है जिसके लिए भविष्य में शैक्षिक तन्त्र को कार्य करना है। यह उपागम किसी न किसी रूप में शैक्षिक नियोजन के सभी उपागमों के लिए आवश्यक हो जाता है। ऐसे जनांकिकीय तत्व जिनकी भविष्य में किसी शैक्षिक समस्या के समाधान में आवश्यकता होगीउनका सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर यह उपागम लक्ष्यों एवं विकल्पों के निर्धारण में सहायक होता है। जैसे यह ज्ञात करना कि प्राथमिक शिक्षा की प्रारम्भिक आयु क्या है और माध्यमिक शिक्षा से पहले कितना समय बीतता है। इसके माध्यम से उस विशिष्ट जनसंख्या के सम्बन्ध में शैक्षिक नियोजन कैसे और किस मात्रा में किया जाय इसका निर्धारण किया जा सकता है।

 

लाभ: 

1 यह उपागम प्रत्येक स्तर की जनसंख्या का प्रेक्षण कर उनकी शैक्षिक समस्याओं का समाधान सुझाता है। 

2 यह प्रत्येक स्तर की जनसंख्या के जनांकिकीय गुणों का पूर्ण गहनता से अध्ययन करता है।

 

हानि: 

1 इस उपागम में त्रुटि के स्रोत शैक्षिक व्यवस्था के उन बिन्दुओं में अधिक होते हैं जहाँ एक आयु समूह के सदस्यों को अनेक शैक्षिक विकल्पों में से चयन करना होता है। 

2 जनांकिकीय गुणों की पहचान हेतु विशिष्ट प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। 

3. मानव शक्ति या मानव संसाधन विकास उपागम : इस उपागम का मुख्य उद्देश्य अर्थव्यवस्था की मानवीय शक्ति की आवश्यकताओं के सम्बन्ध में भविष्यवाणी करना है। यह शैक्षिक व्यवस्था के उन परिणामों पर ध्यान देता हैजो भविष्य में मानवीय शक्ति की आवश्यकताओं को पूर्ण कर मानव संसाधन का विकास करती हैं। जैसे विभिन्न क्षेत्रों अथवा रोजगार अवसरों में जिस प्रकार के प्रशिक्षित व्यक्तियों की आवश्यकता है। उसी के अनुरूप उनके परीक्षण एवं शैक्षिक अवसरों की व्यवस्था करना । चिकित्सा के क्षेत्र में आवश्यक चिकित्सकों की संख्या को ध्यान में रखते हुए मेडिकल की शिक्षा एवं मेडिकल कालेजों की व्यवस्था करना। इस उपागम के तीन प्रमुख तत्व पर ध्यान दिया जाता है-भविष्य में मानवीय शक्ति के संगठन को निश्चित करनामानवीय शक्ति की प्राप्यता एवं पूर्व की निश्चिताओं को भविष्य की निश्चितता से जोड़ना ।

 

लाभ: 

1. शैक्षिक व्यवस्था की रिक्तियों और असंतुलन को दूर करने एवं उनमें सुधार करने हेतु मानवीय शक्ति IT अधिक से अधिक उपयोग हो जाता है और इसके लिए विस्तृत सांख्यिकी अध्ययन की आवश्यकता नहीं होती।

 

2 यह शिक्षाविद् को श्रम शक्ति की शैक्षिक योग्यताओं के भविष्य में विकास हेतु उपयोगी निर्देश देता है।

 

3 मानवीय शक्ति पर आवश्यकता से अधिक ध्यान देने पर बेरोज़गार और अल्प रोज़गार की चुनौतियों को दूर करने हेतु शिक्षा की व्यवस्था को एक सही दिशा प्रदान की जा सकती है।

 

हानि: 

1 यह शैक्षिक नियोजन कर्ताओं को सीमित दिशानिर्देश ही प्रदान करता है। शिक्षा के प्रत्येक स्तर पर वास्तव में क्या परिणाम प्राप्त होने चाहिए यह बता पाना इस उपागम के लिए कठिन है। 

2 अधिकांश मानवीय शक्ति की आवश्यकता नगरीय रोज़गार में होने के कारण नियोजनकर्ताओं का ध्यान भी इसी ओर अधिक होता है। इस कारण नगरों के कम कुशल एवं अकुशल श्रमिकों तथा ग्रामीण इलाकों के श्रमिकों की आवश्यकताओं पर ध्यान नहीं जा पाता। 

3 अधिकांश आर्थिकतकनीकी एवं अन्य अनिश्चिताओं के कारण मानवीय शक्ति के विकास हेतु पूर्ण एवं विश्वसनीय भविष्यवाणी संभव नहीं है। 


4. सामाजिक माँग उपागम : 

किसी भी देश का बाल एवं युवा वर्ग शिक्षा की सामाजिक माँग को प्रकट करता है। वर्तमान समय में जनसंख्या वृद्धि के कारण यह माँग दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। अतः नियोजनकर्ताओं को इस बढ़ी हुई माँग को ध्यान में रखते हुए शिक्षा के क्षेत्र मेंविद्यालयों की स्थापना एवं अन्य शैक्षिक सुविधाओं के विकास में नियोजन करना चाहिए।

 

वैश्विक प्रतिस्पद्र्धा के वर्तमान युग में बढ़ती हुई शैक्षिक आकांक्षाओं तथा जनसंख्या वृद्धि के कारण शैक्षिक संस्थाओं में प्रवेश लेने वाले विद्यार्थियों की संख्या शैक्षिक माँग तथा सामाजिक माँग का परिचायक है। बढ़ती हुई सामाजिक माँग के दबाव के कारण आज शिक्षा में परिणात्मक वृद्धि हो रही है किंतु गुणात्मक विकास नहीं हो पा रहा है।

 

शैक्षिक नियोजन ही वह प्रक्रिया है जो बढ़ती हुई सामाजिक माँग को संतुष्ट करने का कार्य करता है। जिससे समाज में समरसता तथा प्रगति बनी रहें एवं शिक्षा का वास्तविक विकास हो सके।

 

इस उपागम का ध्यान इस बात पर रहता है कि शैक्षिक अधिकारियों को विद्यालय एवं सभी विद्यार्थियोंजो प्रवेश की माँग करते हैं एवं प्रवेश पाने की योग्यता रखते हैंको दी जाने वाली सभी सुविधाओं के क्षेत्र में नियोजन करना चाहिए। अजेन्टा (1987) के अनुसार शिक्षा क" अन्य सामाजिक सेवाओं की भाँति एक सेवा मानकर उसमें नियोजन करना चाहिए।

 

लाभ: 

1 यह उपागम नियोजन कर्ताओं को आवश्यक क्षेत्रों का ज्ञान कराता है जिनमें शैक्षिक सुविधाएँ प्रदान की जानी चाहिए। 

2 यह साधारण जनता की माँगों को पूरा करने वाला उपयुक्त राजनैतिक उपकरण है। 

3 जहाँ संसाधन सीमित होते हैं एवं कम संसाधनों मेंअधिकांश मात्रा में कई प्रकार की शिक्षा उपयोगी होउस अवस्था में नियोजन की यह तकनीक अत्यन्त उपयोगी होती है।

 

हानि: 

1 शिक्षा की कीमत जैसे कारकों पर इस उपागम का कोई नियंत्रण नहीं रहता । 

2 अर्थव्यवस्था की आवश्यकताओं को किस प्रकार प्राप्त किया जायइस सन्दर्भ में यह उपागम कोई दिशा- निर्देश नहीं देता है। 

3 अर्थव्यवस्था में संसाधनों का आवंटन मितव्ययता के साथ किया जा रहा है या नहींइस पर इस उपागम का कोई नियंत्रण नहीं रहता। 

4 शिक्षा में केवल इस उपागम पर बल देने से शिक्षित बेरोजगारी कि समस्या बढ़ती है। 



5. लागत लाभ विश्लेषण उपागम : 

इसे लागत प्रभावशीलता (Cost-effectiveness) तथा प्राप्ति दर उपागम (The rate of Return Approach) भी कहा जाता है। यह उपागम शिक्षा पर होने वाले व्यय को राष्ट्रीय निवेश मानकर शिक्षा द्वारा प्राप्त होने वाले लाभ / उत्पादन पर आधारित होता है। राष्ट्र के सर्वतोमुखी विकास हेतु कुशल शैक्षिक मानव संसाधन के उत्पादन पर यह उपागम सर्वाधिक बल देता है। अतः किसी भी राष्ट्र को शिक्षा पर होने वाले निवेश को बढ़ाना आवश्यक है। शिक्षा को रोजगारोन्मुखी एवं उत्पादक प्रक्रिया के रूप में विकसित करने से ही समाज एवं राष्ट्र की उन्नति संभव है।

 

लागत लाभ उपागम इस बात पर अपना ध्यान लगाता है कि शिक्षा के प्रत्येक स्तर पर मानवीय विकास हेतु इस प्रकार निवेश किया जाय ताकि वह सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था में सुधार लाने वाला हो। एडेसीना (कमेपदं) (1981) के अनुसार इस उपागम की कुछ मान्यताएँ हैं-श्रमिको ं को दी जाने वाली आय उनकी उत्पादकता में भिन्नता को प्रदर्शित करती हैं। उत्पादकता में भिन्नता लोगों द्वारा ग्रहण की जाने वाली शिक्षा के प्रकार एवं मात्रा में भिन्नता दर्शाती है। यह शिक्षा और आय के बीच वास्तविक सम्बन्ध का विश्लेषण करने वाला यंत्र है। 

इस उपागम में नियोजन दो आधारों पर किया जाता है-

 

सामाजिक प्राप्ति-दर उपागम (Social Rate of Return): 

इस उपागम में राज्य द्वारा एक विशेष प्रकार की शिक्षा पर किये जाने वाले निवेश पर ध्यान दिया जाता है। शिक्षा पर आने वाली लागत पूर्णरूप से समाज द्वारा वहन की जाती है और उसका प्रतिफल एक साधारण शिक्षित व्यक्ति को प्राप्त होने वाली आय एवं लाभों की गणना करके प्राप्त किया जाता है।

 

व्यक्तिगत प्राप्ति-दर उपागम (Private Rate of Return): 

इस उपागम में विशिष्ट प्रकार की शिक्षा पर निजी निवेश और उस पर प्राप्त होने वाले अपेक्षित परिणामों का अध्ययन किया जाता है। इनकी गणना छात्रों को उनकी शिक्षा के दौरान प्राप्त होने वाले लाभों एवं आय सेजो उन्हें शिक्षा के माध्यम से ही प्राप्त होती हैंसे की जाती है।

 

लाभ: 

1 एक शिक्षित व्यक्ति की आय प्राप्ति की आयु को देखते हुए उनकी बढ़ी हुई उत्पादकता की माप संभव हो पाती है। 

2 यह विश्लेषण समाज के शैक्षिक ढांचों को एक निश्चित दिशा प्रदान करता है जो कि सामाजिक उत्पादों की उत्पादकता को बढ़ता है। 

3 यह अधिक से अधिक शिक्षा पर आने वाली लागत और सहायक शिक्षा के फलस्वरूप आय में होने वाली वृद्धि के बीच के संबंधों को दर्शाती है।

 

हानि: 

1 किसी भी प्रकार की शिक्षा में किये जाने वाले निवेश से होने वाले लाभो की माप करना कठिन होता है। 

2 सार्वजनिक सेवकों को प्राप्त होने वाली आय उनकी उत्पादकता के बजाय विभिन्न आर्थिक चरों से प्रभावित होती है।

 

6. सामाजिक न्याय उपागम : 

यह उपागम सामाजिक नियोजन या सामाजिक विकास के लिए नियोजन भी कहलाता है। समाज में सामाजिक न्याय की व्यवस्था करने में शिक्षा अति महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है। शैक्षिक नियोजन के क्षेत्र में सामाजिक न्याय उपागम समाज में न्यायपूर्ण नियोजन को दर्शाता है। अर्थात् समाज के प्रत्येक वर्ग के हित एवं विकास हेतु नियोजन किया जाय ताकि समाज के उच्च वर्ग के साथ-साथ निम्न वर्ग के उत्थान को प्रोत्साहन मिल सके।

 

इस उपागम में ऐसी शैक्षिक व्यवस्था को प्रोत्साहन दिया जाता है जो समाज के सभी व्यक्तियों के सामाजिक-आर्थिक विकास को बढ़ावा दे और सामाजिक परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त करें। इस हेतु शिक्षा के प्रत्येक स्तर को बढ़ावा दिया जाना आवश्यक है ताकि प्रत्येक स्तर (प्राथमिकमाध्यमिकउच्चतर ) पर कमज़ोर वर्ग एवं सीमान्त (Marginalize ) व्यक्तियों को आगे आने का मौका मिल सके। इसके अतिरिक्त 6- 14 आयुवर्ग के समक्ष छात्र-छात्राओं हेतु अनिवार्य एवं निःशुल्क प्रारंभिक शिक्षा का प्रावधान मध्यान्ह भोजन योजनामुक्त पुस्तक तथा यूनिफार्म वितरणछात्रवृत्ति आदि प्रयास इसी श्रेणी में आते है। जो समाज तथा वंचित वर्गों को साथ-साथ शिक्षा प्राप्ति के अवसर सुलभ करवाते है। 


लाभ: 

1 समाज के प्रत्येक वर्ग का उत्थान संभव हो पाता है। 

2 शिक्षा के प्रत्येक स्तर का विकास एवं उससे प्राप्त होने वाला प्रतिफल समाज के उत्थान एवं सामाजिक परिवर्तन को बढ़ावा देता है।

 

हानि: 

1 सामाजिक उत्थान एवं शिक्षा के प्रत्येक स्तर का विकास तभी संभव हो सकता हैजबकि संसाधनों का कुशलतम आवंटन एवं उनका अधिकतम संभाव्य उपयोग किया जाएजोकि वास्तविक रूप में बहुत कम देखने को मिलता है। 

2 कमज़ोर वर्ग को आगे लाने की बात की तो जाती है परन्तु वास्तव में उन्हें सदैव हाशिए पर रखा जाता है।

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