गढ़ा का गोंड राज्य का इतिहास- हृदयशाह नरेन्द्रशाह | Gond Rajya Ka Itihaas - Part 05

 गढ़ा का गोंड राज्य का इतिहास- हृदयशाह 

गढ़ा का गोंड राज्य का इतिहास- हृदयशाह  नरेन्द्रशाह | Gond Rajya Ka Itihaas - Part 05


 

 गढ़ा का गोंड राज्य का इतिहास- हृदयशाह 

जुझारसिंह का अंत 1635 ई. में हुआ और चौरागढ़ पर मुगल आधिपत्य पुनः स्थापित हो गया । ऐसी स्थिति में प्रेमशाह के पुत्र हृदयशाह की स्थिति क्या थीइसका कुछ उल्लेख नहीं मिलता। किन्तु प्रेमशाह और हृदयशाह के सम्बन्ध मुगल दरबार से अच्छे थेअतः अनुमान है कि हृदयशाह को प्रेमशाह का उत्तराधिकारी मान लिया गया। उस समय हृदयशाह प्रौढ़ावस्था में था एवं उसकी आयु लगभग 50 वर्ष की रही होगी।

 

1651 ई. में जुझारसिंह के भाई पहाड़सिंह बुन्देला को एक हजार जातएक हजार सवार दो अस्पा सै अस्पा के पद पर पदोन्नत करने के बाद चौरागढ़ का जागीरदार बनाया गया। इस समय हृदयशाह चौरागढ़ में था। पहाड़सिंह के आने पर हृदयशाह बांधू के जमींदार अनूपसिंह के पास शरण लेने भाग गया। अनूपसिंह ने हृदयशाह को शरण दी और संग्रामशाह तथा वीरसिंह के समय के सुखद सम्बन्धों की पुनरावृत्ति हुई। अब पहाड़सिंह बुन्देला ने रीवा पर धावा बोल दिया और तब अनूपसिंह अपने परिवार तथा हृदयशाह के साथ त्योंथर के पहाड़ी और जंगली भाग में भाग गया। पहाड़सिंह ने रीवा पहुँचकर उसे लूटा। इसी समय 1652 ई. में सम्राट का बुलावा आ जाने के कारण पहाड़सिंह सारे लूट के माल के साथ दिल्ली चला गया।

 

पहाड़सिंह जब दिल्ली लौट गया तब हृदयशाह रीवा से लौटकर अपने राज्य में आया। चौरागढ़ जैसा महत्वपूर्ण किला हाथ से निकल जाने के बाद हृदयशाह ने अधिक दुर्गम स्थान की खोज की और वह स्थान उसे मिला सतपुड़ा के सघन वनों के मध्य नर्मदा नदी के दक्षिणी तट पर । यहाँ उसने रामनगर बसाया और उसे राजधानी का रूप दिया। रामनगर मध्यप्रदेश के मण्डला नगर से बीस किलोमीटर उत्तर-पूर्व में है। ऐसा अनुमान है कि चौरागढ़ से 1651 ई. में निष्कासन के बाद ही हृदयशाह ने रामनगर में राजधानी बनाई क्योंकि रामनगर का शिलालेख 1667 ई. का है जो नगर के पूर्ण विकास का द्योतक माना जा सकता है। विकास में लगभग पन्द्रह वर्ष तो लगे ही होंगे अतः 1651-52 में रामनगर को राजधानी बनाया गया होगा।

 

जनश्रुति के अनुसार हृदयशाह ने रीवा के बघेल राजा अनूपसिंह की कन्या से विवाह करने के अलावा और भी विवाह किए। एक चंदेलों के यहाँदूसरा परिहार राजपूतों के यहाँ और तीसरा गौतम के यहाँ । उसकी एक रानी सुन्दरीदेवी का प्रमाण उपलब्ध है। कहा जाता है कि हृदयशाह ने जब अपने पिता के साथ दिल्ली दरबार की यात्रा की थी तब उसका इससे प्रेमसंबंध हो गया था। सुन्दरीदेवी के सम्बन्ध में रामनगर शिलालेख में कहा गया है कि वह सुन्दर और पुण्यवान् थी तथा दान कार्य में अत्यन्त रुचि लेती थी। उसने निरन्तर धर्म का पालन इसी रानी के द्वारा निर्मित मंदिर में लगाया गया था। यह मंदिर शिलालेख के अनुसार सन् 1667 (संवत् 1724) में निर्मित किया गया था। सुन्दरीदेवी ने उसमें विष्णुशम्भुगणेशदुर्गा और सूर्य की स्थापना की थी। 1

 

हृदयशाह के दो पुत्र थे छत्रशाह और हरिसिंह एक पत्नी से छत्रशाह था और हरिसिंह अन्य पत्नी से था। जहाँ तक हृदयशाह के अधिकारियों का प्रश्न हैप्रारम्भ में दीवान कस्तूर साहनी और पुरोहित कामदेव वाजपेयी थे। हृदयशाह के दो मुख्य अधिकारियों भागवतराय तथा गुलाल का - उल्लेख मिलता है। आज भी रामनगर में भागवतराय का विशाल महल खण्डहर के रूप में विद्यमान है । हृदयशाह के समय के संस्कृत व्याकरण के एक मूर्धन्य विद्वान भट्टोजी दीक्षित का उल्लेख मिलता है। उन्होंने सन 1620 से 1660 ई. के मध्य व्याकरण की चार पुस्तकें लिखीं और गुह्यसूत्र पर अनेक ग्रंथ लिखे।

 

हृदयशाह ने अपने राजत्वकाल में सबसे महत्वपूर्ण कार्य यह किया कि उसने बाहर से कुशल कृषकों को बुलाकर उन्हें अपने राज्य में बसाया। गढ़ा राज्य की आबादी का अधिकांश हिस्सा गोंडों का था और ये गोंड न तो अच्छे कृषक थे और न ही अच्छे शिल्पी । राज्य की उन्नति श्रेष्ठतर कृषि पर निर्भर थीअतः अच्छे किसान बाहर से बुलाना आवश्यक भी था और उपयोगी भी हृदयशाह ने बाहर से कुशल किंसानों को बुलायाउन्हें भूमि दीकृषि की अन्य सुविधायें दीं और उन किसानों को अपने राज्य मेंबसने के लिए प्रोत्साहित किया। हृदयशाह ने 1637 ई. (संवत 1691) में मण्डला के निकट हरखूखेड़ा ग्राम के स्थान पर हृदयनगर ग्राम बसाया। वहाँ उसने महोबा से बुलाये गए पंसारियों (पानउगाने वालों) को बसाया। अनुमानतः 1671 ई. को हृदयशाह की मृत्युतिथि माना जा सकता है। मृत्यु के समय हृदयशाह की आयु लगभग 85 वर्ष की थी।

 

हृदयशाह की प्रशंसा रामनगर के शिलालेख में विस्तार से की गई हैऔर वह शब्दाडाम्बर से परिपूर्ण है। गढ़ेशनृपवर्णनम् में कवि रूपनाथ ने भी हृदयशाह की प्रशंसा की है। वह न केवल अच्छा गायक और वादक थाअपितु संगीत की दो प्रमुख पुस्तकों का वह लेखक भी था। इन ग्रंथों में शास्त्रीय संगीत का सूक्ष्म बातों की विवेचना की गई है। इन ग्रंथों के नाम "हृदयकौतुक" और "हृदयप्रकाश” है . 

 

हृदयशाह का उत्तराधिकारी उसका पुत्र छत्रशाह हुआ। छत्रशाह की मृत्यु अठारहवीं सदी के अन्त में मान सकते हैं। तब वह लगभग साठ वर्ष का था। छत्रशाह के समय प्रणामी सम्प्रदाय के दूसरे प्रसिद्ध गुरु महाप्रभु प्राणनाथ के रामनगर प्रवास का विवरण प्रणामी सम्प्रदाय के ग्रंथों में मिलता है। इन ग्रंथों के अनुसार महाप्रभु देशाटन करते हुए देवगढ़ से 1681 ई. की ग्रीष्म में (संवत 1738 के प्रारम्भ) अपने पाँच हजार अनुयाइयों के साथ रामनगर पहुँचे। वे मुगल सम्राट औरंगजेब के अत्याचारों से हिन्दू धर्म की रक्षा करने के इच्छुक थे और इसके लिए वे हिन्दू राजाओं का सहयोग चाहते थे। 1682 ई. की शीत ऋतु (अगहन बदी 10 संवत् 1739 ) में महाप्रभु रामनगर से उत्तर की ओर रवाना हुए और धर्म की रक्षा के लिए सहायता मांगी। छत्रसाल का आमंत्रण पाकर महाप्रभु सबके साथ पन्ना की ओर चल पड़े ।

 

छत्रशाह तेरह वर्ष शासन करके अप्रैल 1684 ई. में दिवंगत हुआ। उसके बाद उसका बेटा केसरीशाह उत्तराधिकारी बना। छत्रशाह के संक्षिप्त शासन के उपरान्त गढ़ा राज्य का इतिहास कुछ वर्षों के लिए षड्यंत्रों और विद्रोहों का इतिहास बन गया। छत्रशाह के बाद उसका पुत्र केसरीशाह शासक हुआ। जल्दी ही उसके चाचा हरीसिंह ने उसकी हत्या करा दी। मासिर-ए-आलमगीरी में 3 दिसम्बर, 1684 ई. को हरीसिंह को गढ़ा का जमींदार बताया गया है। 43 केसरीशाह का अल्पायु पुत्र नरेन्द्रशाह अपने पिता की हत्या के उपरांत विद्रोही के सामने टिक न सका और भागकर लाँजी चला गया। हरीसिंह लगभग तीन साल ही राज्य कर पाया और उसकी भी हत्या कर दी गई। हरीसिंह की हत्या के उपरांत उसका पुत्र पहाड़सिंह कुछ समय के लिए गढ़ा का राजा रहा। पहाड़सिंह अधिक समय तक गढ़ा में न रह पाया। नरेन्द्रशाह के समर्थकों से पराजित होने के उपरान्त वह भागकर दक्षिण चला गया और औरंगजेब की सेना मे शामिल हो गया।

 

देवगढ़ का उत्थान 

इस दौरान गढ़ा राज्य के प्रमुख पड़ोसी देवगढ़ राज्य का क्रमशः उत्थान हो रहा था। दलशाह की मृत्यु 1634 ई. में होने के उपरांत कोकशाह या कूकिया देवगढ़ का शासक हुआ। कोकशाह के समय मुगल सैन्याधिकरी खानदौरान ने देवगढ़ पर इसलिए आक्रमण कर दिया कि कोकशाह ने कर देने में अनियमितता बरती थी। 4 कोकशाह कब तक सत्तारूढ़ रहाज्ञात नहींपर यह सुनिश्चित है कि उसका उत्तराधिकारी केशरीशाह या जाटबा द्वितीय 1645 ई. में सत्तारूढ़ था और वह कम से कम 1660 ई. तक रहा। 45 उसके समय मुगल राजकुमार औरंगजेब ने देवगढ़ पर आक्रमण किया था केशरीशाह के उपरांत कोकशाह द्वितीय नामक राजा का उल्लेख मिलता है। 46 उसने मुगल सेनानायक दिलेरखान के सम्मुख 1666 ई. में आत्मसमर्पण करके मुगल शासन के प्रति अपनी निष्ठा प्रदर्शित की। 1670 ई. में कोकशाह ने इस्लाम स्वीकार करके अपना नाम इस्लामयार खान रख लिया । तदन्तर 1680 ई. में दीनदार (दींदर) नामक शासक का उल्लेख मिलता है। इसके भाई का नाम था बख्तबुलन्द दीनदार अधिक समय तक सत्तारूढ़ रहाऐसा नहीं दिखताक्योंकि मार्च 1686 ई. में बख्तबुलन्द को औरंगजेब ने देवगढ़ की जमींदारी और खिलअत दी। बख्तबुलन्द अपने पूर्वाधिकारियों और उत्तराधिकारियों की अपेक्षा श्रेष्ठ शासक था। जो देवगढ़ अकबर के समय मालवा के सूबे का एक महाल मात्र थावही सत्रहवीं और अठारहवीं शती में बरार के सूबे की एक सरकार हो गया । यह देवगढ़ के वृद्धिगत महत्व का प्रतीक था।

 

नरेन्द्रशाह  का इतिहास 

पहाड़सिंह के पलायन के उपरांत 1687 ई. के अन्तिम महीनों में नरेन्द्रशाह सत्तारूढ़ हुआ। जिस वर्ष नरेन्द्रशाह सिंहासनासीन हुआ उस समय गढ़ा राज्य के दक्षिण-पश्चिम में देवगढ़ का राज्य बख्तबुलन्द के अधिकार में थाजो देवगढ़ के इतिहास का सर्वाधिक प्रबल शासक था। गढ़ा राज्य के दक्षिण में स्थित चाँदा का गोंड राज्य भी पर्याप्त शक्तिशाली था। वहाँ का शासक वीरशाह 1667 ई. में ही औरंगजेब के सेनापति दिलेरखान के सम्मुख समर्पण कर चुका था। 1680 ई. के लगभग वीरशाह मारा गया और उसका उत्तराधिकारी रामसिंह हुआ। रामसिंह को 1683 ई. में अपदस्थ करके औरंगजेब ने किशनसिंह को सत्ता सौंपीजो एक योग्य सैनिक था । देवगढ़ के शासक दीनदार का दमन करने के लिए 1696 ई. में औरंगजेब के एक फौजदार सदरुद्दीन ने किशनसिंह की सहायता ली थी और दीनदार को मार भगाया था। किशनसिंह का दूसरा पुत्र इस्लाम स्वीकार करके नेकनाम के नाम से देवगढ़ की गद्दी पर बैठा .

 

गढ़ा राज्य के उत्तर में छत्रसाल बुन्देला का प्रभाव बढ़ता जा रहा था। 1689 ई. में उसने देवगढ़ आक्रमण के समय दिलेरखाँ का साथ दिया था। 8 धामोनी के मुगल फौजदार के साथ छत्रसाल का संघर्ष चलता रहा। जब 1673 ई. में औरंगजेब ने रोहिल्ला खाँ को छत्रसाल के विरुद्ध भेजा तो छत्रसाल ने उसे पराजित करके गढ़ाकोटा अधिकृत कर लिया था। कुछ समय के लिए दमोह जिला का उत्तरी भाग और सागर जिला का पूर्वी भाग छत्रसाल के पास निश्चित रूप से इस समय था . 

 

गढ़ाराज्य के उत्तर-पूर्व में स्थित रीवा में भावसिंह की सत्ता थी भावसिंह ने 1675 ई. से 1694 ई. तक राज्य किया.  उसके उत्तराधिकारी अनिरुद्धसिंह ने 1700 ई. तक और फिर अवधूत सिंह ने 1755 ई. तक राज्य किया।  गढ़ा राज्य के दक्षिण-पूर्व में स्थित रतनपुर में इस समय हैहयवंशी शासक तख्तसिंह सत्तारूढ़ था रतनपुर की स्थिति डाँवाडोल थी और वह बाहरी आक्रमण का प्रतिरोध करने में असमर्थ था। आगे हम देखेंगे कि नरेन्द्रशाह ने तख्तसिंह के उत्तराधिकारी को पराजित किया ।

 

गढ़ा राज्य से लगे हुए प्रदेशों की राजनैतिक स्थिति का जो वर्णन ऊपर किया गया हैउसमें देवगढ़ सर्वाधिक ध्यान आकर्षित करता है। नरेन्द्रशाह के सम्बन्ध बख्तबुलन्द और छत्रसाल से अच्छे रहे यह आगे की घटनाएँ बताएँगी।

 

पहाड़सिंह का विद्रोह 

अल्पायु शासक नरेन्द्रशाह को प्रारम्भ से ही विद्रोहों का सामना करना पड़ा। पहला विद्रोह पहाड़सिंह का था । जैसा कि बताया जा चुका हैपहाड़सिंह ने बीजापुर स्थित मुगल सेना में नौकरी कर ली थी। इस मुगल सेना के सेनापति का नाम दिलेरखाँ था। युद्ध के दौरान पहाड़सिंह की कुशलता से प्रसन्न होकर दिलेरखाँ ने गढ़ा का राज्य प्राप्त करने में पहाड़सिंह के साथ एक सेना मीर जैना और मीर मानुल्ला की कमान में भेजी। फतेहपुर के निकट दूधी नदी के तट पर पहाड़सिंह और नरेन्द्रशाह की सेना के मध्य संघर्ष हुआ जिसमें नरेन्द्रशाह पराजित हुआ। नरेन्द्रशाह ने अपनी सेना एकत्र की और फिर से पहाड़सिंह से युद्ध करने को सन्नद्ध हो गया। चूँकि पहाड़सिंह की सहायक मुगल सेना अब तक दक्खिन लौट गई थीपहाड़सिंह की स्थिति अब निर्बल हो गई थी। केतुगाँव के युद्ध में वह हार गया और मारा गया। उसकी शेष सेना नरेन्द्रशाह से मिल गई। विजयोपरांत नरेन्द्रशाह मण्डला लौट आया । पहाड़सिंह के विद्रोह के पश्चात् नरेन्द्रशाह ने रामनगर को छोड़कर मण्डला को अपनी राजधानी बनाया। रामनगर सुदूर होने पर भी प्रकृति द्वारा पूर्णतः सुरक्षित नहीं था और वहाँ आक्रमण से सुरक्षा के लिए दुर्ग आदि की व्यवस्था नहीं थी। रामनगर केवल एक ओर से नर्मदा द्वारा सुरक्षित था। मण्डला में दोनों बातें उपलब्ध थीं। मण्डला के तीन ओर नर्मदा नदी बहती है। चौथी ओर सुरक्षा के लिए नदी की दो धाराओं को एक खाई द्वारा जोड़कर चारों ओर जल से घिरे छोटे से द्वीपनुमा भूखण्ड के आसपास प्राचीर बनाकर सुरक्षित रहना सरल था ।

 

पहाड़सिंह के मारे जाने से नरेन्द्रशाह के रास्ते की एक बड़ी बाधा दूर हो गईकिन्तु ऐसी स्थिति अधिक दिनों तक न रही। पहाड़सिंह के दो बेटों ने अब नरेन्द्रशाह के विरुद्ध विद्रोह किया। पहाड़सिंह के दो बेटे भागकर शाही शिविर में चले गए। गढ़ा राज्य प्राप्त करने के लिए शाही सेना की सहायता पाने के लिए उन्होंने इस्लाम स्वीकार कर लिया। उनके नाम अब अब्दुल रहमान और अब्दुल हाजी (हादी) हो गए। बारहा (नरसिंहपुर जिलाम. प्र. ) के जागीरदार अजीमखाँ तथा चौरई के जागीरदार लोंडी खान भी विद्रोही हो गए। ऐसे संकट के समय नरेन्द्रशाह ने देवगढ़ के शासक बख्तबुलन्द से सहायता की याचना की।

 

बख्तबुलन्द तुरन्त धामौनी से गढ़ा की ओर चल पड़ा। उधर नरेन्द्रशाह ने रामकृष्ण वाजपेयी को भेजकर छत्रसाल बुन्देला से भी सहायता माँगी। बख्तबुलन्द और छत्रसाल की सहायता से विद्रोहियों का दमन कर दिया गया। अनुमान है कि विद्रोह का अंत 1699 ई. की वर्षा ऋतु में हुआ। इस सहायता के बदले नरेन्द्रशाह ने बख्तबुलन्द को और छत्रसाल को कुछ इलाके दिये । 54 यह उल्लेखनीय है कि बख्तबुलन्द के अधिकार में अब तक वर्तमान बैतूल और छिंदवाड़ा के पूरे जिले तथा सिवनीनागपुरभण्डारा और बालाघाट जिलों के कुछ भाग आ गए थेजबकि बख्तबुलन्द की शक्ति शिखर पर थीनरेन्द्रशाह ने अपनी पहली बहिन मानकुंवरि का विवाह बख्तबुलन्द से कर दिया।

 

नरेन्द्रशाह और मराठे 

पेशवा बालाजी विश्वनाथ के समय तक गढ़ा राज्य को मराठों से कोई विशेष खतरा नहीं रहाकिन्तु उसके उत्तराधिकारी बाजीराव प्रथम के समय स्थिति में परिवर्तन हो गया। बाजीराव के साथ ही मराठा संघ के विस्तार का एक नया युग प्रारम्भ होता है। उसके विचार से दक्षिण के वीरान और अनुपजाऊ इलाके में शक्ति और धन बहाने की अपेक्षा यदि हिन्दुस्तान (उत्तर भारत) के सम्पन्न इलाकों पर आक्रमण किया जाय तो अधिक उपयोगी होगा। नरेन्द्रशाह के शासनकाल के उत्तरार्द्ध में मराठा संकट के देवगढ़ के मार्ग से आने की सम्भावना थी और देवगढ़ राज्य में घुसना मराठों के लिए कठिन भी नहीं था।

 

1728 ई. में पेशवा बाजीराव की सेना अचानक देवगढ़सिवनीछपारा होकर गढ़ा-मण्डला की ओर बढ़ रही थी। यह सेना गढ़ा - मण्डला पर आक्रमण करने नहीं बल्कि किसी भास्करराम की विशाल सेना को गढ़ा-मण्डला से वापस लौटाने के लिए बढ़ी थी। इधर भास्करराम लौटा और उधर बाजीराव देवगढ़ गया। जब बाजीराव देवगढ़ राज्य में था तब फरवरी 1729 ई. में उसे छत्रसाल बुन्देला का पत्र मिलाजिसमें उसने मुहम्म्द खाँ बंगाश के विरुद्ध बाजीराव की सहायता माँगी थी। बाजीराव तुरन्त छत्रसाल की सहायता के लिए रवाना हो गया और उसने मुहम्मदखाँ को पराजित करके वृद्ध छत्रसाल की मान रक्षा की। 1731 ई. में ही सतारा की ओर से बरार में चौथ वसूल करने के लिए भोंसला रघुजी प्रथम को नियुक्त किया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि आने वाले वर्षों में गढ़ा मण्डला रघुजी की राज्यलिप्सा का शिकार हुआ। रघुजी की गतिविधियों का अपरिहार्य प्रभाव गढ़ा-मण्डला के राज्य पर पड़ने लगा. 

 

नरेन्द्रशाह की दो बहिनें थींमानकुंवरि और दानवकुँवरि । इनका विवाह क्रमशः देवगढ़ के शासक बख्तबुलन्द और रतनपुर के राजा राजसिंह से हुआ था । नरेन्द्रशाह के दो पुत्र थेजिनमें से महाराजशाह सम्भवतः ज्येष्ठ था क्योंकि वही नरेन्द्रशाह का उत्तराधिकारी हुआ । उसकी मृत्यु 1731 ई. के लगभग हुई।

 

महाराजशाह का इतिहास 

नरेन्द्रशह की मृत्यु के बाद 1731 में उसका पुत्र महाराजशाह सत्तारूढ़ हुआ। राज्यारोहण के समय उसकी आयु लगभग 34 वर्ष की रही होगी। महराजशाह के समय गढ़ा राज्य पर मराठों के आक्रमण का उल्लेख मिलता है। इस समय तक मराठे भारत की राजनीति के सूत्रधार बन चुके थे और जो कुछ उन्होंने गढ़ा राज्य के प्रति किया वह उनकी समग्र भारत की गतिविधियों का अंशमात्र था। इस समय से गढ़ा राज्य का उल्लेख अंग्रेजी और मराठी स्रोतों में गढ़ा मण्डला के नाम से होने लगा ।

 

1731 ई. में सतारा दरबार की ओर से रघुजी भोंसला को बरार की चौथ वसूल करने का कार्य सौंपा गया। इस तिथि के पश्चात् गढ़ा - मण्डला से बरार का सम्पर्क बढ़ा। भोंसला ही नहींअपितु पेशवा भी गढ़ा - मण्डला में रुचि रखता था। पेशवा और भोंसला की इस क्षेत्र में समान रूप से रुचि होने के कुछ विशेष कारण थे। भोंसला और पेशवा दोनों उत्तर भारत पर अपना प्रभाव बढ़ाना चाहते थे। बुन्देलखण्ड के उस भाग पर जो गढ़ा - मण्डला के उत्तर में है और जिसमें सागर तथा उसके आसपास का प्रदेश आता हैपेशवा का अधिकार 1735 ई. से था। ऐसी स्थिति में पेशवा के लिए निकटस्थ गढ़ा - मण्डला को अधिकृत करने की इच्छा होना स्वाभाविक था। गढ़ा मण्डला पर पेशवा का अधिकार होने से भोंसला को उत्तर में बढ़ने से सरलता से रोका जा सकता था। उधर भोंसला ने अपनी सीमा मालवा तक बढ़ा ली थी। वह गढ़ा मण्डला को इसलिए पेशवा के पास नहीं देख सकता था कि इससे पेशवा भोंसला उत्तरी प्रदेश पर प्रभाव डाल सकता था। दूसरेसागर स्थित पेशवा की सेना को दक्षिण की ओर बढ़ने से रोकने के लिए और स्वयं भोंसला को उत्तर भारत की ओर बढ़ने के लिए गढ़ा मण्डला भोंसला के लिए बड़ा सहायक सिद्ध हो सकता था।

 

बाजीराव प्रथम की मृत्यु 28 अप्रैल 1740 ई. को हो गई। उसका उत्तराधिकारी बालाजी पेशवा गढ़ा - मण्डला पर अपना अधिकार स्थापित करने के लिए केवल अवसर की ताक में था। कर्नाटक में रघुजी की व्यस्तता का लाभ उठाते हुए बालाजी पेशवा की सेना अपने दावों के पुष्टीकरण हेतु सागर से चलकर मई-जून 1741 ई. में गढ़ा पर अधिकार कर लिया ।" पेशवा के मण्डला आक्रमण के बाद ही 1741 ई. में महाराजशाह की मृत्यु हो गई। सच तो यह है कि यदि पेशवा चाहता तो गढ़ा मण्डला राज्य को अधिकृत करके गढ़ा के राजवंश को समाप्त कर सकते थेकिन्तु पेशवा ने ऐसा इसलिए नहीं किया कि इससे रघुजी से उसे निश्चिततः युद्ध करना पड़ता। पेशवा के इस आक्रमण के बाद गढ़ा - मण्डला के शासक मराठों की कृपा पर निर्भर हो गए।

 

शिवराजशाह का इतिहास

 

महाराजशाह की मृत्यु के बाद उसका युवा पुत्र शिवराजशाह 1741 ई. में उसका उत्तराधिकारी हुआ। शिवराजशाह के समय 1742 ई. में पेशवा की सेना ने फिर मण्डला के दुर्ग को घेर लिया। 26 अक्टूबर, 1742 ई. को दोनों सेनाओं के मध्य युद्ध प्रारम्भ हुआ और पेशवा की सेना ने 18 नवम्बर, 1742 ई. को मण्डला का किला जीत लिया। 7 इस युद्ध के बाद शिवराजशाह के साथ पेशवा की जो संधि हुई उसके अनुसार तुरन्त शिवराजशाह को चार लाख रुपया क्षतिपूर्ति के रूप में देना पड़ा। इस क्षतिपूर्ति के वादे के अतिरिक्त पेशवा को लूट में चार लाख रुपयों की सम्पत्ति भी मिली और शिवराजशाह पर एक लाख रुपये वार्षिक चौथ भी आरोपित की गई।

 

शिवराज सिंह सात वर्ष राज्य करके परलोक सिधार गया। उसकी मृत्यु 1749 ई. में हुई। वह अपने पीछे कोई वैध संतान नहीं छोड़ गया था। उसकी पत्नी रानी विलासकुँवरजो तब अनुमानतः 25 वर्ष की थीनिस्संतान थी। हाँएक वैश्या से शिवराजशाह का दुर्जनशाह नामक पुत्र था और मथुरा नामक राजपूत दाई से मोहनसिंह नामक पुत्र था। शिवराजशाह के समय बीर बाजपेयी ने "सुदामाचरित्रनामक काव्य की रचना की।

 

शिवराजशाह की कोई वैध संतान न होने के कारण उसकी मृत्यु के उपरांत सिंहासन के लिए बड़ी खींचतान हुई । शिवराजशाह का भाई निजामशाह स्वयं शासक होना चाहता थाक्योंकि उसके मत से दुर्जनशाह और मोहनसिंह दोनों ही सिंहासन के अधिकारी नहीं थे। निजामशाह ने मोहनसिंह को तो मरवा डाला किन्तु दुर्जनशाह के पक्ष का समर्थन मृत राजा की विधवा रानी विलासकुँवरि कर रही थी। फलतः दुर्जनशाह को गद्दी सौंप दी गयी। दुर्जनशाह की प्रतिकूल गतिविधियों से रानी विलासकुँवर भी दुर्जनशाह के विरुद्ध हो गई। अधिकारलिप्सु रानी विलासकुँवरि ने दुर्जनशाह को हटाने के उद्देश्य से निजामशाह से मिलकर दुर्जनशाह को मरवा डाला । दुर्जनशाह की हत्या 1749 ई. के मध्य में हुई।

No comments:

Post a Comment

Powered by Blogger.