फारुकी शासकों की सांस्कृतिक गतिविधियाँ (बुरहानपुर) | बुरहानपुर सांस्कृतिक विरासत | Burhanpur Cultural Heritage

फारुकी शासकों की सांस्कृतिक गतिविधियाँ (बुरहानपुर)

फारुकी शासकों की सांस्कृतिक गतिविधियाँ (बुरहानपुर) | बुरहानपुर सांस्कृतिक विरासत | Burhanpur Cultural Heritage


 

फारुकी खानदेश (बुरहानपुर) स्थापत्य कला  

दिल्ली सल्तनत के पतन के बाद जब स्वतंत्र प्रादेशिक राज्य अस्तित्व में आए तब इन्डो इस्लामिक वास्तुकला के विकास में एक नया अध्याय जुड़ा। खानदेश उत्तर और दक्खिन के बीच में स्थित था और चूँकि खानदेश हमेशा पड़ोसी शासकों से युद्ध में व्यस्त रहा इसलिए खानदेश के शासकों को इतना समय ही नहीं मिल पाया कि वे वास्तुकला जैसी तकनीकी और खर्चीली बात में रुचि ले सकते। दूसरेखानदेश के पास इस कला के विकास के लिए आवश्यक धन भी नहीं था। तीसरेउसके पड़ोसी राज्यों मालवागुजरात और बहमनी के पास इतनी ज्यादा क्षमता और संसाधन थे कि वहाँ के शासकों और अमीरवर्ग के विशाल भवनों और स्मारकों को बनाने के लिए हर तरफ से बड़ी संख्या में वास्तुविदकारीगर और कलाकार खिंचे चले गए। चूँकि खानदेश का राज्य ज्यादातर समय मालवा और गुजरात से सम्बद्ध रहा इसलिए खानदेश की वास्तुशैली पर इन दो राज्यों की वास्तुशैली का बहुत प्रभाव रहा। इतना होने पर भी खानदेश की वास्तुकला में कुछ मूल तत्व जरूर थे।

 

बादशाही किला – 

फारुकी सुल्तान आदिल खान द्वितीय (1457-1503 ई.) ने बुरहानपुरमें एक किले का निर्माण करवाया था जो आज बादशाही किले के नाम से जाना जाता है। ऐसा लगता है कि 1407 ई. में बुरहानपुर की स्थापना के तुरन्त बाद जिस स्थान पर मलिक नासिर ने अपना महल बनवाया उसे सुरक्षित बनाने के लिए आदिलखान द्वितीय ने उसी स्थान पर यह किला बनवाया और साथ में भीतर इमारतें बनवाईं। नष्टप्राय किला ताप्ती नदी के दाहिने तट पर लगभग 80 फुट याने 24 मीटर ऊँचा है। ऊपरी हिस्से मेंजो विस्तृत खंडहर हैं उनसे भवनों के रूप और शैली का कुछ आभास होता है। इन खंडहरों में वे निर्माण भी शामिल हैं जो आदिलखान के बाद के फारुकी शासकों ने और बाद में मुगलों ने बनवाए थे।

 

किले का मुख्य प्रवेश द्वार शहर की ओर खुलता है। प्रवेश द्वार से भीतर जाने पर सहन दिखता है जहाँ कभी बगीचा रहा होगा। इसके दोनों बाजुओं में ईंट व पत्थर की दीवारें हैं। इसी दीवार से लगी हुई पत्थर की विशाल इमारत के खंडहर हैं। यह इमारत रहने के काम आती रही होगी। इस खंडहर के कमरों के द्वार मेहराबदार हैं जिन पर छत टिकी है।

 

बगीचे को पार करने के बाद पत्थर का बना मुख्य हिस्सा है जो एक मीटर ऊँचे चबूतरे पर बना हैं। इसका दालान काफी चौड़ा है और इसके दूसरे सिरे पर कमरे बने हुए हैं। किले का यह मुख्यहिस्सा है। मुख्य भाग के कमरे की छत गिर चुकी है। इमारत का निचला तल ताप्ती नदी की ओर है और आयताकार है। इसकी लम्बाई में छः समानान्तर दोहरी मेहराबें बनी हैं जिनके कारण एक लंबा गलियारा सा बन गया है। शाही किले के अवशेषों से पता चलता है कि यहाँ उस समय की जलप्रदाय प्रणाली से भूमिगत सुरंग के जरिए पानी पहुँचता था। दो संकरे कुँए अभी भी इसके प्रमाण हैं। महल के विभिन्न हिस्सों और ऊपर की मंजिलों में जहाँ-तहाँ मिट्टी की पाइप लाइन दीवारों में चिनी गईं दिखती हैं। इन पाइप लाइनों से महल में पानी वितरित होता था ।

 

किले की सुरक्षा के लिए 3 मीटर चौड़ी एक दीवार बनी है जिसे "नौगजी" कहा जाता है। विदेशी यात्री विलियम फिंच 1610 ई. में बुरहानपुर आया था। उसने अपने विवरण में बुरहानपुर किले. के बारे में लिखा है- "शहर के उत्तर-पश्चिम की ओर नदी के किनारे पर एक विशाल मजबूत किला बना है। नदी में एक हाथी की मूर्ति बनी हैजिसका सिर लाल रंग से रँगा हुआ है तथा कई भारतीय इसकी पूजा करते हैं।"

 

फारुकी ईदगाह- 

यह सिलमपुरा पठानवाड़ी में शहर की प्राचीर के सिलमपुरा गेट के पास है। काले पत्थरों से बनी इस ईदगाह में सात मेहराबदार दरवाज़े हैं जिन पर सुन्दर बेलबूटे बने हैं। दोनों सिरों पर तीस फुट याने 9 मीटर ऊँची दो मीनारें बनी हैंजिनके भीतर बनी सीढ़ियाँ मीनार के ऊपर सिरे तक पहुँचाती हैं। ईदगाह का दालान 54 मीटर वर्ग का है। कहा जाता है कि इस ईदगाह का निर्माण फारुकी सुल्तान मीरन आदिल खान ने 861 हिज्री यानी 1438 ईस्वी में कराया था।

 

बीबी की मस्जिद - 

इतवारा मोहल्ले में स्थित यह मस्जिद बुरहानपुर के महत्वपूर्ण स्मारकों में सबसे पुराना स्मारक है। इसका निर्माण फारुकी शासक आदिल खाँ तृतीय (1509 - 1520) की पत्नी रुकैया बेगम ने 1520 और 1540 के बीच कभी कराया था। रुकैया बेगम गुजरात के सुल्तान की पुत्री थी। बुरहानपुर की यह पहली जामा मस्जिद है। जर्जर मस्जिदभवन निर्माणकला का एक महत्वपूर्ण अवशेष है। यह बाहर से 40 मीटर से अधिक लम्बी और 14 मीटर से अधिक चौड़ी एक सादी आयताकार मस्जिद है। सामने की दीवाल में तीन बड़ी मेहराबें हैं प्रत्येक मेहराब की नक्काशी भिन्न है। बीच के मेहराब के बाजू में पाँच मंजिल ऊँची दो मीनारें थीं जिनकी दो मंजिलें पत्थर की थींऔर ऊपर की तीनों मंजिलें ईंट की ईंट की ऊपरी मंजिलें बाद में बनाई गई थी। भीतर बड़ा गुंबद भी कब का गिर चुका है। 21 आज आसपास की घनी बस्ती के कारण मस्जिद गुम सी हो गई है। यह ऐसी इमारत है जो अपने डिजाइन तथा निर्माण में अधिक जीवंतता प्रदान करती है। इसकी शैली अहमदाबाद की कुछ खास मस्जिदों के समान है- जैसे सामने के मेहराब दार दरवाजे के बाजू में ऊँची मीनारें । इसकी मीनारों की बनावट ही इस मस्जिद की खासियत है। 


फारुकी शासकों के दो मकबरे

शहर से करीब दो किलोमीटर उत्तर की तरफ पुराने दौलत-ए-मैदान में फारुकी शासकों के दो मकबरे हैं। इनमें से एक है मीरन मुहम्मदशाह द्वितीय (1566-76) का मकबरा और दूसरा राजा अलीखान आदिलशाह चतुर्थ का मकबरा काले पत्थर के ये मकबरे एक विशाल आहाते के भीतर हैं। पश्चिम की तरफ बना मकबरा मीरन मुहम्मदशाह द्वितीय का है। यह एक सादी सी वर्गाकार इमारत है जिसके सामने की दीवार पर मध्य में कुछ आगे निकला हुए भाग दरवाज़ा है। ऊँचे चबूतरे पर बनी तराशे हुए पत्थरों की यह इमारत अपनी ऊँचाई और ऊँचे विशाल गुम्बद के कारण प्रभावशाली लगती है। प्रत्येक भुजा में एक दरवाजा बना है और हर दरवाज़ा सुन्दर मेहराब वाला है। मुख्य दरवाजे के ऊपर काफी ऊँचाई पर मकबरे के चारों ओर ब्रेकेट बने हैं जिन पर बरसाती के अवशेष दिखते हैं। उनके ऊपर गुम्बद का अष्टकोणीय आधार है। गुम्बद सादा एवं गोलाई लिए है मकबरे के भीतर कोई सजावट नहीं है पर रंगों के अवशेष अवश्य दिखते हैं जिनसे कभी सजावट की गई होगी। भीतर चबूतरे पर पत्थर की तीन मजारें हैं जो राजपरिवार की हैं। इनमें अरबी में कुरान की आयतें उकेरी हुई हैं। मकबरे के पास मुहम्मदशाह फारुकी के गरु इब्राहीम सत्तारी की मजार है।

 

राजा अलीखान या आदिलशाह चतुर्थ का मकबरा मीरन मुहम्मदशाह द्वितीय के मकबरे के पूर्व में पास ही बना है। उसकी योजना तथा रूपरेखा मीरन मुहम्मदशाह फारुकी के मकबरे से मेल खाती है। फर्क यह है कि इसका गुम्बद कम गोलाई लिए है और कम ऊँचा है। साथ ही इस मकबरे की दीवारों पर केवल एक दरवाजा है जो दोहरी मेहराबों से बना है। इस मकबरे के भीतर कई मजारें हैं। इस मकबरे की पश्चिमी दीवार के बाहर की तरफ बादशाह अकबर द्वारा अंकित कराया गया फारसी शिलालेख है जिसमें अकबर की असीरगढ़ विजय का उल्लेख है। इन दोनों मकबरों के आसपास कई कब्रों के अवशेष हैं।

 

जामा मस्जिद जामा मस्जिद काले पत्थर की बनी बेहतरीन लेकिन सादी इमारत है जो शहर के सबसे व्यस्त चौराहे पर दुकानों से घिरी हुई है। यह ऐसी मजबूत इमारतों में से एक है जो काल और मौसम के आघातों को सहकर भी जैसी की तैसी है। जामा मस्जिद को फारुकी शासक राजा अलीखान ने 1588-89 में बनवाया था। इसका जिक्र मस्जिद में खुदे शिलालेखों में मिलता है। काले पत्थर से बनी इस भव्य इमारत की योजना आम मस्जिदों की तरह ही है। मस्जिद में एक विशाल दरवाजाचहारदीवारी से घिरा लम्बा चौड़ा दालान और मस्जिद का मुख्य इबादतखाना है।

 

मुख्य प्रवेश द्वार करीब 8 मीटर ऊँचा तथा करीब 3 मीटर चौड़ा है। मस्जिद का सेहन चहारदीवारी से घिरा हुआ है। मुख्य दरवाज़े से लगी हुई दीवारों में याने पूर्वी दीवारों में कमरे बने हैं जिन्हें हुजरे कहा जाता है। सेहन में कई कब्रें बनी हैं। पास ही दो बड़े हौज हैं जिनमें लालबाग के जाली करंज से भूमिगत पक्की नालियों द्वारा पानी पहुँचता था ।

 

मस्जिद के इबादतगाह में सामने मेहराबों की कतार है। हर मेहराब के पीछे चार मेहराबें और इस प्रकार 5-5 मेहराबों की पन्द्रह कतारें बन गई हैं। कुल 75 मेहराबें हैं। बाहरी मेहराबों पर पूरी लम्बाई में फूलदार बार्डर है जिसके ऊपर हिन्दू तरीके के ब्रेकेट्स बने हैं। इबादतगाह के भीतर मेहराबें ऊपर एक दूसरे को काटती हैं जिससे मस्जिद की छत खुद-ब-खुद ही बन गई है। मेहराबों की यह शैली हमें मालवा के भवनों में भी देखने में आती है। असीरगढ़ की मस्जिद में भी ऐसी ही एक दूसरे को काटने वाली मेहराबें हैं। इबादतगाह की पश्चिमी दीवार पर 15 उथली किन्तु दोहरी मेहराबें बनी हैं। हर मेहराब पर अलग-अलग डिजाइन की बेहतरीन नक्काशी और बेलबूटे हैं। मस्जिद के निर्माण का जिक्र करने वाले दो शिलालेख भी इबादतगाह में हैंएक संस्कृत में और दूसरा अरबी में मस्जिद की मीनार पर अकबर का शिलालेख है जिसमें असीरगढ़ और खानदेश की विजय का जिक्र है।

 

मस्जिद के कोनों पर 36 मीटर ऊँची पाँच मंजिली दो मीनारें दूर से ही दिखाई देती हैं। मीनारों की पहली मंजिल की दीवार में कई पहल हैं और इसके निचले हिस्से पर कंगूरों व बेलबूटों की आकृति खुदी है। ऊपरी भाग में सुन्दर ब्रेकेट हैं जिन पर छज्जा टिका है। मीनारों की दूसरी ओर तीसरी मंजिलें अठपहली है और बाहर से दो कमरबन्दों से घिरी हैं। इनमें भी सुन्दर ब्रेकेटों पर छज्जे बने हैं। चौथी मंजिल सोलह पहलों की है पर दूसरी और तीसरी मंजिल से छोटी हैं। यह भी एक कमरबंद से घिरी है। पाँचवी मंजिल ब्रेकेटों पर आधारित एक छल्ले पर स्थिति है। इसके ऊपर गुंबद है जिसके ऊपर छोटा कलश है। गुंबद पर सफेद मोज़ेक है। मीनारें अलग से तो भव्य हैं पर मस्जिद के आकार के हिसाब से काफी ऊँची और मोटी हैं। मीनारों के भीतर नीचे से ऊपर तक घुमावदार सीढ़ियाँ हैं जिनसे मीनारों के शिखर तक जाया जा सकता है। जामा मस्जिद में उकेरे गये कमल के फूलपंखुड़ियों के समान कंगूरे और संस्कृत का शिलालेख हिन्दू प्रभाव और शासक की उदार मनोवृत्ति के प्रमाण है ।

 

तीन दरगाहें - 

फारुकी जमाने की बुरहानपुर में सबसे महत्वपूर्ण दरगाह हजरत शाह भिकारी की है। इन हजरत का पूरा नाम कुतुबमौलाना शाह भिकारी था। ऐसा कहा जाता है कि ये प्रख्यात सूफी सन्त बाबा फरीदुद्दीन गंजेशकर के वंशज थे। इनकी मृत्यु 1501 में हुई थी। ऊँचे स्थान पर बनी दरगाह दीवार से घिरी है। इसके अहाते में और भी मजारें बनी हुई हैं। यह दरगाह अनगढ़ पत्थर से बनी है जिस पर प्लास्टर है। दरगाह का कमरा चौकोन है जिसकी दीवारों पर आठ मेहराबें बनी हैं। इन्हीं मेहराबों पर गुम्बद का आधार बना है आठ भुजाओं वाले इस आधार पर दरगाह का सुन्दर और विशाल गुम्बद बना है जिसके शिखर पर कलश सुशोभित है।

 

इस जमाने की दूसरी दरगाह बुरहानपुर के शाहबाजार में पाण्डूमल चौराहा के पास है। इसे हजरतशाह बहाउद्दीन बाजन "चिश्ती की दरगाह के नाम से जाना जाता है। यह वर्गाकार छोटी सी दरगाह देखने में सादी एवं प्रभावहीन है। पास ही पाँच मेहराबों वाली दो दालान की मस्जिद है जिस पर गुंबद है। इस मस्जिद के भीतरी भाग में एक अरबी शिलालेख है और दक्षिणी दरवाजे पर भी एक फारसी शिलालेख है जिनका उल्लेख आगे है। ये शिलालेख 877 हिजी अर्थात् सन् 1572-73 ई. के हैं। हजरत शाह बहाउद्दीन बाजन का देहावसान 1508 ई. में हुआ था ।

 

खैराती बाजार में हजरत शाह मंसूर की दरगाह है। पास ही एक मस्जिद भी है जिसके शिलालेख से पता चलता है कि दरगाह और मस्जिद फारुकी शासक राजा अलीखान ने 990 हिज्री याने 1582 ई. में बनवाया था। दरगाह चौकोर एवं साधारण है और इस पर एक गुंबद के आसपास कँगूरेदार मुंडेर है। 

 

जैनाबाद की सराय और मस्जिद- 

जैनाबाद के घोसीबाड़ा में एक बड़ी सराय है जिसका भीतरी भाग करीब 75 मीटर लम्बा और उतना ही चौड़ा है। इसमें ज्यादातर ईंट का इस्तेमाल किया गया है और खुले मैदान के चारों ओर करीब 150 कमरे बने हैं। सराय के उत्तर में एक बड़ी मस्जिद है जिसके इबादतगाह की छत तो गिर गई है पर मगरिब की दीवार शेष है। मस्जिद के आजू-बाजू की दोनों मीनारें अभी भी हैं। चार मंजिली इन मीनारों के ऊपर छोटे गुम्बद हैं। दूर से दिखने वाली इन ऊँची मीनारों को देखकर मस्जिद की भव्यता का अनुमान लगाया जा सकता है। वे मीनारें ईंट से बनी हैं। 24 सराय के पश्चिम में फारुकी काल के सूफी सन्त पीरशाह चिश्ती कादरी (प्यारे मियाँ) का मकबरा है जो काले पत्थरों से बना है।

 

जैनाबाद की सराय और मस्जिद इस बात के प्रमाण हैं कि अपने उत्कर्ष काल में जैनाबाद व्यापार का केन्द्र था तभी तो बाहर से आने वाले लोगोंव्यापारियों के लिए इतनी बड़ी सराय की जरूरत पड़ी।

 

सराय आदलपुरा- 

बुरहानपुर से खण्डवा जाने वाली सड़क पर शहर के बाहर दाहिनी ओर ईंटों से बनी एक मस्जिद है जिसके सामने एक विशाल सराय है जो सराय आदलपुरा के नाम से जानी जाती है। एक विशाल मैदान के चारों ओर 68 कमरे बने हैं और बाहर की ओर सराय के प्रवेश द्वार के दोनों तरफ 8-8 कमरे बने हैं याने सराय में कुल 84 कमरे हैं जो आज भी ठीक हालत में है। कमरों की श्रृंखला के बाहर मेहराबदार दालान है। सराय के सामने अच्छी हालत में एक बड़ी मस्जिद है जो ईंटों की ऊँची चहारदीवारी से घिरी है। मस्जिद की नींव पत्थर की है पर दीवारें और दोनों मीनारें ईंट की हैं। मीनारें सुन्दर और आनुपातिक हैं तथा चार मंजिल की हैं। मीनारों के सिरों पर कलश मस्जिद जैनाबाद की सराय की मस्जिद के समान ही दिखती है। सराय और मस्जिद कब बनी इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता पर जैसा कि इसके नाम से स्पष्ट है यह आदिलशाह फारुकी के समय की है।

 

कठला सराय- 

फारुकी जमाने की यह सराय महाजनापेठ में है। 52 हुजरों (कमरों) वाली यह सराय ईट की बनी है। इसके विशाल प्रवेश द्वार पर पुराने दरवाजे अभी भी बरकरार हैं। इन कमरों की मेहराबें चौड़ी हैं और उनका आकार वैसा ही है जैसा जैनाबाद की सराय की मेहराबों का है। मैदान के आसपास चार भुजाओं में से प्रत्येक में तेरह कमरेइस प्रकार कुल 52 कमरें इस सराय में हैं। मैदान के बीच में कारंज याने पानी का हौज था। सराय के एक कोने में एक मजार है जो पीर जलालुद्दीन शाह की बताई जाती है। मजार के आसपास एक कटहरा था इस कारण सराय का नाम कटहरा सराय था जो बाद में बिगड़कर कठला सराय हो गया।

 

फारुकी शासकों का अरबी और फारसी साहित्य 

फारूकी शासकों के जमाने में फारुकियों की राजधानी बुरहानपुर में अरबी और फारसी में साहित्य रचना हुई। इसी दौरान रेख्ता और हिन्दी का विकास भी हुआ। आगे चलकर रेख्ता ने ही उर्दू का रूप ग्रहण किया।

 

फारूकी शासकों के दो सौ वर्ष के शासन में बुरहानपुर अंचल में अरबी और फारसी साहित्य की खूब रचना हुई। यह उल्लेखनीय है कि अरबी और फारसी के अधिकांश रचनाकार बुरहानपुर अंचल के सूफी संत थे और इसलिए जो साहित्य इन्होंने रचा वह धार्मिक विषयों से संबंधित था । 

 

सूफी संत शाह ईसा जुनदुल्लाह ( मृत्यु 1622 ई.) अरबी और फारसी के अनन्य विद्वान थे । "तारीख - ए - औलिया ए कराम बुरहानपुर में शाह ईसा जुनदुल्लाह की अरबी तथा फारसी की तेरह कृतियों का उल्लेख किया है जैसेऐनुल मुआफी (फारसी)दौजतल हस्ना (फारसी)रिसाला ए हवास पंचगाना (फारसी) और अनवारूल इसरार (अरबी) आदि ।

 

शेख अली मुत्तकी (मृत्यु 1558 ई.) सूफी संत के रूप में जितने व्याख्यात थेउससे अधिक वे अपनी विद्वत्ता के लिए जाने जाते थे। "तारीख-ए-औलिया-ए-कराम बुरहानपुर" के अनुसार हजरत शेख अली मुत्तकी ने अरबी और फारसी में एक सौ से ज्यादा किताबें लिखीं। उनकी कृति "जमाउल जवामा 957 हिजी में लिखी गई थी और हैदराबाद से प्रकाशित हुई। इसकी आठ जिल्दें अहमदबाद के एक पुराने पुस्तकालय कुतुबखाना पीर मुहम्मदशाह में संग्रहीत हैं। इसके अतिरिक्त उनकी अन्य किताबें हैं – “कनजुल अमाल", "तब्बईन ए तरक", "मज्मुए हुक्म कबीर", "अल तिब्बे इलतेयाम उल - जमीउल इसकाम" और "किताबुलतन्वी फी असकासन्नदी"। अंतिम पुस्तक तौसूफ पर है। इनके अतिरिक्त कुछ रिसाले भी उन्होंने निकाले रिसालाए महतवी अरबी और रिसालाए तबस्सुल फिल - मकीनुल मुतवक्कल हदीस पर ही प्रसिद्ध विद्वान शेख अली मुत्तकी ने "कुन्दजुल उस्मान" नाम की प्रसिद्ध पुस्तक लिखी । हदीस की यह किताब सारी इस्लामी दुनिया में मशहूर है।

 

हजरत मोहम्मद हाशम किश्मी (मृत्यु 1640 ई.) उच्च कोटि के दार्शनिक होने के साथ ही फारसी भाषा में अच्छे कवि भी थे। उनके द्वारा लिखी गई पुस्तक "जुबदतुल मकामात" बरकाते अहमादिया हैजिसमें उन्होंने अपने गुरु (पीर) की जीवनी एवं उपदेश अंकित किये हैं। यह फारसी भाषा में है। दूसरी पुस्तक "मुकतूबाते रब्बानी" उनकी रचनाओं का संग्रह है। यह भी फारसी भाषा में है।

 

हजरत बुरहानुद्दीन राज-ए-इलाह हजरात शाह ईसा जुनदुल्लाह में विषय थे। आध्यात्मिक उपलब्धियों के अलावा बुरहानुद्दीन राज-ए-इलाह फारसी के लेखक भी थे। उन्होंने शरह आमन्तु बिल्लाहवसीयतनामाहवाला ए आखिरहवाला ए जाहिर और हवाला ए बातिन नामक पुस्तकों की रचना की।

 

बुरहानपुर मे हदीस पर फारसी में कुछ ऐसी पुस्तकें लिखी गई जो इस्लामी दुनिया में अपनी प्रामाणिकता के लिए मशहूर हुई। हजरत शेख उस्मान ने हदीस पर "तोजीह" नामक किताब लिखी । हदीस पर शेख अली मुत्तकी के अलावा हजरत शेख उस्मान और हजरत शेख तैयब ने किताबें लिखीं। वास्तव में सोलहवींसत्रहवीं और अट्ठारहवीं सदी में बुरहानपुर के इन विद्वानों और इनके शिष्यों ने हदीस पर अनेक प्रामाणिक पुस्तकें लिखीं जो आज भी सर्वमान्य हैं। हजरत ईसा जुनदुल्लाह के चाचा हजरत शेख ताहिर मोहरद्दिस ने 'मुन्तख्ब मवाहि बुल्लाहनिय्याऔर 'मजमा उल बहारका लेखन किया ।

 
फारुकी शासकों की शुरुआती उर्दू
 

पन्द्रहवीं शती में फारसी और हिन्दी के शब्दों को मिलाकर जो जबान बनी उसे पहले 'रेख्ताकहा जाता था। फिर रेख्ता में फारसी शब्द क्रमशः बढ़ते गये और फिर इसे उर्दू के नाम से जाना जाने लगा । याने रेख्ता वास्तव में उर्दू के बचपन का रूप है। अभी तक उर्दू कविता के विकास में पहला नाम गोलकुण्डा के शासक मुहम्मद कुली कुतुबशाह का आता है। उसका शासनकाल 1580 से 1611 ई. तक है। लेकिन कुली कुतुबशाह से काफी पहले बुरहानपुर में इस नई भाषा में काव्य रचना होने लगी थी । पन्द्रहवीं सदी में बुरहानपुर में पहले शेख सादी दक्खनी ने और फिर शाह बहाउद्दीन बाजन ने रेख्ता में काव्य रचना की। और इस कारण गोलकुण्डा में नहीं बल्कि बुरहानपुर में उर्दू कविता का जन्म हुआऐसा मानना चाहिए। शेख सादी दक्खनी एक सूफी संत थे। उनका जन्म कब हुआ था यह ज्ञात नहीं है। पर उनके देहावसान की तिथि 907 हिजी याने 1502 ईस्वी है। शेख सादी दक्खिनी की काव्य रचना बुरहानपुर को रेख्ता के और इस माने में उर्दू के शैशवकाल के विकास का श्रेय देती है। लेकिन शेख सादी दक्खनी को उर्दू के प्रणेता के रूप में इसलिए मान्यता नहीं मिली क्योंकि उनके केवल स्फुट शेर हीवे भी केवल गिनती के उपलब्ध हुए है। उनका कोई दीवान उपलब्ध नहीं है

 

यह कमी बुरहानपुर के हजरत शाह बहाउद्दीन 'बाजनने पूरी की। उनका जन्म 1388 ई. में अहमदाबाद में हुआ था। बाद में वे बुरहानपुर में आकर बस गये। सूफी संत होने के साथ ही शाह बाजन फारसीहिन्दी और रेख्ता के अच्छे कवि भी थे। उनके बारे में एक महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्होंने रेख्ता में याने उस समय की हिन्दी खड़ी बोली में कविताएँ लिखीं। पन्द्रहवीं शती के मध्य में याने 60 वर्ष की उम्र में बाजन साहब अपने सृजन के शिखर पर रहे होंगे।

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