मध्यप्रदेश में दिल्ली सल्तनत का प्रसार | Delhi Sultanate Expansion in Madhya Pradesh

मध्यप्रदेश में  दिल्ली सल्तनत का प्रसार 

मध्यप्रदेश में  दिल्ली सल्तनत का प्रसार | Delhi Sultanate Expansion in Madhya Pradesh
 

मध्यप्रदेश में  दिल्ली सल्तनत का प्रसार  

Index

  • तत्कालीन राजनीतिक स्थिति
  • मुहम्मद गौरी और ऐबक के आक्रमण 
  • इल्तुतमिश - नासिसद्दीन महमूद - खलजी के अभियान
  • तुगलक शासकों के समय तैमूर के बाद 
  • सांस्कृतिक गतिविधियां 

 

तत्कालीन राजनीतिक स्थिति

  • वर्तमान मध्यप्रदेश जहाँ पर स्थित है उस इलाके में तेरहवीं सदी की शुरूआत सत्ता के विभिन्न परिवर्तनों के साथ हुई। उत्तर भारत में दिल्ली में एक महत्वपूर्ण बदलाव यह हुआ कि दिल्ली को केन्द्र बनाकर इलबारी तुर्कों की सत्ता कायम हो गई और नई स्फूर्ति से अनुप्राणित मुस्लिम सेना दिल्ली को केन्द्र बनाकर आसपास के उन इलाकों को विजित करने के लिए सन्नद्ध हो गई, जहाँ पतनशील राजपूत राज्यों का आधिपत्य था।
  • इलबारी तुर्कों के आक्रमणों का असर चम्बल की घाटी वाले इलाके पर और ग्वालियर के इलाके पर और उसके बाद मालवा क्षेत्र पर होने में ज्यादा साल नहीं लगे। तेरहवीं सदी में भारत के मध्यवर्ती इलाके में याने वर्तमान मध्यप्रदेश के उत्तरी अर्द्धाश में स्थित प्रतिहार, परमार और चन्देल राजपूत राज्यों पर दिल्ली के सुल्तानों की सेनाओं के धावे होते रहे। 
  • चौदहवीं सदी शुरू होने के साथ ही दिल्ली के सुल्तानों की सत्ता वर्तमान मध्यप्रदेश के कुछ भागों में पुख्ता होती गई। चौदहवीं सदी में ही वर्तमान मध्यप्रदेश के सतपुड़ा के अंचल में चोरला नामक एक राजपूत राज्य विकसित हुआ जो अपने आसपास की बड़ी ताकतों के बावजूद काफी सालों तक विद्यमान रहा। देखा जाये तो 13वीं और 14वीं की सदियाँ सत्ता के संघर्ष की सदियाँ थीं और सत्ता का यह संघर्ष वर्तमान मध्यप्रदेश में आगे की दो सदियों तक और चलने वाला था। 
  • पन्द्रहवीं सदी दिल्ली सल्तनत के विघटन की सदी थी और इस सदी में जहाँ मध्यप्रदेश के मालवा क्षेत्र में गोरी और खिलजी वंश का एक शक्तिशाली राज्य कायम हुआ, वहीं ग्वालियर चम्बल क्षेत्र में तोमरों की सत्ता कायम हुई। इसी सदी में मध्यप्रदेश के दक्षिणी हिस्से में गढ़ा के गोंड राज्य का निर्माण हुआ। पन्द्रहवीं सदी में उभरे ये तीनों राज्य मुगलों की सत्ता स्थापित होने तक बने रहे। 

 

तत्कालीन राजनीतिक स्थिति

 

  • बारहवीं शताब्दी के अंत एवं तेरहवीं शताब्दी के आरंभ में मध्यप्रदेश में चंदेल, कलचुरी और परमार वंश शासन कर रहे थे। चंदेलों ने 11वीं शताब्दी में गंगा-यमुना के दोआब के दक्षिणी भाग पर अधिकार कर लिया था बुंदेलखंड भी उनके राज्य में सम्मिलित था। मदनवर्मन उस वंश का विख्यात शासक था। उसने मालवा के परमारों तथा गुजरात के सिद्धराज को पराजित किया। आधुनिक मध्यप्रदेश के जबलपुर जिले में स्थित त्रिपुरी के कलचुरियों को भी उसने हराया। संभवतः बारहवीं शताब्दी के अंत में कलचुरी शासक चंदेलों के अधीनस्थ सामंत हो गए। किन्तु आगे चलकर चंदेलों को भी गहड़वारों द्वारा पराजित होना पड़ा। परमर्दिदेव इस वंश का अंतिम महत्वपूर्ण शासक हुआ। इस युग के प्रारंभ में चंदेल राज्य में महोबा, कालिंजर, खजुराहों तथा अजयगढ़ सम्मिलित थे। संभवतः झाँसी भी उनके राज्य का एक अंग था।

 

  • मालवा के परमारों की राजधानी धार थी। अपने महानतम शासक भोज के समय में वे बहुत शक्तिशाली और प्रसिद्ध हो गए किन्तु बारहवीं शताब्दी में उनका भी पतन होने लगा। गोरी के आक्रमण के काल में इस वंश का शासक एक महत्वहीन सामंत था और गुजरात के चालुक्यों के अधीन था। 


मोहम्मद गोरी और ऐबक के आक्रमण :- 

  • सन् 1192 ई. के तराइन के युद्ध के पश्चात् गोरी द्वारा उत्तर भारत में सत्ता के विस्तार के प्रयासों के तहत मध्यप्रदेश में सन् 1195-96 ई. में ग्वालियर, मुरैना क्षेत्र में आक्रमण किए गए। सन् 1195 ई. में शिहाबुद्दीन गोरी ने ऐबक और तुगरिल के साथ त्रिभुवनगढ़ पर हमला किया। यह उस समय कुमारपाल के अंतर्गत था जो यदुवंशी शासक था वृद्धावस्था के कारण कुमारपाल ने गोरी के सम्मुख समर्पण कर दिया। गोरी ने तुगरिल को वहाँ का प्रशासक नियुक्त किया। इसके बाद ही सन् 1195 -1196 ई. में शिहाबुद्दीन गोरी ने ग्वालियर दुर्ग पर हमला किया। 
  • ग्वालियर के प्रतिहार शासक सुलक्षणपाल ने गोरी सुल्तान की अधीनता मान ली और उसे दस हाथी भेंट किए। गोरी इसके बाद गजनी लौट गया। लौटते समय वह तुगरिल को ग्वालियर किले पर कब्जा करने के लिए निर्देश दे गया था । तुगरिल ने तुरंत ही ग्वालियर पर आक्रमण किया और आसपास के क्षेत्र को तहस-नहस कर दिया तथा किले की रसद को काट दिया। तुगरिल ने करीब डेढ़ वर्ष तक किले का घेरा डाले रखा ।
  • प्रतिहार शासक सुलक्षण पाल के पास आत्म-समर्पण करने के अलावा कोई चारा नहीं रहा। तुगरिल से संधि करने के बावजूद भी सुलक्षण पाल ने किला कुतुबुद्दीन के अधीन सौंप दिया। सुलक्षण पाल के इस कदम से दोनों तुर्क सेनापतियों में फूट और झगड़ा उत्पन्न होता किंतु शीघ्र ही तुगरिल की मृत्यु के कारण यह द्वन्द्व टल गया और किला कुतुबुद्दीन ऐबक के पास ही रहा। उसने इल्तुतमिश को यहाँ का किलेदार नियुक्त कर दिया।

 

  • मध्यप्रदेश में गोरी के शासन काल में कुतुबुद्दीन ऐबक की महत्वपूर्ण सफलता बुंदेलखंड की विजय थी। उसने मोहम्मद गोरी की अनुपस्थिति में सन् 1202-03 ई. में बुंदेलखंड पर आक्रमण किया और चंदेल शासक परमर्दिदेव को पराजित कर कालिंजर, महोबा और खजुराहो पर अधिकार कर लिया।  
  • सन् 1202 ई. में ऐबक ने कालिंजर के दुर्ग का घेरा डाला। यह चंदेलों के अधीन एक शक्तिशाली दुर्ग था । परमर्दिदेव ने कुछ समय तक प्रतिरोध किया किन्तु उसे दुर्ग ऐबक को समर्पित करना पड़ा साथ ही कुछ धनराशि और हाथी देने पड़े थे। किन्तु संधि की शर्तों का पालन होने के पहले ही परमर्दिदेव की मृत्यु हो गई ।

 

  • चंदेलों के नवीन शासक अजयपाल के स्थापित होने पर भी तुर्कों का घेरा जारी रहा किन्तु सूखा पड़ने के कारण दुर्ग के सभी जल स्रोत सूख गए। इस कारण अजयपाल की सेना ने बिना शर्त समर्पण कर दिया। परिणामस्वरूप कुतुबुद्दीन ऐबक ने चंदेलों के राज्य को अधिगृहीत कर लिया। इस तरह लंबे शासनकाल के पश्चात चंदेलों का पतन हुआ । कुतुबुद्दीन ऐबक ने कालिंजर के किले को हसन अरनल के हाथों सौंप दिया। किन्तु ऐबक की यह विजय स्थाई नहीं थी । परमर्दिदेव के उत्तराधिकारी त्रिलोक्यवर्मन ने तुर्कों से न सिर्फ कालिंजर का दुर्ग, बल्कि आसपास के हारे हुए क्षेत्र भी पुनः प्राप्त कर लिए। साथ ही यह भी ज्ञात होता है कि उसने कालिंजराधिपति की उपाधि भी धारण की थी ।

 

  • मालवा में कुतुबुद्दीन ऐबक का पहला धावा उज्जैन पर था। सन् 1196-97 ई. में ऐबक ने उज्जैन तक लूटपाट की किन्तु उसकी यह विजय भी स्थाई सिद्ध नहीं हुई ।

 

  • 1210 में कुतुबुद्दीन ऐबक के निधन के बाद आरामशाह शासक बना। उसके एक साल के निर्बल शासन के दौरान हिंदुओं ने अपनी सत्ता फिर जमा ली और लगता है कि बिहार शासक विग्रह ने फिर से ग्वालियर पर कब्जा कर लिया। उसके पुत्र मलयवर्मन ने तो झाँसी और नरवर तक अपना क्षेत्र बढ़ा लिया। उसने नडोल के चद्रभान कल्हण की कन्या से विवाह कर लिया। उसके सिक्कों से पता चलता है कि ग्वालियर उसके अधिकार में 1222-23 तक रहा। 

 

  • आरामशाह के निधन के बाद 1211 में इल्तुतमिश दिल्ली का सुल्तान बना। उसके अधीन तुर्की सत्ता के प्रयास जारी रहे। इसके फलस्वरूप मध्यप्रदेश के विभिन्न हिस्सों में उसकी सेना का अतिक्रमण होता रहा किन्तु इन क्षेत्रों में तुर्कों की सफलताएं अस्थायी रहीं। 

 

  • उस समय ग्वालियर का दुर्ग प्रतिहारों के अधिकार में था। 1231 में इल्तुतमिश ने ग्वालियर को घेर लिया। प्रतिहार शासक मलयवर्मन ने डटकर मुकाबला किया। यह घेरा 11 माह चला। अंत में प्रतिहार शासक की पराजय हुई। किले की महिलाओं ने तालाब के पास जौहर कर लिया। आज भी वह तालाब जौहर ताल के नाम से जाना जाता है। स्थानीय चारणों ने इस मार्मिक घटना को वर्णित किया है 70 रानियाँ कहती हैं- पहले हम जू जौहर परी, तब तुम जूझे कंत सम्हारी याने पहले हम जौहर करेंगी फिर हे पति तुम मौत को गले लगाना। इस घटना का वर्णन करने वाला शिलालेख बाबर ने उरवाही दरवाजे के पास देखा था। यह उसने अपनी आत्मकथा 'बाबरनामा' में लिखा है। 

  • मलयवर्मन के भाई नरवर्मन ने ग्वालियर पर कब्जे में तुर्कों की मदद की थी। इस कारण इल्तुतमिश ने उसे शिवपुरी के क्षेत्र पर अधिकार प्रदान किया। 

  • ग्वालियर विजय के दो साल बाद मलिक नुसरतउद्दीन तयाती को ग्वालियर का किलेदार बनाया गया और उसे सुल्तान कोट तथा बयाना का इक्ता दिया गया। इस प्रकार गुना-चंदेरी का इलाका इल्तुतमिश के कब्जे में चला गया। सन् 1234 ई. में छहदेव नामक राजपूत सरदार ने उसे परास्त किया और तयासी सिंध के तट की और भाग गया।

 

  • इल्तुतमिश ने बयाना और ग्वालियर के सूबेदार मलिक तयसाई को कालिंजर जीतने के लिए भेजा। चंदेल राजा त्रिलोक्यवर्मन तुर्की सेना का मुकाबला नहीं कर सका और कालिंजर को छोड़कर भाग गया। तुर्कों ने उसे लूटा किन्तु पड़ोस के चंदेलों ने उन्हें इतना त्रस्त किया कि वे अधिक प्रगति न कर सके और भाग खड़े हुए। इल्तुतमिश ने स्वयं गेहलोतों की राजधानी नागदा पर हमला किया परन्तु वहाँ के राजा क्षेत्रपाल ने सुल्तान को पराजित कर दिया।

 

  • सन् 1234 में इल्तुतमिश ने अपने मालवा अभियान के दौरान भेलसा पर आक्रमण किया और उसे तहस-नहस कर दिया। यह भी कहा जाता है कि उसने विजय मन्दिर को भी नष्ट कर दिया जिसके निर्माण में 300 साल लगे थे। भेलसा पर कब्जा कर वह उज्जैन की ओर बढ़ गया। इस समय मालवा में देवपाल परमार शासन कर रहा था। तबकात-ए-नासिरी का लेखक मिनहाज सिराज लिखता है कि इल्तुतमिश विक्रमादित्य की मूर्ति और महाकाल के शिवलिंग को लूटकर दिल्ली ले गया था। इस बात की पुष्टि बाद में फरिश्ता ने भी अपने ग्रंथ में की हैं। 
  • इल्तुतमिश के इस अभियान के बाद सात दशकों तक मालवा परमारों के पास बना रहा। 


नासिरुद्दीन महमूद के मध्यप्रदेश में अभियान  

  • उल्लेख मिलता है कि उस समय चंदेरी और नरवर पर यज्वपाल वंश के शासक चहाड़ देव का शासन बना। वह इतना शक्तिशाली था कि ग्वालियर स्थित मुस्लिम सैना पर उसने आक्रमण कर दिया जिससे दिल्ली की सुल्तान रजिया बेगम को दिल्ली से उसके विरुद्ध तमुर खान के अधीन एक सेना भेजनी पड़ी। यह सैनिक टुकड़ी जब प्रभावी नहीं रही तो रजिया ने मलिक ताजुद्दीन संजास को भेजा कि वह वहाँ के सैनिकों और असैनिकों को हटा दे। अब ग्वालियर यज्वपाल वंश की सत्ता का केन्द्र हो गया ।

 

  • नासिरुद्दीन महमूद के काल में जब बलबन उसका नायब-ए-मुमालिक था, तब उसने सन् 1247 ई. में कालिंजर पर आक्रमण किया था। वहाँ के बघेला शासक दलकेश्वर और मलकेश्वर ने मुस्लिम आक्रमण का बहादुरीपूर्वक सामना किया किन्तु वह पराजित हुआ। इसके कारण राज्य का एक बड़ा हिस्सा मुस्लिम आधिपत्य में चला गया हालाँकि हिन्दुओं ने पुनः कालिंजर थोड़े समय बाद ही हासिल कर लिया। 

 

  • 1250 में जब देवपाल का पुत्र जैतुगिदेव परमार शासन कर रहा था तब इस क्षेत्र पर फिर से बलबन ने धावा किया था। इसके बाद बलबन ने ऊलगु खाँ के नेतृत्व में सन् 1251 ई. में कालिंजर पर आक्रमण किया हालाँकि हिन्दुओं ने थोड़े ही समय में कालिंजर फिर वापस ले लिया।
  •  नवम्बर 1251 में ही बलबन ने चंदेरी और नरवर के राजा चहाड़देव या जहरदेव पर आक्रमण किया, जो मालवा का एक शक्तिशाली शासक था। राजा के पास 5000 घुड़सवार और 2 लाख पैदल थे पर वह पराजित हुआ लेकिन बलबन वहाँ रुका नहीं और भारी लूट के माल के साथ 24 अप्रैल 1251 को दिल्ली लौट आया। 

  • 1251 में नासिरुद्दीन के समय बलबन ने ग्वालियर पर आक्रमण किया लेकिन वहाँ अपनी सत्ता कायम करने में सफल नहीं हुआ। चहाड़देव के सिक्के 1237 से 1254 के मिलते हैं।

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