लोक वित्त का अर्थ परिभाषा |लोक वित्त का महत्त्व एवं क्षेत्र | Public Finance in Hindi

लोक वित्त का अर्थ एवं क्षेत्र

लोक वित्त का अर्थ परिभाषा |लोक वित्त का महत्त्व एवं क्षेत्र | Public Finance in Hindi


 

लोक वित्त का अर्थ एवं क्षेत्र - प्रस्तावना

 

लोक वित्त अपने आप में नया विषय नहीं है और इसका अध्ययन प्राचीनकाल से होता आया है किंतु वैज्ञानिक ढंग से इसका अध्ययन वर्तमान में ही सम्भव हो पाया है। प्राचीनकाल में इस विषय का क्षेत्र संकुचित था किंतु आज इसका क्षेत्र अपेक्षाकृत अधिक विस्तृत हो चुका है। यद्यपि प्राचीन एकतन्त्रीय प्रणाली में भी आय-व्यय का ब्योरा रखा जाता था किन्तु उसका प्रारूप छोटा होता था क्योंकि राज्य के कार्य अत्यधिक सीमित थे। इसके विपरीत आधुनिक राज्यों के कार्यों में निरंतर वृद्धि होती जा रही है। विशेषकर कल्याणकारी राज्यों की स्थापना के पश्चात् तो राज्य लोगों के आर्थिक जीवन में इतनी गहनता से प्रवेश कर चुका है कि वर्तमान में उसकी अनुपस्थिति की कल्पना ही नहीं की जा सकती। वर्तमान में राज्य का कार्य केवल सुरक्षा का प्रबंध करना तथा कानून और न्याय की व्यवस्था तक ही सीमित नहीं है बल्कि उसे अनेक कल्याणकारी कार्य भी करने होत हैं उदाहरणार्थ, भारत तथा विश्व के अनेक राज्यों को अनेक कार्य, जैसे- सामाजिक सुरक्षा, जनता का संरक्षण, न्याय, रेलवे, भारी विद्युत संयन्त्रण व अणु-शक्ति जैसी अन्य जनोपयोगी सेवाएँ आदि सम्पन्न करने होते हैं। आर्थिक नियोजन तथा नियोजित विकास की लहर ने जो राज्यों के कार्यों की रूपरेखा से पूर्णतया परिवर्तन कर दिया है। स्वाभाविक है कि राज्यों के कार्यों में निरंतर वृद्धि होने से आय और व्यय के ढाँचे में भी वृद्धि होगी। इस प्रकार यह कहना कठिन होगा कि राज्य जिसका आरम्भ मात्र जीवन के लिए हुआ था, वह आज अच्छे मानव जीवन के लिए कार्यरत है। स्पष्ट है कि राज्यों के बढ़ते हुए कार्यकलापों के फलस्वरूप राज्य की आय तथा व्यय के लिए उचित प्रबन्ध की आवश्यकता अनुभव हुई और उसका परिणाम यह हुआ कि आज लोक वित्त और उसकी समस्याओं का अध्ययन वैज्ञानिक ढंग से किया जाने लगा।

 

लोक वित्त का अर्थ एवं परिभाषा  (Meaning of Public Finance) 

लोक वित्त का संबंध लोक-सत्ताओं या सरकारी सत्ताओं (Public authorities) की आय तथा व्यय से होता है। 'लोक' (Public) शब्द का प्रयोग साधारणतः सरकार (Government) या राज्य (State) के लिए ही किया जाता है। लोक-सत्ताओं में सभी प्रकार की सरकारें सम्मिलित की जाती हैं। अतः यह कहा जा सकता है कि लोक वित्त का संबंध केन्द्र, राज्य तथा स्थानीय सभी प्रकार की सरकारों के आय-व्यय से होता है और लोक वित्त के अंतर्गत इन सभी प्रकार की सरकारों के आय-व्यय का अध्ययन किया जाता है। लोक वित्त को विभिन्न विद्वानों ने परिभाषित किया है। 


लोक वित्त मुख्य-मुख्य परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं -

 

डाल्टन के शदों में, "लोक वित्त का सम्बन्ध लोक-सत्ताओं की आय व व्यय से ती इन दोनों के परस्पर समायोजन से है। 


फिण्डले शिराज के अनुसार, "सार्वजनिक अधिकारियों द्वारा साधनों की प्राप्ति एवं व्यय से संबंधित सिद्धांतों का अध्ययन ही राजस्व कहलाता है। "

 

बेस्टेबल ने इसको परिभाषित करते हुए कहा है, "राजकीय साधनों की पूर्ति एवं उनका उपयोग ही अध्ययन की सामग्री है जिसे राजस्व कहा जाता है।

 

मेहता के शब्दों में, "राजस्व राज्य के मौद्रिक तथा साख सम्बन्धी साधनों का अध्ययन है। 4

 

विश्लेषण – 

विभिन्न विद्वानों द्वारा लोक वित्त की उपर्युक्त परिभाषाओं का अध्ययन करने के पश्चात् यह स्पष्ट हो जाता है कि लोक वित्त का मूल अर्थ केन्द्रीय, प्रान्तीय तथा स्थानीय शासन सत्ताओं के आय तथा व्यय से है। लेकिन वर्तमान समय में यह अर्थ और अधिक विस्तृत और व्यापक हो गया है। अब लोक वित्त का अध्ययन केवल सरकारी आय - व्यय से संबंधित नहीं अपितु इसके अंतर्गत वित्तीय प्रशासन, लेखा परीक्षण व वित्तीय नियंत्रण भी सम्मिलित किया जाता है।

 

अतः लोक वित्त की परिभाषा हम इस प्रकार कर सकते हैं - 

यह वह विज्ञान है जो सार्वजनिक आय-व्यय, ऋण तथा वित्तीय प्रशासन, लेखा परीक्षण व वित्तीय नियंत्रण के मूल सिद्धांतों का तथा राजकोषीय क्रियाओं व राजकोषीय नीतियों का समाज और आर्थिक व्यवस्था पर होने वाली प्रतिक्रियाओं का अध्ययन करता है।

 

सैन्डफोर्ड ने लोक वित्त को निम्न प्रकार परिभाषित किया है

"लोक वित्त का अर्थशास्त्र विशेष रूप से सामूहिक आवश्यकताओं की संतुष्टि से संबंधित है। इसमें हम उन आर्थिक समस्याओं का अध्ययन करते हैं जो राज्य अथवा सार्वजनिक क्षेत्र में उठती हैं, जैसे निजी और सार्वजनिक क्षेत्रों के बीच साधनों का विभाजन किस प्रकार किया जाता है तथा सार्वजनिक क्षेत्र के अंतर्गत सरकारी व्यय के विभिन्न साध्यों की संतुष्टि के लिए साधनों का आबंटन कैसे किया जाता है।"

 

स्पष्ट है कि लोक वित्त या राज्य वित्त (Public Finance) विभिन्न सरकारों की आय एवं व्यय के तरीकों एवं समायोजन से सम्बन्धित समस्याओं का अध्ययन करता है। लोक निकाय (Public bodies) जिन रीतियों अपना धन खर्च करते हैं तथा जिन उपायों से आय तथा ऋण प्राप्त करते हैं, उन उपायों व रीतियों को ही लोक वित्त की क्रियाओं का नाम दिया जाता है। ये उपाय चूँकि राजकोष (foscal or public treasury ) की क्रियाओं संबंध रखते हैं, अतः उन्हें राजकोषीय क्रियाएं (fiscal operations) भी कहा जाता है। इस प्रकार राजकोषीय क्रियाएँ तथा राजकोषीय नीतियाँ (fiscal policies) लोक वित्त के अभिन्न अंग बन गये हैं। राजकोषीय क्रियाओं तथा राजकोषीय नीतियों का प्रभाव राष्ट्रीय उत्पादन, राष्ट्रीय आय, देश के जीवन स्तर (standard of living), धन तथा आय के वितरण तथा मुद्रा बाजार (money market) आदि पर पड़ता है और उससे देश का सम्पूर्ण आर्थिक जीवन प्रभावित होता है। इस प्रकार, देश का हर व्यक्ति लोक वित्त के उपायों से संबंधित होता है।

 

लोक वित्त का महत्त्व एवं क्षेत्र (Importance and Scope of Public Finance)

 

लोक वित्त के महत्व एवं क्षेत्र का अध्ययन हम निम्नलिखित तीन शीर्षकों के अन्तर्गत करेंगे

 

1. राज्य के कार्य, 

2. आर्थिक जीवन पर राजकोषीय क्रियाओं का प्रभाव तथा 

13. लोक वित्त की विषय सामग्री ।

 

1. राज्य के कार्य (Functions of the State) - 

प्राचीन अर्थशास्त्री चूँकि हस्तक्षेप न करने की अबन्ध नीति (Laissez faire) में विश्वास करते थे, अतः उन्होंने इस बात का समर्थन किया कि सरकार के कार्यों की संख्या कम से कम होनी चाहिए। सन् 1776 में एडम स्मिथ ने "वेल्थ ऑफ नेशन्स" (Wealth of Nations) नामक अपनी पुस्तक में राज्य के कार्यों के संबंध में सर्वप्रथम एक लेख लिखा। एडम स्मिथ के अनुसार, "एक पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न राष्ट्र" के कर्त्तव्यों को निम्नलिखित तीन वर्गों में बांटा जा सकता है -

 

(क) अन्य राष्ट्रों के आक्रमण तथा अन्याय के विरूद्ध राष्ट्र को सुरक्षा प्रदान करना

(ख) नागरिकों के बीच आन्तरिक शांति, न्याय व व्यवस्था बनाये रखना, तथा 

(ग) कुछ ऐसे सार्वजनिक कार्यों एवं सार्वजनिक संस्थाओं की स्थापना करना एवं उनका संचालन करना, जो यद्यपि सम्पूर्ण समाज के लिए अत्यधिक लाभदायक हों, परंतु जिनको निजी व्यक्तियों द्वारा प्रारंभ करने तथा चलाने में उन्हें मुनाफा न हो। उनका मत था कि ऐसे सार्वजनिक कार्यों में उन कार्यों को मुख्य माना जाना चाहिए जिनके द्वारा राज्य में व्यापार व वाणिज्य की सुविधाजनक स्थितियाँ उत्पन्न हों। यह तो स्पष्ट ही है कि ये तीनों कार्य किसी भी सरकार के प्रारम्भिक कार्य हैं। किसी ऐसी स्थिर राजनैतिक व्यवस्था की कल्पना करना भी असम्भव है जिसमें कि इन कार्यों को मूलभूत कार्य न माना जाता हो। वर्तमान समय में सरकार आर्थिक व सामाजिक लक्ष्यों की पूर्ति के लिए जो कार्य करती है उन्हें एडम स्मिथ के तृतीय वर्ग के कार्य की श्रेणी में रखा जा सकता है। यहाँ यह बात उल्लेखनीय है कि 18वीं शताब्दी के इंग्लैण्ड में एडम स्मिथ ने भी सरकारी खर्च की इन दो शाखाओं (अर्थात् आर्थिक व सामाजिक लक्ष्यों) के विकास पर जोर दिया था।

 

किन्तु अनेक अर्थशास्त्रियों, जैसे- इंग्लैण्ड में रोबर्ट ओविन (Robert Owen) और जॉन स्टुआर्ट मिल ने जो कि संस्थापक सम्प्रदाय (classical School) के अनुयायी थे, अबन्ध नीति के दोषों की ओर लोगों का ध्यान दिलाया और सरकारी हस्तक्षेप की वकालत की। फ्रांस में सिसोमण्डी (Sisomandi) ने भी अबन्ध नीति (Laissez faire) के सिद्धांत की आलोचना की और गरीबों के हितों की रक्षा के लिए राजकीय नियंत्रण का सुझाव दिया। विभिन्न देशों के समाजवादियों (socialists) ने किसी न किसी रूप में उत्पादन के साधनों के सामाजीकरण (socialization) का इसलिए सुझाव दिया, जिससे श्रमिक वर्ग को प्रचलित पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के शोषण से बचाया जा सके। सन् 1930 की गंभीर आर्थिक मन्दी (Economic depression) तथा कीन्स द्वारा रोजगार के सामान्य सिद्धान्त का प्रतिपादन तो अबन्ध नीति के लिए मौत की घण्टी ही बन गई। कीन्स ने बताया कि राज्य को राजकोषीय क्रियाओं के द्वारा रोजगार में वृद्धि करना और उसे उच्च स्तर पर बनाये रखना संभव है। इस प्रकार आर्थिक जीवन में सरकारी हस्तक्षेप तथा प्रवेश का समर्थन बराबर बढ़ता गया और यह क्रम आज भी चालू है।

 

किन्तु राज्य की धारणा (concept) तथा राज्य के कार्यों की रूपरेखा में शनैः शनैः परिवर्तन होता रहा है। यह बात अब अत्यंत व्यापक रूप से स्वीकार की जाती है कि राज्य का उद्देश्य सम्पूर्ण समाज का कल्याण अधिक से अधिक करना है। राज्य की इसी धारणा के फलस्वरूप राज्य के कार्यों का विस्तार हुआ है और इसीलिए उसे चिकित्सा सुविधाओं, शिक्षा, निर्धन सहायता व स्वास्थ्य रक्षा तथा अन्य अनेक जनोपयोगी सेवाओं की व्यवस्था करनी होती है, जिससे सम्पूर्ण समाज के ही कल्याण (Welfare) में वृद्धि की जा सके। वर्तमान समय में, राज्य कई प्रकार से अपनी जनता की सहायता करता है। उदाहरणार्थ वह रेलों, सड़कों, बिजली तथा डाक व तार जैसी मूलभूत सेवाओं की व्यवस्था करके देश की उत्पादन शक्ति में वृद्धि करता है, वह आय के वितरण में पाई जाने वाली असमानताओं को कम करने के लिए आवश्यक पग उठाता है, वह कमी वाली वस्तु के उत्पादन तथा वितरण पर नियन्त्रण लगाता है, वह आवश्यक पदार्थों की कीमतों को नियन्त्रित करता है और मुद्रा-स्फीति (inflation) तथा मन्दी (depression) को रोकने के लिए तथा उनके प्रतिकार के लिए यथोचित पग उठाता है। युद्धकाल में, राज्य देश के सम्पूर्ण साधनों पर अपना नियन्त्रण रखता है तथा उन्हें विशेष दिशा में इसलिए गतिशील करता है ताकि युद्ध का मुकाबला सफलतापूर्वक किया जा सके।

 

उन्नत एवं विकसित देशों (advanced countries) की सरकारें इस बात के लिए प्रतिबद्ध अथवा वचनबद्ध होती हैं कि वे देश के रोजगार का एक स्थिर एवं व्यापक स्तर बनाये रखें। उनका लक्ष्य ही यह होता है कि देश की अर्थव्यवस्था (economy) यथासम्भव पूर्ण रोजगार के स्तर पर कार्यशील रहे। वे ऐसे कार्यक्रमों में सक्रिय रूप से भाग लेती हैं जिनके द्वारा राष्ट्रीय आय में वृद्धि हो तथा अर्थव्यवस्था निरंतर प्रगति की ओर अग्रसर रहे। जहाँ तक अल्पविकसित अथवा विकासशील देशों (underdeveloped or developing countries) की सरकारों का प्रश्न हैं, वे भी प्रगतिशील आर्थिक विकास के कार्यक्रमों के लिए वचनबद्ध (committed) होती हैं। अतः हो सकता है कि ऐसे देश अपने सम्पूर्ण साधनों का ही योजनाबद्ध विकास करें। स्पष्ट है कि विकसित, अल्पविकसित एवं जिम्मेदारियों में ज्यों-ज्यों वृद्धि होगी, वैसे-वैसे राज्य के कार्यों में और विस्तार होगा। हमारे देश की वर्तमान परिस्थितियाँ इसी तथ्य की पुष्टि करती हैं। हमारा देश एक अल्पविकसित देश हैं। अतः विकास योजनाओं को लागू करने के लिए सरकार ज्यों-ज्यों नये-नये दायित्व अपने ऊपर ले रही हैं, त्यों-त्यों आर्थिक जीवन में उसका प्रवेश बढ़ता जा रहा है और उसके कार्यों की संख्या बढ़ती जा रही है।

 

आधुनिक राज्य के बढ़ते कार्य ( Increasing Functions of Modern States)

 

इन बढ़े हुए कार्यों को पूरा करने के लिए राज्य को अपना खर्च बढ़ाना होता है और खर्च की पूर्ति के लिए उसे लोक वित्त में दिये गये तरीकों को अपनाकर विभिन्न स्रोतों से धन प्राप्त करना होता है। अतः राज्य के कार्यों व उत्तरदायित्वों का विस्तार होने के साथ ही साथ आजकल लोक वित्त के अध्ययन का महत्व एवं क्षेत्र भी निरंतर बढ़ता ही जा रहा है। आधुनिक राज्य के कार्यों के विश्लेषण से पता चलता है कि जन-कल्याण (welfare) के लिए निम्नलिखित सेवाओं की आवश्यकता होती है

 

(a) आन्तरिक व बाह्य सुरक्षा (security) तथा सैनिक, पुलिस तथा अन्य सुरक्षात्मक सेवाओं के लिए व्यय की व्यवस्था करना 

(b) न्याय (justice) अथवा विवादों का निपटारा । 

(c) आर्थिक उद्यमों तथा अन्य ऐसी सेवाओं का नियमन व नियंत्रण जैसे कि सिक्का ढलाई (coinage), बाट तथा माप (weight and measures) व्यावसायिक गतिविधियों का नियमन (regulation) तथा कुछ उद्यमों ( enterprises) की सरकारी स्वामित्व व संचालन । 

(d) शिक्षा, सामाजिक सहायता, सामाजिक बीमा, स्वास्थ्य नियन्त्रण तथा ऐसी ही अन्य क्रियाओं के द्वारा सामाजिक तथा सांस्कृतिक कल्याण में वृद्धि करना 

(e) औषधियों का निर्माण व बिक्री, मद्य की बिक्री, जुआ तथा अन्य समाज विरोधी कार्यवाहियों पर नियन्त्रण लगाकर नैतिक स्तरों का अनियमन करना । 

(f) प्राकृतिक साधनों का संरक्षण । 

(g) परिवहन तथा संचार के साधनों पर नियंत्रण रखकर तथा ऐसे ही अन्य उपायों द्वारा राज्य की एकता को न केवल बनाये रखना अपितु उसमें और वृद्धि करना । 

(h) सरकार का प्रशासन तथा सरकारी अधिकारियों की सहायता ।

(i) सरकार की वित्तीय व्यवस्था और राजकोषीय नियन्त्रण का प्रशासन । 

(j) समय-समय पर धर्म से सम्बन्धित कार्य ।

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