प्रमुख नाटक और नाटककार के नाम |Name of leading drama and playwright in hindi

 प्रमुख नाटक और नाटककार के नाम 



प्रमुख नाटक और नाटककार के नाम |Name of leading drama and playwright in hindi

प्रमुख नाटक और नाटककार के नाम


  • भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने अपने पिता बाबू गोपाल चन्द्र द्वारा रचित नाटक 'महुष नाटक' (सन् 1841 ई.) को हिंदी का प्रथम नाटक माना है। किंतु यह भी ब्रजभाषा परंपरा के पद्य बद्ध नाटकों में आता है।

 

(i) भारतेंदु युग के प्रमुख नाटक और नाटककार 

  • सन् 1861 ई. राजा लक्ष्मण सिंह ने अभिज्ञान शकुन्तलमका हिन्दी अनुवाद 'शाकुन्तलानाटक नाम से किया। भारतेन्दु ने प्रथम नाटक 'विद्या सुंदरसन् 1868 ई में बंगला नाटक से छायानुवाद किया। उसके पश्चात् उनके अनेक मौलिक एवं अनूदित नाटक प्रकाशित हुए 'पाखंड विडम्बनम्1872वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति – 1872, 'धनंजयविजय मुद्राराक्षस 1875, 'सत्यहरिश्चन्द्र 1875 प्रेमयोगिनी1875, 'विषस्य विषमौषधम् 1876, 'कर्पूर मंजरी1876, 'चंद्रावली1876 भारत दुर्दशा1876 'नील देवी 1877 अंधेरी नगरी-1881 तथा - 'सती प्रताप1884 ई. आदि उल्लेखनीय हैं।

 

  • भारतेंदु के नाटक मुख्यतः पौराणिकसामाजिक तथा राजनीतिक विषयों  आधारित है। सत्य हरिश्चन्द्र धनंजय विजय', 'मुद्राराक्षसतथा कर्पूर मंजरी अनूदित नाटक हैं। मौलिक नाटकों में उन्होंने सामाजिक कुरीतियों एवं धर्म के नाम पर होने वाले कुकत्यों आदि पर करारा व्यंग्य किया है। पाखंड-विडंबनम्वैदिक हिंसा हिंसा न भक्ति ऐसा ही नाटक हैं। विषस्य विषमौषधम् में देशी नरेशों की दुर्दशा पर आंसू बहाए हैं तथा उन्हें चेतावनी दी है कि यदि वे न संभलें तो धीरे-धीरे अंग्रेज सभी देशी रियासतों को अपने अधिकार में ले लेंगे। भारत दुर्दशा में भारतेंदु की राष्ट्र भक्ति का स्वर उद्घोषित हुआ है। इसमें अंग्रेजको भारत के शासक रूप में चित्रित करते हुए भारत वासियों के दुर्भाग्य की कहानी को यथार्थ रूप में प्रस्तुत किया गया है। इसमें स्थान-स्थान पर अंग्रेजों की स्वेच्छाचारिताअत्याचारी व्यवहारभारतीय जनता की मोहकता पर गहरा आघात किया है। 1856 ई. की असफल क्रांति को लोग अभी भूल नहीं पाए थे। भारतेंदु ने ब्रिटिश शासन एवं उसके विभिन्न अंगों की जैसी स्पष्ट आलोचना अपने साहित्य में ही है वह उनके उज्जवल देश प्रेम एवं अपूर्व साहस का द्योतन करती है।

 

  • भारतेंदु हरिश्चन्द्र को संस्कृतप्राकृतबंगला एवं अंग्रेजी के नाटक साहित्य का पूर्ण ज्ञान था। उन्होंने इन सभी भाषाओं से अनुवाद किए थे। नाट्य कला के सिद्धान्तों का उन्होंने सूक्ष्म अध्ययन किया था इसका प्रमाण उनके नाटक देते हैं। उन्होंने अपने नाटकों के मंचन की भी व्यवस्था की थी। वे मंचन में भी भाग लेते थे।

 

  • भारतेंदु के नाटकों में जीवन और कलासौंदर्य और शिवमनोरंजन और लोक सेवा का अपूर्व सामंजस्य मिलता है। उनकी शैली में सरलतारोचकता एवं स्वाभाविकता आदि के गुण विद्यमान हैं।

 

  • भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की प्रेरणा तथा उनके प्रभाव से उस युग के अनेक लेखक नाट्य रचना में तत्पर हुए। श्रीनिवास दास 'रणधीरऔर प्रेम मोहिनी', राधाकृष्ण दास 'दुःखिकी बाला', महाराणा प्रतापखंगबहादुर लाल भारत ललना', बदरी नारायण चौधरी प्रेमधन 'भारत सौभाग्यम्तोताराम वर्मा 'विवाह विडंबनप्रताप नारायण मिश्र भारत दुर्दशारूपकऔर राधाचरण गोस्वामी तन-मन-धन श्री गोसाई जी के अर्पणआदि नाटकों की सजना की।

 

  • इन नाटकों में समाज सुधारदेश-प्रेमया हास्य विनोद की प्रवृत्ति दष्टिगोचर होती है। इनमें गद्य खड़ी बोली तथा पद्य ब्रजभाषा का प्रयोग किया गया है। संस्कृत नाटकों के अनेक शास्त्रीय लक्षणों की इनमें अवहेलना की गई है। भाषा पात्रानुकूल है। शैली में सरलतामधुरता एवं रोचकता दष्टिगोचर होती है। भारतेंदु युगीन नाट्य साहित्य जन मानस के निकट था उसमें लोक रंजन एवं लोकरक्षण दोनों भावों का सुंदर समन्वय हुआ है। तत्कालीन नाटक पाठ्य एवं दश्य दोनों रूपों में तत्कालीन लोकहृदय का आकर्षक बने हुए थे। इनका दिव्य मंचन भी होता था।

 

(ii) प्रसाद युग के प्रमुख नाटक और नाटककार 

  • आधुनिक हिंदी नाट्य साहित्य में भारतेंदु के पश्चात् सर्वतोमुखी प्रतिभा के धनी ऐतिहासिक नाटककार जयशंकर प्रसाद हैं। इन्होंने जितनी ख्याति काव्य की विभिन्न विधाओं के सकल सजन में प्राप्त की। नाटककहानी तथा उपन्यास सभी विधाओं में सफल लेखनी उठाकर हिंदी गद्य साहित्य को समद्ध बनाया जयशंकर प्रसाद ने एक दर्जन से अधिक नाटकों की सजना की इनके नाटकों में 'सज्जन1910 ई. कल्याणी परिणय 1912 ई. 'करुणालय' - 1913 ई. 'प्रायश्चित1914 ई. 'राज्य श्री 1915 ई. 'विशाख1921 ई. 'अजात शत्रु1922 ई., 'कामना1923 ई... जनमेजय का नाम यज्ञ1923 ई. 'स्कंदगुप्त1928 ई. 'एक घूंट1929 ई. 'चंद्रगुप्त 1931 ई. तथा 'ध्रुवस्वामिनी' - 1933 ई. आदि उल्लेखनीय हैं।

 

  • भारतेंदु युगीन कवियों ने देश की दुर्दशा का वर्णन बारंबार अपनी रचनाओं में कियाजिससे प्रभावित होकर भारतीयों में करुणाग्लानिदैन्यएवं अवसाद की प्रबल भावनाओं का उदय हुआ ऐसी भावनाओं का भारतीयों में जन्मना अति स्वाभाविक था। साहित्यिक रचनाओं ने आग में घी का समावेश किया। ऐसे परिवेश एवं ऐसी मनःस्थिति में समाज एवं राष्ट्र विदेशी शक्तियों से संघर्ष करने की क्षमता खो बैठता है। प्रसाद ने देशवासियों में आत्मगौरव का संचार किया। जिसके लिए उन्होंने अपने नाटकों में भारत के अतीत के गौरवपूर्ण दश्यों को प्रतिस्थापित किया। यही कारण है कि उनके अधिकांश नाटकों का कथानक उस बौद्ध युग से संबंधित है जब भारत अपनी सांस्कृतिक पताका विश्व के अधिकांश देशों में फहरा रहा था। बौद्धधर्म का प्रचार-प्रसार करने के लिए महाराज अशोक ने अपने पुष्यमित्र पुत्र एवं पुत्री संमित्रा को विदेशों में भेजा था। प्राचीन इतिहास एवं संस्कृति को प्रसाद ने अति सूक्ष्मता एवं सुनियोजित ढंग से प्रस्तुत किया है। उसमें मात्र तत्युगीन रेखाएं ही नहीं मिलती अपितु तत्कालीन वातावरण के सजीव अंकन की रंगीनी भी मिलती है। धर्म की बाह्य परिस्थितियों का चित्रण करने की अपेक्षा उन्होंने दार्शनिक आंतरिक गुत्थियों तथा समस्याओं को स्पष्टता प्रदान करना अधिक उचित समझा है। पात्रों का चरित्र चित्रण करते हुए परिवेशानुसार परिवर्तन एवं विकास का प्रतिपादन किया है। मानव चरित्र सत्-असत् दोनों पक्षों का पूर्ण प्रतिनिधित्व उनके नाटकों में मिलता है। नारी रूप को जैसी महानतासूक्ष्मताशालीनतात्यागबलिदानममतासौहार्ददयामाया एवं गंभीरता कवि प्रसाद ने प्रदान की है। उससे भी अधिक सक्रिय एवं तेजस्वी रूप नारी को नाटककार प्रसाद ने प्रदत्त किया है। प्रसाद ने प्रायः सभी नाटकों में किसी न किसी ऐसी नारी की अवतारणा की है जो पथ्वी के दुख पूर्णअंधकार पूर्ण मानवता को सुखमय उज्जवल प्रकाश की प्रदायिनी बनी है। जो पाशविकतादनुजता और क्रूरता के मध्य क्षमाकरुणा एवं प्रेम के स्थायी रूप की प्रतिष्ठा करती है और अपने प्रभाव विचारों तथा चरित्र के दुर्जनों को सज्जन दुराचारियों को सदाचारीनशंस अत्याचारियों को उदार लोकसेवी बना देती है।

 

नारी तुम केवल श्रद्धातोविश्वरजत नग पग तल में, 

पीयूष स्रोत सी बहा करोजीवन के इस समतल में। 

- कामायनी

 

  • प्रसाद की कामायनी की यह उक्ति प्रसाद के नाटक की दिव्य नायिकाओं को पूर्णतः चरितार्थ करती है। नाट्य शिल्प की दृष्टि से प्रसाद के नाटकों में पूर्वी एवं पश्चिमी तत्वों का अपूर्व सम्मिश्रण दष्टिगोचर होता है। प्रसाद के नाटकों में एक ओर भारतीय नाट्यशास्त्रानुसार कथावस्तुनायकप्रतिनायकविदूषकशील निरूपणरससत्य और न्याय विजय की परंपरा का पूर्ण सफलता से पालन हुआ है दूसरी ओर पाश्चात्य नाटकों का संघर्ष एवं व्यक्ति वैचित्र्य का निरूपण भी उनकी रचनाओं में उसी तरह हुआ है। भारतीय नाट्य परंपरा की रसात्मकता इनमें प्रचुरता से उपलब्ध है साथ-साथ पाश्चात्य नाटकों की सी कार्य व्यापार की गतिशीलता भी उनमें विद्यमान है। भारतीय नाटक सुखांत होते हैं। पाश्चात्य नाटककार दुखांत नाटकों को श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं। प्रसाद ने नाटकों का अंत इस ढंग से किया है कि उसे सुखांत दुखांत दोनों की संज्ञा दी जाती है क्योंकि उन्होंने सुख दुखांतक नाटकों सजन किया है। दूसरी दृष्टि से उन नाटको को न सुखांत कहा जा सकता है न दुखांत कहा जा सकता है। वास्तव में नाटकों का अंत एक ऐसी वैराग्य भावना के साथ होता है जिसमें नायक विजयी हो जाता है किंतु वह फल का उपभोग स्वयं नहीं करता है। उसे वह प्रतिनायक को ही प्रत्यावर्तित कर देता है। इस प्रकार नाटकों के विचित्र अंत को प्रसाद के नाम पर ही प्रसादांत कहा गया है।

 

  • मंचन की दृष्टि से प्रसाद के नाटकों में आलोचकों को अनेक दोष दष्टिगोचर होते हैं। कथानक विस्तृत एवं विश्खल सा है कि उससे उनमें शैथिल्य आ गया है। उन्होंने ऐसी अनेक घटनाओं एवं दश्यों का आयोजन किया है जो मंचन की दृष्टि से उपयुक्त एवं उचित नहीं दीर्घ स्वगत कथन एवं लंबे वार्तालाप गीतों का आधिक्यवातावरण की गंभीरता आदि बातें उनके नाटकों की अभिनेयता में अवरोधक सिद्ध होती हैं। वास्तव में प्रसाद नाटकों में कवि एवं दार्शनिक अधिक हैंनाटककार कम हैं। उनके नाटक विद्वानोंऋषियोंमनीषियों के चिंतन मनन की वस्तु हैं। जन साधारण के समक्ष उनका सफल प्रदर्शन नहीं किया जा सकता है इस तथ्य को प्रसाद में स्वयं व्यक्त किया है।

 

  • प्रसाद युग के अन्य नाटककार माखन लाल चतुर्वेदी, 'कृष्णार्जुन युद्ध', पंडित गोविंद वल्लभ पंत 'वरमालाएवं राजमुकुटआदि। पांडेय बेचन शर्मा उग्र- महात्मा ईसा मुंशी प्रेम चन्द 'कर्बलाएवं संग्रामआदि उल्लेखनीय हैं। ध्यातव्य है कि विषय एवं शैली की दृष्टि से इन नाटककारों में परस्पर थोड़ा बहुत अंतर अवश्य है। परिणामतः इन्हें नाटककार स्वरूप विशिष्टता विहीनता के कारण महत्व नहीं दिया जाता है।

 

प्रसादोत्तर नाटक 

प्रसादोत्तर नाटक साहित्य को ऐतिहासिकपौराणिकसांस्कृतिकसामाजिक राजनीतिक कल्पनाश्रित एवं अन्य वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। पुनः कल्पना आश्रित नाटकों को समस्या प्रधानभावप्रधान तथा प्रतीकात्मक नाटक तीन उप विभागों में विभक्त किया जा सकता है।

 

क) ऐतिहासिक 

  • प्रसादोत्तर युग में ऐतिहासिक नाटकों की परंपरा का अत्यधिक विकास हुआ है। ऐतिहासिक नाटककारों में हरिकृष्ण प्रेमीवंदालाल वर्मागोविंद वल्लभ पंतचन्द्रगुप्त विद्यालंकारउदय शंकर भट्ट तथा कतिपय अन्य नाटककारों ने अपूर्व योगदान किया है।

 

हरिकृष्ण प्रेमी 

  • हरिकृष्ण प्रेमी के ऐतिहासिक नाटकों में रक्षाबंधन1934 'शिव साधना1936 प्रतिशोध स्वप्न भंग1940, 'आहुति1940, 'उद्धार1940, 'शपथ', 'कानन प्राचीर प्रकाश स्तंभ1954कीर्ति स्तंभ1955, 'विदा1958, 'संवत प्रवर्तन1959 'सापों की सष्टि 1959 'आन मान1961 आदि नाटकों का उल्लेख किया जा सकता है। प्रेमी ने अपने नाटकों में अति प्राचीन या सुदूर पूर्व इतिहास को नाटक विषय का चयन न करके मुसलमानों के इतिहास को चयनित करके उसके संदर्भ में आधुनिक युग की अनेक राजनीतिकसाम्प्रदायिक एवं राष्ट्रीय समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करने का सफल प्रयास किया है। उनके नाटकों ने आधुनिक भारतीय भारतीयों में राष्ट्र भक्तिआत्मा त्यागबलिदानहिंदू मुस्लिम एकता आदि भावों तथा प्रवत्तियां उदीप्त की तथा प्रबलता भरी है। ऐतिहासिकता का उपयोग रोमांस के लिए नहीं किया गया है। आदर्शों की स्थापना के लिए ऐतिहासिकता का ग्रहण किया गया है। प्रेमी की रचनाएंनाट्य कला एवं शिल्प विधान की दृष्टि से दोष रहित तथा सफल प्रमाणित हुई है।

 

वन्दावन लाल वर्मा 

  • वन्दावन लाल वर्मा इतिहास वेत्ता है। उनकी इतिहास विज्ञता की अभिव्यक्ति का माध्यम उपन्यास एवं नाटक दोनों हैं। उनके ऐतिहासिक नाटकों में झांसी की रानी1948 'पूर्व की ओर 1950 बीरबल1950 'ललित विक्रम1953 आदि का विशेष महत्व है। इनके अतिरिक्त वर्मा ने सामाजिक नाटकों की भी सजना की। वर्मा के नाटकों में कथावस्तु एवं घटनाओं को विशेष महत्व का विषय बनाया गया है। कही कही उनकी घटना प्रधानता भी दष्टिगोचर होती है। दश्य विधान की सरलताचरित्र चित्रण की स्पष्टताभाषा की उपयुक्ततागतिशीलता एवं संवादों की संक्षिप्तता ने उनके नाटकों को मंचन की दष्टि से पूर्ण सफलता प्रदान की है।

 

गोविंद वल्लभ पंत-

  • गोविंद वल्लभ पंत ने अनेक सामाजिक एवं ऐतिहासिक नाटकों की सजना की है। उनके नाट् साहित्य में राजमुकुट1935, 'अंतः पुर का छिद्र1940 आदि प्रमुख हैं। राजमुकुटमें मेवाड़ की पन्ना धाय के पुत्र का बलिदान तथ 'अंतःपुर का छिद्रमें वत्सराज उदयन के अंतःपुर की कलह का चित्रण अति प्रभावोत्पादक ढंग से किया गया है। पंत के नाटकों पर संस्कृतअंग्रेजी एवं पारसी नाटकों की विभिन्न परंपराओं का प्रभाव दष्टिगोचर होता है। नाटकों को अभिनेय बनाने का पूरा प्रयास किया गया है।

 

कुछ ऐसे नाटककार हैं जिनका ऐतिहासिक क्षेत्र नहीं है उनका संबंध अन्य क्षेत्रों से है किन्तु कभी-कभी वे इतिहास को अपने नाटकों का विषय बनाकर साहित्य सजन करते हैं। ऐसे ऐतिहासिक नाटककारों में प्रमुख नाटककार एवं उनके नाटक निम्नलिखित हैं-


  • चंद्रगुप्त विद्यालंकार- 'अशोक1935, 'रेवा1938 
  • सेठ गोविंद दास 'हर्ष 1942शशि गुप्त1942. 
  • सियाराम शरण गुप्त पुण्य पर्व 1933। 
  • जगन्नाथ प्रसाद मिलिंद 'गौतम नंद
  • उपेन्द्र नाथ अश्क 'जय पराजय1936 
  • सुदर्शन सिकंदर1947 
  • उदय शंकर भट्ट मुक्ति पथ1944 'दाहर1933 'शक विजय1949 
  • लक्ष्मी नारायण मिश्र 'गरुणध्वज1948, 'वात्सराज1950, 'वितस्ता की लहरों 1953|
  • सत्येंद्र- 'मुक्ति यज्ञ1936 
  • बैकुंठ नाथ दुग्गल 
  • बनारसी दास करुणा 'सिद्धार्थ बुद्ध1955 
  • देवराज यशस्वी भोज,  मानव प्रताप 1952 


इनके अतिरिक्त कुछ लेखकों ने जीवनी परक नाटकों की भी रचना की है। जिनमें-

लक्ष्मीनारायण- इंदु' - 19551

सेठ गोविंद दास भारतेंदु1955, 'रहीम1955 


  • ऐतिहासिक नाटकों की कथित सूची यह स्पष्ट कर देती है कि ऐतिहासिक नाटकों की अत्यधिक प्रगति एवं अभिवद्धि हुई है। इनमें इतिहास और कल्पना का सुंदर समन्वय तथा संतुलित संयोग मिलता है। अधिकांश नाटकों में इतिहास की केवल घटनाओं का ही नहीं अपितु उनके सांस्कृतिक परिवेश का भी प्रस्तुतीकरण किया गया है। पात्रों का अंतर्द्वन्द्व युगीन चेतना तथा समसामयिक सत्य को उद्घाटित करने का प्रयास भी नाटककारों ने किया है। पूर्व नाटककारों की तुलना से स्पष्ट हो जाता है कि इनमें कलाशिल्प एवं शैली की दृष्टि से विशेष विकास किया है। यत्र-तत्र ऐतिहासिक ज्ञानभाव विचार तथा प्रयोगों की नूतनता पर अधिक बल दिए जाने के परिणामस्वरूप रोचकता एवं प्रभावोत्पादकता कम हो गई है।

 

(ख) पौराणिक नाटक एवं नाटककार 

इस कालावधि में पौराणिक नाटकों की परंपरा भी विकसित हुई। विभिन्न लेखकों ने नाटक का विषय एवं आधार पौराणिकता को बनाया तथा अनेक श्रेष्ठ नाटकों का सजन किया जिनका विवरण इस प्रकार है 


सेठ गोविंद दास 'कर्त्तव्य1935कर्ण 1946। 

चतुर सेन शास्त्री 'मेघनाथ1939, 'राधाकृष्ण

किशोरी दास वाजपेयी 'सुदामा' - 1939 

गोकुल चन्द्र शर्मा अभिनय रामायण

सद्गुरु शरण अवस्थी 'मझली रानी। 

वीरेंद्र कुमार गुप्त सुभद्रा परिणय 

पथ्वी नाथ शर्मा उर्मिला1950।

 रामवक्ष बेनीपुरी सीता की मां 

उदय शंकर भट्ट विद्रोहिणी 

अम्बा1935 सागर विजय19371 

कैलाश नाथ भटनागर 'भीम प्रतिज्ञा1934 'श्री वत्स1941 

पांडेय बेचन शर्मा उम्र 'गंगा का बेटा - 1940 

तारा मिश्र देवयानी 1944 

डॉ. लक्ष्मण स्वरूप 'नल दमयंती1941 

प्रभुदत्त ब्रह्मचारी श्रीशुक1944। 

सूर्य नारायण मूर्ति 'महानाश की ओर 1960 

प्रेमनिधि शास्त्री प्रणमूर्ति 1950 

उमाशंकर बहादुर 'मोल1951 

गोविंद वल्लभ पं.- ययाति1951| 

डॉ. कृष्ण दत्त भारद्वाज 'अज्ञात वास 1952 

मोहन लाल जिज्ञासु पर्वदान1952 

हरिशंकर सिन्हा 'श्रीनिवास' 'मां दुर्गे1953 

लक्ष्मी नारायण मिश्र 'नारद की वीणा1946 'चक्रव्यूह1954) 

रांगेस राघव- भूमि का यात्री 1951 

गुंजन मुखर्जी- 'शक्ति पूजा1952 

जगदीश प्रादुर्भाव 1955 आदि

 

पौराणिक नाटकों की विशेषताएं

 

डॉ. देवर्षि सनाढ्य शास्त्री ने अपने शोध -प्रबंध में पौराणिक नाटकों की विशेषताओं का विवेचनविश्लेषण करते हुए कहा है

 

  • (i) "इनका कथानक पौराणिक होते हुए भी उसके ब्याज से आधुनिक समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। पौराणिक कथाओं के माध्यम से किसी ने कर्तव्य के आदर्श को पाठकों के समक्ष रखा है किसी ने शिक्षित पात्र के साथ सहानुभूति के दो आंसू बहाएं हैं किसी ने जाति-पांति की समस्याओं के समाधान ढूंढने का प्रयास किया है। किसी ने नारी के गौरव के प्रति अपने श्रद्धा सुमन अर्पित किए हैं। अधिकांश नाटककारों ने इन पौराणिक नाटकों के माध्यम से वर्तमान जीवन को सांत्वना एवं आशा की ज्योति प्रदर्शित की है।"

 

  • (ii) इन नाटकों की दूसरी विशेषता यह है कि प्राचीन संस्कृत के आधार पर पौराणिक असंबद्ध एवं संगति स्थापित करने का भरसक यत्न किया है।

 

  • (ii) पौराणिक नाटक वर्तमान जीवन को संकीर्णता एवं सीमा की प्रतिबद्धता से निकालकर आधुनिक मानव समाज को व्यापकता एवं विशालता का संदेश देकर उन्हें उन्नति के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हुए अग्रसर करते हैं। रंग मंच एवं नाट्य शिल्प की दृष्टि से इनके अनेक नाटकों में दोष दर्शन किये जा सकते हैं किंतु गोविंद बल्लभ पंतसेठ गोविंद दास एवं लक्ष्मी नारायण मिश्र जैसे प्रौढ़ नाटककारों में दोष नहीं है। विषयवस्तु की दृष्टि से ये नाटक णिक होते हुए भी प्रतिवादन शैली एवं कला के विकास की दृष्टि से आधुनिक तथा वे आज की सामाजिक रूचि एवं समस्याओं के प्रतिकूल नहीं हैं।

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