राजनीतिक विज्ञान के आधुनिक उपागम मार्क्सवादी समाजशास्त्रीय व्यवहारवादी उत्तरव्यवहारवाद |Modern Approaches to Political Science

राजनीतिक विज्ञान के प्रमुख आधुनिक उपागम

राजनीतिक विज्ञान के आधुनिक उपागम मार्क्सवादी समाजशास्त्रीय व्यवहारवादी उत्तरव्यवहारवाद |Modern Approaches to Political Science


  राजनीतिक विज्ञान के प्रमुख आधुनिक उपागम

  • 1 मार्क्सवादी उपागम 
  • 2 समाजशास्त्रीय उपागम 
  • 3 व्यवहारवादी उपागम 
  • 4 उत्तरव्यवहारवाद 


1 राजनीतिक विज्ञान का मार्क्सवादी उपागम

 

  • 19वीं सदी में मार्क्सवाद के आने से राजनीति और राजनीतिक सम्बन्धों का विश्लेषण करने की एक नई पद्धति अस्तित्व में आई । कार्लमार्क्स आधुनिक युग का ऐसा दार्शनिक था जिसने तार्किक रूप से समाजवादी विचारधारा के प्रतिपादन के साथ-साथ सामाजिक एवं आर्थिक व्यवस्था में परिवर्तन लाने के वैज्ञानिक नियमों की खोज की है। यद्यपि कार्लमार्क्स के पूर्व भी अनेक समाजवादी विचारकों ने अपने विचार रखे; जैसे- इंग्लैण्ड के विचारक राबर्ट ओवन, सेन्ट साइमन, चार्ल्स फोरियर तथा प्रूधो । इन विचारकों ने पूँजीवादी व्यवस्था में मौजूद विषमताओं को इंगित किया किन्तु पूँजीवादी व्यवस्था के स्थान पर नयी समाजवादी व्यवस्था के लिए कोई राजनीतिक या क्रान्तिकारी तरीके नहीं बताये। समाजवाद का क्रमबद्ध इतिहास सम्मत तथा वैज्ञानिक निरूपण मार्क्स के द्वारा ही किया गया। मार्क्स राजनीति को स्वतंत्र अस्तित्व देने के पक्ष में नहीं है। उसका मानना है कि आर्थिक क्रिया महत्वपूर्ण है और यही सभी संरचनाओं का निर्धारण करती है। मार्क्स ने समकालीन अर्थव्यवस्थ को आधार मानकर राज्य की विवेचना की। यूनान और रोम की राजनीति और संस्कृति को समझने के लिए दासता पर आधारित अर्थव्यवस्था को बुनियादी बनाया। मध्य युग की राजनीतिक प्रणाली का आधार सामंत शाही पर आधारित उत्पादन के तरीके और सम्बन्ध माना। इसी प्रकार उदारवादी प्रतिनिधि लोकतंत्र पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की अभिव्यक्ति है। अंत में जब समाजवादी क्रान्ति द्वारा सर्वहारा वर्ग की अधिनायकतंत्र स्थापित होता है तो यह समाजवादी अर्थव्यवस्था पर आधारित होता है।

 

  • इस पद्धति को अपनाने वाले विद्यार्थी को आर्थिक व्यवस्था को आधार बनाकर अध्ययन करना है। कोई अर्थव्यवस्था किस प्रकार की राजनीतिक प्रणाली को प्रोत्साहित करती है। समाज में कौन से वर्ग हैं और वे किन आर्थिक हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं, कौन वर्ग उत्पादन में साधनों के मालिक हैं। कौन वर्ग परिवर्तन की मांग करता है। कौन-सा वर्ग यथास्थितिवादी है, समाज में वर्तमान विचारधारा किन हितों का ध्यान रखती है। इन सारी बातों को ध्यान में रखकर ही मार्क्सवादी आधार पर राजनीतिक स्थितियों का मूल्यांकन किया जा सकता है। मार्क्सवादी पद्धति ने स्वाभाविक विज्ञानों को इतना अधिक प्रभावित किया है कि 'मार्क्सवादी विचारकों' के नाम से सम्प्रदाय बन गए हैं।

 

  • इस पद्धति की आलोचना की जाती है कि यह एकांगी दृष्टिकोण पर आधारित है। आर्थिक स्थितियाँ ही एकमात्र निर्धारक तत्व नहीं है। इतिहास के गंभीर परिवर्तनों के पीछे संयोग की भी महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। इसके बावजूद समाज के निचले वर्ग का अध्ययन के लिए यह पद्धति महत्वपूर्ण सिद्ध हुई है। समाज में जब तक आर्थिक विषमता और शोषण की समस्याएँ मौजूद रहेंगी तब तक इस पद्धति की उपयोगिता बनी रहेगी ।

 

2 राजनीतिक विज्ञान का समाजशास्त्रीय उपागम 

  • प्लेटो और अरस्तु के समय से ही इस तथ्य को किसी न किसी रूप में स्वीकार किया जाता रहा है मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और राज्य उसकी इस सामाजिकता का परिणाम है। राजनीति और राजनीतिक संस्थाएँ समाज का ही अंग होती है। व्यक्ति और समूह पर सामाजिक तत्वों-संस्कृति, जाति, परम्पराएँ, वर्ग भे, धर्म, भाषा, परिस्थिति आदि का गहरा प्रभाव होता है। राजनीतिक इन्हीं के सहारे शक्ति और प्रभाव ग्रहण करती है। आजकल लोक कल्याणकारी राज्य के उदय हो जाने की वजह से राज्य तथा राजनीति समाज के प्रत्येक क्षेत्र में घुस गई है। समाज के सारे सवाल व सारे पहलू किसी न किसी रूप से राज्य तथा राजनीति से जुड़ गए हैं।

 

  • पिछले 20-25 वर्षों में राजनीति में व्यवहारवाद के विकास के साथ-साथ समाजशास्त्र का राजनीति विज्ञान पर प्रभाव काफी बढ़ गया है। मानव का राजनैतिक व्यवहार समाज की परिस्थितियों एवं प्रक्रियाओं द्वारा प्रभावित होता है। राजनैतिक व्यवहार को समझने के लिए नागरिकों का राजनैतिक समाजीकरण तथा समाज की राजनैतिक संस्कृति एवं परम्पराएँ जानना आवश्यक है। समाजशास्त्रीय उपागम समस्त समाज को अपनी विषय परिधि बनाता है तथा उसकी सम्पूर्ण प्रक्रियाओं का अन्वेषण करता है। वह समाज के अन्तर्गत सभी संस्थाओं, बलों, संगठित व असंगठित समूहों, नियमों, परम्पराओं, अपराधों आदि से अपना सम्बन्ध रखता है। आधुनिक युग में सामान्य व्यवस्था सिद्धान्त, संरचनात्मक, प्रकार्यात्मक उपागम आदि समाजशास्त्र की ही देन है। कैटलिन ने तो स्पष्ट कहा है कि व्यापक रूप से राजनीति संगठित समाज का अध्ययन है। इसलिए उसे समाजशास्त्र से अलग नहीं किया जा सकता। वह राजनीति विज्ञान को यदि वह समाजशास्त्र से अलग है, बिना शरीर वाले मस्तिष्क के समान मानता है।

 

  • परन्तु राजविज्ञानी का अध्ययन वैज्ञानिक होते हुए भी समाजशास्त्र की तरह सर्वथा मूल्य निरपेक्ष नहीं होता। उसे केवल वैज्ञानिक अध्ययन करके कुछ निष्कर्ष प्रस्तुत कर देने के साथ छुट्टी नहीं मिल जाती, अपितु उसे शाश्वत एवं व्यापक मूल्यों के बीच में जैसे प्रजातंत्र और तानाशाही के बीच चयन करना होता है। राजविज्ञानी के निष्कर्ष सत्यापनीय नहीं होते। वे आश्वस्त होकर राजनीतिज्ञों, प्रशासकों तथा नागरिकों को निश्चित एवं विश्वसनीय दिशाएँ नहीं दे सकते।

 


3 राजनीतिक विज्ञान का व्यवहारवादी उपागम 

  • व्यवहारवाद या व्यवहारवादी उपागम राजनीति तथ्यों की व्याख्या और विश्लेषण का एक विशेष तरीका है, जिसे द्वितीय महायुद्ध के बाद अमेरिकी वैज्ञानिकों द्वारा विकसित किया गया। परम्परागवादी यूरोपियन विद्वानों ने राजनीति विज्ञान को विकसित करते समय मुख्य बल ऐतिहासिक एवं दार्शनिक विवेचना को दिया था। फलस्वरूप उसके ऊपर इतिहास एवं दर्शन का ही प्रभाव सर्वाधिक मात्रा में पाया जाता रहा। परन्तु द्वितीय महायुद्ध के उपरान्त यह अनुभव किया जाने लगा कि राजनीति विज्ञान को सही अर्थों में 'विज्ञानत्व' प्रदान करने के लिए यह आवश्यक है कि एक लम्बे समय से चली आ रही इस यथास्थिति का अन्त किया जाना चाहिए। फलतः राजनीति वैज्ञानिकों का ध्यान संस्थाओं और मूल्यों से हटकर मनुष्य के आचरण के ऊपर केन्द्रित होने लगा। राजनीतिक वैज्ञानिकों को अपनी विषय वस्तु के लिए इतिहास और दर्शन से सामग्री प्राप्त करने के स्थान पर समाजशास्त्र, मनोविज्ञान और मानवशास्त्र की ओर अभिमुख होने की आवश्यकता महसू हुई । इतिहास और दर्शन के प्रभाव के अधीन राजनीति विज्ञान में या तो राजनीतिक संस्थाओं क औपचारिक रूप से अध्ययन किया जाता रहा था अथवा इन राजनीतिक मूल्यों की विवेचना की जाती रही जिनके ऊपर राजनीतिक संस्थाओं को आधारित किया जाना चाहिए। स्पष्टतः इस प्रकार के अध्ययन में मनुष्य के अध्ययन के लिए जिसके लिए संस्थाओं की रचना हुई है कोई स्थान नहीं था। व्यवहारवादी उपागम का उदय इसी संदर्भ में हुआ है। इस उपागम को विकसित करने में सबसे अधिक महत्वपूर्ण योगदान अमरीकी राजनीति वैज्ञानिकों का रहा है, जिनमें मेरियम, कैटलिन, ट्रमैन, लाऊ आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

 

  • व्यवहारवाद अनुभवात्मक और क्रियात्मक है तथा इसमें व्यक्ति निष्ठ मूल्यों और कल्पनाओं आदि के लिए कोई स्थान नहीं है । व्यवहारवाद इस दृष्टि से परम्परावादियों के नितान्त विरुद्ध है कि वह राजविज्ञान को राज्य की कानूनी एवं दार्शनिक सीमाओं में बाँधने के लिए तैयार नहीं है । व्यवहारवाद के अनुसार राज्य के बाहर भी सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र की संस्थाएँ और सत्ताएँ है और इन सबको प्रेरित करने वाला मानवीय व्यवहार है, उसका अध्ययन अधिक आवश्यक और महत्वपूर्ण है।

 

  • व्यवहार से मिलते-जुलते बहुत से शब्द हैं; जैसे- आचरण, कार्य, क्रिया आदि। 'व्यवहार' शब्द को मूल निरपेक्ष या तटस्थ माना गया है। व्यवहार को अपने अध्ययन, अवलोकन, व्याख्या, निष्कर्ष आदि का आधार मानने की प्रवृत्ति या दृष्टिकोण को 'व्यवहारवाद' कहा जाता है। संक्षेप में व्यवहारवाद मानव व्यवहार के अवलोकन पर आधारित अध्ययन करने वाली विचारधारा या आन्दोलन है, अर्थात यह मनुष्य के व्यवहार को देखकर अध्ययन करने की प्रणाली है। एक दृष्टि से हम सभी व्यवहारवादी हैं। हम एक-दूसरे के व्यवहार को देखते व सोचते हैं तथा उसी के अनुरूप अपना व्यवहार करते हैं।

 

  • राजविज्ञान के इतिहास में व्यवहारवाद या व्यवहारपरक अध्ययन का बड़ा महत्व है। उसे एक महान क्रान्ति माना जाता है। व्यवहारवादी क्रान्ति ने राजविज्ञान के लक्ष्य, स्वरूप, विषय क्षेत्र, पद्धति विज्ञान आदि सभी को बदल दिया है। इसके प्रभाव से वह न केवल 'राजनीति विज्ञान' बन गया है। अपितु अब यह राजनीति का विज्ञान भी बन रहा है।

 

यह बात नहीं हैं कि राजविज्ञान ने मानव व्यवहार की ओर ध्यान नहीं दिया हो और आज ही 'व्यवहारवादी' बना हो। प्राचीन काल से ही राजवेत्ता और शासक दोनों ही व्यवहारवादी रहे हैं और मानव के व्यवहार को देखकर काम करते आये हैं। प्लेटो, अरस्तु, चाणक्य, सिसरो, मैकियावली, हॉब्स तथा लॉक आदि सभी किसी ने किसी मात्रा में मानव व्यवहार का अवलोकन करके लिखा है। किन्तु प्राचीन काल में उन सभी में आदर्श, स्वेच्छा, कल्पना आदि काफी मात्रा में पायी जाती थी। वैरलसन के अनुसार व्यवहारवादी क्रान्ति का वैज्ञानिक लक्ष्य 'मानव व्यवहार के विषय में ऐसे सामान्यीकरण प्राप्त करना है जिन्हें निष्पक्ष और वस्तुपरक ढंग से एकत्रित आनुभाविक प्रमाणों से पुष्ट किया गया हो।' उसका सर्वोच्च लक्ष्य मानव व्यवहार को उसी प्रकार समझना व्याख्या करना तथा उसका पूर्वकथन करना है, जिस प्रकार से वैज्ञानिक लोग नैतिक या प्राणिशास्त्रीय तत्वों के विषय में करते हैं। व्यवहारवाद में व्यवहार को प्रेरित एवं संचालित करने वाले कारकों तथा सम्बद्ध तत्वों को भी शामिल किया जाता है।

सामान्यतया व्यवहारवाद की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं- 

1. नियमितताएँ 

  • राजनीति व्यवहार में खोज किए जाने योग्य नियमितताएँ या समानाएँ पाई जाती है। ये नियमिताएँ व्यवहारवादियों के लिए महत्वपूर्ण है। इन्हें बारम्बारताएँ समान्यताएँ आदि भी कहा जा सकता है। ये बार-बार घटित होने वाली गतिविधियों या क्रियाओं को बताती है। ऋतुविज्ञान में मौसम और ज्योतिष शास्त्र में तारों की गतिविधियों की तरह मानव के व्यवहार में पायी जाने वाली नियमित समानताओं को जान सकते हैं। सरकार के दमन अथवा लोकप्रिय नेता के आगमर पर जनता की गतिविधियों में पायी जानी नियमितताओं का उल्लेख किया जा सकता है। ऐसी नियमितताओं के संदर्भ में ही कानून, नियम, उपनियम आदि बनाये जाते हैं। - प्रजातंत्र में न्यायपालिका का स्वतंत्र होना आवश्यक है।

 

2. सत्यापन 

  • नियमितताओं की खोज सामान्य व्यवहार के संदर्भ में होनी चाहिए। उन नियमितताओं पर आधारित निष्कर्षों का सत्यापन होना चाहिए। ऐसी सत्यापन विधि वैज्ञानिकता का आधार है। यदि उन नियमितताओं की जाँच या परीक्षण नहीं किया जा सकता है तो उनके आधार पर वैज्ञानिक सिद्धान्त विकसित नहीं किये जा सकते। - प्राकृतिक विज्ञानों में यह कार्य दोहरा व पुनः प्रयोग करके किया सकता है। कोई नेता अब लोकप्रिय रहा अथवा नहीं, या एक पड़ोसी अब मित्र है कि नहीं इसकी जाँच की जा सकती है।

 

3. प्राविधियाँ 

  • व्यवहारवाद आनुभविक तरीकों, पद्धतियों और प्राविधियों पर बहुत जोर देता है। इसका अर्थ यह है कि तथ्यों, ऑकड़ों तथा नियमितताओं को प्राप्त करने के लिए मान्य शोध पद्धतियों एवं प्राविधियों की सहायता ली जानी चाहिए। जो कुछ सामग्री प्राप्त हो, उसकी जाँच होनी चाहिए कि वह कहाँ तक प्रमाणिक है। व्यवहारवादियों का मत है कि आधार सामग्री को प्राप्त करने एवं निर्वचन करने के साधनों को स्वयंसिद्ध या अन्तिम नहीं माना जा सकता है। उनको सावधानी से बार-बार शुद्ध या परीक्षित किये जाने की आवश्यकता है। उन्हें प्रमाणित किया जाना चाहिए ताकि व्यवहार का पर्यवेक्षण, लेखबद्ध तथा विश्लेषण के लिए परिशुद्ध साधनों को ढूंढा जा सके। परिशुद्धिकरण की प्रक्रिया विकासशील है। नये तथ्य प्राप्त होने पर पुरानी सामग्री को अप्रमाणित ठहराया जा सकता है।

 

4. परिमाणन 

  • व्यवहारवादी अध्ययन के विवरण तथा आधार सामग्री को लेखबद्ध करने में यथातथ्यता लाने के लिए मापन एवं परिमाणन की आवश्यकता पड़ती है। यह किया जाना चाहिए। इससे अध्ययन में सूक्ष्मता एवं परिशुद्धता आती है। तथ्यों को प्रमाणिक मानने तथा उनकी परस्पर तुलना करनेके लिए परिमाणन किया जाता है। यह परिमाणन गणितीय या सामाजमितीय विधियों से हो सकता है।

 

 5. मूल्य 

व्यवहारवाद में राजवैज्ञानिक अपने मूल्यों, आदर्शों, भावनाओं आदि को दूर रखता है। अर्थात् वह मूल्यात्मक दृष्टि से तटस्थ या निरपेक्ष रहता है। उसकी दृष्टि से कोई भी वस्तु अपने आप में अच्छी या बुरी नहीं होती। वह मूल्यों से तथ्यों को पृथक रखता है।

 

6. क्रमबद्धता

 

  • व्यवहारवाद क्रमबद्धता पर जोर देता है। इस क्रमबद्धता के मान्य चरण या क्रम है। अध्ययन, अवलोकन, तथ्य संग्रहण, सिद्धान्त, निर्माण, सत्यापन आदि सभी में क्रमबद्धता रहनी चाहिए। इसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात तथ्यों और सिद्धान्तों की निकटता है। बिना सिद्धान्त निर्देशन के शोध नगण्य तथा बिना तथ्यों के सिद्धान्त निरर्थक हो जाता है। सिद्धान्त और तथ्य एक-दूसरे से अपृथकनीय होते हैं।

 

7. विशुद्ध विज्ञान 

  • व्यवहारवाद को पहले राजनीति का विशुद्ध विज्ञान विकसित करने का प्रयास करना चाहिए। उसे मौलिक और विशुद्ध शोध की ओर ध्यान देना चाहिए। उसे समस्याओं के समाधान, विश्लेषण आदि उपयोगों की ओर बाद में सोचना चाहिए।

 

 8. एकीकरण 

  • राजनीति विज्ञान सहित सभी सामाजिक विज्ञान समस्त मानव परिस्थितियों से सम्बन्ध रखते हैं। अतएव राजविज्ञान को अन्य सभी विषयों से सम्बन्ध रखना चाहिए। राजविज्ञान को चाहिए कि वह अन्य अनुशासनों की सहायता से अपने आपको समृद्ध बनावे। अतः अन्तर अनुशासनात्मक व्यवहारवाद की विशेष देन मानी जाती है।

 

  • व्यवहारवाद ने राजविज्ञान को अनेक प्रकार से प्रभावित किया है। राजविज्ञान को वैज्ञानिक बनाने के लिए व्यवहारवाद ने इसे आधुनिक पद्धतियाँ और प्राविधियाँ दी है। साथ ही उसने राजविज्ञान को 'पूर्ण' बनाने के लिए अन्य विषयों से सम्बन्ध रखने की धारणा अन्तरनुशासनात्मकता अन्तर्वेषयिकता दी है। राजविज्ञान को उसने इनकी सहायता से यह बताया है कि मानव की मूल प्रवृत्तियाँ, इच्छाएँ, मांगें और आवश्यकताएँ क्या है? वह विभिन्न राजनैतिक परिस्थितियों में क्या, कैसे और कब व्यवहार करता है?

 

  • व्यवहारवादियों ने व्यक्तित्व के व्यवहार पर पड़ने वाले प्रभावों को जानने के लिए साक्षात्कार, मुक्त प्रश्नावलियों, विषयवस्तु विश्लेषण, सांख्यिकी प्राविधियों आदि को अपनाने की ओर प्रवृत्त किया। इन सर्वेक्षणों, प्राविधियों एवं सत्यापन पद्धतियों ने अभिवृत्ति मापन प्रतिनिधित्व की समस्याओं ओर ध्यान खींचा जिसका दृष्टान्त मतदान व्यवहार सम्बन्धी अध्ययन है। इसका प्रत्यक्ष प्रभाव परम्परागत रूप से किये जाने वाले राजनीतिक दलों, विधि निर्माण, अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध, लोक प्रशासन आदि के अध्ययनों पर देखा जा सकता है। इसका प्रभाव मीडिया पर भी देखा जा सकता है।

 

  • हर नेता का लोकप्रिय का ग्राफ, किसी भी नीति के प्रभाव का ग्राफ तथा किसी भी राष्ट्र शक्ति का मूल्यांकन करने के लिए वैज्ञानिकों द्वारा इस प्राविधि का प्रयोग किया जा रहा है।

 

9 व्यवहारवाद का मूल्यांकन

 

  • व्यवहारवाद एवं व्यवहारवादियों की अनेक दृष्टि से आलोचना की गई है। पहला, यह कहा जाता है कि उनके आचरण में विरोधाभास पाया जाता है। वे अपने आपको विशुद्ध एवं मूल्यनिरपेक्ष वैज्ञानिक मानते हैं, किन्तु ध्यान से देखने पर पता चलता है कि उनके भी अपने मूल्य हैं। क्रिश्चियन बे की तरह यह आलोचना ठीक है कि उनमें उदारवादी प्रजातंत्र के प्रति पूर्वाग्रह है। कोई भी ऐसा व्यवहारवादी नहीं है जो उदारतंत्र में विश्वास न रखता हो, फिर भी वह अपने आपको मूल्य - निरपेक्ष मानता रहेगा। दूसरा, विशुद्ध वैज्ञानिक होने का दावा करने के बावजूद भी वे मानव व्यवहार का एक विश्वसनीय तथा सत्यापित विज्ञान नहीं खोज पाये हैं। तीसरा, सामाजिक विज्ञानों को प्राकृतिक विज्ञानों की भाँति सिर्फ तथ्य तथा आकड़ों पर आधारित नहीं किया जा सकता। राजनीति विज्ञान में नैतिक प्रश्न हमेशा अन्तर्निहित रहता है। नैतिक मूल्य की अनदेखी नहीं की जा सकती । व्यक्ति को पशु या मशीन की तरह नहीं नापा जा सकता।

 
.4  राजनीतिक विज्ञान का उत्तर व्यवहारवाद

 

  • व्यवहारवादियों की इन्हीं दुर्बलताओं के कारण उत्तरव्यवहारवाद का जन्म हुआ। डेविड ईस्टन, जिसने व्यवहारवाद की विशेषताओं का औपचारिक प्रतिपादन किया, उसी ने 1969 में उत्तर व्यवहारवाद की नींव रखी। उत्तरव्यवहारवाद व्यवहारवादियों के राजनीति विज्ञान को प्राकृतिक विज्ञानों की श्रेणी में नहीं रखना चाहता। यह व्यापक मूल्यों के संदर्भ में परिवर्तन का पक्षधर है। किन्तु इसे परम्परावाद का पुनरुत्थान नहीं मानना चाहिए। उत्तरव्यवहारवाद व्यवहारवाद की विशेषताओं को बनाये रखना चाहता है। ईस्टन ने कहा है, “यह प्रतिक्रिया न होकर क्रान्ति है। इसमें यथास्थिति नहीं, वरन् नया स्वरूप उभर रहा है। यह सुधार है, प्रति सुधार नहीं ।" इसे किसी एक विचारधारा या विचारवाद से संयुक्त करना गलत होगा। उत्तर व्यवहारवाद शैक्षिक तथा मूल्यात्मक महत्व को दिखाना चाहता है। उत्तरव्यवहारवाद में परम्परागततथा व्यवहारवादी दोनों की विशेषताएँ शामिल हैं। वह तथ्य और मूल्य दोनों को साथ लेकर चलता है। व्यवहारवाद तथा उत्तरव्यवहारवाद दोनों के प्रयासों से राजनीतिकेवल एक अध्ययन-अध्यापन विषय मात्र न रहकर समाज की वास्तविक समस्याओं के समाधान देने योग्य विषय हो गया है। व्यवहारवाद ने राजनीति विज्ञान को यदि वैज्ञानिक विश्लेषण के आयाम दिए हैं तो उत्तरव्यवहारवाद ने उसे समाज के लिए उपयोगी बना दिया है। अब दोनों क्रान्तियों के संदर्भ में वैज्ञानिक पद्धति एवं मूल्यों की समस्या पर विचार किया जा सकता है।

No comments:

Post a Comment

Powered by Blogger.