सम्प्रभुता की संकल्पना : सम्प्रभुता का अर्थ परिभाषाएं विकास पहलू |Concept of Sovereignty: Meaning Definitions of Sovereignty Development Aspects

सम्प्रभुता की संकल्पना : सम्प्रभुता का अर्थ परिभाषाएं विकास पहलू  

सम्प्रभुता की संकल्पना : सम्प्रभुता का अर्थ परिभाषाएं विकास पहलू  |Concept of Sovereignty: Meaning Definitions of Sovereignty Development Aspects



1 सम्प्रभुता की परिभाषाएं 

2 संम्प्रभुता का विकास 

3संम्प्रभुता के पहलू 

  • आन्तरिक सम्प्रभुता 
  •  वाह्य सम्प्रभुता 

4 सम्प्रभुता के लक्षण 

  • निरकुशता 
  • सर्वव्यापकता 
  • अदेयता 
  • स्थायित्व 
  • अविभाज्यता 
  • मौलिकता

 

सम्प्रभुता का अर्थ

 

  • सम्प्रभुता शब्द आंग्ल भाषा के सावरनिटी शब्द का हिन्दी अनुवाद है । जिसकी उत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द सुपरएनस् ; से हुई है। जिसका अर्थ है 'सर्वोच्च शक्ति ; इस प्रकार समाज की सर्वोच्च शक्ति को ही सम्प्रभुता कहा जाता है अर्थात यह वह सत्ता है जिसके ऊपर अन्य कोई सत्ता नही होती है। प्रत्येक समाज में विभिन्न प्रकार के वर्ग, संस्थाएं, समुदाय तथा शक्तियां होती है। इन सब में जो सर्वोच्च शक्ति रखता है उसे ही सम्प्रभु सत्ताधारी कहा जाता है। वर्तमान समय में यह शक्ति आवष्यक रूप से राज्य के पास होती है। जिसके आधार पर वह अन्य समुदायों, संस्थाओं तथा सामान्य जनता से अपने आदेषों का पालन कराता है। राज्य की इच्छा (आदेश) कानून के रूप में व्यक्त होते है। यदि कोई इसका का उल्लघंन करता है तो राज्य उसे कठोर से कठोर दण्ड दे सकता है। इस सर्वोच्च सत्ता को ही सम्प्रभुता, राज्य की सर्वोच्च इच्छा, के सम्बोधित या कानून रूप किया जाता है अर्थात ये तीनो शब्द एक दूसरे के पर्यायवाची हैं।

 

 सम्प्रभुता की परिभाषाएं

 

जीन बोदां के अनुसार सम्प्रभुता की परिभाषा

सम्प्रभुता नागरिक व प्रजाननों के ऊपर वह सर्वोच्च शक्ति है जिस पर कानून का कोई बन्धन नही होता है। "

 

“ग्रोषियस के अनुसार सम्प्रभुता की परिभाषा

सम्प्रभुता उस व्यक्ति की सर्वोच्च राजनीतिक शक्ति है जिसके कार्य किसी अन्य के अधीन नही होते और जिसकी इच्छा का उल्लंघन न किया जा सके। 


“बर्गेष के अनुसार सम्प्रभुता की परिभाषा

सम्प्रभुता सभी व्यक्तियों तथा संस्थाओं पर मौलिक, निरंकुश तथा असीमित शक्ति है।

 

"ब्लैकस्टोन के अनुसार सम्प्रभुता की परिभाषा

सम्प्रभुता वह सर्वोच्च अनिवार्य व अनियन्त्रित सत्ता है जिसमें सर्वाच्च विधित शक्ति होती है।

 

जेलीनेक के अनुसार सम्प्रभुता की परिभाषा

" सम्प्रभुता राज्य का गुण है जिसके कारण वह अपनी इच्छा के अतिरिक्त किसी दूसरे की इच्छा या किसी बाहरी शक्ति के आदेषों से बाध्य नही है।""

 

“विलोबी के अनुसार सम्प्रभुता की परिभाषा

म्प्रभुता राज्य की सर्वोच्च इच्छा है।”

 

“ड्यूग्वी के अनुसार सम्प्रभुता की परिभाषा

 सम्प्रभुता राज्य की शासन शक्ति या आज्ञा देने की शक्ति है, वह राष्ट्र की जिसका संगठन राज्य के रूप में हुआ है उसे राज्य की सीमा के भीतर सब व्यक्तियों को आदेष देने " इच्छा है

 

पोलॉक के अनुसार सम्प्रभुता की परिभाषा

 “ सम्प्रभुता वह शक्ति है जो न तो अस्थायी है न किसी दूसरे के द्वारा दी गयी है न ही ऐसे नियम के अधीन है जिन्हे वह स्वंय बदल सके और न ही पृथ्वी पर किसी अन्य शक्ति के प्रति उत्तरदायी है।

 

वुडरो विल्सन के अनुसार सम्प्रभुता की परिभाषा

 “ वह शक्ति जो सदा क्रियाशील रहकर कानून बनाती है और उनका पालन है प्रभुसता कहलाती है।”

 

क्रेनेनवर्ग के अनुसार सम्प्रभुता की परिभाषा 

“ सम्प्रभुता राज्य का एक प्राकृतिक गुण है जिससे वह अपनी इच्छा दूसरों पर विना किसी शर्त के लागू कर सकता है। शासन की यही परिभाषा है, और यह राज्य का मौलिक तत्व है कि वह शासन करे। "

 

लास्की के अनुसार सम्प्रभुता की परिभाषा 

“ सम्प्रभुता कानूनी तौर पर व्यक्तियों तथा समूहों पर सर्वोच्च होती है और उसके पास सर्वोच्च बाध्यकारी शक्ति होती है।


इस प्रकार कहा जा सकता है कि राज्य की सर्वषक्तिमान, सर्वव्यापक, असीमित तथा अविभाज्य शक्ति है। इसलिए इस पर आन्तरिक तथा वाह्य दोनो क्षेत्रों में कोई नियत्रण या कानूनी बन्धन नही होता है।

 

2 संम्प्रभुता का विकास

 

  • सम्प्रभुता अपने वर्तमान स्वरूप में आधुनिक युग की एक प्रमुख राजनीतिक अवधारणा है परन्तु इसके विकास का एक लम्बा इतिहास रहा है। प्राचीन काल से लेकर अबतक प्रायः सभी विचारकों ने 'प्रभु के सम्बन्ध में अपने मत प्रकट कियें है। यद्यपि प्राचीन काल के विद्वान सम्प्रभुता के विचार से पूर्णपरिचित नही थे तथापि राजनीति विज्ञान के जनक अरस्तू के द्वारा अपनी पुस्तक “पालिटिक्स' में राज्य के लिए एक सर्वोच्च शक्ति की आवष्यकता महसूस की गयी थी । प्राचीन रोमन विचारकों ने भी अपने विचारों में एक सर्वोच्च सत्ता का उल्लेख किया है। जिसे 'समा 'पोटेस्टास' अर्थात सर्वोच्च सत्ता और 'प्लेनीच्यूडो पोटेस्टैटिस' अर्थात 'सम्पूर्ण सत्ता' कहा जाता था। इससे प्रतीत होता है कि प्राचीन रोमन विचारक सम्प्रभुता के आधुनिक विचार के काफी निकट पहुँच चुके थे। गैटिल के शब्दों में “रोमन वकीलो ने राज्य की शक्ति की पूर्णता को व्यक्त किया था. 

 

  • मध्य युग जिसे कई बार 'अंधेरा युग' भी कहा जाता है, में सम्प्रभुता का विचार शिथिल पड़ गया। अर्थात कहा जा सकता है कि इस युग में सम्प्रभुता सम्बन्धी रोमन साम्राज्य की उपलब्धियां धूल धूसित हो गयी फिगिस ने लिखा है कि “आधुनिक अर्थ में राज्य प्रभुनाम की कोई वस्तु मध्य युग में नही थी । " मध्य युग में सम्प्रभुता के विकास में कई कठिनाइयाँ थी। इस युग को धर्म युग की भी संज्ञा दी जाते है। जिसमें सम्पूर्ण राजनीतिक व्यवस्थापर धर्म का प्रभाव स्वीकार कर लिया गया था राजषाही, पोपषाही, तथा सामन्तवाद ने सम्प्रभुता के रथ को आगे बढ़ने से रोक दिया था जिसके प्रतिक्रिया स्वरूप 16वीं शताब्दी में सम्प्रभुता के आधुनिक धारणा का उदय हुआ। जिसका अस्पष्ट रूप से ही सही सर्वप्रथम दर्षन इटली के प्रसिद्ध विज्ञान मैकियावेली के विचारों में होता है।

 

  • सम्प्रभुता की आधुनिक संकल्पना सर्वप्रथम जीन बोंदा की पुस्तक Six Books on The Republic में देखने को मिलती है। इसे व्यक्त करते हुए उसने लिखा कि “ सम्प्रभुता नागरिक प्रजाननों के ऊपर वह सर्वोच्च शक्ति है जिस पर कानून का कोई बन्धन नही होता है।" इस प्रकार दाही आधुनिक सम्प्रभुता के सिद्धान्त का जनक कहा जाता है। बोंदा ने सम्प्रभुता को कानूनी दृष्टि से सर्वोच्च मानते हुए भी उस पर प्राकृतिक कानून, ईष्वरीय कानून, सांविधानिक कानून और व्यक्तिगत सम्पति की सीमाएं आरोपित कर दी जिससे सम्प्रभुता की सर्वोच्चता बाधित हो गयी।

 

  • ग्रोषियस सम्प्रभुता के वाह्य पक्ष का निरूपण करते हुए सभी राष्ट्रों को स्वतन्त्र तथा समस्तरी बतलाया परन्तु उन्होने भी उस पर अन्तर्राष्ट्रीय विधि की सीमा आरोपित कर दी. 

 

  • सम्प्रभुता का स्पष्ट, तर्क संगत और वैज्ञानिक विष्लेषण करने का श्रेय इग्लैण्ड के प्रसिद्ध दार्षनिक थामस हॉब्स को दिया जाता है। उनके अनुसार सम्प्रभुता सामाजिक संविदा का सृजन है। जिसके माध्यम से लोगों ने अपने समस्त अधिकार उस व्यक्ति या सभा को सौंप दिया। जिसे लोंगो के द्वारा अपने जीवन रक्षा का दायित्व सौपा गया। यह सम्प्रभुता निरकुंष, असीमित तथा अमर्यादित है। किन्तु वह भी जीवन को संकट उत्पन्न होने की स्थिति में सम्प्रभुता पर 'आत्म रक्षा' का प्रतिबन्ध आरोपित करता है। वह इस सम्बन्ध में कहता है कि यदि राजा किसी को अन्न, जल, वायु तथा औषधि ग्रहण करने से रोकता है तो उस स्थिति में व्यक्ति राज्याज्ञा का उल्लंधन कर सकता है क्योंकि इससे व्यक्ति के जीवन को सकंट उत्पन्न हो जाता है।

 

  • हाब्स के बाद लॉक ने इग्लैण्ड के 1688 की गौरव पूर्ण क्रान्ति का उचित ठहराने के लिए संवैधानिक सम्प्रभुता के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया तथा राज्य और राजा के सम्प्रभुता को अमान्य करार दिया। तत्पष्चात जीन जैक्स रूसों ने लोकप्रिय सम्प्रभुता के सिद्धान्त का प्रतिपादन कर इसे आधुनिक प्रजातात्रिक स्वरूप प्रदान किया। उसने हॉब्स तथा लॉक के विचारों में सुन्दर समन्वय स्थापित करते हुए एक तरफ सम्प्रभुता को निरंकुष, अविभाज्य, अपरित्याज्य बताया तो दूसरी ओर लोकहितकारी स्वरूप प्रदान करते हुए जनता में निहित कर दिया। उसके अनुसार सम्प्रभुता का निवास सामान्य इच्छा में होता है। रूसों के बाद बेंथम ने सम्प्रभुता का उल्लेख कानून बनाने वाली सर्वोच्च सत्ता के रूप में किया और बताया कि कानून का स्रोत प्राकृतिक नियम आदि नही है बल्कि सम्प्रभुता है।

 

  • आधुनिक सम्प्रभुता के अवधारणा के विकास में फ्रांसिसी राज्य क्रान्ति मील का पत्थर साबित हुई । इस क्रान्ति ने के निरपेक्षता और निरंकुष्ता का समर्थन इस आधार पर किया कि सम्प्रभु शक्ति जनता में निहित है। अतः इसे प्रतिबंधित करने की आवष्यकता नही है। दुनिया के नवोदित राष्ट्रीय राज्यों ने भी आन्तरिक तथा वाह्य दोनो प्रकार के समग्र सम्प्रभुता का दावा किया । औद्योगिक क्रान्ति तथा लोक कल्याणकारी राज्य के विचार ने राज्य के कार्य क्षेत्र में आषातीत वृद्धि की। जिससे निरपेक्ष सम्प्रभुता की धारणा प्रबल हुई। जिसके परिणामस्वरूप ब्रिटीश संसद को सम्प्रभुता प्राप्त जो असीमित है।

 

  • 18वीं एंव 19वीं शताब्दी में सम्प्रभुता को बलशाली समर्थक मिले। इनमें आदर्शवादी हीगल, ग्रीन व बोसांके का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। हीगल ने राज्य को विश्वात्मा का सर्वोत्तम रूप माना । हीगल का कथन है कि "राज्य पृथ्वी पर ईश्वर का अवतरण है।” उन्होने व्यक्ति को पूर्णतः राज्य अधीन कर दिया। आगे वह कहते कि व्यक्ति को स्वतन्त्रता तभी प्राप्त हो सकती है जबकि वह राज्य के कानूनों का अक्षरसः पालन करे। राज्य आन्तरिक और वाह्य दोनों रूपों में सर्वोच्च होता हैं। इसलिए हीगल ने राज्यको युद्ध करने का पूर्ण अधिकार दिया और बताया कि जिस प्रकार समुद्र में शान्ति के समय इकट्ठा गन्दगी तुफान आने पर समाप्त हो जाती है ठीक उसी प्रकार समाज की गन्दगी युद्धों के समय समाप्त हो जाती है। इस प्रकार हीगल की सम्प्रभुता निरपेक्ष एवं असीम थी उसपर नैतिकता एंव अर्न्तराष्ट्रीय कानून का भी कोई नियंत्रण नही था। ग्रीन और बोसाके ने भी दार्षनिक आधारों पर राज्य के सर्वोच्च सत्ता का समर्थन किया।

 

  • ऑस्टिन ने अपनी पुस्तक 'लेक्चर्स आन जुरिसप्रुडेंस 1832 में सम्प्रभुता को आधुनिक गुणो से सम्पन्न किया। जिसे सम्प्रभुता का अद्वैतवादी, एकल या कानूनी सिद्धान्त कहा जाता है। ऑस्टिन के विचारों ने सम्प्रभुता को सर्वोच्च षिखर पर पहुँच दिया। क्योंकि उन्होने सम्प्रभुता को निरपेक्ष, असीमित, असंक्राम्य और अखण्ड माना।

 

20वीं सदी के प्रारम्भ से ही राज्य के सर्वोच्च शक्ति अर्थात सम्प्रभुता के विरूद्ध आवाजे उठने लगी। एक तरफ अराजकतावादियों ने इसे व्यर्थ घोषित किया तो दूसरी ओर बहुलवादियों ने इसे मानव समुदाय के लिए अहितकर माना। उनका तर्क था कि सम्प्रभुता निरकुषंता का प्रतीक है  युद्ध को प्रोत्साहन देती है तथा विष्वषान्ति का शत्रु है । इसलिए सम्प्रभु शक्ति को समाज के विभिन्न समुदायों व संस्थाओं में विभाजित करने का इन लोगों ने प्रबल पक्षपोषण किया।

 

संम्प्रभुता के पहलू

 

उपरोक्त विष्लेषण के आधार पर सम्प्रभुता के दो प्रमुख पहलू दृष्टिगोचर होते है:

 

1 आन्तरिक सम्प्रभुता

 

आन्तरिक सम्प्रभुता का आषय है कि राज्य अपनी सीमाओं के भीतर व्यक्तियों, समुदायों, संस्थाओं, वर्गो, दलो आदि से श्रेष्ठ है अर्थात इन्हे राज्य के कानून और आदेषों के अधीन कार्य करना पड़ता है। राजाज्ञा का उल्लंघन करने पर राज्य सत्ता द्वारा कोई भी दण्ड दिया जा सकता हैं। कोई भी राज्य से अधिक श्रेष्ठता अर्थात इसके प्रति निरापदता का दावा नहीं कर सकता है। इनके ऊपर राज्य की शक्ति मौलिक, सार्वभौम, असीमित और पूर्णतः व्यापक होती है। लास्की ने आन्तरिक सम्प्रभुता की व्याख्या करते हुए कहा है कि “राज्य अपने क्षेत्र के अर्न्तगत सभी मनुष्यो तथा समुदायों को आज्ञा प्रदान करता है और स्वयं उनमें से किसी की भी आज्ञा नही मानता है। उसकी इच्छा पर किसी प्रकार का कानूनी बन्धन नही है। किसी विषय में केवल अपनी इच्छा के अभिव्यक्ति मात्र से ही उसे वह सब अधिकार मिल जाता है जिसे वह करना चाहता है। "

 

2 वाह्य सम्प्रभुता

 

वाह्य सम्प्रभुता का आषय है कि राष्ट्र मण्डलो के बीच प्रत्येक राज्य सर्वोच्च होता है और वह अपनी इच्छानुसार दूसरे राज्यों के साथ सम्बन्ध रखने के लिए स्वतन्त्र होता है। कोई अन्य राज्य या अन्तर्राष्ट्रीय संगठन किसी राज्य से श्रेष्ठ होने का दावा नहीं कर सकता है। राज्य कतिपय सन्धियो अथवा वचनवद्धताओं के अधीन हो सकता है । परन्तु ये स्वतः प्रसूत होती हैं। इसलिए उनसे उनकी सम्प्रभुता पर कोई असर नही पड़ता है। कोई भी राज्य के ऊपर ऐसी बाध्यता लागू नही कर सकता है या विवष नही कर सकता जो उसे स्वीकार्य न हो

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