राजर्षि पुरुषोत्तम दास के राजनीतिक एवं सामाजिक विचार एवं कार्य | Purushottam Das Tandon Thought Social and Politics

राजर्षि पुरुषोत्तम दास के राजनीतिक एवं सामाजिक विचार एवं कार्य

राजर्षि पुरुषोत्तम दास के राजनीतिक एवं सामाजिक विचार एवं कार्य | Purushottam Das Tandon Thought Social and Politics

राजर्षि पुरुषोत्तम दास के राजनीतिक एवं सामाजिक विचार एवं कार्य

राजर्षि टण्डन एक साथ राजनेतासाहित्यकारपत्रकार एवं समाजसेवी थे। पर विद्वानों के अनुसार उनकी चरम उपलब्धि संत की है। बाल्यावस्था एवं छात्रजीवन में उन्हें पतंगशतरंजक्रिकेट पसन्द थे। क्रिकेट में वे जीवन के अंत तक रूचि लेते रहेपरन्तु उनकी एकान्तनिष्ठा किसी और ही दिशा में थी। उनकी साधना पारलौकिकतापरक होने के कारण जागतिक व्यापारों में भी ऐहिकता का मिथ्याभाष होने का ज्ञान बना रहता था। उनके राजनीतिक-सामाजिक आदर्श इसी निष्ठा का परिणाम था ।

 

राजनीति में भारतीय संस्कृति के पोषक 

राजर्षि टण्डन भारतीय संस्कृति के पक्के समर्थक थे। प्रथम भारतीय संस्कृति सम्मेलनप्रयाग (1948) में उन्होंने निम्नलिखित प्रस्ताव रखा जो उनके दृष्टिकोण को स्पष्ट करता है "देश की वर्तमान स्थितियों में और देश के भविष्य को सामने रखते हुए यह आवश्यक है कि भारतीय संस्कृति की आधारशिला पर ही देश की राजनीति का निर्माण हो। इन सिद्धान्तों को व्यवहार में स्वीकार करने और बरतने से ही देश की सरकार जनता का सच्चा प्रतिनिधित्व कर उससे शक्ति प्राप्त कर सकती है।" उनका यह मानना था कि "संसार में जिस प्रकार दो मनुष्य बिल्कुल एक नहीं होते उसी प्रकार संसार के इतिहास में दो घटना समूह भी कभी एक नहीं हुए। एक ही मार्ग सभी स्थलों में नहीं चल सकता। हमें भी सदा स्मरण रखना चाहिए कि भारतवर्ष की स्थिति में रास्ता खोलने वाले के लिए किसी की नकलशक्तिदायिनी न होगी। हमें अपने जलवायुस्वभावअपनी मर्यादा और संस्कृति के अनुकूल रास्ते अपनाने होंगे और उन रास्तों पर खुली रीति से जनता को ले चलना होगा। उभरी हुईसुलझी हुईबलिदान के लिए तैयार शक्तिवान जनता पर ही हमारा अंतिम भरोसा है।" लेकिन उनमें प्राचीन या नवीन संस्कृति के प्रति व्यामोह या दंभ नहीं था। उन्हें संकुचित भौगोलिक या धार्मिक सीमायें कभी भी बाँध नहीं सकीं। देश के अन्तर्गत वह विभिन्न संस्कृतियों में समन्वय चाहते थे ।

 

प्राचीन एवं आधुनिक संस्कृतियों में समन्वय के समर्थक: 

प्राचीन भारतीय संस्कृति के पक्षधर होने के बावजूद राजर्षि टण्डन वर्तमान समय की आवश्यकताओं की उपेक्षा नहीं करते थे। उनका कहना था कि "संसार व्यापी राजनैतिक संघर्षो का सामना करने के लिए हमारे सामाजिक संगठन की उस प्राचीन आंतरिक शक्ति का उद्बोधन किया जायजिसने विरोधिनी परिस्थितियों में हमारी संस्कृति की रक्षा की है और जो भविष्य में भी प्राचीन मर्यादाओं की रक्षा करते हुए संसार के वैज्ञानिक आविष्कारों से लाभ उठा सकेगीसाथ ही संसार की परिस्थितियों पर अपना प्रभाव डालते हुए उनसे सामन्जस्य कर सकेगी।"

 

संत साहित्य में आस्था : 

संत साहित्य में राजर्षि टण्डन की गहरी आस्था थी। वे लिखते हैं "हिन्दी में संत साहित्य जिस ऊँची श्रेणी का है वह न संस्कृत में है और न किसी अन्य भाषा में है। उसकी जड़ ही हिन्दी में पड़ी है। कबीर दास इस साहित्य के सिरमौर है। गुरूनानकदादू पलटू रैदाससुन्दरदासमीराबाईसहजोबाई आदि प्रसिद्ध महात्माओं में कबीर की बानी की छाप स्पष्ट दिखाई पड़ती है। इन्हीं का विस्तृत प्रभाव मुझे गुजरात और महाराष्ट्र के सन्तों पर दिखाई पड़ता है।"

 

डॉ० राजेन्द्र प्रसाद के अनुसार राजर्षि टण्डन आरम्भ से ही संत विचारधारा से प्रभावित थे और जीवन-भर संत मत के नियमों तथा अनुशासन का पालन करते रहे। उन्होंने व्यक्ति और समाज के जीवन में आदर्श के स्थान तथा महत्व को हृदयंगम कर लिया था। इस आदर्श के लिए हर प्रकार का बलिदान अथवा त्याग करना उनके लिए संभव ही नहीं अनिवार्य रहा है।

 

एक साहित्यिक की भावुकता और एक सार्वजनिक कार्यकर्त्ता तथा लोकनायक की दृढ़ता के साथ-साथ डॉ० राजेन्द्र प्रसाद के अनुसार उनके जीवन का एक व्यावहारिक तथा समन्वयात्मक पक्ष भी है। उनका त्याग ऐहिक जीवन के प्रति उदासीनता की भावना उत्पन्न नहीं करता है। उनकी अध्यात्मिकता का आधार व्यक्ति का ही नहीं बल्कि समाज का भी कल्याण है

 

किसानों के हितों के संरक्षक : 

राजर्षि टण्डनमहात्मा गाँधी की ही तरहभारत को किसानों का देश मानते थे। उनका मानना था कि जब तक भूमि व्यवस्था में सुधार नहीं होगा किसानों की स्थिति में सुधार संभव नहीं है। उन्होंने पूरे उत्तरप्रदेश में किसान आन्दोलन का नेतृत्व किया और भूमिकर देने का विरोध किया। वे उत्तरप्रदेश में कृषक आन्दोलन के जन्मदाता थे। 1910 में उन्होंने किसान संघ की स्थापना की। 1921 में प्रादेशिक आधार पर किसानों को संगठित किया। किसानों के मध्य वे इतने लोकप्रिय हुए कि बिहार की किसान सभा ने भी उन्हें अपना अध्यक्ष चुना । उत्तरप्रदेश में जमीन्दारी उन्मूलन बिल पारित कराने में उन्होंने सक्रिय योगदान दिया । लाल बहादुर शास्त्री के अनुसार "टण्डन जी ने देश को बहुत कुछ दिया । परन्तु उनकी विशेष देन किसानों को है और हिन्दी को ... भूमि व्यवस्था और समाज निर्माण पर उनके विचार क्रांतिकारी रहे और उनका समर्थन सदा निर्बलों को प्राप्त हुआ।" वंचितोंदलितों और ठुकराये हुए वर्ग के प्रति टण्डन जी के दर्द को महसूस करते हुए श्री वियोगी हरि लिखते है "समाज में उपेक्षित और आखिरी पंक्ति में खड़े अंग नेजिसे छुने में भी परहेज किया जाता थाअपने प्रति ममता भरी स्नेह की भावना टण्डन में पाई थी ।


" प्रजातांत्रिक पद्धति के समर्थक :

 टण्डन जी की प्रजातांत्रिक शासन प्रणाली में गहरी आस्था थी। वे चाहते थे कि शासन - सूत्र का संचालन तो बहुमत के हाथों में रहे परन्तु बहुमत ऐसा हो जो अल्पमत की उपेक्षा न करे। विरोधी पक्ष की भावनाओं एवं विचारों का वे अत्यधिक सम्मान करते थे। उत्तर प्रदेश विधान सभा के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने स्पष्ट शब्दों में घोषणा की "यदि विरोधी दल के थोड़े से व्यक्ति भी मुझसे कहें कि मैं उनका विश्वासभाजन नहीं हूँ तो मैं अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देकर पृथक हो जाऊँगा।"

 

रूढ़िवाद के कट्टर विरोधी 

भारतीय संस्कृति एवं परम्परा के प्रबल समर्थक राजर्षि टण्डन कट्टरवाद के विरोधी थे और वे इससे बचने की सलाह देते थे। परम्परागत और बहुत दिनों से चली आ रही अनेक धारणाओं का वे खण्डन करते थे। उनका कहना था कि बहुत से पुरूष इन रूढ़ियों में फंस जाते हैं और इनसे निकलने की कोशिश नहीं करते। इस प्रकार की प्रवृत्ति को उन्होंने 'मूढाग्रहकहा।

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