मान्टेसरी पद्धति का विकास |मान्टेसरी पद्धति शिक्षा के सिद्वान्त |Montessori Method Education Principles in Hindi

 

मान्टेसरी पद्धति का विकास

मान्टेसरी पद्धति का विकास |मान्टेसरी पद्धति  शिक्षा के सिद्वान्त |Montessori Method Education Principles in Hindi
 

मान्टेसरी पद्धति का विकास

आवास स्थिति के संदर्भ में सामाजिक प्रयोग के द्वारा शारीरिक एवं मानसिक रूप से विकलांग बच्चों की शिक्षा के लिए विकसित की गई शिक्षा विधि का सामान्य बच्चों के संदर्भ में उपयोग मान्टेसरी पद्धति के जन्म का कारण है।

 

रोम के निर्धनतम परिवारों के आवास से सम्बन्धित सामाजिक बुराइयों को समाप्त करने हेतु 'असोसिएशन ऑफ गुड बिल्डिंगबनाया गया - इसने आवासीय क्वार्टरों को तो पुनर्निमित किया पर स्कूल नहीं जाने योग्य छोटे बच्चों की समस्या बनी रही। ये दिन में भवन को गंदा करते रहते थे । इस समस्या के समाधान हेतु रोम के असोसिएशन ऑफ गुड बिल्डिंगके डाइरेक्टर जनरल के मन में विचार आया कि एक बड़े हॉल में तीन से सात वर्ष के चाल में रहने वाले सभी बच्चों को इकट्ठा किया जाये और उनके लिए खेल तथा कार्य की व्यवस्था किसी अध्यापिका की देखरेख में की जाये जो उसी आवासीय परिसर में अपने अपार्टमेंट में रहें। इस तरह से हाउस ऑफ चाइल्डहुडके नाम से आवासीय परिसर में एक विद्यालय की स्थापना की गई।

 

हाउस ऑफ चाइल्डहुड का उद्देश्य ऐसे बच्चों की व्यक्तिगत देखरेख करना था जिनके अभिभावक अपने दैनिक कार्य / व्यवसाय के कारण बच्चे की देखभाल करने में असमर्थ हैं। आवासीय परिसर में रहने वाले तीन से सात वर्ष के बच्चों को अर्ह माना गया। कोई शुल्क नहीं लगना था पर तय समय पर बच्चों को साफ-सुथरे वस्त्र में पहुँचाना थाडाइरेक्टरेस के प्रति सम्मान तथा बच्चों की शिक्षा पर ध्यान देना था ।

 

इस प्रकार सामाजिक आवश्यकता ने शिक्षा के एक नए अभिकरण को जन्म दिया। यह दुर्भाग्यपूर्ण होगा अगर गरीब बच्चों के लिए शुरू की गई व्यवस्था अमीर बच्चों के लिए ही सीमित हो जाए।

 

1906 में डाइरेक्टर जनरल ऑफ रोमन असोसिएशन ऑफ गुड बिल्डिंग ने शिशु विद्यालय के संचालन का दायित्व मारिया मान्टेसरी को सौंपा जिन्होंने अपने पूर्व के अनुभव एवं प्रशिक्षण के आधार पर अपनी विधि का विकास किया। चिकित्साशास्त्र में स्नातक होने के नाते उन पर मानसिक रूप से विकलांग या दोषपूर्ण बच्चों के प्रशिक्षण का दायित्व था । इस कार्य में मारिया मान्टेसरी को अभूतपूर्व सफलता मिली- इस तरह के काफी बच्चों को उन्होंने लिखना-पढ़ना सिखाया। वे अपने आयुवर्ग के सामान्य बच्चों के साथ परीक्षा में बैठकर सफल हुए। इस प्रभावशाली सफलता का कारण मान्टेसरी के अनुसार बेहतर शिक्षण-प्रशिक्षण विधि है जिनके द्वारा इन बच्चों को पढ़ाया गया था । मारिया मान्टेसरी ने निष्कर्ष निकाला अगर इस श्रेष्ठ विधि का प्रयोग सामान्य बालकों की शिक्षा हेतु किया जाये तो परिणाम और आश्चर्यजनक होंगे।

 

मान्टेसरी पद्धति की शिक्षा के सिद्वान्त

 

मान्टेसरी ने पहले मानसिक रूप से कमजोर या विकलांग बच्चों की शिक्षा के लिए जो सिद्वान्त प्रतिपादित किए उन्हें बाद में सामान्य शिशुओं की शिक्षा पर लागू किया । ये सिद्वान्त हैं :

 

स्वतंत्रता का सिद्धान्त - 

पहला सिद्धान्त दैनिक जीवन की सामान्य क्रियाकलापों में बच्चों को स्वतंत्र बनाना । मस्तिष्क का अल्प विकास होता है अतः बुद्धि की जगह इन्द्रिय प्रशिक्षण पर जोर दिया जाना चाहिए। शारीरिक विकलांगता वाले बच्चों में खराब अंग या इन्द्रिय की कमी को पूरा करने हेतु दूसरे इन्द्रियों के प्रयोग का गहन प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए- जैसे नेत्रविहीन के लिए स्पर्श की शक्ति का विकास किया जाना चाहिए । स्पर्श को मारिया मान्टेसरी अत्यधिक महत्वपूर्ण एवं मूल मानती है - इसका विकास प्रारम्भिक वर्षों में बहुत अधिक किया जा सकता है।

 

मनोविज्ञान का सिद्धान्त - 

एडवर्ड सेगुइनजिनका प्रभाव मान्टेसरी पर पड़ाने कमजोर दिमाग वाले बच्चों के प्रशिक्षण को शारीरिक विधि कहा पर मान्टेसरी द्वारा की गई प्रगति को देखते हुए इसे मनोवैज्ञानिक विधि कहा जा सकता है। शिक्षा में मनोवैज्ञानिक विधि से तात्पर्य है शैक्षिक प्रक्रिया बच्चे मानसिक विकास के स्तर तथा उसकी रूचि पर निर्भर करती है न कि पाठ्यक्रम की आवश्यकताओं पर और न ही अध्यापक की कार्य योजना पर । मान्टेसरी ने कहा “शिक्षा से तात्पर्य है बच्चे के जीवन के सामान्य विस्तार हेतु दी गयी क्रियाशील सहायता ।" शैक्षिक प्रक्रिया में मनोवैज्ञानिक पल तब आता है जब बच्चे के मस्तिष्क में आवश्यकता की जागरूकता आती है । अतः यह आवश्यक है बच्चे द्वारा विकास की आवश्यकता को महसूस किये जाने पर कार्य / प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। अगर कोई बच्चा कोई कार्य नहीं कर पाता या कोई चीज नहीं समझ पाता तो अध्यापक को उसे दुहराने की बजाय यह मानना चाहिए कि कार्य समय से पूर्व दे दिया गया- जब बच्चा उसकी आवश्यकता दिखाये तो पुनः वह पाठ / कार्य दिया जाना चाहिए। किसी कार्य के लिए समय सारिणी को ध्यान में रखने की जगह बच्चे की रूचि और सीखने की इच्छा को ध्यान में रखना चाहिए। मान्टेसरी पद्धति में एक ही कार्य पर बच्चे कई दिन लगा सकते है।

 

स्वशिक्षा का सिद्धान्त- 

मान्टेसरी पद्धति में कोई पुरस्कार नहीं होता । छात्र का कार्य / ज्ञान में कुशल हो जाने का भाव सबसे बड़ा पुरस्कार है। "उसका अपना स्वयं का विकास सही तथा एकमात्र प्रसन्नता या उपलब्धि है ।" मान्टेसरी के अनुसार सुधार वस्तुओं से आता है न कि अध्यापकों से । "शिशु सदन में अनुशासन एवं स्थिरता बनाए रखने वाली एवं लगातार व्याख्यान देने वाली पुरानी अध्यापिकाओं की जगह शैक्षिक वस्तुओं ने ले ली हैजिसमें गलतियों को नियन्त्रित करने की अन्तर्निहित क्षमता होती है- और स्वतंत्रता एवं स्वशिक्षा संभव होती है ।"

 

आत्म अनुशासन का सिद्धान्त- 

मनोवैज्ञानिक पद्धति में बच्चे को पूर्ण स्वतंत्रता होती हैस्वतंत्रताजिसमें वह अपनी प्रकृति के विकास के सिद्धान्त के प्रति पूर्णतः आज्ञाकारी होता है। बच्चों को कार्य करने की स्वतंत्रता होती है। जिसने भी मान्टेसरी विद्यालय देखा वह वहाँ के अनुशासन से अत्यधिक प्रभावित हुआ। चालीस छोटे बच्चे ( 3 से 7 वर्ष के ) - प्रत्येक अपने-अपने कार्य में लगा हुआ। कोई इन्द्रियों से सम्बन्धित अभ्यास में लगा हैतो काई अंकगणित की समस्या मेंकोई अक्षरों को संभाल रहा है तो कोई चित्र बना रहा हैकोई लकड़ी के टुकड़े में कपड़े को बाँध और खोल रहा हैकोई सफाई कर रहा हैकुछ लोग टेबुल पर बैठे हैंकुछ लोग दरी पर नीचे । कुछ लोगों के लिए यह लाइसेन्स लग सकता पर यह स्वतंत्रता की समय - समय पर पुनर्खोज करने का शिक्षाशास्त्रियों का तरीका है।

 

वैयक्तिक विकास का सिद्धान्त- 

फ्रोबेल की ही तरह मान्टेसरी का मानना है कि शिक्षा वस्तुतः व्यक्ति के अन्दर निहित शक्तियों के प्राकृतिक विकास की प्रक्रिया है । भविष्य की क्षमताओं के बीज बच्चे में जन्म के समय से उपस्थित रहते हैं। अध्यापिका या डाइरेक्ट्रेस का कार्य है जन्म के समय उपस्थित शक्तियों के विकास हेतु उपयुक्त वातावरण प्रदान करना ।

 

ज्ञानेन्द्रिय प्रशिक्षण द्वारा शिक्षा- 

मान्टेसरी ने शिक्षा में ज्ञानेन्द्रियों पर अत्यधिक जोर दिया है। उनका कहना है कि मानव ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से ज्ञान प्राप्त करता है। अगर इन्द्रियों का विकास अवरूद्ध हुआ तो ज्ञान प्राप्त करना संभव नहीं होगा। अतः ज्ञानेन्द्रियों की शिक्षा पर विशेष बल दिया जाना चाहिए। उनके अनुसार तीन से सात वर्ष तक की अवस्था में बच्चों की इन्द्रियाँ विशेष रूप से क्रियाशील रहती हैं अतः इनके विकास पर अवश्य ध्यान दिया जाना चाहिए ।

 

कर्मेन्द्रियों की शिक्षा - 

मारिया मान्टेसरी कर्मेन्द्रियों की शिक्षा को मानव शिशु के लिए आवश्यक मानती हैं। शरीर के सभी अंगो को मजबूत बनाने के लिए आवश्यक है कि बच्चों को अंगो के सही संचालन की शिक्षा दी जाय । अंग-संचालन हेतु मांसपेशियों पर नियन्त्रण से खेलना-कूदनालिखना पढ़ना आदि क्रियायें सफल हो सकती हैं।

 

खेल के माध्यम से शिक्षा - 

मान्टेसरी ने शिक्षा को बालक या बालिका की रूचि एवं क्षमता के अनुरूप देने पर जोर दिया। बालक की खेल में रूचि अत्यन्त स्वभाविक है। अतः प्रारम्भ में खेल के माध्यम से ही शिक्षा दी जानी चाहिए। शिशु को विभिन्न तरह के शैक्षिक यन्त्र दिए जाने चाहिए। इनसे खेलते-खेलते वह वर्णमालागणितभाषा आदि विषय सीख जाता है।

No comments:

Post a Comment

Powered by Blogger.