श्रीमद भागवत गीता के अनुसार- कर्मयोग का अर्थ एवं विशेषताएँ | Karm Yog Meaning and Explanation

श्रीमद भागवत गीता के अनुसार- कर्मयोग

श्रीमद भागवत गीता के अनुसार- कर्मयोग का अर्थ एवं विशेषताएँ | Karm Yog Meaning and Explanation
 

श्रीमद भागवत गीता के अनुसार- कर्मयोग का अर्थ एवं विशेषताएँ 

  • कर्मयोग अर्थात् कर्म के माध्यम से योग (जीवात्मा का परमात्मा से मिलन) को फलीभूत करने को कहते है । कर्म शब्द 'कृधातु से निकलता है, 'कृधातु का अर्थ है करना । अतः कर्मयोग में कर्म शब्द का अभिप्राय 'कार्यही है।

 

  • जो व्यक्ति भगवान के प्रति कर्तव्य भावना से अधिक प्रेरित होते हैं वे कर्मयोग के मार्ग से भगवान तक पहुँचना चाहते हैं - इसी पद्धति को कर्मयोग का मार्ग कहा गया है। भगवतप्राप्ति के विभिन्न मार्ग जैसे ज्ञानयोगकर्मयोगभक्तियोगहठयोगमंत्रयोगनादयोग आदि बिल्कुल पृथक् पृथक् विभाग नहीं हैं। प्रधानता के आधार पर ये विभाग किये गये हैं। ऐसा कोई व्यक्ति नहीं होता जिसमें कर्म के अतिरिक्त भक्तिज्ञान आदि की शक्ति ही न होउसी प्रकार ऐसा व्यक्ति भी नहीं देखा जाता जिसमें केवल भक्ति या केवल ज्ञान के अतिरिक्त और कुछ न हो। ये विभाग मनुष्य की प्रधान प्रवृत्ति के अनुसार किए गए हैं। अन्ततोगत्वा सभी मार्ग एक ही लक्ष्य पर जाकर एक हो जाते हैं।

 

कर्मयोग का विवेचन प्रधानतः दो ही प्रश्नों के उत्तर में परिसमाप्त हो जाता है-

 

1. पहला किस प्रकार का कर्म करना चाहिए

2. दूसरा उसे करने की यथार्थ विधि क्या है?

 

श्रीमद्धभगवतगीता जो समस्त शास्त्रों का सार है पहले प्रश्न के उत्तर में कहती है-

 

तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ । 

ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि।। (16:24) 

अर्थात्

 

  • कौन सा कर्म करना चाहिए और कौन सा नहीं करना चाहिए इसका निर्णय करने के लिए तुम्हारे पास शास्त्र ही प्रमाण है। इस विषय में शास्त्र की आज्ञा जानकर तुम्हें उसी के अनुसार कर्म करने चाहिए ।

 

नियतं कुरु कर्म त्वं (गीता 3:8) 

अर्थात् 

तू शास्त्रविहित कर्तव्यकर्म कर के द्वारा भी भगवान ने स्पष्टतः शास्त्र अनुमोदित कर्म ही करने की आज्ञा सभों को दी है।

 

  • हमलोग इस जन्म से पहले असंख्य बार इस संसार में जन्म ले चुके हैं। उन पूर्वजन्मों में भी मनुष्य योनि कभी तिर्यग्योनि और कभी कीटपतंग आदि की योनि प्राप्त हुई होगी। उन जन्मों में हम जो कुछ कर्म कर आये हैं उन्हीं के संस्कार इस जन्म में वासनारूप से हमारे चित्त में मौजूद हैं और बहुधा हमें अनुचित कर्म करने को प्रेरित करते हैं। अध्यात्ममार्ग में आगे बढ़ने के लिए (जिसके बिना मनुष्य का उद्धार हो ही नहीं सकता)यह आवश्यक है कि हम सारी इच्छाओं और आसक्तियों से सर्वथा मुक्त हो जायें। इच्छा और आसक्ति से मुक्त होने का एकमात्र उपाय है- शास्त्र विहित कर्म करना। ऐसा करने से हम अपनी दूषित इच्छाओं और आसक्तियों से मुक्त हो जाते हैं और सदाचार एवं धर्म में स्थित होकर अपना एवं विश्व का मंगल कर सकते हैं।

 

  • गीता के नवें अध्याय के श्लोक संख्या 21 में भगवान कहते हैं - सकाम कर्म को करने वाले उस विशाल स्वर्गलोक को भोगकर पुण्य क्षीण होने पर मृत्युलोक को प्राप्त होते हैं। इस प्रकार स्वर्ग के साधनरूप तीनों वेदों में कहे हुए सकाम कर्म का आश्रय लेने वाले और भोगों की कामनावाले पुरुष बार-बार आवागमन को प्राप्त होते हैं अर्थात् पुण्य के प्रभाव से स्वर्ग में जाते हैं और पुण्य क्षीण होने पर मृत्युलोक में आते हैं।

 

  • केवल स्वर्ग ही नहीं ब्रह्मलोक तक की भी प्राप्ति मनुष्य कामना सहित कर्म करते हुए पा ले तो भी उसे जन्म मरण के चक्र से मुक्ति नहीं मिलती। भगवान ने गीता के 8:16 में निर्णय दिया है कि ब्रह्मलोक पर्यन्त सब लोक पुनरावर्ती (जिसको प्राप्त होकर पीछे संसार में आना पड़े) हैपरंतु मुझको (भगवान को) प्राप्त करके पुनर्जन्म नहीं होता। अतः केवल भगवत प्राप्ति एवं प्रीति के निमित्त कर्तव्य कर्म करना चाहिए।


कर्म करने की यथार्थ / सही विधि क्या है

हमारा दूसरा प्रश्न कि कर्म करने की यथार्थ / सही विधि क्या हैके उत्तर में गीता को भगवान का उपदेश इस प्रकार से मनुष्य के परम कल्याण हेतु बता दिया गया है।

 

1. अनासक्त होकर कर्त्तव्य कर्म करने का आदेश । (3:19) 

2. कर्म के सम्पादन में फलाकांक्षा का त्याग। (2:47 ) 

3. युद्धस्तर पर कर्तव्य कर्म करने की आज्ञा (87) 

4. कर्तापन के अभिमान को त्यागकर कर्तव्य कर्म करने की आज्ञा । (3:27 ) 

5. धृति / धैर्य और उत्साह से युक्त होकर कर्तव्य कर्म करने की आज्ञा ( 18:26) 

6. समस्त कर्तव्यकर्मों को परमात्मा में अर्पित कर कर्म बंधन से मुक्त हो जायें। (3:41) 

7. लोक संग्रह ( लोक शिक्षा एवं कल्याण) के लिये कर्तव्य कर्म करें। (3:25) 

8. कर्म न करने में भी आसक्ति न हो। (3:8) 

9. केवल ईश्वर के लिए संपूर्ण कर्तव्य कर्मों को करना। (11:55)

 

सारांश में जो पुरुष शास्त्रविधि को त्यागकर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है वह न सिद्धि को प्राप्त होता है न परम गति को ओर न सुख को ही। (16:23) भगवान का वादा है कि मेरे परायण हुआ कर्मयोगी संपूर्ण कर्तव्य कर्मों को सदा करता हुआ मेरी कृपा से सनातन अविनाशी परमपद को प्राप्त हो जाता है।

 

तीन प्रकार के कर्म गीता में भगवान ने बताए हैं :

 

1. जो कर्म शास्त्र विधि से नियत किया हुआ कर्तापन के अभिमान से रहित हो तथा फल न चाहने वाले पुरुष द्वारा बिना राग द्वेष के किया गया हो वह सात्विक कहा जाता है। (18:23)

 

2. परन्तु जो कर्म बहुत परिश्रम से युक्त होता है तथा भोग को चाहने वाले अहंकारी पुरुषों द्वारा किया जाता है वह कर्म राजस कहा गया है। (18:24)

 

3. जो कर्म परिणामहानिहिंसा और सामर्थ्य को न विचारकर केवल अज्ञान से आरंभ किया जाता है वह कर्म तामस कहा जाता है। (18:25 )

 

तीन प्रकार के कर्मों के कर्ता के लक्षण भगवान ने गीता में बताए हैं-

 

1. जो कर्ता संगरहितअहंकार के वचन न बोलने वालाधैर्य और उत्साह से युक्त तथा कार्य के सिद्ध होने और न होने से हर्ष शोकादि विकारों से रहित है - वह सात्विक कहा जाता है। (18:26)

 

2. जो कर्ता आसक्ति से युक्तकर्मों के फल को चाहने वाला और लोभी है तथा दूसरों को कष्ट देने के स्वभाव वालाअशुद्धाचारी और हर्ष शोक से लिप्त है- वह राजस कहा जाता है। (18:27)

 

3. जो कर्ता आयुक्तशिक्षा से रहितघमण्डीधूर्त और दूसरों की जीविका का नाश करने वाला तथा शोक करने वालाआलसी और दीर्घसूत्री (देर से करने वाला) है- वह तामस कर्ता कहा जाता है। (18:28 )

 

गीता में कर्मयोग की महत्ता

 

1. श्रेष्ठ – 

कर्मयोग ज्ञान से श्रेष्ठ है (5:2) कारण कि कर्मयोग में संपूर्ण कर्म कर्तव्य परंपरा सुरक्षित रखने के लिए अर्थात् दूसरों के लिए ही किये जाते हैं। अतः अपने सुख-आरामआदरमहिमाविद्या - बुद्धि का अभिमानभोग और संग्रह की इच्छा आदि का त्याग सुगमता से हो जाता हैजबकि ज्ञानयोग में विवेक विचार के द्वारा अपने सुख आराम का त्याग करने में कठिनता पड़ती है। कर्मयोग ध्यानयोग से भी श्रेष्ठ है । ( 12:12 )

 

2. सुगम 

कर्मयोगी सुखपूर्वक बंधन से मुक्त हो जाता है 'सुखं बन्धात्प्रभुच्यते ' ( 5:3 ) - कारण कि उसमें राग द्वेष नहीं होतेप्रत्युत समता रहती है। ऐसे तो संपूर्ण मनुष्य कर्म करते ही हैंपर राग द्वेष होने सेसिद्धि असिद्धि में सुखी दुखी होने से वे बंधन से मुक्त नहीं हो पाते।

 

3. शीघ्रसिद्धि – 

समता युक्त कर्मयोगी बहुत जल्दी परमात्मतत्व को प्राप्त हो जाता है - 'योगयुक्तोमुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति' (5:6)कारण कि उसमें कर्म और कर्मफल की आसक्ति नहीं होती और संसार का आश्रय नहीं रहता। (4:20 )

 

4. पापों का नाश 

जो केवल यज्ञ के लिए अर्थात् कर्तव्य परंपरा को सुरक्षित रखने के लिए ही कर्म करता है उसके संपूर्ण कर्मपाप विलीन हो जाते हैं । (4:23)

 

5. संतुष्टि -

कर्मयोगी अपने आपमें संतुष्ट हो जाता है (2:55) (3:17)। कारण कि उसमें संपूर्ण कामनाओं का सर्वथा त्याग होता है । अतः उसकी संतुष्टि पराधीन नहीं होती ।

 

6. शान्ति की प्राप्ति

कर्मयोगी शान्ति को प्राप्त हो जाता है (2:71) (5:12)। कारण कि - उसमें कामनाममता आदि नहीं रहते अर्थात् उसका संसार से संबंध नहीं रहता ।

 

7. समता की प्राप्ति

कर्मयोगी सिद्धि और असिद्धि में सम हो जाता है. 'समः सिद्धावसिद्धौ - च' (4:22)। कारण कि उसको कर्म की सिद्धि असिद्धिपूर्ति – आपूर्ति में हर्ष शोकराग - देष नहीं होते ।

 

8. ज्ञान की प्राप्ति - 

कर्मयोग से सिद्ध हुए मनुष्य को अपने स्वरूप का ज्ञान (बोध) अपने आप हो जाता है (4:38)। कारण कि उसमें संसार का आकर्षणजड़ता नहीं रहती । जड़ता न रहने से स्वतः सिद्ध स्वरूप रह जाता है।

 

9. प्रसन्नता ( स्वच्छता) की प्राप्ति - 

कर्मयोगीअन्तःकरण की प्रसन्नता को प्राप्त हो जाता है – 'प्रसादमधिगच्छति' (2:64) । कारण कि राग द्वेष-पूर्वक विषयों का सेवन करने से ही अन्तःकरण में अशान्ति होती है परन्तु कर्मयोगी राग द्वेष रहित होकर साधना करता है जिससे उसका अन्तःकरण स्वच्छनिर्मल हो जाता है ।

No comments:

Post a Comment

Powered by Blogger.