योग का अर्थ एवं परिभाषा |योग सामान्य परिचय | Yoga Introduction and Definitions in Hindi

योग : एक परिचय , योग सामान्य परिचय 

योग : एक परिचय | योग सामान्य परिचय | योग की परिभाषा | Yoga Introduction and Definitions in Hindi



योग : एक परिचय

 

योग प्राचीनकाल से ही भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग रहा है, जो हमें हमारी भारतीय परम्परा से विरासत में मिला है। योग, न केवल एक अमूल्य धरोहर है, अपितु स्वस्थ रहने के लिए एक अनमोल उपहार भी है जो मनुष्य को जीवन जीने की कला सिखाता है । यह केवल व्यायाम नहीं बल्कि जीवन शैली को आनंदमय बनाने की कला भी है। प्राचीन काल से ही हमारे ऋषि मुनि यौगिक जीवन का अनुसरण करते आ रहे हैं। क्या आप जानते हैं कि योग अब मात्र आश्रमों और साधु-संतों तक ही सीमित नहीं रह गया है बल्कि पिछले कुछ दशकों में इसने हमारे दैनिक जीवन में अपना स्थान बना लिया है ।

 

योग क्या है   योग का क्या अर्थ है ? 


  • जब योग का विषय शुरू होता है तो अचानक हमारे मन में साधु-संन्यासी या गेरुआ वस्त्र धारण किए बाबाओं की तस्वीर उभरने लगती है। कुछ लोग ऐसा सोचते हैं कि योग तो साधु, संन्यासियों का ही विषय है, तो कुछ लोग इसे हाथ का जादू या चमत्कार समझते हैं। आमतौर पर योग को स्वास्थ्य और फिटनेस के लिए एक थिरेपी के रूप में समझा जाता है। तो आइए, इन सब भ्रान्तियों से हटकर योग के वास्तविक स्वरूप को समझने का प्रयास करते हैं।

 

  • योग स्वस्थ जीवन जीने की एक कला है जो मन और शरीर के बीच सामंजस्य स्थापित करता है। भारतीय ज्ञान परंपरा में योग का बहुत महत्व है। प्राचीन काल से ही योग हमारी जीवन शैली के अंग के रूप में समाहित है। आज योग सभी को अपनी ओर आकर्षित कर रहा है। 


  • महर्षि पतंजलि ने अपने योग ग्रंथ -'पातंजल योग सूत्र में वर्णन किया है कि "तदा द्रष्टुः स्वरुपेऽवस्थानम्”अर्थात् मानव जीवन का परम लक्ष्य अपने वास्तविक स्वरूप में स्थित होना है। (पातंजल योग सूत्र 1/3) और यही योग विद्या का ध्येय भी है। योग विद्या हमें अपने स्वयं के अस्तित्व का बोध कराती है।

 

योग शब्द का अर्थ 

योग शब्द का अर्थ बहुत व्यापक और विस्तृत है। शास्त्रों के अनुसार इसके अनेक अर्थ मिलते हैं। योग शब्द का सामान्य अर्थ है - जोड़ना, जुड़ना, मिलना, युक्त होना आदि। संस्कृत में योग शब्द की उत्पत्ति युज् धातु से मानी गई है। (योग शब्द 'युज धातु के बाद करण और भाव वाच्य में घन् प्रत्यय लगाने से बना है जिसका अर्थ है- 'स्वयं के साथ मिलन


शरीर का मन से, मन का आत्मा से और आत्मा का परमात्मा से जुड़ना योग कहलाता है।

 

जैसा कि हम आपको बता चुके हैं कि योग का अर्थ बहुत व्यापक है। विभिन्न विद्वानों ने अपने मत व भाव के अनुसार योग के अर्थ को स्पष्ट किया है। 'योग अनुशासन का विज्ञान है' यह शरीर, मन तथा आत्मशक्ति का सर्वांगीण विकास करता है।

 

  • योग सूक्ष्म विज्ञान पर आधारित एक आध्यात्मिक विषय भी है जो मन एवं शरीर के बीच सामंजस्य स्थापित करता है। यह स्वस्थ जीवन जीने की एक कला है, जो भौतिक व आध्यात्मिक दोनों तरह के उत्थान को संभव बनाता है। इसका स्पष्ट प्रमाण सिंधु सरस्वती घाटी की सभ्यता से ही मिल जाता है, जिसका इतिहास 2700 ईसा पूर्व से है।

 

  • योग के महान दार्शनिक-महर्षि पतंजलि ने योग दर्शन को आरंभ करते हुए लिखा है- 'अथ योगानुशासनम्' (पा.यो.द.-1/1) अर्थात् अब योगानुशासन-परंपरागत योगविषय शास्त्र को आरंभ करते हैं। कहने का तात्पर्य है कि महर्षि पतंजलि ने 'योग को अनुशासन का विज्ञान' बताया है।

 

योग के अर्थ को गहराई से समझने के लिए आइए, योग की कुछ मुख्य परिभाषाओं पर विचार करते हैं ।

 

योग की परिभाषा  (Definition of Yoga)

 

आपने योग के परिचय में पढ़ा कि योग, संस्कृत के युज् धातु से उत्पन्न हुआ है जिसका अर्थ है 'जोड़ना' । योग से हम अपने को दूसरों से जोड़ पाते हैं। तद्नुसार आत्मा को सर्वव्यापी परमात्मा से जोड़ने के साधन के रूप में भी योग को समझा जा सकता है। 


महार्षि पाणिनी के अनुसार योग की परिभाषा 

 

1) युजिर योगे - अर्थात् संसार के साथ वियोग और ईश्वर के साथ संयोग का नाम, योग है। 

2 ) युज समाधौ- अर्थात् समाधि के लिए साधना से जुड़ना, योग है। 

3) युज संयमने-अर्थात् मन पर संयम करना, योग है।

 

वैदिक ग्रंथों, उपनिषदों, महाभारत और श्रीमद्भगवद्गीता में योग पर काफी चर्चा की गई है। श्रीमद्भगवद्गीता में ज्ञान योग, भक्ति योग, कर्म योग और राज योग का अद्भुत उल्लेख मिलता है।

 

योग की कुछ परिभाषाओं पर विचार करते हैं -

 

1) योगश्चित्तवृत्ति निरोधः (पा.यो.द. 1/2)

 

  • अर्थात् महर्षि पतंजलि के अनुसार 'चित्त की वृत्तियों का निरोध योग है।' आपने महसूस किया होगा कि मन प्रायः अस्थिर रहता है। यह अस्थिरता हमारी चंचल वृत्तियों के कारण है। वृत्ति का अर्थ है चित को व्यवहार में लाना। जिस वस्तु के प्रति हम जैसा सोचते हैं या व्यवहार करते हैं, उसे वृत्ति कहते हैं। सुखद दृश्यों को सोच कर या देखकर उन दृश्यों के प्रति, प्रीति की भावना, लगाव की भावना स्वाभाविक है। इसे 'रागयुक्त' वृत्ति कहते हैं। इसके विपरीत किसी दुखद घटना को याद करते हुए या ग्रस्त होते हुए, उसके प्रति दुःख की भावना का आना स्वाभाविक है और इसे 'द्वेषयुक्त वृत्ति' कहते हैं। हर समय हमारे मन में एक न एक वृत्ति का संचार होता रहता है। हमारी वृत्तियां हमारे पूर्व संस्कारों और वर्तमान में ग्रहण किए जाने वाले विषयों के कारण होती हैं।

 

  • आप पूछेंगे कि विषय क्या है? विषय पांच हैं - शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध। इन्हीं विषयों के अधीन काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार और ईर्ष्या, द्वेष आ जाते हैं।

 

  • हमारी वृत्तियों के आधार पर जो-जो विषय स्वयं को ठीक लगते हैं वही चित्त द्वारा आत्मा के सम्मुख लाए जाते हैं। जब-जब हम अज्ञानवश अपने आप को चित्त मानते हुए उन्हें ग्रहण करते हैं, तब-तब मन में रागयुक्त या द्वेषयुक्त वृत्ति का संचार होता रहता है । इन वृतियों को चित्त की बाह्य-वृत्ति कहते हैं। अभ्यास द्वारा चित्त की वृत्तियों को बाहर की वस्तुओं (विषयों) से हटाकर अंदर की ओर करते रहने से, वृत्तियों का भटकना बंद हो जाता है। उन वृत्तियों को पूर्णतः शांत और एकाग्र कर लेने का नाम योग है। इसे ही 'योगः चित्तवृत्ति निरोध' कहते हैं ।

  श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार योग की परिभाषा बताइये ।

2. योगः कर्मसु कौशलम् । (श्रीमद्भगवद्गीता - 2 / 50 ) 


अर्थात् कर्मों में 'कुशलता ही योग है।"

 

  • भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में योग को परिभाषित करते हुए कहा है कि कर्मों को पूर्ण कुशलता पूर्वक किया जाए और वे आसक्ति रहित हों। इस परिभाषा के स्पष्टीकरण के लिए यहां स्पष्ट करना आवश्यक है कि कर्मों का आशय निश्चित रूप से सत्कर्म करने से है अर्थात् वे कर्म जो मानव के करने योग्य हैं। निषिद्ध कर्म जैसे- चोरी करना, ईर्ष्या करना, बेईमानी करना आदि इस परिधि में नहीं आते।

 

  • कर्मों को कुशलता पूर्वक न कर पाने के कारण ही जीव को बार-बार जन्म लेना पड़ता है। वे फलों की इच्छा से कर्म करते हैं और आसक्तिपूर्वक किए गए कर्मों का फल भोगने के लिये फिर से जन्म लेना पड़ता है। इसलिए जीव कर्मों एवं कर्मफलों के बंधन से मुक्त नहीं हो पाता और जन्म-मरण का यह क्रम चलता रहता है।

 

3. समत्वं योग उच्यते (श्रीमद्भगवद्गीता - 2:48 ) 

  • अर्थात् समत्व भाव ही योग है।

 

समत्व का अर्थ है - विभिन्न परिस्थितियों यथा सुख-दुखः लाभ-हानि में सम बने रहना या एक जैसा बने रहना अधिकांशतः देखने में यह आता है कि सुखद परिस्थितियों में हम फूले नहीं समाते, हमारे अंदर अहंकार आ जाता है और हम जैसा व्यवहार पहले करते थे सामान्यतः वैसा नहीं कर पाते। इसी प्रकार अधिकांश लोग परिस्थिति के थोड़ा-सा प्रतिकूल होते ही बड़े निराश, हताश और उदास हो जाते हैं और अपने आप को बड़ा दीन-हीन मानने लगते हैं। इन दोनों अवस्थाओं में वे अपने आप पर संयम नहीं रख पाते और भावुक हो उठते हैं। अनुकूल और प्रतिकूल दोनों ही परिस्थितियों में अपने मन की शांति और स्थिरता को बनाए रखना एवं लक्ष्य की ओर निरंतर बढ़ते रहना ही समभाव अथवा 'समत्व' कहलाता है।

 

4. योऽपानप्राणयोरैक्यं स्वरजो रेतसोः तथा । 

सूर्याचन्द्रमसोर्योगो जीवात्मपरमात्मनोः ।। 

एवं तु द्वन्द्वजालस्य संयोगो योग उच्यते ।। (योग शिखोपनिषद् -1 /68-69)

 

'अर्थात् 

  • अपान का प्राण से, स्वरज का स्वरेत से, सूर्य (नाड़ी) का चन्द्र (नाड़ी) से व जीवात्मा का परमात्मा से संयोग (मिलन) को ही योग कहा गया है।'

 

  • हर जीव में आत्मा होती है, उसी आत्मा की शक्ति से यह सारा शरीर और मन काम करता है। शरीर और मन अपने आप काम नहीं करते, ये तो जड़ हैं। किन्तु आत्मा जड़ नहीं, चेतन है और आत्मा की चेतन शक्ति से ही शरीर और मन भी चेतन दिखाई पड़ते हैं। शरीर जड़ है और पांच तत्वों से बना है। ये पांच तत्व आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी हैं। इन पांच तत्वों के साथ जीवात्मा के संयोग को जन्म और वियोग को मृत्यु कहते हैं। जीवात्मा, शक्ति का ऐसा पुंज है जो न कभी मरती है और न ही कभी जन्म लेती है, बल्कि जन्म लेता और मरता तो शरीर है। अच्छे कर्म करते हुए जीवात्मा पुण्यात्मा बन जाती है और बुरे कर्म करते हुए जीवात्मा पापात्मा बन जाती है। निरंतर योगाभ्यास से धीरे-धीरे हमारा शरीर निरोग और स्थिर होने लगता है, मन पवित्र और शांत होने लगता है; अंततः हमें आत्मा के सही स्वरूप का भान होने लगता है। आत्मा के सही स्वरूप को पहचानने के पश्चात ही हम परमात्मा के आंशिक स्वरूप को जानने की सामर्थ्य जुटा पाते हैं।

 

  • जैसे-जैसे हमारी जीवात्मा पवित्र और सबल होती जाती है वैसे-वैसे वह परमात्मा के नजदीक होने लगती है। इस स्थिति की ओर बढ़ते-बढ़ते हमें परमानंद की अनुभूति होने लगती है और आत्मा-परमात्मा के मंगल-मिलन की इस अवस्था को योग कहा गया है।

 

  • स्वामी विवेकानन्द ने राज योग में योग की इस प्रकार व्याख्या की है कि प्रत्येक जीव अव्यक्त ब्रह्मा है। बाह्य एवं अंतः प्रकृति को वशीभूत करके अपने इस ब्रह्मभाव को व्यक्त करना ही जीवन का परम लक्ष्य है"।

 

  • स्वामी शिवानन्द जी योग की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि योग, विचार, वाणी और कर्म के बीच समन्वय और सामन्जस्य स्थापित करता है।"


  • आचार्य श्रीराम शर्मा के अनुसार "स्वयं को जानना योग है।"

No comments:

Post a Comment

Powered by Blogger.