नारीवादी सिद्धान्त में यौन लिंग अन्तर|Gap in feminist theory

नारीवादी सिद्धान्त में यौन/लिंग अन्तर

 

नारीवादी सिद्धान्त में यौन लिंग अन्तर|Sex-gender gap in feminist theory

नारीवादी सिद्धान्त में यौन/लिंग अन्तर

पिछले वर्गों में नारीवादियों द्वारा यौन तथा लिंग के बीच विभेद को और भी अधिक जटिल बना दिया गया है। वैसे तो इस भेद को आमतौर पर सभी नारीवादी स्वीकार करते हैंलेकिन यौन प्रकृति से तथा लिंग संस्कृति से सम्बंधित हैकी प्रारंभिक समझ पर काफी परिवर्तन आया है। मुख्य तौर पर हम चार तरीके पाते हैंजिसमें कि यौन/लिंग विभेद को नारीवादी सिद्धान्त के आगे विकसित किया गया है।

 

1 ऐलीसान जैग्गर जैसे विद्वानों के विचार

 

  • ऐलीसान जैग्गर जैसे विद्वान यह तर्क देते हैं कि यौन तथा लिंग द्वन्द्वात्मक ढंग से जुड़े हैं तथा अपृथकनीय हैं और प्रारम्भिक नारीवादियों द्वारा स्थापित दोनों के मध्य अवधारणा सम्बंधित विभेद एक बिन्दु के आगे टिके नहीं रह सकते। इस समझ में मानव जीव विज्ञान की रचना मानव शरीरभौतिक पर्यावरण तथा प्रौद्योगिकी तथा समाज के विकास की स्थिति की जटिल पारस्परिक क्रिया से होती है। अतः जैसा कि जैग्गर कहते हैं, "हाथ श्रम का उसी प्रकार से उत्पाद हैजैसे कि श्रम के उपकरण" । इसका अर्थ यहाँ यह है कि दो प्रक्रियाएँ चलती हैं। मानवीय हस्तक्षेप बाहरी वातावरण को बदल देता है और साथ ही बाहरी वातावरण में परिवर्तन मानव शरीर को बनाता और उसमें परिवर्तन करता है। यह दो अर्थों में सही है। पहलाएक दीर्घकालीन सहस्त्राब्दी तक के विकासकारी अर्थ में अर्थात् भूगोल के विभिन्न भागों में मानव शरीर का विकास भोजनवातावरण तथा सम्पन्न किए कार्यों की प्रकृति के अन्तरों के कारण अलग-अलग हुआ है।

 

  • दूसराप्रक्रिया एक लघु समय के अर्थ में एक जीवन काल में होती है। अब यह मान लिया गया है कि स्नायु विज्ञान तथा हॉरमोनिक संतुलनबेचैनीशारीरिक श्रम तथा सामाजिक परस्पर क्रिया का स्तर एवं प्रकार जैसे सामाजिक तत्त्वों से प्रभावित होते हैं। उसी प्रकार से सामाजिक परस्पर क्रिया लोगों के स्नायु विज्ञान तथा हॉरमानिक संतुलनों से प्रभावित होती है। उदाहरणार्थशरीर में कोई रासायनिक परिवर्तन से बेचैनी के लक्षण हो सकते हैंजिसका इलाज़ दवाइयों से हो सकता है। लेकिन फिर समान रूप से अधिक बेचैनी के स्तर शरीर में उच्च रासायनिक असंतुलन का कारण हो सकते हैं और शरीर के संतुलन को पुनःस्थापित करने के लिए उन दशाओं को बदलना आवश्यक हो सकता हैजिनमें वह (शरीर) रहता है। जब हम इस समझ को कि जीव विज्ञान तथा संस्कृति परस्पर सम्बंधित हैयौन/लिंग विभेद पर लागू करते हैंतो इसका आशय यह है कि नारी का शरीर सामाजिक प्रतिबंधों तथा सुन्दरता के नियमों के अनुसार आकृति में आया है। 


  • इसका अर्थ यह हुआ कि शरीर की रचना "संस्कृति से" उतनी ही हुई है जितनी कि प्रकृति से। उदाहरणार्थपिछले दो दशकों में महिलाओं की क्रीड़ा प्रतियोगिताओं में तीव्र सुधार यह इशारा करते हैं कि सामाजिक नियमों ने जीव विज्ञान को आकार दिया है तथा नारियों के शारीरिक विकास पर प्रतिबंध लगाया है। नारीवादी मानव-वैज्ञानिकों ने यह उल्लेख किया है कि कुछ जातीय समूहों में नारी तथा पुरुन में शारीरिक विभेद बहुत थोड़े हैं। संक्षेप में हमें यह विचार करना होगा कि दो समान रूप से शक्तिशाली तत्त्व कार्य कर रहे हैं एक तो समाज में ऐसी परस्पर-सम्बंधित पद्धतियों का क्षेत्र हैजिसमें समाज यौन असमानताओं को जन्म देता है और दूसरा यौन असमानताएँ समाज की एक विशि-ट पद्धति से संरचना करती है।

 

2 आमूल नारीवादी

 

  • यौन/ लिंग के सम्बंध में एक दूसरे प्रकार का पुनर्विचार आमूल नारीवादियों की ओर से आया है जोकि यह तर्क देता है कि नारीवादियों को जीव-विज्ञानी यौन विभेदों का अल्प मूल्यांकन नहीं करना चाहिए और सभी विभेदों को "संस्कृति" से जोड़ना ठीक नहीं होगा। ऐसा करने पर यह स्वीकारना होगा कि पुरुष सभ्यता ने नारियों की पुनर्जनन भूमिका का विमूल्यन किया। यह उदारवादी नारीवाद समझ की एक आलोचना है कि एक आदर्श संसार में पुरुष तथा नारी न्यूनाधिक समान होंगे। आमूल नारीवादी दूसरी ओर यह दावा करते हैं कि पितृतंत्री सामाजिक मूल्यों ने "नारीत्व” गुणों को मलिन किया है और यह नारीवादियों का कार्य है कि वे इन गुणों को फिर से वापिस लाएँऔर पुरुष तथा स्त्री के बीच अन्तर मूल्यवान है। 


  • यौन/ लिंग के विभेद के सम्बंध में आमूल नारीवादी स्थिति यह है कि पुरुष तथा नारी के बीच कुछ विभेद दोनों के भिन्न जीव विज्ञानीय भूमिकाओं के फलस्वरूप उदय होते हैं और इसीलिए नारी अधिक संवेदनशीलसहज तथा प्रकृति के निकट होती है। उदाहरण के लिए सूसन ग्रीफ्फिन तथा एण्ड्रिया डवॉरकिन यह विश्वास करते हैं कि नारी के पुनर्जनन जीव विज्ञान गर्भवहन की प्रक्रियातथा माँ बनने का अनुभव मौलिक तौर पर उनके बाहरी दुनिया से सम्बंध को प्रभावित करते हैं। 


  • इसीलिए इस समझ में नारी प्रकृति के निकट है और प्रकृति के उत्पादन शक्तिपोषण तथा सहजता के गुणों में सहगामी होती हैं। इन गुणों को पितृतंत्री समाज ने नकारा हैलेकिन नारीवादियों को स्वीकारना तथा पुनर्मूल्यांकन करना चाहिए। 
  • वंदना शिवा जैसी पर्यावरण नारीवादी भी इसी समझ को मानती हैं। उनकी दलील है कि नारीवादी विश्व दृष्टिकोण प्रकृति का अधिक आदर करता है और यह मानता है कि नारी पर्यावरणीय संपोनित विकास (ecological sustainable development) व्यवहारों के अधिक अनुकूल है।

 

  • करोल गिल्लीगन की पुस्तक 'इन ए डिफरेन्ट वॉएस इस दृष्टिकोण का एक महत्वपूर्ण उदाहरण है। मनोवैज्ञानिक विश्लेषण के दृष्टिकोण का उपयोग करते हुए वह दलील देती हैं कि चूँकि श्रम के यौन विभाजन के कारण से बचपन में नारी (माँ) प्राथमिक सेवा सुत्तुमा करती हैइसीलिए वह प्रक्रिया जिसके द्वारा पुरुष और स्त्री वयस्कत्व पाते हैंअलग-अलग हैं। 


  • लड़के वयस्क माँ से अपने आपको अलग करने की सीख के साथ हैंजबकि लड़कियाँ माँ से अपनी पहचान बनाते हुए वयस्क बनती हैं। इसका अर्थ है कि एक यौन-विभेदीकृत समाज में जबकि सभी शिशु माँ से अपनी पहचान करते हैंधीरे-धीरे लड़के यह सीखते हैं कि वे माँ से अलग हैंजबकि लड़कियाँ यह सीखती हैं कि वे माँ के समान हैं। 
  • गिल्लीगन के अनुसार इसका परिणाम यह होता है कि नारी का विश्व से उलझने का आत्मनिष्ठ (subjective) तरीका होता हैजबकि पुरुष अधिक निष्ठ  (objective) होता है। नारी अन्यों से जुड़ती हैजबकि पुरुन स्वयं को पृथक करना सीखते हैं। यह उदाहरण के लिए पुरुन तथा नारी मैत्रियों में विभेद को स्पष्ट  करता है।

 

  • गिल्लीगन की रचना में केन्द्र स्थान विभेद की उन रीतियों को दिया गया हैजिनसे पुरुष तथा नारी नैतिक निर्णय लेते हैं और वे इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि नारियाँ सही या मिथ्या के आदर्श बोध से कम और अन्य कारणों जैसे सहानुभूतीचिन्ता तथा दूसरे की दुखद स्थिति के प्रति संवेदनशीलता से अधिक प्रभावित होती है। इसके विपरीत पुरुष नैतिक निर्णय भले रूप से स्वीकृत विचारों के आधारों पर लेते हैं कि समाज किसे सही और गलत मानता है। इस तरह से गिल्लीगन यह निष्कर्ष  निकालती हैं कि पश्चिम के नैतिक दर्शन की प्रमुख श्रेणियाँ बौद्धिकतास्वायत्तता तथा न्याय मनुष्य  के विश्व के अनुभव से निकली हैं और उसका प्रतिबिम्ब हैं। यहाँ नारी का अनुभव दिखाई नहीं देता। इसीलिए विभेद को अस्वीकारने का अर्थ पितृतंत्र के व्यर्थ के रूप में नारीत्व को नकारने को स्वीकार करना होगा।

 

  • इस संदर्भ में यह जानना दिलचस्पपूर्ण होगा कि कुछ विद्वान यह मानते हैं कि पुरुषत्व तथा नारीत्व के कठोर द्विध्रुवीय प्रतिमान और नारीत्व के अवमूल्यन केवल आधुनिक पश्चिमी सभ्यता की विशेषताएँ है। भारत की आधुनिक पूर्व संस्कृतियों में अनेक प्रकार की पहचानों के लिए अधिकाधिक जगह थी । उदाहरण के लिएहिजड़ों का भारतीय समाज में सामाजिक तौर पर स्वीकृत रुतबा थाजोकि उन्होंने समकालीन समय में खो दिया। फिर से सूफी तथा भक्ति परम्पराओं ने द्विलिंग के विचारों को अपनाया और दो यौन प्रतिमान का प्रायः नकारा। 


  • आशीष नन्दी ने एक विचारोत्तेजक दलील यह दी है कि औपनिवेशिक पूर्व भारतीय सभ्यताएँ नारीत्व को अधिकाधिक मूल्य प्रदान करती थीं। यह तो उपनिवेशवाद के आने के फलस्वरूप पुरुषत्व का पश्चिमी मूल्य निर्धारण आदर्श बन गया। राष्ट्रवादियों ने भी इसी समझ को आगे बढ़ाया और भारतीय संस्कृति के "स्त्रीत्व" होने के तानों का प्रतिरोध करते हुए उनके औपनिवेशिक मालिकों की तरह उनके पुरुषत्व का दावा किया क्रान्तिकारियों की विचारधाराउदाहरण के लिएअत्यधिक पौरु-पूर्ण थी। नन्दी के अनुसार गाँधी बेजोड़ थेजिन्होंने उपनिवेशवाद से प्रतिरोध के लिए पुरुषत्व की बजाय नारीत्व के गुणों पर केन्द्रित होने की कोशिश की। उन्होंने आक्रमण तथा हिंसा के खिलाफ आध्यात्मिक व नैतिक साहस पर जोर दिया।

 

3 उत्तर आधुनिकवादी दृष्टिकोण

 

  • एक और वर्तमान दृटिकोण आमूल नारीवादियों से विपरीत दृटिकोण को लेता है। जबकि आमूल नारीवादियों का यह तर्क था कि यौन / लिंग विभेदीकरण यौन अन्तरों का अल्प मूल्यांकन करता हैउत्तर-आधुनिक नारीवादी यह मानते हैं कि वह तो जीव विज्ञानीय शरीर पर ज़रूरत से ज़्यादा ज़ोर देता है। उदाहरण के लिएजूडिथ बटलर ने यह दलील दी कि यदि "लिंग" सांस्कृतिक अर्थों में हैजोकि यौनित (Sexed) शरीर धारण करता हैतो लिंग किसी भी स्थिति में 'यौनसे निकलता प्रतीत नहीं होता। उनका कहना है कि "लिंग" पहले से दिए 'यौनके अर्थ का कोई सांस्कृतिक शिलालेख नहीं है बल्कि विचारों की एक रीति तथा अवधारणा के रूप में लिंग जीव-विज्ञानीय यौन की श्रेणी का उत्पादन करता है। इस समझ में "यौन" "लिंग" से पूर्ववती नहीं होताबल्कि "लिंग" "यौन" का पूर्ववती होता है। इस प्रकार से बटलर यौनित शरीरों तथा सांस्कृतिक तौर पर निर्मित लिंगों के मध्य एक "आमूल विच्छेद" (radical discontinunity) का सुझाव देती हैं।

 

  • इस स्थिति की विशेषता यह है कि यह मानता है कि "नारी" का वर्गसोचने के पूर्व अस्तित्व में नहीं होता। लिंग कुछ ऐसी चीज़ हैजिसका निर्माण शक्ति सम्बंधों के माध्यम से और आदर्शों तथा प्रतिबंधों की एक माला के माध्यम सेजोकि यह नियंत्रित करता है कि क्या "पुरुष " शरीर तथा "स्त्री" शरीर के रूप में मान्य होगा। इन्हीं आदर्शों के ज़रिये शरीरों की एक व्यापक श्रेणी को अदृश्य और/या गैर कानूनी करार दिया जाता है। उदाहरण के लिए बिना स्पष्ट  यौन विशेषताओं के साथ जन्मे शिशुअथवा हिजड़े अथवा पुरुन और नारीजोकि उनके लिंगों के लिए निश्चित कपड़े नहीं पहनते। इन सबको या तो हाशिए ( marginalised) पर या अपराधी करार कर अथवा किसी न किसी रूप में मौजूदा दो- यौन प्रतिमान से जुड़ने के लिए मजबूर किया जाता है। अधिकांश आधुनिक भााओं में ऐसे मानव के सम्बोधन के लिए कोई शब्द नहीं हैजोकि दोनों यौनों में से किसी एक में फिट नहीं होता। इसका अर्थ यह है कि भाना कुछ पूर्व निश्चित आदर्श में "सच्चाई" को ढकेलती है और कुछ संभावनाओं की प्राप्ति का वंचन करती है।

 

  • ऐलिसन जैग्गर अमेरिका के बच्चों के एक अध्ययन की चर्चा करती हैजिनके यौन को जन्म के समय कुछ अस्प-टता के कारण गलत नियत किया गया। यह अस्पषटता तब हुई जब बच्चे के 'वास्तविकयौन का पता अभिभावकों तथा डाक्टरों द्वारा "योन" की पुटि के लिए आपरेशन करने का फैसला किया गया। इस तरह के आपरेशन को सिर्फ यह स्वीकारने की कि बच्चे का यौन जन्म के समय नियत यौन से अलग थासे प्रायः प्राथमिकता मिली। दूसरे शब्दों में, "यौन" परिवर्तन के लिए सर्जरी के हस्तक्षेप को सालों के सांस्कृतिक यौन की आपेक्षिकता के उन्मूलन से आसान समझा गया। 


  • जरा सोचिए आपका एक तीन वर्गीय पुत्र होजिसे कि आप किसी डाक्टर के पास किसी बीमारी के निदान के लिए ले गए और वहाँ आपको पता चला कि बच्चा लड़के की बजाय लड़की ज्यादा था। अब आप इस सच्चाई से समझौता करेंगे कि आपकी एक पुत्री हैसबको सूचित करेंगे और उनके कपड़ों तथा विचारों में परिवर्तन करेंगे या आप "पुत्र" को पुत्र बनाए रखने के लिए आपरेशन का सहारा तथ्य तो यह है कि आप आपरेशन का सहारा लेंगे। तो फिर जीव-विज्ञान की कल्पित अपरिवर्तनीय "प्राकृतिक" श्रेणी और इसके विपरीत "संस्कृति" के परिवर्तनीय श्रेणी का क्या हुआक्या ऐसा प्रतीत नहीं होता कि किसी समय संस्कृति जीव विज्ञान से अधिक ठोस होती है?

 

  • रुथ ब्लइअर तथा एवेल्यिन फॉक्स कैल्लर जैसी नारीवादी वैज्ञानिकों ने यह तर्क दिया है कि यौन/ लिंग विभेद की एक कठोर परिभाषा "जीव-विज्ञानीय यौन" पर प्रतिबंध लगाती है। इसका अर्थ है कि यौन को शरीर रचना विज्ञानीय हॉरमोनल अथवा गुणसूत्र (anatomical, hormonal or chromosomal) के रूप में परिभाषित करने पर यह कुछ ऐसा हैजिसका अध्ययन जीव विज्ञान आयुर्विज्ञान करेजबकि "लिंग" का अध्ययन सामाजिक विज्ञान करे। इस प्रकार की समझ उनकी दलील है कि गलती से यह कल्पना कर लेती है कि लिंग के सांस्कृतिक आशय बदल सकते हैं जबकि शरीर एक अपरिवर्तनीय जीव विज्ञानीय वास्तविकता हैजिसके बारे में आगे किसी स्पष्टीकरण की आवश्यकता नहीं है। ये नारीवादी वैज्ञानिक यह तर्क देते हैं कि इसके विपरीत शरीर के बारे में हमारा परिप्रेक्ष्य तथा व्याख्या भागा के माध्यम से निर्धारित होते हैं और जीव विज्ञान-आयुर्विज्ञान इस भाषा के प्रमुख दाता के रूप में कार्य करते हैं।

 

  • इस प्रकार के नारीवादी तर्क इस विचार को नकारते हैं कि शरीर के बारे में वैज्ञानिक तथ्य सिर्फ खोज करने के लिए अस्तित्व में होते हैं। इसके विपरीत वैज्ञानिक "तथ्य" समाज तथा संस्कृति गहनता से समाए होते हैं। "यौन" तो मानवीय व्यवहारों से निर्मित होता है।

 

4 लिंग पहचान पार्थक्य

 

  • यौन/ लिंग विभेद के सम्बंध में एक चौथा पुनर्विचार "लिंग" को विभिन्न पहचानों जातिवर्गनस्लधर्म के बीच अव्यवस्थित करना है। इसका अर्थ होगा जीव-विज्ञानीय वर्ग की "नारियों" में सांझे हितजीवन स्थितियों या लक्ष्य आवश्यक रूप में हों। सम्पूर्ण विश्व में इस प्रकार की समझ का उदय नारी आन्दोलनों के राजनीतिक व्यवहारों से हुआ। इसका अर्थ है कि ज़रूरी नहीं है कि नारियाँ अपनी पहचान अपने "लिंग" से करे। वह तो काले या मुस्लिम या दलित अथवा किसान के रूप में अपनी पहचान करती हैं। इसलिए कई मामलों में नारियों को नारी आन्दोलन की बजाय धर्म के आधार पर एकत्र करना आसान हो गया।

 

  • भारत के मामले में समान नागरिक संहिता के सम्बंध में वाद-विवाद इसका एक अच्छा उदाहरण है। प्रत्येक धार्मिक समुदायों के अपने व्यक्तिगत कानून हैंजोकि नारियों के विरुद्ध शादीतलाकविरासतबच्चों के संरक्षण के मामलों में भेदभाव करते हैं। इसीलिए 1937 से नारी आन्दोलन की माँग एक समान नागरिक सहिता की रही हैजिससे सभी महिलाओं को नागरिक के रूप में समान अधिकार मिलें। लेकिन 1980 के दशक से साम्प्रदायिकता के बढ़ते हुए वातावरण में तथा धार्मिक अल्पसंख्यकों के असुरक्षा महसूस करने पर नारी आन्दोलनों के अधिकांश खण्डों में धीरे-धीरे यह मत बना है कि नारी की स्थिति में सुधार व्यक्तिगत कानूनों के भीतर सुधार करके करना चाहिए। समुदायों को राज्य द्वारा में रित कानूनों का पालन करने के लिए मजबूर करके यह सुधार नहीं होना चाहिए। राज्य के पास अब वह वैधीकरण नहीं रहा हैजोकि स्वतंत्रता के तत्काल बाद था। उसकी साम्प्रदायिक हिंसा में भूमिका सन्देह में आ गई है और उसे प्रगतिशील सामाजिक परिवर्तन के प्रतिनिधि के रूप में सरलता से देखा जा सकता। इस तरह से सभी नारियों को समान अधिकार देने की सरल नारीवादी माँग अब धार्मिक पहचान की राजनीति में काफी सीमा तक रूपान्तरण हो गई है।

 

  • फिर सभी राजनीतिक तौर पर सक्रिय महिलाएँ नारीवादी के रूप में कार्य नहीं करतीं। वे शक्ति के हितों व संरचनाओं का प्रतिनिधित्व कर रही हो सकती हैं जिनके विरुद्ध भारत की नारीवादी राजनीति संघ करना चाहती है। अतः हम नारियों को हिन्दू दक्षिण पंथी राजनीति अथवा निम्न जाति विरोधी आन्दोलनों (जैसे मण्डल कमीशन रिपोर्ट के विरुद्ध आन्दोलन) में गतिशील पाते हैं। दूसरे शब्दों मेंइस तथ्य में नारीवादी यौन/लिंग विभेद की पहचान रचना के अन्य साधनों को भी देखना होगा। यह संदर्भ पर निर्भर करेगा और एक नारीवादी होने के रूप में हमें कुछ मामलों में जातीय अथवा वर्ग पहचान को लिंग से अधिक महत्व देना पड़ सकता हैठीक वैसे ही जैसे कि हम मार्क्सवादी अथवा दलित कार्यकर्ताओं से कुछ संदर्भों में लिंग को वर्ग अथवा जाति से प्राथमिकता देने की आशा करें।


विलिंगता की स्वाभाविकता पर प्रश्न

 

  • नारीवादियों के यौन/लिंग विभेद के सुझाव का एक और आशय यह है कि विलिंगता (heterosexuality) प्राकृतिक नहीं है। एडरिअन रिच ने जिस अप्रश्नीय आदर्श के साथ विलिंग विवाह होते हैंउसे "अनिवार्य विलिंगता" का नाम दिया है। यदि "पुरुन" और "नारी" को प्राकृतिक वर्गों के रूप में  नारीवादी सिद्धान्त चुनौती देता हैतो उनके साथ-साथ वह सभी प्रकार के संस्थागत व्यवहारों (विवाह तथा परिवार) को भी चुनौती देता हैजिनके माध्यम से पितृतंत्री सम्पत्ति तथा शक्ति सम्बंध पोनित होते हैं। इस तरह से यौन पहचान तथा यौन उन्मुखता समकालीन नारीवादी सिद्धान्त के महत्वपूर्ण मुद्दे हैं।


No comments:

Post a Comment

Powered by Blogger.