अरविंद घोष का जीवन परिचय । Arvind (Aurobindo) Ghosh Short Biography in Hindi

 अरविंद घोष का जीवन परिचय (Arvind Ghosh Short Biography in Hindi)

अरविंद घोष का जीवन परिचय । Arvind Ghosh Short Biography in Hindi




अरविंद घोष महत्वपूर्ण जानकारी 

  • जन्म 15 अगस्त 1872 
  • स्थान- कोलकाता 
  • निधन 5 दिसम्बर 1950  
  • पिता - कृष्णन घोष

प्रमुख रचनाएँ- 

  • द लाइफ डिवाइन 
  • ऐसे आन गीता - द ह्यूमन सायकल 
  • सावित्री 
  •  द फ्यूचर पोयट्री

 

अरविंद घोष का जीवन परिचय (Arvind Ghosh Short Biography in Hindi)

 

  • श्री अरविंद घोष का जन्म 15 अगस्त 1872 को भारत के प्रसिद्ध एवं महत्वपूर्ण नगर कलकत्ता (कोलकाता) में हुआ था। 
  • अरविंद घोष के पिता का नाम कृष्णन घोष था, जो अपने समय में कलकत्ता के प्रसिद्ध सिविल सर्जन थे। श्री कृष्णन ने अपनी शिक्षा-दीक्षा इंग्लैण्ड में प्राप्त की थी, संभवत: इसी कारण वे पाश्चात्य सभ्यता व संस्कृति से काफी हद तक प्रभावित थे। 
  • अरविंद की माता का नाम श्रीमती स्वर्णलता देवी था। 
  • श्री अरविन्द घोष अपने माता-पिता की तृतीय संतान थे। पाश्चात्य सभ्यता व संस्कृति के प्रभाव के कारण ही उनके पिता कृष्णन का दृढ़ मत था कि उनके बच्चों की शिक्षा व पालन पोषण अंग्रेजी वातावरण में हो। इसी कारण अरविन्दजी की शुरूआती शिक्षा दार्जिलिंग के एक कान्वेंट स्कूल में हुई। 
  • 7 वर्ष की उम्र में ही श्री अरविन्दजी को अध्ययन के लिए। रहकर इंग्लैण्ड भेज दिया गया। जहाँ उन्हें डिरवेट नामक पादरी के संरक्षण में रखा गया। अरविंद के पिता का डिरवेट को निर्देश था कि बालक अरविन्द का किसी भी प्रकार भारतीय संस्कृति व सभ्यता तथा उनके विचारों से सम्पर्क न होने पाये। 
  • ब्रिटेन में ही श्री अरविन्द ने न केवल पाश्चात्य दर्शन बल्कि अनेक पाश्चात्य साहित्यकारों भी अध्ययन किया। शेक्सपियर, मौली तथा किट्स के विचारों के साथ अंग्रेजी साहित्य के द्वारा ब्रिटिश चिंतन का भी अध्ययन किया। 
  • यहाँ रहते हुए उन्होंने न केवल ग्रांच और लैटिन भाषाओं का अध्ययन किया अपितु पाश्चात्य दर्शन पर मौलिक चिंतन की समझ के लिए फ्रेंच, जर्मन, इटेलियन आदि भाषाओं को भी सीखा। 
  • 1885 में अरविन्द ने सेंटपाल स्कूल, लंदन में प्रवेश लिया तथा 1889 तक इसी स्कूल में रहकर उन्होंने शिक्षा प्राप्त की। स्कूली शिक्षा के बाद उन्होंने "कैब्रिज किंग्स कॉलेज में अध्ययन हेत प्रवेश लिया। 
  • किंग्स कॉलेज में श्री अरविन्दजी ने ग्रीक तथा लैटिन भाषा की अनेक रचनाओं के लिए पुरस्कार प्राप्त किया। इस प्रकार 14 वर्ष तक इंग्लैण्ड में रहते हुए उन्होंने शुद्ध रूप से पाश्चात्य शिक्षा प्राप्त की। इस प्रकार श्री अरविन्दजी पाश्चात्य शिक्षा में पूर्णतः दक्ष हो गये। 
  • इनके पिता की इच्छा थी कि अरविन्द किसी उच्च प्रशासकीय पद को प्राप्त करें। इसी कारण 1890 ई. में श्री अरविन्द घोष भारतीय सिविल सर्विस की परीक्षा बैठे। अपनी योग्यता व विशिष्ट क्षमता के आधार पर उन्होंने I.C.S. की परीक्षा उत्तीर्ण की किन्तु घुड़सवारी की परीक्षा में असफल होने के कारण उन्हें I.C.S. के अयोग्य घोषित कर दिया गया। 
  • इनके पिता श्री कृष्णन अपने पुत्र को द बंगालीनामक पत्र के टुकड़े और प्रति भेजने लगे। वे अपने पत्रों में भी ब्रिटिश सरकार की निन्दा करते थे । सम्भवतः इसी प्रकार श्री अरविन्द का ध्यान भारतीयों की ओर आकर्षित हुआ। 
  • कैम्ब्रिज में श्री अरविन्द इंडियन मजलिसनामक संस्था के सम्पर्क में आए और ब्रिटिश साम्राज्यवाद के भाषण दिए। 
  • इन्होंने एक गुप्त संस्था लोटस एण्ड डैगरबनाई जिसमें कुछ भारतीय युवक शामिल थे जिन्होंने स्वतंत्रता के लिए काम करने की प्रतिज्ञा की।  
  • वस्तुत: इंग्लैण्ड में रहते हुए श्री अरविन्द ने यह निश्चय कर लिया था कि वे अपना बाकी जीवन देश की स्वाधीनता तथा सेवा में लगा देंगे। 
  • सन् 1893 में श्री अरविन्द घोष भारत लौट आए। भारत में उन्होंने लगातार तेरह वर्ष तक 1883-1907 तक बडौदा राज्य के गायकवाड़ के शासन में विभिन्न महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया। अपने बड़ौदा प्रवास के दौरान ही अरविन्द ने भारतीय दर्शन का अध्ययन किया।
  • उन्होंने संस्कृत के साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया तथा हिन्दू धर्म, संस्कृति तथा अध्यात्मवाद का गहन अध्ययन किया। बंग भंग" के पश्चात श्री अरविन्द घोष नौकरी त्याग कर राजनीति में सक्रिय हो गए। 
  • धीरे धीरे अपने लेखों, भाषणों द्वारा भारतीयों में नवीन चेतना को जागृत किया। अरविन्द जी नहीं चाहते थे कि विदेशी साम्राज्य के सामने हाथ फैलाकर भीख माँगी जाए। इसलिए उन्होंने विनम्रता से माँग की नीति का विरोध किया। 
  • अरविन्द का मानना था कि भारत का लक्ष्य ब्रिटिश आधिपत्य से पूर्ण मुक्ति होनी चाहिए। भारतीय स्वाधीनता के सन्दर्भ में अरविन्दजी बड़ौदा निवास के दौरान लिखते हैं "राष्ट्र क्या हैं"?, "हमारी मातृभूमि क्या है ? वह मात्र धरती का एक टुकड़ा या शब्दालंकार नहीं है। वह एक महान शक्ति है और राष्ट्र के करोड़ों व्यक्तियों की शक्ति से मिलकर बनी हुई इकाई है। आगे वे कहते हैं कि स्वाधीनता भारत की लकड़ी या पत्थर का टुकड़ा नहीं है जिस पर छेनी चलाकर राष्ट्रीयता की मूर्ति तैयार की जा सके। 
  • वह अपने चाहने वालों के हृदय में निवास करती है और उन्हीं से उसका उत्थान होगा। हम अपने जीवन में "स्वरूप" को कैसे ला सकते है ? इस संदर्भ में उनका कहना था कि अपने अंदर के अंह को मिटाकर या हटाकर उसकी जगह भारत की प्रतिष्ठा करके। जैसे चैतन्य महाप्रभु पंडित न रहकर कृष्ण, राधा या बलराम बन जाते है। उसी प्रकार हम में से प्रत्येक को अपना पृथक जीवन त्याग कर राष्ट्र के लिए जीवित रहना चाहिए। जैसे मोक्ष चाहने वाला सब कुछ छोड़कर केवल मोक्ष के बारे में सोचता है। वैसे ही हमे सदा अपने राष्ट्र के बारे में सोचना चाहिए।
 
  • वे कहते हैं कि हमें भारत की मुक्ति के लिए विदेशी शासकों की कृपा और दया पर निर्भर नहीं रहना चाहिए बल्कि अपनी अंतः शक्ति व बल के असीम भण्डार का सहारा लेना चाहिए। वे लिखते हैं कि हमारा वास्तविक शत्रु बाहर की कोई शक्ति नहीं है। वह तो हमारी ही निरी मूर्खता, कायरता, स्वार्थपरता, पाखण्डता और अंधी भावुकता है।
 
  • हमें अपने पौरुष को जागृत करना होगा और भारत के मूक तथा पीड़ित जन के प्रति साहचर्य की सच्ची भावना उत्पन्न करनी होगी। मुझे विश्वास है कि अंत में हमारा उदार रूप विजयी होगा, परंतु तभी जब हम अपने निहित स्वार्थ लाभों की चिंता को त्याग कर सच्चे और महान देश प्रेम को अपना लेंगे, जब हम अंग्रेजों के फेंके टुकड़ों के लिए तरसना छोड़ देंगे, तभी जाकर वास्तव में हममें उस पौरुष और सच्चे साह का भाव जाग्रत व प्रबल होगा।
 
  • वास्तव में श्री अरविन्द अंग्रेजों से भिक्षा माँगने के स्थान पर स्वतंत्रता के लिए संघर्ष को उचित मानते थे। उनका मत था कि राष्ट्रीय स्वतंत्रता के युद्ध में शक्ति का प्रयोग न्यायसंगत है। 
  • अरविन्दजी कहते थे कि स्वतंत्रता राष्ट्र का जीवन प्राण है और जब प्राणों पर ही आक्रमण हो रहा हो, जब गला दबाकर दम घोंटने की कोशिश की जा रही हो, तब आत्मरक्षा के सभी उपाय न्यायसंगत और उचित हैं। दबाव के अनुरूप ही प्रतिरोध भी होता है।
 
  • स्वतंत्रता के संघर्ष के दौरान अरविन्दजी कई बार जेल भी गए। अलीपुर जेल में उन्हें अंतर्दृष्टि प्राप्त हुई। उन्होंने राजनीतिक जीवन तथा आध्यात्मिक जीवन को अपना लिया।
  • वे 1916 में राजनीतिक जीवन से मुक्त होकर पांडिचेरी (पड्डुचेरी) चले गए। यहाँ उन्होंने एक आश्रम की स्थापना की जो आगे चलकर श्री अरविन्द आश्रम के नाम से प्रसिद्ध हुआ। 
  • अपना शेष जीवन श्री अरविन्द ने इसी आश्रम में रहते हुए आध्यात्मिक एवं योग साधना में व्यतीत किया। 5 दिसम्बर 1950 ई. को श्री अरविन्दजी ने अपना शरीर त्याग दिया।


श्री अरविन्द द्वारा रचित ग्रन्थ

 

श्री अरविन्द एक बहुमुखी लेखक और विचारक थे। उन्होंने अपने विचारों को प्रकाशित करने के लिए अनेक रचनाएँ की। उनकी प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं-

 

1. द लाइफ डिवाइन (The Life Divine) 

2. ऐसे आन गीता (Essay on Gita) 3. द फ्यूचर पोयट्री (The Future Poetry) 

4. पावर्स विदिन ( Powers within ) 

5. द ह्यूमन सायकल (The Human Cycle) 

6. वार एण्ड सेल्फ डिटरमिनेशन (War & Self Determination) 

7. सावित्री ( Savitri) 

8. आइडियल ऑफ ह्यूमन यूनिटी (Ideal of Human Unity)


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