अरस्तू का नैतिक दर्शन- सद्गुणों का स्वरूप | Aristotle (Arastu) Ka Naitik Darshan

 अरस्तू  का नैतिक दर्शन- सद्गुणों का स्वरूप

अरस्तू  का नैतिक दर्शन- सद्गुणों का स्वरूप | Aristotle (Arastu) Ka Naitik Darshan


 


अरस्तू सामान्य परिचय

  • नाम- अरस्तू 
  • निवासी यूनान 
  • जन्म- 348 ई.पू. 
  • मृत्यु - 322 ई.पू. प्लेटो 
  • गुरु- रचनाएँ - द पॉलिटिक्स 


 अरस्तू  के बारे में जानकारी 

  • प्लेटो की भाँति अरस्तू का जन्म भी एक समृद्ध यूनानी परिवार में हुआ था। उनके पिता उच्च कोटि के चिकित्सक थे और विज्ञान तथा इतिहास में विशेष रुचि रखते थे। स्वभावत: अरस्तू का पालन-पोषण बौद्धिक वातावरण में हुआ और उन्हें बाल्यकाल से ही शिक्षा प्राप्त करने का उचित अवसर प्रदान किया गया। 
  • लगभग 18 वर्ष की आयु में वे प्लेटो द्वारा स्थापित 'एकेडमी' में उच्च शिक्षा ग्रहण करने के लिए एथेन्स आ गये जो उस समय शिक्षा और दर्शन का मुख्य केन्द्र था। 
  • अरस्तू प्लेटो के शिष्य अवश्य थे, किन्तु वे उनके विचारों का अंधानुकरण न कर स्वयं स्वतंत्र रूप से सत्य का अनुसंधान (खोज) करने में विश्वास करते थे। यही कारण है कि प्लेटो के कुछ मूल सिद्धांतों से सहमत होते हुए भी अरस्तू ने उनके अनेक विचारों को स्वीकार नहीं किया। 
  • वे प्लेटो के समान ही अत्यन्त प्रतिभासम्पन्न विचारक एवं दार्शनिक थे। उनका ज्ञान केवल दर्शनं, राजनीति तथा सामाजिक विषयों तक ही सीमित नहीं था, अपितु वे जीवशास्त्र, नक्षत्र विज्ञान, वनस्पतिशास्त्र, भौतिक विज्ञान आदि की भी पर्याप्त जानकारी रखते थे। 
  • इसी कारण अरस्तू के संबंध में प्राय: यह कहा जाता था कि उन्हें ऐसे सभी विषयों का ज्ञान है जिनका ज्ञान प्राप्त करना किसी मनुष्य के लिए सम्भव है। अपनी इस विलक्षण प्रतिभा के फलस्वरूप अरस्तू ने मानवीय ज्ञान के क्षेत्र में अत्यधिक महत्वपूर्ण योगदान किया। राजनीतिक, दर्शन तथा नीतिशास्त्र के क्षेत्रों में उनका महत्व प्लेटो के महत्व की अपेक्षा किसी भी दृष्टि से कम नहीं है। 
  • प्लेटो समन्वयवादी होने के के कारण सभी विज्ञानों में एकता की खोज करते थे, अत: उन्होंने विभिन्न विज्ञानों की समस्याओं पर एक साथ ही विचार किया है। परन्तु अरस्तू समन्वय विश्लेषण को भी पर्याप्त महत्व देते थे। इसी कारण उन्होंने ही सर्वप्रथम विज्ञानों का वर्गीकरण करके उनकी सीमाएँ निश्चित करने तथा उनकी भिन्न-भिन्न समस्याओं को स्पष्ट करने का प्रयास किया। 


अरस्तू  का नैतिक दर्शन

  • नीतिशास्त्र के क्षेत्र में उनका निकोमेकियन एथिक्स" पाश्चात्य नैतिक दर्शन का सर्वप्रथम व्यवस्थित ग्रंथ माना जाता है। अरस्तू के नैतिक दर्शन को भलीभाँति समझने के लिए उसे चार मुख्य भागों में विभाजित किया जा सकता है- सद्गुणों का स्वरूप, मध्यम मार्ग का सिद्धान्त, ऐच्छिक कर्मों की परिभाषा और आदर्श नैतिक जीवन।  


 सद्गुणों का स्वरूप

 

  • यद्यपि अरस्तू ने नीतिशास्त्र पर पृथक ग्रंथ लिखे हैं, फिर भी वे उसे राजनीतिशास्त्र का भाग ही मानते हैं, क्योंकि उनके अनुसार राजनीतिशास्त्र मनुष्य के सामाजिक शुभ अथवा कल्याण पर विचार करता है और नीतिशास्त्र उसके वैयक्तिक शुभ अथवा कल्याण का विवेचन करता है, जो सामाजिक शुभ का ही एक अंग है।

 

  • प्लेटो की तरह अरस्तू भी यह मानते हैं कि नीतिशास्त्र का मुख्य उद्देश्य मनुष्य के लिए ऐसे परम अथवा अंतिम शुभ की खोज करना है जो अपने आप में वांछनीय हो और जो किसी अन्य वस्तु का साधन न होकर स्वतः साध्य हो. अरस्तू का कहना है कि सम्मान, स्वास्थ्य, धन तथा अन्य सभी भौतिक वस्तुएं शुभ अवश्य हैं, किन्तु इन्हें अंतिम शुभ नहीं माना जा सकता, क्योंकि ये अपने आप में वांछनीय नहीं हैं। ये सभी आनन्द की प्राप्ति के साधन मात्र हैं, अतः मनुष्य के लिए आनन्द ही अंतिम शुभ है जो स्वतः साध्य तथा अपने आप में वांछनीय है। 


  • अरस्तू, प्लेटो के इस मत को भी स्वीकार करते हैं कि मनुष्य को वास्तविक आनन्द बुद्धिसंगत एवं चिंतनशील जीवन में ही प्राप्त होता है। उनके मतानुसार मनुष्य के लिए यह बुद्धिसंगत अथवा चिंतनशील जीवन तभी सम्भव है जब वह सद्गुणों के अनुसार आचरण करे। इस प्रकार अरस्तू सद्गुणों को मनुष्य के आनंदमय जीवन के लिए आवश्यक गुण मानते हैं। 


  • सामान्यतः यूनानी भाषा में सद्गुणका अर्थ किसी वस्तु का वह गुण है जिसके द्वारा वह वस्तु अपना कार्य भलीभांति सम्पन्न करती है। मनुष्य के सद्गुण के गुण हैं जो कर्त्तव्यपालन अथवा बुद्धिसंगत आचरण और फलस्वरूप वास्तविक आनंद की प्राप्ति में सहायक होते हैं। सद्गुण की परिभाषा करते हुए अरस्तू ने कहा है कि "सद्गुण मनुष्य की ऐसी स्थाई मानसिक अवस्था है जो निरंतर अभ्यास के फलस्वरूप उत्पन्न होती है और जो मनुष्य के ऐसे ऐच्छिक कर्म में व्यक्त होती है जिसे बुद्धि निर्धारित करती है।


  • इस परिभाषा में स्पष्ट है कि सद्गुण जन्मजात न होकर निरंतर अभ्यास के परिणामस्वरूप विकसित होते हैं, अत: वे मनुष्य की स्वाभाविक इच्छाओं, प्रवृत्तियों तथा भावनाओं से मूलत: भिन्न है जो प्रत्येक व्यक्ति में जन्म से ही विद्यमान होती है। अपने भीतर किसी सद्गुण का विकास करने के लिए मनुष्य को यत्नपूर्वक बार-बार उसी सद्गुण के अनुरूप आचरण करना पड़ता है। 


  • उदाहरणार्थ जब कोई व्यक्ति अवसर आने पर सदा ही संयमपूर्वक आचरण करता है तभी वह वास्तव में संयमी हो सकता है। इसी प्रकार साहसी बनने के लिए उचित अवसर प्राप्त होने पर बार-बार साहसपूर्वक कार्य करना आवश्यक है। अन्य सद्गुणों के विकास के संबंध में भी यही नियम लागू होता है। 
  • इसी कारण अरस्तू ने सद्गुण को स्थायी 'अभ्यास' अथवा 'आदत' की संज्ञा दी है। उपर्युक्त परिभाषा से यह भी स्पष्ट है कि सद्गुण मनुष्य के उन ऐच्छिक कर्मों में ही व्यक्त होते हैं, जिन्हें वह सोच-समझकर करता है और जिनका निर्धारण केवल उसकी इच्छा या भावना नहीं, अपितु बुद्धि करती है। इसका अभिप्राय यह है कि सद्गुणी व्यक्ति केवल भावनाओं या संवेगों से प्रेरित होकर कोई कर्म नहीं करता; उसका प्रत्येक कर्म बुद्धि पर ही आधारित होता है। इसी कारण अरस्तू ने बुद्धि पर आधारित ऐच्छिक कमों को सद्गुणों की दृष्टि से विशेष महत्व दिया है। हम इन ऐच्छिक कर्मों के स्वरूप पर आगे विचार करेंगे। यहाँ इतना कहना ही पर्याप्त है कि अरस्तू के मतानुसार ऐच्छिक कर्मों के अभाव में सद्गुणों को अभिव्यक्ति असम्भव है। 


  • प्रत्येक सद्गुण की एक अन्य विशेषता यह है कि वह मनुष्य की किसी भावना, इच्छा या वासना को नियंत्रित करता है। इसी अर्थ में अरस्तू ने प्रत्येक सद्गुण को मानवीय भावनाओं अथवा इच्छाओं का नियंत्रक या नियामक माना है। स्पष्ट है कि समस्त सद्गुणों के मूल में आत्मनियंत्रण का तत्व अवश्य निहित रहता है, जिसके अभाव में मनुष्य के लिए उनके अनुसार आचरण करना संभव नहीं है ।


अरस्तू ने सद्गुणों को दो वर्गों में विभाजित किया है 

  • अरस्तू ने सद्गुणों को दो वर्गों में विभाजित किया है- बौद्धिक सद्गुण तथा नैतिक सद्गुण । सद्गुणों का यह वर्गीकरण अरस्तू के आत्मा के स्वरूप सम्बन्धी मत पर आधारित है। उनके मतानुसार मनुष्य की आत्मा के दो प्रमुख पक्ष हैं- बौद्धिक पक्ष तथा निबौद्धिक या भावनात्मक पक्ष। आत्मा के प्रथम पक्ष में बुद्धि प्रधान है तथा उसके द्वितीय पक्ष में मनुष्य की जन्मजात प्रवृत्तियाँ, इच्छाएँ, वासनाएँ तथा संवेग ही प्रधान है। 
  • अरस्तू का कथन है कि आत्मा के निबौद्धिक अथवा भावनात्मक पक्ष की दृष्टि से मनुष्य और पशु में कोई विशेष अंतर नहीं है। क्योंकि नैसर्गिक प्रवृत्तियां, इच्छाएं तथा वासनाएँ दोनों में ही समान रूप से पाई जाती है। आत्मा जौद्धिक पक्ष ही मनुष्य को पशु से करता है और इसी पक्ष के कारण उसे पशु से श्रेष्ठ माना जाता है। 


  • प्राचीनकाल में भारतीय मनीषियों ने भी इसी मत को स्वीकार करते हुए यह कहा था कि जन्मजात इच्छाओं, भावनाओं तथा वासनाओं की दृष्टि से मनुष्य और पशु दोनों समान है, केवल बुद्धि अथवा चिंतनशक्ति ही मनुष्य पशु से पृथक करती है। आज भी लगभग सभी विचारक तथा दार्शनिक मनुष्य की उत्कृष्टता के संबंध में प्राचीन भारतीय तथा यूनानी मत को स्वीकार करते हैं। मानवीय आत्मा के नौद्धिक तथा भावनात्मक इन दो पक्षों के आधार पर ही अरस्तु ने सद्गुणों को बौद्धिक सद्गुण और "नैतिक सद्गुण इन दो श्रेणियों में विभाजित किया है। उनके मतानुसार विवेक ही प्रमुख बौद्धिक सद्गुण है जिसके दो पक्ष हैं- एक सैद्धांतिक और दूसरा व्यावहारिक दार्शनिक चिंतन तथा वैज्ञानिक ज्ञान में विवेक का सैद्धांतिक पक्ष निहित है। इसी प्रकार व्यावहारिक जीवन में मनुष्य के कर्मों को नियंत्रित तथा नियमित करने वाली व्यावहारिक बुद्धिमत्ता विवेक का व्यावहारिक पक्ष है। 


  • अरस्तू ने मानवीय विवेक के उक्त दोनों पक्षों के सभी गुणों को 'बौद्धिक सद्गुण' कहा है। प्लेटो की भांति वे भी यह मानते हैं कि दार्शनिक चिंतन जिसके द्वारा मनुष्य परम सत्ता के मूल सिद्धांतों का ज्ञान प्राप्त कर सकता है कुछ थोड़े से प्रतिभासम्पन्न व्यक्तियों के लिए ही सम्भव है, किंतु मानव जीवन का मार्गदर्शन करने वाली व्यावहारिक बुद्धिमत्ता सभी सामान्य मनुष्यों में पाई जाती है। 
  • अरस्तू का विचार है कि समुचित शिक्षा द्वारा ही मनुष्य में बौद्धिक सद्गुणों का विकास हो सकता है, केवल अभ्यास द्वारा नहीं। इसी आधार पर उन्होंने बौद्धिक सद्गुणों को नैतिक सद्गुणों से पृथक किया है जो उनके मतानुसार निरंतर अभ्यास के फलस्वरूप है विकसित होते हैं। परंतु अरस्तू के मत के विरुद्ध यह कहा जा सकता है कि नैतिक सद्गुणों की भाँति बौद्धिक सद्गुण के समुचित विकास के लिए भी उचित शिक्षा के साथ-साथ सतत अभ्यास भी आवश्यक है। 
  • निरंतर अभ्यास द्वारा ही मनुष्य निष्पक्ष चिंतन, सत्य की जिज्ञासा, व्यावहारिक बुद्धिमत्ता आदि बौद्धिक सद्गुणों का विकास कर सकता है। वस्तुत: बौद्धिक तथा नैतिक सद्गुणों में मुख्य अंतर यही प्रतीत होता है कि बौद्धिक सद्गुण ज्ञान के विभिन्न रूप हैं, जिनका संबंध निष्पक्ष चिंतन तथा सत्य की खोज से है जबकि नैतिक सदगुण मनुष्य की नैसर्गिक प्रवृत्तियों संवेगों एवं वासनाओं को नियंत्रित करने से है।

 

  • अरस्तू के मतानुसार नैतिक सद्गुण मानवीय आत्मा के निबौद्धिक या भावनात्मक पक्ष में सम्बद्ध है, किंतु उनमें बौद्धिक तत्व अवश्य विद्यमान होता है जिसके द्वारा वे मनुष्य की प्रवृत्तियों, संवेगों तथा वासनाओं पर उचित नियंत्रण रखते हैं। जैसा की पहले कहा गया है, मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्तियों, संवेगों एवं वासनाओं का नियमन करना ही नैतिक सद्गुणों का प्रमुख उद्देश्य है जिसकी पूर्ति विवेक के अभाव में संभव नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति में स्वयं को सद्गुणी बनाने की जन्मजात क्षमता होती है, किंतु सद्गुणों के समुचित विकास के लिए सतत अभ्यास-अर्थात् सदैव शुभ (Good) कार्य करते रहना बहुत आवश्यक है। 


  • प्लेटों की भाँति अरस्तू भी संयम, साहस तथा न्याय इन तीन मुख्य नैतिक सद्गुणों के महत्व को स्वीकार करते हैं। परंतु इन मुख्य सद्गुणों के अतिरिक्त उन्होंने उदारता, नम्रता, प्रेम, मैत्री आदि अन्य नैतिक सद्गुणों का भी उल्लेख किया है। 
  • प्लेटो के विपरीत अरस्तू मुख्य नैतिक सद्गुणों को सीमित एवं संकुचित अर्थ में ही ग्रहण करते हैं। प्लेटो ने इन मुख्य सद्गुणों का जो व्यापक अर्थ बताया था वह अरस्तू को मान्य नहीं है। उदाहरण के लिए अरस्तू के विचार में संयमका अर्थ भूख, प्यास, निद्रा, कामेच्छा आदि शारीरिक वासनाओं को नियंत्रित करना ही है। संयमी व्यक्ति वह है जो अपनी इन नैसर्गिक इच्छाओं की समुचित तृप्ति करते हुए  भी इनके वश में नहीं रहता अपितु इन पर नियंत्रण रखने में सफल होता है। वह इन स्वाभाविक इच्छाओं की तृप्ति में न तो अत्यधिक लिप्त होता है और न इनका अत्यधिक दमन करता है।
  • अरस्तू ने 'साहस' को युद्ध में प्रदर्शित वीरता एवं विपत्तिकाल में निर्भयता तक ही सीमित माना है। जो व्यक्ति कठिनाइयों तथा खतरों से भयभीत नहीं होता और इनका सामना करते हुए अपने कर्त्तव्य की पूर्ति करता है वही साहसी है। ऐसा व्यक्ति न तो जानबूझकर अनावश्यक खतरे या संकट में पड़ता है और न अनिवार्य खतरों से डरता है। इस प्रकार साहसी होने के लिए खतरे से उत्पन्न भय का होना आवश्यक है, जिस पर साहसी व्यक्ति अपने कर्त्तव्य की पूर्ति के लिए विजय प्राप्त करता है। 
  • "संयम" तथा "साहस" की भाँति 'न्याय' के संबंध में भी अरस्तू का मत प्लेटो के मत से भिन्न है। अरस्तू ने न्याय को सम्पत्ति के उचित वितरण तथा राज्य के कानूनों के अनुसार आचरण तक ही सीमित माना है। उनका कथन है कि सामाजिक संबंधों में निष्पक्षता ही 'न्याय' की मूल भावना है। इस दृष्टि से उन्होंने 'न्याय' को वितरणात्मक तथा प्रतिकारात्मक इन दो वर्गों में विभाजित किया है। वितरणात्मक न्याय का सम्बन्ध राज्य के नागरिकों में सम्पत्ति तथा अन्य वस्तुओं के उचित वितरण से है । इसके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को अपने योगदान के अनुपात में ही सम्पत्ति एवं अन्य वस्तुएँ प्राप्त करनी चाहिए, उससे कम अथवा अधिक नहीं। परंतु वितरणात्मक न्याय की यह परिभाषा बहुत अस्पष्ट है, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति के योगदान की मात्रा का निश्चय कौन करेगा और उसे किस आधार पर निश्चित किया जाएगा, इस संबंध में अरस्तू ने कुछ नहीं कहा। 


  • प्रतिकारात्मक न्याय का संबंध राज्य द्वारा निर्मित कानूनों का पालन करने से है। इसके अनुसार प्रत्येक अपराधी को उसके अपराध के अनुपात में दंड मिलना चाहिए और पीड़ित एवं क्षतिग्रस्त व्यक्ति को उसकी क्षति के अनुपात में क्षतिपूर्ति प्राप्त होनी चाहिए। प्रत्येक कल्याणकारी राज्य से ऐसे प्रतिकारात्मक न्याय की आशा की जाती है। आज भी अधिकतर राष्ट्र किसी न किसी रूप में इस प्रकार के न्याय की आवश्यकता को स्वीकार करते हैं। न्याय के संबंध में अरस्तू के विचार प्लेटो के विचारों की अपेक्षा निश्चय ही अधिक स्पष्ट हैं। 

 

अरस्तू का मैत्री नैतिक सद्गुण

  • उपर्युक्त मुख्य नैतिक सद्गुणों के अतिरिक्त मैत्री को भी अरस्तू ने नैतिक सद्गुण माना है। उनका कथन है कि व्यक्तियों में मैत्री के तीन मुख्य आधार हो सकते हैं - उपयोगिता और चरित्र की उत्कृष्टता । इसका अभिप्राय यह है कि दो व्यक्ति एक-दूसरे से सुख प्राप्त करने या कोई विशेष लाभ उठाने की आशा से अथवा एक-दूसरे के चरित उत्कृष्टता से प्रभावित होकर परस्पर मैत्री स्थापित कर सकते हैं।


  • सुख तथा उपयोगिता पर आधारित मित्रता को अरस्तू क्षणिक तथा निम्नकोटि की मित्रता मानते हैं। उनके विचार में सच्ची और स्थायी मित्रता वही है जो एक-दूसरे के उत्कृष्ट चरित्र के प्रति सम्मान के फलस्वरूप होती है। ऐसी मित्रता द्वारा दोनों मित्रों को एक-दूसरे से सुख तथा लाभ भी प्राप्त होता है। 

  • मनुष्य को अनिवार्यतः सामाजिक प्राणी मानने के कारण अरस्तू ने प्रत्येक व्यक्ति के आनंदमय जीवन के लिए सच्ची और स्थायी मित्रता का विशेष महत्व स्वीकार किया है। उनका कथन है कि व्यक्ति के समग्र कल्याण के लिए अन्य बौद्धिक तथा नैतिक सद्गुणों के साथ-साथ वास्तविक एवं स्थायी मैत्री भी बहुत आवश्यक है। 


  • इस प्रकार अरस्तू ने सिनिकस के इस मत का विरोध किया है कि बुद्धिमान व्यक्ति को समाज से पृथक तथा आत्मनिर्भर होकर सद्गुणयुक्त जीवन व्यतीत करना चाहिए। सिनिक्स के विपरीत उनका मत है कि सच्ची एवं स्थायी मित्रता द्वारा दूसरों के कल्याण में सहायक होकर ही मनुष्य जीवन में वास्तविक आनंद प्राप्त कर सकता है। मित्रता की भाँति प्रेम, उदारता, नम्रता आदि नैतिक सद्गुणों को भी अरस्तू ने मनुष्य के आनंदमय जीवन के लिए बहुत महत्वपूर्ण माना है। 


नैतिक सद्गुण तथा ज्ञान का एकीकरण 

  • नैतिक सद्गुण तथा ज्ञान के एकीकरण के विषय में अरस्तू का मत सुत मत से कुछ भिन्न है। अरस्तू ने यह तो स्वीकार किया है कि नैतिक सद्गुणों के अनुसार आचरण करने के लिए उचित अनुचित तथा शुभ-अशुभ का ज्ञान आवश्यक है। वे यह भी मानते हैं कि जिस व्यक्ति को यह ज्ञान होगा वह सामान्यतः नैतिक सद्गुणों के अनुसार आचरण करेगा। परंतु उनका मत हैं कि इस ज्ञान के होते हुए भी व्यक्ति तीव्र संवेगों तथा इच्छाओं के कारण नैतिक सद्गुणों के अनुसार आचरण करने में असफल हो सकता है। उदाहरण के लिए, यह जानते हुए भी कि संयम आनन्दमय जीवन के लिए आवश्यक है । 
  • मनुष्य तीव्र संवेगों तथा इच्छाओं के फलस्वरूप असंयमपूर्ण आचरण कर सकता है। इससे यह स्पष्ट है कि सद्गुणयुक्त जीवन के लिए नैतिक सिद्धांतों का ज्ञान ही पर्याप्त नहीं है, इस ज्ञान के अनुसार कर्म करने की प्रबल इच्छा एवं दृढ़ निश्चय भी अनिवार्य है निरंतर अभ्यास के परिणामस्वरूप ही उत्पन्न होती है। 
  • इस प्रकार अरस्तू की यह मान्यता है कि नैतिक सद्गुणों के स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करने के साथ-साथ उनके अनुसार सदैव आचरण करने का निरंतर अभ्यास करके ही हम वास्तव में सद्गुणयुक्त जीवन व्यतीत कर सकते हैं। व्यावहारिक जीवन में नैतिक आचरण की दृष्टि से अरस्तू का यह मत उचित एवं युक्तिसंगत ही प्रतीत होता है।

Read Also.....

No comments:

Post a Comment

Powered by Blogger.