तुलसीदासजी के काव्य में सामाजिक चेतना | Tulsi Das Ke Kavya Me Chetna

तुलसीदासजी के काव्य में सामाजिक चेतना

तुलसीदास जी के काव्य में सामाजिक चेतना


रामचरितमानस में शाश्वत मूल चेतना शक्ति, शील, सौंदर्य के समन्वित प्रतीक राम में मर्यादा की  स्थापना और उसके व्यावहारिक रूप पर दृढ़ता से टिकने की भावना रामचरितमानस में अभिव्यंजित की गई है।
  • पारिवारिक, सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन में मधुर आदर्श तथा उत्सर्ग की भावना 'रामचरितमानस' में सर्वत्र बिखरी पड़ी है। 
  • तुलसी की काव्य चेतना में जीवन मूल्यों एवं मानव मूल्यों का समन्वय है और यह मूल्य निरूपण भारतीय संस्कृति के उदात्त मूल्यों एवं नैतिकता के आदर्शों से अनुप्राणित है। 
  • कर्तव्य परायणता, शिष्टाचार, सदाचार, कर्मण्यता, निष्टकपटता, कृतज्ञता, सच्चाई, न्यायप्रियता, उत्सर्ग की भावना, समदृष्टि, क्षमा आदि नैतिक मूल्यों का इस भक्ति काव्य में अग्रस्थान है, ताकि समाज, राजनीति एवं लोक जीवन उन्नत बने। 
  • रामचरितमानस में जीवन मूल्यों का क्षेत्र सीमित नहीं है। उसमें वैश्विक दृष्टि है। मानव मात्र के कल्याण की कामना है। 
  • जीवन मूल्य, स्थान, काल के संबंधों से मुक्त स्वस्थ समाज एवं कल्याणकारी राजनीति की स्थापना में सहायक एवं मार्गदर्शक सिद्ध हो सकते हैं। 
  • रामचरितमानस में धार्मिक-दार्शनिक, सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन मूल्यों का निरूपण सुन्दर ढंग से हुआ है। 
  • धर्म का उद्देश्य है, मनुष्य को शुभत्व एवं शिवत्व की राह दिखाकर आत्मोन्नति की ओर अग्रसर करना। इसके लिए तप और त्याग आवश्यक है। तप महत्ता बताने वाली अनेक उक्तियाँ रामचरितमानस में मिलती हैं, जैसे 
  • तपु सुखप्रद दुख दोष नमावा तप के अगम न कुछ संसार। 
  • तुलसीदासजी ने तप का महत्व निरूपित करने के लिए ही वाल्मीकि, अत्रि, भारद्वाज, नारद आदि को तपस्यालीन चित्रित किया है। त्याग का मूर्तिमंत उदाहरण है- बंधुत्रय राम, लक्ष्मण एवं भरत। चक्रवर्ती होने वाले राम वनवासी हो जाते हैं। लक्ष्मण अपने दाम्पत्य सुख की बलि देकर भ्रातृसेवा का जीवन मार्ग अपनाते हैं और भरत महल में प्राप्त राज्य में लक्ष्मी को तृणवत् मानकर भाई को ढूँढने निकल पड़ते हैं। तुलसीदास ने भरत के इस त्यागपूर्ण व्यक्तित्व को प्रशंसित करते हुए कहा है- 
चलत पयादे खात फल, पिता दीन्ह तजि राजु। 
जात मनावन रघुवरहिं, भरत सरसि को आजु।। 
सत्य को धर्म का पर्याय मानकर तुलसीदास कहते हैं 
"धरमु न दूसर सत्य समाना" 

इसी प्रकार परहित और अहिंसा की भावना का निरूपण करते हुए वे कहते हैं 
"परहित सरिस धर्म नहीं भाई, पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।" 

  • तुलसीदास की वर्तमान प्रासंगिकता के संदर्भ में 'युगेश्वर' कहते हैं कि राज्य की भावात्मक एकता के लिए जिस उदात्त चरित्र की आवश्यकता है, वह रामकथा में है। 
  • रामचरितमानस एक ऐसा वागद्वार है जहाँ समस्त भारतीय साधना और ज्ञान परम्परा प्रत्यक्ष दिखाई पड़ती है। इसमें (मानस में) देशकाल से परेशान, दुःखी और टूटे मनों का सहारा तथा संदेश देने की अद्भुत क्षमता है। आज भी करोड़ों मनों का यह सहारा है। 
  • रामचरित मानस के संदेश को केवल भारत तक सीमित, स्वीकृत करना इस महान ग्रंथ के साथ अन्याय होगा। "रामचरितमानस' युगवाणी है। विश्व का एक ऐसा विशिष्ट महाकाव्य जो आधुनिक काल में भी ऊर्ध्वगामी, जीवनदृष्टि एवं व्यवहार धर्म तथा विश्वधर्म का पैगाम देता है। रामचरितमानस अनुभवजन्य ज्ञान का अमर कोष है।

Q- तुलसीदास जी के काव्य में सामाजिक चेतना पर टिप्पणी लिखिए । MPPSC-2018

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