महापदमा नन्द के उत्तराधिकारी तथा नन्द सत्ता का विनाश

 महापदमा नन्द के उत्तराधिकारी तथा नन्द सत्ता का विनाश

महापदमा नन्द के उत्तराधिकारी तथा नन्द सत्ता का विनाश



  • यद्यपि पुराणों तथा बौद्ध ग्रन्थों में महापदमनन्द के उत्तराधिकारियों की संख्या आठ मिलती हैं परन्तु उनके शासन काल के विषय में हमारा ज्ञान बहुत कम है। 
  • इस वंश के अन्तिम राजा धनानन्द था। जो सिकन्दर का समकालीन था उसे यूनानी लेखकों ने अग्रभोज कहा है। 
  • यूनानी लेखकों के अनुसार उसके पास असीम सेना तथा अतुल सम्पत्ति थी कार्टियस के अनुसार उसके पास 20 हजार अश्वरोही, 2 लाख पैदल, 2 हजार रथ तथा 3 हजार हाथी थे। जेनोकोन उसे बहुत धनाढ्य व्यक्ति बताता है . 
  • संस्कृत तमिल तथा सिंहली ग्रन्थों से भी उसकी अतुल सम्पत्ति की सूचना मिलती है। 
  • भद्दशाल उसका सेनापति था । उसका साम्राज्य बहुत विशाल था। जो उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिणापथ में कलिंग भी इसके अन्तर्गत था। 
  • वह एक लोभी शासक थाजिसे धन संग्रह का शौक था। उसके धन तथा बलपूर्वक कर वसूलने की बौद्ध अनुश्रुति टर्नर ने इस प्रकार प्रस्तुत की है। 
  • सबसे छोटा भाई धनानन्द कहलाता था क्योंकि उसे धन बटोरने का व्यसन था उसने 80 करोड़ धनराशि गंगा के भीतर एक पर्वत गुफा में छिपाकर रखी थी। एक सुरंग बनवाकर उसने वह धन वही गड़वा दिया। 
  • वस्तुओं के अतिरिक्त उसने पशुओं के चमड़े वृक्षों की गोंद तथा खानों की पत्थरों के ऊपर भी कर लगाकर अधिकाधिक धन संचित किया. 
  • एक तमिल परम्परा में इसका समर्थन करते हुए बताया गया है कि नन्द राजा के पास अतुल सम्पत्ति थी जिसको पाटलीपुत्र में उसने संचित किया तथा फिर गंगा की धारा में उसे छिपा दिया। 
  • अन्त में चाणक्य एवं चन्द्रगुप्त मौर्य ने धनानन्द की हत्या कर इस वंश का अन्त किया.

 

नन्द शासन का महत्व

 

  • चन्द्रगुप्त मौर्य एवं चाणक्य के सामूहिक प्रयास से एक शक्तिशाली राज्यवंश का अन्त हुआ। 
  • नन्द राजाओं का शासन काल भारतीय इतिहास के पृष्ठों में अपना एक अलग महत्व रखता है। 
  • यह भारत के सामाजिक राजनैतिक आन्दोलन का एक महत्वपूर्ण पहलू है सामाजिक दृष्टि से इसे निम्न वर्ग के उत्कर्ष का प्रतीक माना जा सकता है। 
  • उसका राजनैतिक महत्व इस तथ्य में निहित है कि इस वंश के राजाओं ने उत्तर भारत में सर्वप्रथम एकछत्र शासन की स्थापना की। 
  • उन्होंने एक ऐसी सेना तैयार की थी जिसका उपयोग परवर्ती मगध राजाओं ने विदेशी आक्रमणकारियों को रोकने तथा भारतीय सीमा में अपने राज्य का विस्तार करने में किया। 
  • नन्द राजाओं के समय में मगध राजनैतिक दृष्टि से अत्यन्त शक्तिशाली तथा आर्थिक दृष्टि से अत्यन्त समृद्धिशाली साम्राज्य बन गया था।
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  • नन्दों की अतुल सम्पत्ति को देखते हुए यह अनुमान करना स्वभाविक है कि हिमालय पार के देशों के साथ उनका व्यापारिक संबंध था साइबेरिया की ओर से वे स्वर्ण मंगवाते थे। 
  • जेनोफोन की साइरोपेडिया से पता चलता है कि भारत का एक शक्तिशाली राजा पश्चिमी एशियाई देशों के झगड़ों की मध्यस्थता करने की इच्छा रखता था इस भारतीय शासक को अत्यन्त धनी व्यक्ति कहा गया है। जिसका संकेत नन्दवंश के शासक धनानन्द की ओर ही है। 
  • सातवीं शदी के चीनी यात्री हुएनसांग ने भी नन्दों के अतुल सम्पत्ति की कहानी सुनी थी। उसके अनुसार पाटलिपुत्र में पांच स्तूप थे जो नन्द राजा के सात बहुमूल्य पदार्थो द्वारा संचित कोषागारों का प्रतिनिधित्व करते थे।
  • मगध की आर्थिक समृद्धि ने राजधानी पाटलिपुत्र को शिक्षा एवं साहित्य का प्रथम केन्द्र बना दिया। व्याकरणाचार्य पाणिनी महापदमनन्द के मित्र थे और उन्होंने पाटलिपुत्र में ही रहकर शिक्षा पाई थी। 34 वर्ष वरूरूचि कत्यायन जैसे विद्वान भी नन्द काल में ही उत्पन्न हुए थे। 
  • नन्द शासक जैनमत के पोषक थे ताकि उन्होंने अपने शासन में कई जैन मंत्रियों को नियुक्त किया था। इनमें प्रथम मंत्री कल्पक था। जिसकी सहायता से महापदमनन्द ने समस्त क्षत्रियों का विनाश कर डाला था। धननन्द के जैन अमात्य शाकटाल तथा स्थूलभद्र थे। मुद्राराक्षस से भी नन्दों का जैन मतानुयायी होना सूचित होता है। 
  • इस प्रकार नन्द राजाओं के काल में मगध साम्राज्य राजनैतिक तथा सांस्कृतिक दोनों ही दृष्टियों से प्रगति के पथ पर अग्रसर हुआ। 
  • बुद्धकालीन राजवन्तों में मगध ही अन्तगोत्वा सर्वाधिक शक्ति सम्पन्न साम्राज्य के रूप में उभर कर सामने आया। इसके लिए मगध शासकों की शक्ति के साथ ही साथ प्राकृतिक कारण भी कम सहायक नहीं थे। मगध की दोनों राजधानियों राजगृह तथा पाटलिपुत्र अत्यन्त सुरक्षित भौगोलिक स्थिति में थी राजगृह पहाड़ियों से घिरी होने के कारण शत्रुओं द्वारा सुगमता से जीती नहीं जा सकती थी । इसी प्रकार पाटलिपुत्र नदियों से घिरी होने के कारण सुरक्षित थी।


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