कृषि-उत्पादन की तकनीक

कृषि-उत्पादन की तकनीक

Krishi Utpadan Taknik


भारत में कृषि उत्पादन तकनीक का हम दो भागों में विस्तृत अध्ययन करेंगे परम्परागत कृषि-उत्पादन की तकनीक और आधुनिक कृषि-उत्पादन की तकनीक

परम्परागत कृषि-उत्पादन की तकनीक

परंपरागत कृषि-विधि और तकनीक में परिवर्तन लाना अति आवश्यक है । फिर भी पिछले कुछ वर्षों में कई प्रकार की कृषि-विधियों की खोज की गई है । इनमें मुख्य हैं (i) परती छोड़ना और चक्रीय कृषि करना, (ii)  द्विफसलीय कृषि,(iii)  मिश्रित कृषि और (iv)  बहुफसलीय कृषि ।

परती छोड़ना और चक्रीय कृषि विधि -

  • ये दोनों विधियाँ मिट्टी की उर्वरता को बनाये रखने के लिए उपयोग में लाई जाती हैं । लगातार खेती करने से मिट्टी की उर्वरता घट जाती है । इसलिए परती छोड़कर कृषि करने की विधि किसी खास फसल द्वारा मिट्टी में पोषण की पूर्ति की क्षमता पर निर्भर करती है । 
  • हल्की मिट्टियों के संबंध में, जहाँ पोषक तत्त्वों की बहुत कमी होती है, एक खेती के बाद जमीन को सात सालों तक परती छोड़ दिया जाता है। 
  • उर्वर भूमि पर प्रत्येक तीन, चार या पाँच सालों तक खेत को परती छोड़ दिया जाता है ।

चक्रीय फसल-विधि 

  • चक्रीय फसल-विधि में एक खेत में उर्वरता को बनाये रखने के लिए विभिन्न फसलें चक्रीय रूप में लगाई जाते हैं ।
  • चक्रीय-कृषि की सबसे सामान्य फसल फली वाले पौधे होते हैं, जो मिटृटी में नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करते हैं । पहले मौसम में, इन्हें लगाया जाता है और इसके बाद कपास, आदि फसलें लगाई जाती हैं जो मिट्टी से नाइट्रोजन सोख लेती हैं ।
  • गन्ना, तंबाकू, आदि की खेती में भारी मात्रा में खाद की आवश्यकता होती है । इन्हें काटने के बाद खेत में बचे खादों का उपयोग करने के लिए अनाज वाली फसलें लगाई जाती हैं। यह चक्रीय रूप से किया जाता है ।

चक्रीय-कृषि

  • चक्रीय-कृषि भूमि को परती छोड़ने से बचने के लिए किया जाता है । फिर भी, यह विधि हर प्रदेश में सफल नहीं हो सकती । कुछ मामलों में चक्रीय कृषि में तीन या पाँच वर्षों में खेत को परती छोड़ना पड़ता है । जहाँ चक्रीय-फसलों से मिट्टी में पोषक  तत्व  बना रहता है, वहाँ जमीन को परती छोड़ने की आवश्यकता लंबे समय तक नहीं पड़ती ।
  • जिन मिट्टियों में पोषक तत्वों  की आपूर्ति कृत्रिम रूप से अच्छी मात्रा में की जा सकती है, वहाँ भी परती छोड़ना जरूरी नहीं है ।

मिश्रित-कृषि

  • मिश्रित-कृषि में कई फसलों को मिश्रित करके इस प्रकार लगाया जाता है कि कुछ फसलों द्वारा मिट्टी से लिए गए पोषक तत्त्वों की भरभाई कुछ हद तक दूसरी फसलों द्वारा हो जाती है । चूँकि विभिन्न फसलों के पकने की अवधि भी अलग-अलग होती है, इसलिए मिश्रित-कृषि में एक ही समय में दो फसलें बोई जाती हैं, लेकिन काटी अलग-अलग समय में जाती हैं ।
  • जल्दी पकने वाली फसलों को मूँगफली, कपास या दलहन जैसी देर से पकनेवाली फसलों के साथ बोया जाता है ।
  • एक साथ बढ़ने वाली विभिन्न फसलों पर जलवायु का अलग-अलग असर पड़ता है । मिश्रित कृषि से किसान उत्पादन तथा मूल्य की अनिश्चितता से बहुत हद तक बच सकते हैं ।

द्विफसलीय-कृषि

  • द्विफसलीय-कृषि में एक वर्ष में चक्रीय विधि से दो फसलों का उत्पादन किया जाता है । यह कृषि मुख्यतः उन क्षेत्रों में की जा सकती है, जहाँ सिंचाई की व्यवस्था हो या वर्षा अच्छी मात्रा में होती हो । जिन प्रदेशों में सालों भर पानी उपलब्ध रहता हैं  वहाँ तीन फसलों तक की खेती संभव हो जाती है ।
  • दोफसलीय-कृषि का मुख्य उद्देश्य मिट्टी की उर्वरता को बनाये रखना होता है । इसलिए दूसरी फसल नाइट्रोजन-स्थिरीकरण करने वाली होती है । फिर भी दूसरी फसल मिट्टी की वास्तविक स्थिति पर निर्भर करती है ।

बहुफसलीय कृषि 

  • कम समय में तैयार होनेवाली फसलों के आने तथा जल-प्रबंधन तकनीक के कारण अब साल में तीन फसलों को उपजाने की प्रवृत्ति बढ़ रही है, जिसे बहुफसलीय कृषि कहते हैं । 
  • गेहूँ के साथ चक्रीय विधि से अमेरिकी कपास (कम समय में तैयार होने वाला) लगाया जा सकता है । 
  • इसी प्रकार, कम समय में पकने वाले चावल, गेहूँ, दलहन, तिलहन, आदि बाजार में उपलब्ध हो चुके हैं । कई ऐसी फसलें किसानों को उपलब्ध हो चुकी हैं, जिन्हें बाजार की मांग के अनुसार चक्रीय बहुफसलीय-कृषि के पैकेज को अपना कर किसानों ने अपने उत्पादन और आय में वृद्धि की है ।

रिले-कृषि

  • चक्रीय कृषि के अतिरिक्त यह भी कृषि की एक विधि है, जिसमें खड़ी फसल के नीचे एक फसल बोई जाती है ।

आधुनिक कृषि-उत्पादन की तकनीक

आधुनिक कृषि प्रणाली ने समूचे देश में अनाज के उत्पादन की वृद्धि में भारी योगदान दिया है। आधुनिक कृषि प्रणाली के प्रयोग से देश अनाज के उत्पादन में पर्याप्तता प्राप्त कर सकता है।

आधुनिक कृषि में पशुपालन, मुर्गीपालन, मधुमक्खी पालन, मत्स्य पालन एवं मशरूम संवर्धन इत्यादि शामिल हैं जो भोजन के अन्य उत्पाद जैसे दूध, मांस, मछली, अंडे, मशरूम इत्यादि प्रदान करते हैं। पोषक भोजन की आपूर्ति करने के साथ-साथ ये दालों के उपभोग को भी कम करने में अहम भूमिका निभाते हैं। इस प्रकार आधुनिक किसान फसल उगाने के साथ-साथ उपरिलिखित कृषिकल्पों में से किसी को भी अपना सकता है।

मुर्गीपालन की कृषि (Poultry) 

  • मुर्गीपालन शब्द का प्रयोग बत्तख व मुर्गियों जैसे पक्षियों को, उनसे अण्डे व मांस पाने के लिये उनकी देखरेख और पालन की कृषि है। 
  • मुर्गीपालन थोड़े ही समय में इसलिये लोकप्रिय हुआ है क्योंकि इसका प्रारम्भ व संचालन की प्रक्रिया सरल है। मुर्गीपालन पर खर्च शीघ्र ही एक से छह महीनों में धनराशि लौटाता है। यह सरल रूप से संचालित और कम स्थान व श्रम से सम्भव है। मुर्गियों जैसे पक्षी व उनके अण्डे पोषक तत्वों से भरपूर होते हैं। 
  • भारतीय मुर्गियों से अच्छी गुणवत्ता का माँस पाया जा सकता है। परन्तु इनके अण्डे छोटे आकार के होते हैं। बाहर के कुछ देशों की विशिष्टतम किस्मों के मुकाबले में इनकी साधारण बीमारियों से लड़ने की स्वाभाविक क्षमता कम है। 
  • विदेशीय पक्षियों के कुछ साधारण किस्में इस प्रकार हैं- लेग हॉर्न, रोड आइलैण्ड रेड, कॉर्निश।
  •  साधारण भारतीय किस्में इस प्रकार हैं- असील, चिट्टागौंग, बसरा।

मशरूम (खुम्भी) की कृषि (Mushroom Culture) 

  • मशरूम की कृषि न सिर्फ धन कमाने का एक आकर्षक तरीका है, बल्कि वह पोषक तत्वों से भी भरपूर खाद्य पदार्थ है। 
  • मशरूम एक प्रकार के कवक हैं जोकि छोटे आकार की सफेद गेदों के रूप में दिखायी देते हैं। इनमें एक छोटी शाखा और टोपी होती है, जो कि एक छतरी के समान ऊपर को खुलती हैं। इनमें क्लोरोफिल नामक तत्व की कमी होती है और ये खेतों व कारखानों के अपशिष्ट पदार्थों या कार्बनिक पदार्थों व कूड़ा-करकट पर उगते हैं।
  • मानवीय उपभोग के लिये बेकार पदार्थों, कूड़ा-करकट को माध्यम बनाकर खुम्बी उगाई जा सकती है। इस प्रकार अपशिष्ट पदार्थों को पुनः प्रयोग में लाया जा सकता है।
  • मशरूमों की अनेक किस्मों में से केवल कुछ ही खाने के योग्य हैं। भारत में उगने वाले कुछ खाने योग्य मशरूमों के नाम इस प्रकार हैं- सफेद बटन मशरूम (ऐगेरीकस बाइस्पोरस), धान के रेशे की मशरूम व ऑयस्टर मशरूम। 
  • मशरूम ऊँचे स्तर के प्रोटीनों का एक अच्छा स्रोत हैं। इसके अतिरिक्त ये विटामिनों एवं खनिजों जैसे पोषक तत्वों से भी भरपूर है। फल और सब्जियों की तरह मशरूम भी जल्दी सड़ने वाले पदार्थ हैं तथा संरक्षण व व्यवसायीकरण की प्रक्रियाओं के दौरान उन पर बहुत ध्यान देने की आवश्यकता होती है।

मधुमक्खी पालन (Apiculture) 

एपीकल्चर (मधुमक्खी पालन) को मधुमक्खी रखरखाव/पालन के नाम से जाना जाता है। एपिसका अर्थ है- मधुमक्खी। मधुमक्खी-पालन, बड़ी मात्रा में मधुमक्खियों से निकाले गए मधु के निर्यात के लिये, मधुमक्खियों के समूहों (कॉलोनियों) की देख-रेख व नियंत्रण है। प्राचीन काल में मधुमक्खी पालन लोग घर में ही कर लेते थे। परन्तु अब यह एक महत्त्वपूर्ण उद्योग का रूप ले चुका है।

मधुमक्खी-पालन के तीन मुख्य लाभ हैं:

 (1) मधु (शहद) जैसे मूल्यवान खाद्य पदार्थ को प्राप्त करना।

(2) मधुमक्खी मोम प्रदान करती है, जिसका उद्योग में बहुत प्रयोग होता है

(3) मधुमक्खियाँ परागण के बहुत अच्छे एजेन्ट (कारक) हैं, जिनकी परागण प्रक्रिया से कृषि-उत्पादन बढ़ता है।

 मधुमक्खियाँ मधु (Honey) व मोम (Wax) दोनों को निर्मित करती हैं, जिनकी बाजार में बहुत मांग है। परन्तु, कृषि में, परागण के एजन्टों के रूप में इनका कार्य प्रमुख है। फूलों से निकाला गया मधुरस (मकरंद) व पराग, शहद के निर्माण में प्रयोग होते हैं। मधुरस फूलों से निकला हुआ एक मीठा स्राव है। यह शहद के लिये कच्चा माल है। पराग कण भ्रूण (निषेचित अण्डों) के लिये, भोजन के रूप में काम आते हैं।

मछली-पालन और जलीय कृषि (Pisciculture and Aquaculture)

  • दुनिया के बहुत से भागों में मछलियाँ प्रोटीनयुक्त खाद्य रूप में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। मछली पालन (मत्स्य पालन) का विकास अब एक अधिक संभावना वाला उद्योग बन चुका है।
  •  भारत का एक लम्बा समुद्र तट है, जो कि समुद्री मछलियों का एक बड़ा उत्पादक है।
  • ऐसे जलीय क्षेत्र जहाँ मछलीपालन व्यावसायिक रूप से होता है, उन्हें कृत्रिम मात्स्यकी (Artifical fisheries) का नाम दिया जाता है। यहाँ पर मछलियों की उत्पत्ति, पालन-पोषण व अंत में इनको फसलके रूप में प्राप्त किया जाता है। मत्स्य उद्योग या तो एक प्राकृतिक जलीय क्षेत्र में, अथवा एक कृत्रिम जलीय क्षेत्र में सम्भव है। कई प्रकार की मछलियों का एक साथ पालन-पोषण भी किया जा सकता है।

 जिस किस्म के जल में उनका पालन होता है, उसके आधार पर मात्स्यकी को निम्न श्रेणियों में बांटा जा सकता हैः-

 1. समुद्री मत्स्यकी: यानि जहाँ समुद्र तट पर मछली पकड़ी जाती है उदाहरण मैकरेल, सार्डीन, कैटफिश। 

2. अलवण जल या अंतःस्थली मत्स्य केन्द्रः ये मछलियाँ नदियों, सिंचाई में प्रयुक्त नाले, झीलों, टैंकों, इत्यादि में पाई जाती है। उदाहरण- रोहू, कतला, मिस्टस। 

3. ज्वारनदः ये उन जगहों पर पाई जाती हैं जहाँ नदी का पानी व समुद्र का पानी मिश्रित हो जाता है जैसे लगून, तटीय झील, डेल्टा चैनल इत्यादि। ये प्रायः बंगाल व केरल जैसे प्रदेशों में पाई जाती हैं। उदाहरण मुलेट, मिल्कफिश, पर्लस्पॉट।

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