भारत में पर्यावरण आंदोलन |Environmental Movement in India

 

भारत में पर्यावरण आंदोलन

भारत में पर्यावरण आंदोलन Environmental Movement in India

अप्पिको आंदोलन

सितंबर, 1983

कर्नाटक के उत्तर कन्नड़ क्षेत्र में शुरू

  • वनों और वृक्षों की रक्षा के संदर्भ में गढ़वाल हिमालयवासियों का चिपकोआंदोलन का योगदान सर्वविदित है। इसने भारत के अन्य भागों में भी अपना प्रभाव दिखाया। उत्तर का यह चिपको आंदोलन दक्षिण में अप्पिकोआंदोलन के रूप में उभरकर सामने आया। अप्पिको कन्नड़ भाषा का शब्द है जो कन्नड़ में चिपको का पर्याय है। पर्यावरण संबंधी जागरुकता का यह आंदोलन अगस्त, 1983 में कर्नाटक के उत्तर कन्नड़ क्षेत्र में शुरू हुआ। यह आंदोलन पूरे जोश से लगातार 38 दिन तक चलता रहा। युवा लोगों ने भी जब पाया कि उनके गांवों के चारों ओर के जंगल धीरे धीरे गायब होते जा रहे हैं तो वे इस आंदोलन में जोर-शोर से लग गये। लोगों ने पाया कि कागज पर तो प्रति एकड़ दो पेड़ों की कटाई दिखाई जाती है लेकिन असल में काफी अधिक पेड़ काटे जाते हैं और कई क्षतिग्रस्त कर दिये जाते हैं, जिससे वनों का सफाया होता जा रहा है। 
  • सितंबर, 1983 में सलकानी तथा निकट के गांवों से युवा तथा महिलाओं ने पास के जंगलों तक 5 मील की यात्रा तय करके वहाँ के पेड़ों को गले लगाया। उन्होंने राज्य के वन विभाग के आदेश से कट रहे पेड़ों की कटाई रुकवाई। लोगों ने हरे पेड़ों को कटाने पर प्रतिबन्ध की मांग की। उन्होंने अपनी आवाज बुलंद कर कहा कि हम व्यापारिक प्रायोजनों के लिए पेड़ों को बिल्कुल भी नहीं कटने देंगे और पेड़ों पर चिपककर हठधर्मिता अपना कर बोले कि पेड़ काटने हैं तो पहले हमारे ऊपर कुल्हाड़ी चलाओ। वे पेड़ों के लिए अपनी जान भी देने को तैयार हो गये। जंगल में लगातार 38 दिनों तक चले विरोध आंदोलन ने सरकार को पेड़ों की कटाई रुकवाने का आदेश देने के लिए मजबूर किया। यह आंदोलन इतना लोकप्रिय हो गया कि पेड़ काटने आये मजदूर भी पेड़ों की कटाई छोडक़र चले गये।

 चिपको आंदोलन

26 मार्च1974
गौरादेवी के नेतृत्व  में चिपको-आंदोलन शुरू 
चिपको आंदोलन का मूल केंद्ररेनी गांव (जिला चमोली)

  • चिपको आंदोलन मूलत: उत्तराखण्ड के वनों की सुरक्षा के लिए वहां के लोगों द्वारा 1970 के दशक में आरम्भ किया गया आंदोलन है। इसमें लोगों ने पेड़ों केा गले लगा लिया ताकि उन्हें कोई काट न सके। यह आलिंगन दर असल प्रकृति और मानव के बीच प्रेम का प्रतीक बना और इसे "चिपको " की संज्ञा दी गई।
  • चिपको आंदोलन का मूल केंद्ररेनी गांव (जिला चमोली) था जो भारत-तिब्बत सीमा पर जोशीमठ से लगभग 22 किलोमीटर दूर ऋषिगंगा और विष्णुगंगा के संगम पर बसा है।
  • गौरादेवी के नेतृत्व  में चिपको-आंदोलन शुरू कर दिया। इस प्रकार 26 मार्च, 1974 को स्वतंत्र भारत के प्रथम पर्यावरण आंदोलन की नींव रखी गई।
  • । 9 मई, 1974 को उत्तर प्रदेश सरकार ने चिपको आंदोलन की मांगों पर विचार के लिए एक उच्चस्तरीय समिति के गठन की घोषणा की। दिल्ली विश्वविद्यालय के वनस्पति-विज्ञानी श्री वीरेन्द्र कुमार इसके अध्यक्ष थे।
  • चिपको आंदोलन को प्राय: एक महिला आंदोलन के रूप में जाना जाता है क्योंकि इसके अधिकांश कार्यकर्ताओं में महिलाएं ही थीं तथा साथ ही यह आंदोलन नारीवादी गुणों पर आधारित था। 26 मार्च, 1974 को जब ठेकेदार रेणी गांव में पेड़ काटने आये, उस समय पुरुष घरों पर नहीं थे। गौरा देवी के नेतृट्टव में महिलाओं ने कुल्हाड़ी लेकर आये ठेकेदारों को यह कह कर जंगल से भगा दिया कि यह जंगल हमारा मायका है। हम इसे कटने नहीं देंगी।

चिल्का बचाओ आंदोलन

  • चिल्का उड़ीसा में स्थित एशिया की सबसे बड़ी खारे पानी की झील है जिसकी लम्बाई 72 कि०मी० तथा चौड़ाई 25 कि०मी० और क्षेत्रफल लगभग 1000 वर्ग कि०मी० है। चिल्का 158 प्रकार के प्रवासी पक्षियों तथा चीते की व्यापारिक रूप से महत्त्वपूर्ण प्रजातियों का निवास स्थान है। 1977-78 का वर्ष झींगा मछली के उत्पादन तथा निर्यात के विकास का एक महत्त्वपूर्ण वर्ष था। चिल्का झींगा मछली तथा पैसे का पर्यायवाची शब्द बन गया था। 1986 में, तत्कालीन जे०बी० पटनायक सरकार ने निर्णय लिया कि चिल्का में 1400 हेक्टेयर झींगा प्रधान क्षेत्र को टाटा तथा उड़ीसा सरकार की संयुक्त कम्पनी को पट्टे पर दिया जाएगा। सरकार ने 50000 मछुआरों तथा दो लाख लोगों के हितों के बारे में जरा भी नहीं सोचा जो कई सदियों से अपने जीवन निर्वाह के लिए चिल्का पर निर्भर थे। इस प्रकार सन 1991 में एक संघर्ष ने जन्म लिया। चिल्का के 192 गांवों के मछुआरों ने मत्स्य महासंघके अंतर्गत एकजुट होकर अपने अधिकारों की लड़ाई शुरू की। 15 जनवरी, 1992 में गोपीनाथपुर गांव में यह संघर्ष जन आंदोलन में तब्दील हो गया। चिल्का बचाओ आंदोलनने विकास के उस प्रतिमान के विरुद्ध संघर्ष किया जिससे क्षेत्रीय पर्यावरण, विकास तथा लोगों की आजीविका को खतरा था।

टिहरी बांध विरोधी आंदोलन

  • इस परियोजना का सुंदरलाल बहुगुणा तथा अनेक पर्यावरणविदों ने कई आधारों पर विरोध किया है। इंडियन नेशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट एंड कल्चरल हैरिटेज द्वारा टिहरी बांध के मूल्याकंन की रिपोर्ट के अनुसार यह बांध टिहरी कस्बे और उसके आसपास के 23 गांवों को पूर्ण रूप से तथा 72 अन्य गांव को आंशिक रूप से जलम,न कर देगा, जिससे 85600 लोग विस्थापित हो जाएंगे। इस परियोजना से 5200 हेक्टेयर भूमि, जिसमें से 1600 हैक्टेयर कृषि भूमि होगी जो जलाशय की भेंट चढ़ जाएगी। अनेक विशेषज्ञों का मानना है कि टिहरी बांध गहन भूकम्पीय सक्रियताके क्षेत्र में आता है और अगर रियेक्टर पैमाने पर 8 की तीव्रता से भूकंप आया तो टिहरी बांध के टूटने का खतरा उत्पन्न हो सकता है। अगर ऐसा हुआ तो उत्तरांचल सहित अनेक मैदानी इलाके डूब जाएंगे। 
  • टिहरी बांध विरोधी आंदोलन ने इस परियोजना से क्षेत्र के पर्यावरण, ग्रामीण जीवन शैली, वन्यजीव, कृषि तथा लोक-संस्कृति को होने वाली क्षति की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित किया है। उम्मीद की जाती है कि इसका सकारात्मक प्रभाव स्थानीय पर्यावरण की रक्षा के साथ साथ विस्थापित लोगों के पुनर्वास में मानवीय सोच के रूप में देखने को मिलेगा।

नर्मदा बचाओ आंदोलन

  • नर्मदा नदी पर सरदार सरोवर बांध परियोजना का उद्घाटन 1961 में पंडित जवाहर लाल नेहरू ने किया था। लेकिन तीन राज्यों-गुजरात, मध्य प्रदेश तथा राजस्थान के मध्य एक उपयुक्त जल वितरण नीति पर कोई सहमति नहीं बन पायी। 1969 में, सरकार ने नर्मदा जल विवाद न्यायधिकरण का गठन किया ताकि जल संबंधी विवाद का हल करके परियोजना का कार्य शुरु किया जा सके। 1979 में न्यायधिकरण सर्वसम्मति पर पहुँचा तथा नर्मदा घाटी परियोजना ने जन्म लिया जिसमें नर्मदा नदी तथा उसकी 4134 नदियों पर दो विशाल बांधों - गुजरात में सरदार सरोवर बांध तथा मध्य प्रदेश में नर्मदा सागर बांध, 28 मध्यम बांध तथा 3000 जल परियोजनाओं का निर्माण शामिल था।
  • इस परियोजना के विरोध ने अब एक जन आंदोलन का रूप ले लिया है। 1980- 87 के दौरान जन जातियों के अधिकारों की समर्थक गैर सरकारी संस्था अंक वाहनी के नेता अनिल पटेल ने जनजातिय लोगों के पुर्नवास के अधिकारों को लेकर हाई कोर्ट व सर्वोच्च न्यायालय में लड़ाई लड़ी। सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों के परिणामस्वरूप गुजरात सरकार ने दिसम्बर 1987 में एक पुर्नवास नीति घोषित की। दूसरी ओर 1989 में मेघा पाटकर द्वारा लाए गये नर्मदा बचाओ आंदोलन ने सरदार सरोवर परियोजना तथा इससे विस्थापित लोगों के पुर्नवास की नीतियों के क्रियांवयन की कमियों को उजागर किया है। शुरू में आंदोलन का उददेश्य बांध को रोककर पर्यावरण विनाश तथा इससे लोगों के विस्थापन को रोकना था। बाद में आंदोलन का उद्देश्य बांध के कारण विस्थापित लोगों को सरकार द्वारा दी जा रही राहत कार्यों की देख-रेख तथा उनके अधिकारों के लिए न्यायालय में जाना बन गया। आंदोलन की यह भी मांग है कि जिन लोगों की जमीन ली जा रही है उन्हेंयोजना में भागीदारी का अधिकार होना चाहिए, उन्हें अपने लिए न केवल उचित भुगतान का अधिकार होना चाहिए बल्कि परियोजना के लाभों में भी भागीदारी होनी चाहिए।

बीज बचाओ आंदोलन

  • बीज बचाओ आंदोलन का उदय परम्परागत बीजों की विलुप्त होती प्रजातियों का संरक्षण तथा व्यावसायिक हितों के लिए कुछ ही प्रकार के बीजों - पौधों को बोने के विरोध में हुआ। इस अभियान का आरंभ 1990 के शुरू के वर्षों में गांधीवादी कार्यकर्ताओं मुख्यत: धुमसिंह नेगी, कुँवर प्रशुन तथा विजय जरधारी द्वारा टिहरी गढ़वाल क्षेत्र के हेवलघाटी क्षेत्र में हुआ।

वर्षा जल संरक्षण अभियान

  • तरुण भारत संघ के कार्यकर्ताओं ने ग्रामीणों को साथ लेकर वर्षा का पानी रोक ने के लिए पुराने जोहड़ों (बांध) को खोदकर गहरा किया, नए जोहड़ बनाए, कुँऐं खोदे, बड़े पैमाने पर पेड़ लगाए तो धीरे-धीर इलाके का नक्शा ही बदल गया। बारिश का पानी एकत्रित होने लगा, वहाँ सूखी रहने वाली 45 कि०मी० लंबी अरवरी नदी में पानी बहने लगा। अब खेतों की सिंचाई होने लगी, पेयजल संकट दूर हुआ और जनजीवन में खुशहाली आ गयी। इस कामयाबी की ख्याति इतनी फैलीकि पर्यावरण प्रबंध में उत्कृष्ट सामुदायिक उपलब्धी के लिए भांवता कोल्याला गांव को पहला डाउन टू अर्थ - जोसेफ जोन पुरस्कार से सम्मानित किया गया। सामुदायिक नेतृत्व के लिए 2001में तरुण भारत संघ के प्रमुख राजेंद्र सिंह को रमन मेगसेसेय पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

विष्णोई आंदोलन

  • विश्नोई सम्प्रदाय के संस्थापक जम्भोजी (1451-1536 ई०) द्वारा अपने अनुयायियों के लिए 29 नियम दिये गये थे। इन्हीं 29 नियमों अर्थात बीस और नौ के कारण ही इस सम्प्रदाय का नाम विश्नोई पड़ा, इनमें से अधिकांश पर्यावरण के साथ सहचारिता बनाये रखने पर बल देते हैं जैसे हरे-भरे वृक्षों को काटने तथा पशुवध की पाबंधी। उस समय राजस्थान के जो कल्पवृक्ष थे, वे खेजडी के पेड़ थे, जो रेगिस्तानी परिस्थितियों में भी पनप जाते थे। उनसे केवल पशुओं को चारा ही नहीं मिलता था, उनकी फलियों से मनुष्यों को खाना भी मिलता था। सन् 1730 में जोधपुर के महाराजा अजय सिंह ने एक विशाल महल बनाने की योजना बनाई। जब महल के लिए लकड़ी की बात आई तो यह सुझाव दिया गया कि राजस्थान में वृझों का अकाल है लेकिन केवल एक ही जगह है जहां बहुत मोटे-मोटे पेड़ हैं वह है विश्नोई समाज का खिजड़ी गांव। इस पर अमृता देवी ने कहा राजा का हुकूम भले ही हो लेकिन यह हमारे पंथ के खिलाफ है। पेड़ काटने वालों के नहीं मानने पर अमृता देवी ने फैसला लिया कि यदि धर्म की रक्षा के लिए, पेड़ की रक्षा के लिए, प्राणों की आहुति भी देनी पड़े, तो वह कम है। वह पेड से लिपट गई और उसने अपना बलिदान दे दिया। उसकी तीनों बेटियां भी पास ही खड़ी थीं वे बारी-बारी से पेडों से लिपट गई और उन्होंने भी अपना बलिदान दे दिया। जब वृक्ष-प्रेमी रिचर्ड बरवे बेकर भारत आए और उन्होंने यह कहानी सुनी, तो वह गदगद हो गए। उन्होंने विश्व के सभी देशों में वृक्ष मानव संस्था के माध्यम से इस कहानी को प्रचारित किया। उन्होंने कहा, यह भारत की महान संस्कृति है और दुनिया के सामने आज तो संकट है,

साइलेंट घाटी आंदोलन

  • केरल की शांत घाटी 89 वर्ग किलामीटर क्षेत्र में है जो अपनी घनी जैव-विविधता के लिए मशहूर है। 1980 में यहाँ कुंतीपूंझ नदी पर एक परियोजना के अंतर्गत 200 मेगावाट बिजली निर्माण हेतु बांध का प्रस्ताव रखा गया। केरल सरकार इस परियोजना के लिए बहुत इच्छुक थी लेकिन इस परियोजना के विरोध में वैज्ञानिकों, पर्यावरण कार्यकर्ताओं तथा क्षेत्रीय लोगों के स्वर गूंजने लगे। इनका मानना था कि इससे इस क्षेत्र के कई विशेष फूलों, पौधों तथा लुप्त होने वाली प्रजातियों को खतरा है। इसके अलावा यह पश्चिमी घाट की कई सदियों पुरानी संतुलित पारिस्थिति की को भारी हानि पहुँचा सकता है। साइलैंट वैली राष्ट्रीय उद्यान उत्तरी केरल के पालक्काड ज़िले के मन्नारकाड से 40 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। 90 वर्ग कि.मी. में फैला यह राष्ट्रीय उद्यान पालक्काड ज़िले के उत्तरी भाग में अवस्थित है। उत्तर में यह नीलगिरि पठार तक विस्तृत है और दक्षिण में मन्नारकाड के मैदान से ऊँचा है।
  • इस वन क्षेत्र को सन 1847 में एक ब्रिटिश वनस्पतिशास्त्री रॉबर्ट वाइट ने खोजा था। स्थानीय लोग इसे सैरन्ध्रीवनम कहते हैं। सैरन्ध्री द्रौपदी का नाम है।

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