पाचन एवं अवशोषण | Digestion and absorption


पाचन एवं अवशोषण

भोजन सभी जीवों की मूलभूत आवश्यकताओं में से एक है। हमारे भोजन के मुख्य कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन एवं वसा हैं। अल्प मात्रा में विटामिन एवं खनिज लवणों की भी आवश्यकता होती है।

भोजन से ऊर्जा एवं कई कच्चे कायिक पदार्थ प्राप्त होते हैं जो वृद्धि एवं ऊतकों के मरम्मत के काम आते हैं। जो जल हम ग्रहण करते हैं, यह उपापचयी प्रक्रियाओं में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है एवं शरीर के निर्जलीकरण को भी रोकता है।

हमारा शरीर भोजन में उपलब्ध जैव-रसायनों को उनके मूल रूप में उपयोग नहीं कर सकता। अतः पाचन तंत्र में छोटे अणुओं में विभाजित कर साधारण पदार्थों में परिवर्तित किया जाता है।

पाचन क्या है

पाचन तंत्र द्वारा जटिल पोषक पदार्थों को अवशोषण योग्य सरल रूप में परिवर्तित करने की क्रिया को पाचन कहते हैं। और हमारा पाचन तंत्र इसे यांत्रिक एवं रासायनिक विधियों द्वारा इसे संपन्न करता है।

भोजन के पाचन की संपूर्ण प्रक्रिया पॉच अवस्थाओं से होकर गुजरती है-

  • अन्तर्ग्रहण
  • पाचन
  • अवशोषण
  • स्वांगीकरण
  • मल परित्याग

मनुष्य में पाचन तंत्र

मनुष्य का पाचन तंत्र

मनुष्य का पाचन तंत्र आहार नाल एवं सहायक ग्रंधियों से मिलकर बना होता है। 


आहार नाल
  • आहार नाल अग्र भाग में मुख से प्रारंभ होकर पश्च भाग में स्थित गुदा द्वारा बाहर की ओर खुलती है।


मुखगुहा
  • मुख, मुखगुहा में खुलता है। मुखगुहा में कई दांत और एक पेशीय जिव्हा होती है। प्रत्येक दांत जबड़े में बने एक सांचे में स्थित होेता है। इस तरह की को व्यवस्था गर्तदंती कहते हैं।

मनुष्य में दांत व्यवस्था

  • मनुष्य सहित अधिकांश स्तनधारियों के जीवन काल में दो रहत के दांत आते हैं- अस्थायी दांत-समूह अथवा दूध के दांत जो वयस्कों में स्थायी दांतों से प्रतिस्थापित हो जाते हैं। इस तरह की दांत (दंत) व्यवस्था को द्विबारदंती कहते हैं। वयस्क मनुष्य में 32 स्थायी दांत होते हैं।

मनुष्य में दांत चार प्रकार होते हैं-
  1. कृतंक
  2. रदनक
  3. अग्र-चवर्णक
  4. चवर्णक

ऊपरी एवं निचले जबड़े के प्रत्येक आधे भाग में दांतो की व्यवस्था  क्रम में एक दंतसूत्र के अनुसार होती है। जो मनुष्य के लिए 2123/2123 है।  इनैमल से बनी दांतो की चबाने वाली कठोर सतह भोजन को चबाने में मदद करती है।

जिव्हा
  • जिव्हा स्वतंत्र रूप से घूमने योग्य एक पेशीय अंग है जो फ्रेनुलम द्वारा मुखगुहा की आधार से जुड़ी होती है। जिव्हा की ऊपरी सतह पर छोटे-छोटे उभार के रूप में पिप्पल (पैपिला) होते हैं। जिनमें कुछ ज्वाद कलिकाएं होती हैं।

ग्रसनी एवं ग्रसिका

  • मुखगुहा एक छोटी ग्रसनी में खुलती है जो वायु एवं भोजन, दोनों का ही पथ है। उपास्थिमय घांटी ढक्कन, भोजन को निगलते समय श्वासनली में प्रवेश करने से रोकती है। ग्रसिका एक पतली लंबी नली है, जो गर्दन, वक्ष एवं मध्यपट से होते हुए पश्च भाग में जे आकार के थैलीनुमा अमाश्य में खुलती है।ग्रसिका का अमाशय में खुलना एक पेशीय (अमाशय-ग्रसिका) अवरोधिनी द्वारा नियंत्रित होता है।

अमाशय

अमाशय गुहा के ऊपरी बाएं भाग में स्थित होता है। अमाशय को मुख्यतः तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है-


  1. जठरागम भाग जिसमें ग्रसिका खुलती है
  2. फंडिस क्षेत्र
  3. जठरनिर्गमी भाग जिसका छोटी आंत में निकास होता है।

छोटी आंत Small Intestine 

  • छोटी आंत के तीन भाग होते हैं- U आकार की ग्रहणी, कुंडलित क्षुद्रांत।
  • आमाशय का ग्रहणी  में निकास जठरनिर्गम अवरोधिनी द्वारा नियंत्रित होता है। क्षुद्रांत बड़ी आंत में खुलती है, जो अधनाल, वृहदांतत्र और मलाश्य से बनी होती है। अंधनाल एक छोटा थैला है जिसमें कुछ सहजीवीय सुक्ष्मजीव रहते हैं। अंधनाल में एक अंगुली जैसा प्रवर्ध, परिशेषिका निकलता है जो एक अवशोषी अंग है। अंधनाल, बड़ी आंत में खुलती है।

बड़ी आंत Large Intestine

वृहदांत्र तीन भागों में विभाजित होता है- आरोही, अनुप्रस्थ एवं अवरोही भाग मलाशय में खुलता है। जो मलद्वार द्वारा बाहर खुलता है।

आहार नाल की दीवार


  • आहार नाल की दीवार में ग्रसिका से मलाशय तक चार स्तर होते हैं जैसे सिरोसा, मस्कुलेरिस, सबम्यूकोसा और म्यूकोसा। सिरोसा सबसे बाहरी परत होती है और एक पतली मेजोथिलियम और कुछ संयोजी ऊतको से बनी होती है। मस्कुलेरिस प्रायः आंतरिक वर्तुल पेशियों एवं बाहृा अनुदैर्ध्य पेशियों की बनी होती है। कुद भागों में एक तिर्यक पेशी स्तर होता है। सबम्यूकोसा स्तर रूधिर, लसीका व तंत्रिकाओं युक्त मुलायम संयोजी ऊतक की बनी होती है। आहर नाल की ल्यूमेन की सबसे भीतरी परत म्यूकोसा है। यह स्तर आमाशय में अनियमित वलय एवं छोटी आंत में अंगुलीनुमा प्रवर्ध बनाता है जिसे अंकुर कहते हैं।


  • अंकुर की सतर पर स्थित कोशिकाओं से असंख्य सूक्ष्म प्रवर्धन निकलते हैं जिन्हें सुक्ष्म अंकुर कहते हैं, जिससे ब्रस-बार्डर जैसा लगता है। यह रूपांतरण सतही क्षेत्र को अत्याधिक बढ़ा देता है अंकुरों  में कोशिकाओं का जाल फैला रहता है और यह बड़ी लसीका वाहिका होती हैए जिसे लैक्टीयल कहते है। म्यूकोसा की उपकला पर कलश-कोशिकाएं होती हैं, जो स्नेहन के लिए म्यूकस का स्त्राव करती हैं। म्यूकोसा आमाशय और आंत में स्थित अंकुरों के आधारों के बीच लीबरकुन-प्रगुहिका भी कुछ ग्रंथियों का निर्माण करती है। सभी चारों परतें आहार नाल के विभिन्न भागों में रूपांतरण दर्शाती हैं।

पाचन ग्रंथियाँ Digestive Gland

आहार नाल से संबंधित पाचन ग्रंथियों में लार ग्रंथियाँ, यकृत और अग्नाशय शामिल है।

लार ग्रंथियाँ-
  • लार का निर्माण तीन जोड़ी ग्रंथियों द्वारा होता है। ये हैं गाल में कर्णपूर्व निचले जबड़े में अधोजंभ/अवचिबुकीय तथा जिव्हा के नीचे स्थित अधोजिह्वा। इन ग्रंथियों से लार मुखगुहा में पहुंचती है।
लघु या सहायक लार ग्रन्थियाँ (Minor Salivary Gland)

ये होठों, कपोलों (गालों), तालु एवं जीभ पर ढँकी श्लेष्मिका में उपस्थित अनेक छोटी छोटी सीरमी एवं श्लेष्मिका ग्रन्थियाँ होती हैं जो इन सतहों को गीला करती है. 

वृहद या प्रमुख लार ग्रन्थियाँ (Major Salivary Gland)
  1. अधोजिह्वा सबलिंगुअल लार ग्रंथि
  2. अधोहनु या सबमैक्सिलरी या सबमैण्डीबुलर लार ग्रंथि और
  3. कर्णमूल या पैरोटिड लार ग्रंथि.


यकृत
  • मनुष्य के शरीर की सबसे बड़ी ग्रंथि है जिसका वयस्क में भार लगभग 1.2 से 1.5 किलोग्राम होता है। यह उदर में मध्यपट के ठीक नीचे स्थित होता है और इसकी दो पालियाँ होती हैं। यकृत पालिकाएं यकृत की संरचनात्मक और कार्यात्मक इकाइयां हैं जिनके अंदर यकृत कोशिकाएं रज्जु की तरह व्यवस्थित रहती हैं। प्रत्येक पालिका संयोजी ऊतक की एक पतली परत से ढकी होती है जिसे ग्लिसंस केपसूल कहते हैं। यकृत की कोशिकाओं से पित्त का स्त्राव होता है जो यकृत नलिका से होते हुए एक पतली पेशीय थैली-पित्ताशय में सांद्रित एवं जमा होता है। पित्ताशय की नलिका यकृतीय नलिका से मिलकर एक मूल पित्त वाहिनी बनाती है। पित्ताशयी नलिका एवं अग्नाशयी नलिका दोनों मिलकर यकृत अग्नाशयी वाहिनी द्वारा ग्रहणी में खुलती है जो ओडी अवरोधिनी से नियंत्रित होती है।

अग्नाशय
  • अग्नाशय यू आकार के ग्रहाी के बीच स्थित एक लंबी ग्रंथि है जो बहिःस्त्रावी और अंतःस्त्रावी, दोनों ही ग्रंथियों की तरह कार्य करती है। बहिःस्त्रावी भाग से क्षारीय अग्नाशयी स्त्राव निकलता है, जिसमें एंजाइम होते हैं और अंतः स्त्रावी भग से इंसुलिन और ग्लुकेगोन नामक हार्मोन का स्त्राव होता है।

भोजन का पाचन

  • पाचन की प्रक्रिया यांत्रिक एवं रासायनिक विधियों द्वारा संपन्न होती है। मुखगुहा के मुख्यतः दो प्रकार्य होते हैं, भोजन का चवर्ण और निगलने की क्रिया। लार की मदद से दांत और जिव्हा भोजन को अच्छी तरह चबाने एवं मिलाने का कार्य करते हैं। 
  • लार का श्लेषम भोजन कणों को चिपकाने एवं उन्हें बोलस में रूपांतरित करने में मदद करता है। इसके उपरांत निगलने की क्रिया के द्वारा बोलस ग्रसनी से ग्रसिका में चला जाता है। 
  • बोलस पेशीय संकुचन के क्रमाकुंचन द्वारा ग्रसिका में आगे बढ़ता है। जठर-ग्रसिका अवरोधिनी भोजन के अमाशय में प्रवेश को नियंत्रित करती है। लार (मुखगुहा) में विद्युत-अपघट्य (इलेक्ट्रोलाइट) और  एंजाइम (लार एमाइलेज या टायलिन तथा लाइसोजाइम ) होते हैं। पाचन की रासायनिक प्रक्रिया मुखगुहा में कार्बोहाइड्रेट को जल अपघटित करने वाले एंजाइम टायलिन या लार एमाइलेज की सक्रियता प्रांरभ होती है। लगभग 30 प्रतिशत स्टार्च इसी एंजाइम सक्रियता  से दिशर्करा माल्टोज में अपघटित होती है। लार में उपस्थित लाइसोजाइम जीवाणुओं के संक्रमण को रोकता है।
  • अमाशय की म्यूकोसा  में जठर ग्रंथियाँ स्थित होती हैं। जठर गं्रथियों में मुख्य रूप से तीन प्रकार की कोशिकाएं होती हैं, यथा- 1. म्यूकस का स्त्राव करने वाली श्लेषमा ग्रीवा कोशिकाएं 2. पेप्टिक या मुख्य कोशिकाएं जो प्रोएंजाइम पेप्सिनोजने का स्त्राव करती हैं। 3 भित्तीय या ऑक्सिन्टिक कोशिकाएं जो हाइड्रोक्लोरिक अम्ल और नैज कारक स्त्रावित करती हैं। (नैज कारक विटामिन बी 12 के अवशोषण के लिए  आवश्यक है)।
  • अमाशय 4-5 घंटे तक भोजन का संग्रहण करता है। आमाशय की पेशीय दीवार के संकुचन द्वारा भोजन अम्लीय जठर रस से पूरी तरह मिल जाता है से काइम कहते हैं।प्रोएंजाइम पेप्सिनोजेन हाइड्रोक्लोरिक अम्ल के संपर्क में आने से सक्रिय एंजाइम पेप्सिन में परिवर्तित हो जाता है, जो आमाशय का प्रोटीन-अपघनीय एंजाइम है। पेप्सिन प्रोटीनों को प्रोटियोजन तथा पेप्टोंस (पेप्टाइडों ) में बदल देता है। जठर रस में उपस्थित श्लेष्म एवं बाइकार्बोनेट उपकला स्तर का स्नेहन और अत्याधिक सांद्रित हाइड्रोक्लोरिक अम्ल से उसका बचाव करते हैं। हाइड्रोक्लोरिक अम्ल पेप्सिनों के लिए उचित अम्लीय माध्यम ( 1.8) तैयार करता है।
  • नवजातों के जठर रस में रेनिन नाम प्रोटीन अपघटनीय एंजाइम होता है जो दूध के प्रोटीन को पचानें में सहायक होता है। जठर ग्रंथिया थोड़ी मात्रा में लाइपेज भी स्त्रावित करती हैं।
  • छोटी आंत का पेशीय स्तर कई तरह की गतियां उत्पन्न करता हैं इन गतियों से भोजन विभिन्न स्त्रावों से अच्छी तरह मिल जाता है और पाचन की क्रिया सरल हो जाती है। यकृत अग्नाशयी नलिका द्वारा पित्त,अग्नाशयी रस और आंत्र रस छोट आंत में छोड़े जाते हैं। अग्नाशयी रस में ट्रिप्सनोजन, काइमोट्रिप्सिनोजन, प्रोकार्बोक्सीपेप्टिडेस, एमाइलेज और न्यूक्लिएज एंजाइम निष्क्रिय रूप में होते हैं। आंत्र म्यूकोसाा द्वारा स्त्रावित एंेटेरोकाइनेज द्वारा ट्रिप्सिनोजन  सक्रिय ट्रिप्सिन में बदला जाता है। जो अग्नाशयी रस के अन्य एंजाइमों को सक्रिय करता है।
  • ग्रहणी में प्रवेश करने वाले पित्त में पित्त वर्णक (विलिरूबिन एवं विलिवर्डिन), पित्त लवण, कोलेस्टेरॉल और फास्फोलिपिड होते हैं, लेकिन कोई एंजाइम नहीं होता है।  पित्त वसा को इमल्सीकरण में मदद करता है और उसे बहुत छोटे-छोटे मिसेल कणों में तोड़ता है। पित्त लाइपेज एंजाइम को भी सक्रिय करता है।
  • आंत्र श्लेष्मा उपकला में गोब्लेट गोशिकाएं होती हैं जो श्लेषमा का स्त्राव करती हैं। म्यूकोसा के ब्रस बॉर्डर कोशिकाओं और गोब्लेट कोशिकाओं के स्त्राव आपस में मिलकर आंत्र स्त्राव अथवा सक्कस एंटेरिकस बनाते हैं। इस रस में कई तरह के एंजाइम होते हैं, जैसे- ग्लाइकोसिडेज डापेप्टिडेज, एस्टरेज, न्यूक्लियासिडेज आदि। म्यूकस अग्नाशय के बाइकार्बोनेट के साथ मिलकर आंत्र म्यूकोसा की अम्ल के दुष्प्रभाव से रक्षा करता है तथा एंजाइमों की सक्रियता के लिए आवश्यक क्षारीय (7.8) तैयार करता है। इस प्रक्रिया में सब-म्यूकोसल ब्रूनर ग्रंथि भी मदद करती है।
आंत में पहुँचने वाले काइम में उपस्थित प्रोटीन, प्रोटियोजन और पेप्टोन (आंशिक अपघटित प्रोटीन) अग्नाशय रस के प्रोटीन अपघटनीय एंजाइम निम्न रूप से क्रिया करते हैं-


  • जैव वृहत अणुओं के पाचन की क्रिया आंत के ग्रहणी भाग में संपन्न होती है। इस तरह निर्मित सरल पदार्थ सरल पदार्थ छोटी आंत के अग्रक्षुद्रांत्र और क्षुदांत्र भागों में अवशोषित होते हैं। अपचित तथा अनावशोषित पदार्थ बड़ी आंत में चले जाते हैं।
  • बड़ी आंत में कोई महत्वपूर्ण पाचन क्रिया नहीं होती है।

बड़ी आंत का कार्य है-

1 कुछ जल, खनिज एवं औषध का अवशोषण।
2 श्लेष्म का स्त्राव जो अपचित उत्सर्जी पदार्थ कणों को चिपकाने और स्नेहन होने के कारण उनका बाह्ाय निकास आसान बनाता है। अपचित और अवशोषित पदार्थों को मल कहते हैं, जो अस्थायी रूप से मल त्यागने के पहले तक मलाशय में रहता है।

पाचित उत्पदों का अवशोषण

अवशोषण वह प्रक्रिया है, जिसमें पाचन से प्राप्त उत्पाद यांत्रिक म्यूकोसा से निकलकर रक्त या लसीका में प्रवेश करते हैं। यह निष्क्रिय, सक्रिय अथवा सुसाध्य परिवहन क्रियाविधियों द्वारा संपादित होता है। ग्लूकोज, एमीनो अम्ल, क्लोराइड आयन आदि की थोड़ी मात्रा सरल विसरल प्रक्रिया द्वारा रक्त में पहुंच जाती है। इन पदार्थों का रक्त में पहुंचना सांद्रण प्रवणता पर निर्भर है। जबकि फ्रक्टोज और कुछ अन्य एमीनों अम्ल का परिवहन वाहक अणुओं जैसे सोडियम आयन की मददसे पूरा होता है। इस क्रियाविधि को सुसाध्य परिवहन कहते हैं।
जल का परिवहन परासरणी प्रवणता पर निर्भर करता है। सक्रिय परिवहन सांद्रण-प्रवणता के विरूद्ध होता है जिसके लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है। विभिन्न पोषक तत्वों जैसे ऐमीनो अम्ल, ग्लुकोज (मोनोसैकेराइड) और सोडियम आयन (विद्युत अपघट्य) का रक्त में अवशोषण इसी प्रक्रिया के द्वारा होता है।
वसा अम्ल और ग्लिसराल में अविलेय होने के कारण रक्त में अवशोषित नहीं हो पाते। सर्वप्रथम वे विलेय सूक्ष्म बूंदों में समाविष्ट होकर आंत्रिक म्यूकोसा में चले जाते हैं जिनहें मिसेल कहते हैं। ये यहाँ प्रोटीन आस्तरित सूक्ष्म वसा गोलिका में पुनः संरचित होकर अंकुरों की लसीका वाहिनियों (लेक्टियल) में चले जाते हैं। ये लसीका वाहिकाएं अंततः अवशोषित पदार्थ को रक्त में मिला देती हैं।
पदार्थों का अवशोषण आहारनाल के विभिन्न भागों जैसे- मुख, आमाशय, छोटी आंत और बड़ी आंत में होता है। परंतु सबसे अधिक अवशोषण छोटी आंत में होता है।  अवशोषित पदार्थ अंत में ऊतकों में पहंुचते है जहाँ वे विभिन्न क्रियाओं के उपयोग में लाए जाते हैं। इस  प्रक्रिया को स्वांगीकरण कहते हैं।
पाचक अवशिष्ट मलाशय में कठोर होकर संबद्ध मल बन जाता है जो तांत्रिक प्रतिवर्ती क्रिया को शुरू करता है जिससे मलत्याग की इच्छा पैदा होती है। मलद्वार से मल का बहिक्षेपण एक ऐच्छिक क्रिया है जो वृहत क्रमाकुंचन गति से पूरी होती है।

पाचन तंत्र के विभिन्न भागों में अवशोषण

मुख-
  • कुछ औषधियां जो मुख और जिव्हा की निचली सतह के म्यूकोसा के संपर्क में आती हैं। वे आस्तरित करने वाली रूधिर कोशिकाओं में अवशोषित हो जाती हैं।

आमाशय-
  • जल, सरल शर्करा, एल्कोहॉल आदि का अवशोषण होता है।

छोटी आंत-
  • पोषक तत्वों के अवशोषण का प्रमुख अंग। यहां पर पाचन की क्रिया पूरी होती है और पाचन के अंतिम उत्पाद जैसे ग्लूकोस, फ्रक्टोज, वसीय अम्ल, ग्लिसराल और एमीनो अम्ल का म्यूकोसा द्वारा रक्त प्रवाह और लसीका में अवशोषण होता है।

बड़ी आंत-
  • जल, कुछ खनिजों और औषधि का अवशोषण होता है।

पाचन तंत्र के विकास और अनियमितताएं

आंत्र नलिका का शोध जीवणुओं और विषाणुओं के संक्रमण से होने वाला एक सामान्य विकार है। आंत्र का संक्रमण  परजीवियों , जैसे- फीताकृमि, गोलकृमि, सूत्रकृमि, हुकवर्म , पिनवर्म आदि से भी होता है।
पीलिया- इसमें यकृत प्रभावित होता है। पीलिया में त्वचा और आंख में पित्त वर्णकों के जमा होने से पीले रंग के दिखाई देते हैं।

वमन- यह आमाशय में संगृहीत पदार्थों की मुख से बाहर निकलने की क्रिया है। यह प्रतिवर्ती क्रिया मेडुला में स्थित वमन केन्द्र से नियंत्रित होती है। उल्टी से पहले बैचेनी की अनुभूति होती है।

प्रवाहिका- आंत्र की अपसामान्य गति की बारंबारता और मल का अत्याधिक पतला हो जाना प्रवाहिहका कहलाता है। इसमें भोजन अवशोषण की क्रिया घट जाती है।

कोष्ठबद्धता (कब्ज)- कब्ज में मलाशय में मल रूक जाता है और अंात्र की गतिशीलता अनियमित हो जाती है।

अपच- इस स्थिति में भोजन पूरी तरह नहीं पचता है ओर पेट भरा-भरा महसूस होता है। अपच एंजाइमों के स्त्राव में कमी, व्याग्रता, खाद्य विषाक्तता, अधिक भोजन, एवं मसालेदार भोजन करने के कारण होती है।

लार ग्रंथि से निकलने वाले एंजाइम-

  • टायलिन
  • माल्टेस

जठर रस से निकलने वाले एंजाइम

  • पेप्सिन
  • रेनिन
अग्नाशय रस
  • ट्रिप्सिन
  • एमाइलेज
  • लाइपेज
आंत्रीयरस
  • इरेप्सिन
  • माल्टेस
  • लैक्टिेस
  • सुक्रेस
  • लाइपेज

पाचन से संबंधित महत्वपूर्ण तथ्य

  • आमाश्य से निकलने वाले जठर रस में पेप्सिन एवं रेनिन एंजाइम होते हैं।
  • रेनिन दूध में घुली प्रोटीन केसीनोजेन को ठोस प्रोटीन कैल्शियम पैराकेसीनेट के रूप में बदल देता है।
  • छोटी आंत की दीवारों से आंत्रिक रस निकलता है जिसमें इरेप्सिन, माल्टेस, सुक्रेस, लैक्टेस एवं लाइपेज एंजाइम होते हैं।
  • फाइब्रिनोजेन नाम प्रोटीन का उत्पादन यकृत से ही होता है जो रक्त के थक्का बनाने में मदद करता है।
  • हिपैरीन नामक प्रोटीन का उत्पादन यकृत द्वारा ही होता है, जो शरीर के अदंर रक्त को जमने से रोकता है।
  • पित्तवाहिनी में अवरोध हो जाने से यकृत कोशिकाएं रूधिर से विलिरूबिन लेना बंद कर देती है। फलस्वरूप विलिरूबिन संपूर्ण शरीर में फैल जाता है। इसे ही पीलिया कहते हैं।
  • लैंगर हैंस की द्वीपिका -यह अग्नाशय का ही एक भाग होता है। इसकी खोज लैंगर हैंस नामक चिकित्साशास्त्री ने की थी।
  • इंसुलिन अग्नाशय के एक भाग लैंगर हैंस की द्वीपिका के बीटा कोशिका द्वारा स्त्रावित होता है।

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