भारतीय इतिहास कला एवं संस्कृति-01 {PCS Mains}

भारतीय इतिहास कला एवं संस्कृति


अति लघुउत्तरीय प्रश्न 

खजुराहो मंदिर 

नागर शैली में बना यह मंदिर मध्यप्रदेश के छतरपुर में स्थित है। इसका निर्माण चंदेल शासकों नें करवाया था। 

नागर शैली 

यह मंदिर निर्माण की प्रमुख शैली है। इसे उत्तरी भारत में हिमायल से विंध्य प्रदेश के भू-भाग के मध्य देखा जा सकता हैं। 

ललितादित्य 

यह मंदिर कश्मीर से संबंधित था। इसने कश्मीर से सूर्य का प्रसिद्ध ‘मार्तण्ड मंदिर ‘ का निर्माण करवाया। 

कविराजमार्ग 

यह कन्नड़ भाषा का एक ग्रन्थ है। इसकी रचना अमोघवर्ष ने की थी । 

सिरपुर का लक्ष्मण मंदिर 

यह ईंटा का बना गुप्तकालीन मंदिर है। यह छत्तीसगढ़ राज्य में अवस्थित है। 

सोड्डल 

यह गुजराती कवि था। इसने पाल वंश के शासक धर्मपाल को ‘ रत्तरापथ स्वामिन ‘ कहा है। 

अजमेर 

शाकम्भरी के चैहान के वंश के शासक अजयराज ने बारहवीं शताब्दी के प्रारंभ में अजयमेरू या अजमेर नगर की  स्थापना की । 

नक्कीयर
नक्कीयर ने संगम युग में हुए ‘ तृतीय संगम‘ की अध्यक्षता की थी यह संगम मदुरै में संपन्न हुआ था। 

रानी दिद्दा 

यह उत्पल वंश की रानी थीं। इसका विवाह क्षेमगुप्त के साथ हुआ था। 

आल्हखण्ड 

इसकी रचना जगनिक ने की थी। इसमें पृथ्वींराज तृतीय और परमार्दिदेव के बीच संघर्ष का वर्णन किया गया है। 

भोज परमार 

यह परमार वंश का प्रमुख शासक था।राजा भोज की प्रसिद्धि साहित्यिक उपलब्धियां है। 

मान्यखेट 

यह राष्ट्रकूट वंश के शासकों की राजधानी थी। यह वर्तमान में महाराष्ट्र में स्थित है। 

दायभाग 

यह जीमूतवाहन का प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इसमें यह वर्णन है कि पिता के मृत्यु के बाद ही पुत्र को उसकी सम्पति में अधिकार मिलता है। 

बालरामायण 

इसकी रचना प्रसिद्ध विद्वान राजशेखर ने की थी। इसके अलावा इन्होंने भुवनकोश, कर्पूरमंजरी जैसे अनेक ग्रन्थों की रचना की थी। 

लघुत्तरीय प्रश्न 
फिरदौसी 
यह महमूद गजवनी के दरबार का प्रसिद्ध विद्वान कवि था। फिरदौसी को‘ पूर्व का होमर‘ की उपाधि दी गयी है। इसकी सुप्रसिद्ध रचना ‘ शाहनामा‘ है। फारसी भाषा की नींव रखने वाला फिरदौसी ही था। इसने अपनी रचना शाहनामा से ही इसकी शुरूआत की। शाहनामा का हिंदी अनुवाद रजनीकांत शर्मा ने किया है। यहाँ यह उल्लिखित करना समीचीन होेगा की फिरदौसी भारत नहीं आया था, फिर भी अपनी पुस्तक शाहनामा में उसनें भारत के बारें में वर्णन किया है। 

विक्रमशिला 
यह शिक्षा का प्रसिद्ध केंद्र हुआ करता था। विक्रमशिला महाविहार की स्थापना पालवंशी राजा धर्मपाल ने की थी। धर्मपाल ने इस महाविहार में शिक्षा देने के लिए 108 आर्चाय नियुक्त किए। यहाँ के विद्यार्थियों की शिक्षा पूरी हो जाने के बाद पाल राजा उन्हें ‘पडित‘ की उपाधि से विभूषित करतें थे। शिक्षा के इस केंद्र में बौद्ध और अन्य ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा दी जाती है। इस महाविहार से शिक्षा ग्रहण कर प्रसिद्धि पाने वाले कुछ विद्वान जैसे, रत्नकीर्ति,दीपंकर अंतीश, ज्ञानश्रीमित्र आदि प्रमुख है। 

लोहार वंश 
इस वंश ने कश्मीर पर शासन किया। इस वंश की स्थापना सगा्रम राज ने की थी। लोहार वंश के राजाओं में हर्ष का नाम उल्लेखनीय हैं। हर्ष स्वंय कवि एवं कई भाषाओं का विद्वान था। कल्हण, हर्ष का आश्रित कवि था। वह शासक रूप में क्रूर और अत्याचारी था। कल्हण ने इसके अत्याचारों का वर्णन किया है। इसे ‘कश्मीर का नारों ‘ भी कहाॅ जाता है। इसके समय कश्मीर में भयंकर अकाल पड़ा, फिर भी उसने दमनपूर्ण करों का वापस नहीं लिया। 

अबूबक्र 
ये इस्लाम के चार प्रमुख खलीफाओं में एक थे। ये इस्लाम धर्म के सबसे आरंभिक अनुयायी थे। अबूबक्र ने अरब समेत अन्य पड़ोसी राज्यों को जीतने का प्रयास किया। इसी उदेद्श्य को प्राप्त करने के लिए इन्होंने सैनिक दलों का भी गठन किया। इन्होंने बेजेन्टाइन साम्राज्य के विरूद्ध सेना का नेतृत्व किया। लगभग 634 ई ़ में अबूबक्र की मृत्यु हो गयी। उन्होंने अपने आखिरी दिनों में ‘ उमर‘ को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। 


सोमनाथ पर आक्रमण 

सोमनाथ का मंदिर गुजरात में स्थित सबसे महत्वपूर्ण मंदिरों में से था महमूद गजवनी ने 1025-26 में इस पर आक्रमण किया। सोमनाथ का अभियान गजवनी का सबसे प्रसिद्ध अभियान था। इस शिव मंदिर में अत्यंत धन-सम्पदा संचित थी। गजवनी ने इस आक्रमण से अपार धनराशि इकट्ठा की और सोमनाथ मंदिर को ध्वस्त कर दिया। यह अभियान महमूद गजवनी का सोलहवां अभियान था। 

चंदेल 
वर्तमान के बुदेंल में ही इस राजवंश का उदय हुआ था। ये प्रतिहारों के सामंत थे। खजुराहों चंदेलों की राजधानी हुआ करती थी। चंदेल वंश का पहला शासक नुन्नुक था। नुन्नुक के पौत्र जयसिंह या जेजा के नाम पर ही इस प्रदेश को ‘जेजाकभुक्ति‘ कहा गया। चंदेल शासक उच्चकोटि के निर्माता थेे, उन्होंने बहुत सी झीलों, नगरों और मंदिरों का निर्माण करवाया। चंदेल शासक यशोवर्मन ने खजुराहों के प्रसिद्ध चतुर्भुज मंदिर ( विष्णु मंदिर ) का निर्माण करवाया। 


चचनामा 

इस ग्रन्थ में अरबों द्वारा सिंध विजय का वर्णन मिलता है। मोहम्मद बिन क्रासिम के आक्रमण और उसके प्रबंध आदि के सम्बन्ध में यह ग्रन्थ एक प्रामाणिक स्त्रोत माना जाता है। हालांकि इसके लेखक का नाम ज्ञात नहीं है। यह ग्रंथ का फारसी भाषा में लिखा गया है। इस ग्रंथ का फारसी अनुवाद बाद में अबूबकर कूफी ने किया। इस गं्रंथ में यह उल्लिखित है कि खलीफा वाहिद ने सिंध के सफल अभियान के तुरंन्त बाद मुहम्मद बिन क्रासिम को मृत्युदण्ड दे दिया था 

परांतक प्रथम 
इसे दक्षिण भारत में चोल सर्वोच्चता का वास्तविक संस्थापक माना जाता है। इसने लगभग 197 ई़ से 955 ई तक शासक किया। परांतक प्रथम ने मदुरा के पाडण्य् शासक को हराया और उसने ‘मदुरैकोण्ड‘ की उपाधि ली। परांतक विद्वानों का आश्रयदाता था। उसके प्रसिद्ध ‘ उत्तरमेंरूर अभिलेखों ‘ से चोलकालीन स्थानीय स्वशासक और ग्राम प्रशासन व्यवस्था की समग्र जानकारी प्राप्त होती है। 

तारीख-ए-फिरोजशाही 
इस ग्रंथ के लेखक जियाउद्दीन बरनी था। इस ग्रंथ का इतिहासिक नजरिए से बहुत महत्वपूर्ण माना गया है। विदेशी इतिहासकार डाउनसन और इलियट ने अंगे्रजी भाषा में इस ग्रंथ को अनुवादित किया है। इस ग्रंथ में गयासुद्दीन बलबन से लेकर फिरोजशाह तुगलक के शासन के छठे वर्ष तक नौ शासकों का वर्णन मिलता है। यहाँ यह बात उल्लेखनीय है कि अलाउद्दीन की बाजार व्यवस्था का सबसे प्रामाणिक विवरण इसी पुस्तक से मिलता है। 


शंकराचार्य 

इनका जन्म कलादी नामक गाँव में हुआ था, जो मालाबार तट के पास अलवार नदी के किनारे स्थित था। शंकराचार्य एकेच्श्ररवादी थे। इनका दर्शन ‘ अद्वैतवाद‘ नाम से विख्यात है। शंकराचार्य ने ज्ञानमार्ग पर विशेष बल दिया। उनका मानना था कि ज्ञान के माध्यम से ही मोक्ष की प्राप्ति की जा सकती है। शंकर के अनुसार ईच्श्रर केवल एक ही है और उसके अतिरिक्त अन्य ईच्श्रर नहीं है। उन्होंने कहां ‘ ब्रह्म सत्यं जगतमिथ्या जीवों ब्रह्मौव नापरः अर्थात देखने में यह संसार के यह प्रतिभास है सत्य नहीं है। माया के कारण ही सभी मनुष्य एक-दूसरे से अलग दिखाई देते हैं लेकिन वे एक हैं। 


सुबुक्तगीन 

यह गजवनी वंश के संस्थापक अलप्तगीन का दास था। तुर्किस्तान से एक व्यापारी इसे लेकर बुखारा आया और अलप्तगीन ने इसे खरीद लिया। सुबुक्तगीन ने अपने परिश्रम के बल पर लगातार उच्च पदों को प्राप्त करता रहा। इसके समय में गजनी और हिन्दू शाही राज्य का लंबा संघर्ष शुरू हुआ। लगभग 987 ई में सुबुक्तगीन ने पहली बार भारत की सीमा पर आक्रमण किया और हिन्दूशाही राज्य के कई नगरों और किलों को जीत लिया। 997 ई के आस-पास सुबुक्तगीन की मृत्यु हो गयी। 

जयपाल 
यह हिन्दूशाही वंश का शासक था। महमूद गजवनी का सबसे पहला आक्रमण लगभग 1000 ई में जयपाल की राजधानी वैहिन्द पर हुआ था। यहाँ से गजवनी ने धन-संपत्ति की लूट की। जयपाल इस अपमान को सहन नहीं कर सका और चिंता में जलकर मार गया। जयपाल का सामा्रज्य कांगड़ा से लेकर अफगानिस्तान तक फैला दिया था। 

दीर्घउत्तरीय प्रश्न 

प्रश्न: भारत के अरबों के आगमन के ऐतिहासिक महत्व को समझाइए? 

उत्तर: राजनीतिक दृष्टिकोण से भारत में अरबों के आगमन का उतना महत्व नहीं है, जितना अन्य पक्षों को है। भारत के अरब उस प्रकार के साम्र्राज्य का निर्माण नहीं कर पाए, जैसा कि उन्होंनें अफ्रिका, एशिया और यूरोप के विभिन्न भागों में बनाया था। यहाँ तक की सिंध में भी अरबों की शक्ति ज्यादा दिनों तक नहीं बरकरार रह पायी। लेकिन अन्य परिणामों की दृष्टि से ऐसा लगता है की अरबों ने भारतीय जनजीवन को अधिक प्रभावित किया। यही नहीं वे खुद भी इससे प्रभावित हुए। 

चिकित्सा, दर्शनशास्त्र, नक्षत्र विज्ञान और शासन प्रबंध की शिक्षा अरबों ने भारतीयों से ली। अलफजारी ने ब्रम्हगुप्त की किताबों अरबीं रूपान्तरण किया। अरबों की करबी नवीं सदी में दशमलव प्रणाली भारत में ही ग्रहण की। अगर तात्कालिक राजनीतिक दृष्टिकोण से भी देखें तों यह कहा जा सकता है कि अरबों ने एक ऐसी चुनौती प्रस्तुत की, जिसका सामना करने लिए भारत में ऐसी शक्तियों का अद्भव हआ, जो आने वाला लगभग 300 वर्षों तक व्याप्त रहीं। चालुक्यों, गुर्जर-प्रतिहारों तथा राष्ट्रकूटों की प्रतिष्ठा उनके द्वारा अरबों का विरोध करने के कारण हुयी। दीर्घकालिक लिहाज से भी अरबों ने राजनीति ढांचें में एक महत्वपूर्ण नीति का प्रचलन किया। भारत में उन्होंने धर्म राज्य की स्थापना न करके धार्मिक सहिष्णुता का प्रदर्शन किया। हालांकि इसके साथ यह बात भी सहीं है की उन्होंने जजिया कर का वसूला। यह भी अरबों के भारत आने का एक उल्लंेखनीय महत्त्व था। आर्थिक व्यापार के क्षेत्र में अरबों के भारत आगमन का महत्त्व भी देखा जा सकता है। भारतीयों ने अरब व्यापारियो की समुद्री एकाधिकार के साथ-साथ तालमेल बनाया और पश्चिमी देश अफ्रीका के देशों में अपने व्यापार को निरन्तर बनाये रखा। 

प्रश्न: पल्लवकालीन मंदिर स्थापत्य पर विचार कीजिये? 

उत्तर: पल्लव शासकों का कला के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान है। दक्षिण में वास्तुकला के क्षेत्र में पल्लव शासकों ने द्रविड़ शैली के मंदिरों के निर्माण का कार्य आरम्भ करवाया। पल्लवों द्वारा निर्मित ये मंदिर महाबलिपुरम, कांचीपुरम और तंजौर पाए जाते हैं। निर्माण की दृष्टि से पल्लवों की वास्तुकला के कुछ मुख्य प्रकारों का वर्णन निम्नवत है- 

1 महेंद्र वर्मन शैली 

2 नरसिंह शैली 

3 राजसिंह शैली 

4 अपराजित शैली 

महेंद्र वर्मन शैली 

महेंद्र वर्मन के शासनकाल में जिन मंदिरों का निर्माण हुआ, उनमें स्वम्भयुक्त बरामदा और अंदर की तरफ एक या दो कमरे होते थे। मंदिर स्थापत्य कला का यह आरंभिक चरण था। मंदिरों की सादगी इस शैली की प्रमुख विशेषता है। इसमें मंडपों का निर्माण हुआ, जो बौद्ध चैत्यों से प्रभावित प्रतीत होते है। इसके स्तंभों का आकार तथा शीर्ष, सिंह की आकृति का था। इस शैली के प्रमुख मंदिरों में भैरवकोंड का मंदिर तथा नंदवल्लि के अनंतशयन मंदिर का प्रमुख स्थान है। 


नरसिंह शैली 

नरसिंह वर्मन के शासनकाल में निर्मित मंदिरों की शैली को ‘नरसिंह शैली ‘ कहा जाता है। इसे एक अन्य ‘ मामल्ल शैली के नाम से भी जाना जाता है। इस शैली की प्रमुख विशेषता मंडप और रथ है। मंडप शैली केे मंदिरों में प्रमुख मंदिरों है- वराह मंडप, पंचपांडव पंडप, महिषमंडप। रथ मंदिरों में द्रौपदी रथ, भीम रथ, अर्जन रथ, सहदेव रथ, पिंडार रथ आदि प्रमुख हैं। रथ शैली लगभग दस मंदिर मिले हैं। 

राजसिंह शैली 
लगभग आठवीं सदी में विकासित इस शैली में पत्थर और ईंटों के मंदिरों निर्मित हुए। इस शैली के मंदिरों में शिखर तथा गोपुरम के निर्मित पर विशेष ध्यान दिया गया। कांची का कैलाश मंदिर, बैकुंठ पेरूमल मंदिर तथा महाबलिपुरम के अन्य मंदिर इस शैली के प्रमुख उदाहरण हैं। कैलाश मंदिर मे पल्लव राजा-रानीयों की उत्कीर्ण मूर्तियां जीवंत दिखाई पड़ती है। 

अपराजित शैली 
इस को नवीं में आखिरी पल्लव राजा अपराजित ने प्रारंम्भ की थीं। इस शैली में पल्लव शैली निकटता चोल शैली से बढ़ी। इस शैली में  अपराजित वर्मन ने पांडिचेरी के पास बैलूर में मंदिरों का निर्माण करवाया। इस शैली में मंदिरों के शिखर की गर्दन पहले की अपेक्षा अधिक स्थूल हो गयी तथा मंडपों के स्तभों के शीर्ष के उपर का शीर्षफलक अधिक अलंकरणयुक्त और विशिष्ट हो गया। यह शैली काष्ठ कला से पूरी तरह से मुक्त है। 

उपसंहार 

उपर्युक्त प्रकार की मंदिर शैलियां भारतीय स्थापत्य कला में प्रमुख स्थान रखती हैं। मंदिर स्थापत्य के साथ ही पल्लव शासनकाल में मूर्तिकला में मनुष्यों और देवताओं की काया का अंकन अधिक गरिमामय है तथा पशुओं का अकंन करने में यह अन्य सभी शैलीयों सें श्रेष्ठ है। 

No comments:

Post a Comment

Powered by Blogger.